Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
ही सकता है। अभव्यत्वगणके निमित्तसे उस आत्माका परिणाम सदा ऐसा ही रहता है कि जो संक्लेशभावको दूर कर सम्यक्त्व-प्राप्तिके योग्य होता ही नहीं। कुछ पुरुषोंको ऐसी आशंका हुआ करती है कि अभव्यको सम्यक्त्व-प्राप्तिका निमित्त क्यों नहीं मिलता, एवं उसके परिणाम किसी कालमें क्यों नहीं सीझते ?' इस प्रश्नके उत्तरमें यह समझना चाहिए कि यदि कर्मकी ही कोई तीव्रता एवं विचित्रता ऐसी होती जो कि आत्माकी सम्यक्त्व-प्राप्तिमें बाधक होती तब तो उपयुक्त आशंका किसी प्रकार ठीक समझी जाती । कारण कर्मकी तीव्रता किसी निमित्तको पाकर किसी कालमें आत्मीय-पुरुषार्थसे मन्द होकर सम्यक्त्व-प्राप्तिमें बाधक नहीं रह सकती थी। परन्तु अभव्य की आत्मामें सम्यक्त्वप्राप्तिका वाधक अभव्यगुण है । वही अन्य भव्य आत्माओंसे इतनी विशेषता रखता है कि आत्मामें प्रथम गुणस्थान अथवा मिथ्यात्व - परिणामके सिवा दूसरे गुणस्थानके योग्य परिणाम ही नहीं होने देता । गुणोंका कार्य वस्तु स्वभाव है, कोई भी शक्ति उसमें कभी परिवर्तन नहीं कर सकती। जैसे जीव और पुद्गलमें वैभाविकी शक्ति रहनेसे ही उन दोनोंमें विभावरूप परिणमन होता है। यदि आत्माकी उपादानशक्ति (वैभाविकी शक्ति ) कारण न हो, तो कितने ही वाह्यनिमित्त क्यों न मिलते, आत्मा कभी अशुद्ध नहीं हो सकता था, और न पुद्गल हो अशुद्ध होता । जिसप्रकार आकाश, काल, धर्म, अधर्म, इन चारों द्रव्योंमें उपादानशक्ति (वैभाविकी शक्ति ) न होनेसे कभी कोई विभाव-परिणाम नहीं होता-इसलिए बिना उपादानशक्तिके वाह्यनिमित्त कुछ नहीं कर सकते और जिस प्रकार एक विभावशक्किने जीव और पुद्गलमें अशुद्धता उत्पन्न कर दी, उसीप्रकार अभव्यत्वशक्कि आत्माको कभी शुद्ध न होने दे तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि भिन्नभिन्न शनियोंके भिन्नभिन्न कार्य होते हैं । जिस शक्तिका जो कार्य है; वह अनिवार है । इसलिए अभव्य आत्मा कभी शुद्ध नहीं हो सकता । भव्यत्व और अभव्यत्वगुणके निमित्तसे
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