Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
[७५ wwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm है, सो आत्माकी कमजोरी या बलवत्ता स्थायी वस्तु नहीं है। जिस आत्मामें इंद्रियों एवं मनको दमन करनेकी पात्रता उत्पन्न कर दी जाती है, वही व्रत संयमको धारण करनेके लिये समुद्यत हो जाता है, और जो वैसा पात्र नहीं बनाया जाता, वही कमजोरी प्रगट करता है । इसप्रकार की कमजोरी उपदेश एवं आदर्श समागमसे दूर की जा सकती है । यदि उपदेशादिके द्वारा आत्मीय कमजोरी नहीं हटाई जा सके तो फिर जघन्यश्रेणीके उपदेशकी ही क्या आवश्यकता है ? जिसप्रकार उपदेशकी शक्ति से वह अव्रतीसे व्रती बना दिया जाता है, उसप्रकार महाव्रती क्यों नहीं बनाया जा सकता ? यदि महाव्रती बननेकी पात्रता होनेपर देशवती बनाया जाय, तो उस आत्माकी कितनी भारी हानि है, इसे बुद्धिमान विचार लें। परंतु देशवतीकी पात्रता रहने पर महाव्रती बननेका उपदेश दिया जाय तो उस आत्माकी कोई हानि नहीं है, प्रत्युतः लाभ है । संभव है, वह जगत् के पदार्थो से उदास होकर एवं शरीरसे ममत्त्व छोड़कर-जैसा कि आत्मा का स्वभाव है-सहसा सर्वथा त्यागवृत्तिपर आरूढ़ होकर उसी पर्यायसे सदाके लिये संसारबंधन तोड़ दे। इसलिये सबसे पहले मुनिधर्मका ही उपदेश देना न्याय्य एवं उत्तम मार्ग है ॥
दंडनीय उपदेश
यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥१८॥ ____ अन्वयार्थ-( यः ) जो । अल्पमतिः) तुच्छत्रुद्धिवाला उपदेष्टा । यतिधर्म ) मुनिधर्मका ( अकथयन् ) उपदेश न देकर ( गृहस्थधर्म') गृहस्थधर्मका (उपदिशति ) उपदेश देता है, ( तस्य । उस उपदेशकको ( भगवत्प्रवचने ) सर्वज्ञप्रणीत सिद्धांतमें ( निगृहस्थान ) दण्डपात्र (प्रदर्शितं ) कहा गया है।
विशेषार्थ-जैनसिद्धान्तमें उस उपदेशदाताके लिये प्रायश्चित्त अथवा दंडविधान है, जो कि पहले किसीको मुनिधर्मका उपदेश न देकर गृहस्थ
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