Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
रूप भी विषय पड़ती है, दूसरे छड़में घट फूट जाता है तो वर्तमान-पर्याय ठीकरा या कपाल हो जाती है । भूतपर्याय घटरूप हो जाती है; उत्तर-पर्याय छोटे छोटे कण-रूप हो जाती है । सिद्धोंके ज्ञानमें उसी प्रकार परिणमन हो जाता है । इसी प्रकार जगत्के सभी पदार्थ प्रतिक्षण बदलते रहते हैं
और वे प्रतिक्षण सिद्धोंके ज्ञानमें प्रतिभाषित होते रहते हैं; इसलिए सिद्धों में भी एक पर्यायका उत्पाद, एक का व्यय तथा सदवस्थाका ध्रौव्य होता ही रहता है । कदाचित् कहा जाय कि 'ऊपर जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य घटाया गया है, वह परापेक्षी है, स्वयं पदार्थ में कैसे होता है ?' तो इसका उत्तर यह है कि पहले तो ज्ञान गुणके परिणमन को परापेक्षी कहना युक्रियुक्त नहीं है; कारण ज्ञान का यह स्वभाव ही है कि वह पदार्थो को विषय करे, विना विषय किये उसमें शून्यता आ जायेगी। पदार्थ ज्ञानमें विषय पड़ते ही हैं, यह भी पदार्थों का स्वभाव है । यह ज्ञान-ज्ञेयका संबंध परावलम्बी नहीं कहा जा सकता; किंतु वस्तुस्वभाव है। कमरेमें लटके हुए दर्पणमें कमरे के पदार्थों का प्रतिबिंब पड़ेगा ही, वह अनिवार्य है, एवं दर्पणका स्वभाव है । दीपक पदार्थों को दिखाता है, यदि पदार्थ न रक्खे हों तो उन्हें वह नहीं दिखा सकता । जो कुछ भी भित्ति वा जमीन वहां होगी, उसे वह अपने प्रकाशसे दिखाता ही है, यह उसका स्वभाव ही है । सूर्य पदार्थों का प्रकाश करता है, यह प्रकाश करना उसका स्वभाव ही है। पदार्थों के प्रकाशसे यह नहीं कहा जा सकता कि सूर्यका प्रकाश परावलंबी है । परावलम्बी तो तब कहा जाय, जब कि वह पदार्थों के होते हुए ही या उनकी प्रेरणा से प्रकाश करे; और उनके अभावमें में अंधा बना रहे । परंतु ऐसा नहीं है । पदार्थ हो, चाहे न हो, वह तो सदा प्रकाश ही करता रहेगा । जो उसके सामने पदार्थ उपस्थिति होंगे उन्हींको वह प्रकाश करेगा। इसी प्रकार ज्ञानगुण है । ज्ञानमें पदार्थ झलकते है, यह उसका स्वभाव ही है। पदार्थों के झलकाने में ज्ञान पदार्थों की कोई अपेक्षा एवं सहायता नहीं चाहता
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