Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धयु पाय ]
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उनके कर्मोदय रहता है, तबतक उनके इच्छायें उत्पन्न होती हैं; उन्हींके आधारपर वे भले-बुरे कार्यों से रत होते हैं । कर्मोदयके नष्ट हो जानेपर आत्मा शुद्ध हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है; अर्थात् वीतराग अवस्था के प्रकट होनेपर उसे कोई कार्य करना बाकी नहीं रहता, वह निज स्वरूपमें तल्लीन होकर सदा आत्मीय सुखका अनुभव करता रहता है । आत्माकी उसी अवस्थाको “पुरुषार्थसिद्धि”-'पुरुष'-आत्माके, 'अर्थ'-प्रयोजनमोक्षकी, 'सिद्धि'-प्राप्ति कहते हैं।
जीव और कर्ममें निमित्त-नैमित्तिकभाव जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये। स्वयमेव परिणमंतेऽत्र पद्गलाः कर्मभावेन ॥ १२॥
अन्वयार्थ-( जीवकृतं ) जीवद्वारा कियेगये ( परिणामं ) रागद्वषादिक विभाव-भावका (निमित्तमात्रं ) निमित्तमात्र ( प्रपद्य ) पाकर ( पुनः अन्य पुद्गलाः ) जीवसे भिन्न जो पद्गल है वे (अत्र ) इस आत्मामें ( स्वयमेव ) अपने आप ही ( कर्मभावेन ) कर्मरूपसे (परिणमंते ) परिणमन करते हैं । अर्थात् पुद्गलद्रव्यकी ही कर्मपर्याय होती है जीवके विभाव भाव उसमें निमित्तमात्र पड़ते हैं ।
विशेषार्थ-इस श्लोकमें यह बात स्पष्ट की गई है, कि जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादिकालीन होने पर भी जीवमें पुद्गलद्रव्य कारण नहीं है,
और न पुद्गलमें जीवद्रव्य ही कारण है । दोनों ही भिन्नभिन्न स्वतंत्रद्रव्य हैं । कर्मरूप पर्याय पुद्गलद्रव्यकी है, तथा जीवके विभावभाव जीवद्रव्यके हैं । कर्मरूप पर्यायमें जीवके परिणाम केवल निमित्तमात्र हैं; और जीवके विभावभावोंमें पुद्गलद्रव्य निमित्तमात्र है। निमित्तमात्र कहनेका यही प्रयोजन है कि 'जीव और कर्मका घनिष्ट सम्बन्ध होनेसे पुद्गलके कुछ गुण जीवमें चले जाते हों अथवा जीवके कुछ गुण पुद्गलमें आजाते हों'-ऐसा कोई न समझ लेवे । कितना ही घनिष्ट सम्बन्ध क्यों न हो जाय, एकद्रव्यका दूसरे द्रव्य-रूप परिणमन कभी किसी अंशरूपमें भी नहीं हो सकता।
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