Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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विशेषार्थ-जीवके रागाद्वषादिक भाव वास्तवमें शुद्धभाव नहीं हैं; परनिमित्तसे होनेवाले भाव है । उपचरित सद्भतव्यहारनयसे उन्हें जीवके भाव कहा जाता हैं; कारण वे जीवकी ही अशुद्ध पर्याय हैं, पुद्गलकी नहीं हैं, पुद्गलके निमित्तसे होती हैं । शुद्धदृष्टिसे जीव न रागी है, और न द्वषी है-वीतरागी है । इसीप्रकार शरीरादिकसे भी वह पृथक है, पुत्र-मित्र-स्त्री बहन-भाई-पिता-माता आदि कुटुम्बियोंसे एवं धन-धान्यादि बाह्यपदार्थो से सर्वदा जुदा ही है । ऐसी अवस्थामें, समस्त वैभाविकभाव और परपदार्थों से जुदा होनेपर भी, मोही जीव (मिथ्यादृष्टि जीव) समझता है कि रागद्वषादिक जीवसे जुदे नहीं हैं, वे जीवके ही निजी भाव हैं । वह शरीर तथा कुटुम्बियोंको भी अपना ही समझता है । यद्यपि व्यवहार दृष्टिसे ज्ञानी जीव भी रागद्वषादिकको जीवकृत भाव कहता ही है एवं शरीरादिकको अपना बतलाता ही है, परन्तु वह वास्तवमें जुदा ही समझता है । उसके श्रद्धानमें यह दृढ़ विश्वास है कि ये सब विकृतभाव जीवके निजभाव नहीं हैं-जीवके निजभाव शुद्धज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य-चारित्र आदि हैं । जीव अमूर्त अकाशके समान निर्मल है, ये सब परकृत भाव हैं । मिथ्यादृष्टि वैसा नहीं समझता, उसका यह श्रद्धान है कि 'वास्तवमें ही जीवके ये भाव हैं ।
और ग्यारहवां, बारहवां और तेरहवां, चौदहवां, ये गुणस्थान आत्माके ही निजधर्म हैं; आत्मा इन गुणस्थानस्वरूप ही है' आदि । परन्तु शुद्ध दृष्टिसे यह सब विचार अज्ञान है । कारण आत्माके न ग्यारहवां गुणस्थान है और न बारहवां, न वह अर्हत और न मुक्त, न उसके संसार है और न मोक्ष । ग्यारहवां, वारहवां और तेरहवां और चौदहवां गुणस्थान आदिक भी कर्म के उदय,उपशम,क्षय और क्षयोपशम-जनित जीवके भाव हैं । अन्यथा अर्हत तीर्थंकर कैसे कहे जाते हैं; तीर्थंकरप्रकृतिके उदयसे ही तो तीर्थकर कहे जाते हैं । इसलिये वह तीर्थंकरकर्मोदयजनित जीवकी अवस्था है । उसे जीवका निजभाव नहीं समझना चाहिए। यदि वह जीवका निजभाव होता
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