Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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होना है। वही 'उभयवंध' कहलाता है । इस उभयबंधमें आत्मा और कर्म दोनों ही उपादानकारण हैं तथा निमित्त कारण आत्माके विभाव हैं । इसप्रकार पुद्गल-वर्गणाओंमें कर्मपर्याय स्वयं होती है; जीवकृत परिणाम उनमें केवल निमित्तमात्र पड़ते हैं; अर्थात् स्वभाव अथवा विभाव,दोनों-रूप परिणमन वस्तुके स्व-स्वरूपमें ही होते हैं। परस्वरूप-रूप कोई परिणमन तीनकालमें नहीं हो सकता; हां, केवल निमित्त कारणों को पाकर एक दूसरों पर प्रभावक अवश्य होते हैं ।
कर्म और जीवमें निमित्त-नैमित्तिकभाव परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावः। भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ॥१३॥ ____ अन्वयार्थ- ( हि ) निश्चय करके ( स्वकैः ) अपने (चिदात्मकैः ) चैतन्य स्वरूप ( भावः ) भावोंसेरागादि परिणामोंसे । स्वयं अपि ) अपने आप ही ( परिणममानस्य ) परिण - मन करनेवाले (तस्थ ) उस (चितः अपि ) जीवके भी ( पौद्गलिकं कर्म ) पुद्गल के विकाररूप कर्म (निमित्तमात्रं ) निमित्तकरण मात्र ( भवति ) होते हैं। ___ विशेषार्थ-जीव रागादिक भावोंको धारण करता है । रागादि भाव जीव के ही अशुद्ध भाव हैं । चारित्रगुणकी अशुद्ध पर्याय ( विभाव पर्याय )-को ही रागादि कहते हैं; यह जीवका ही परिणाम है, परंतु पुद्गल-कर्म उसमें निमित्तमात्र पड़ा हुआ है। बिना निमित्तके जीवकी रागद्वष-रूप अशुद्ध पर्याय हो नहीं सकती, परंतु निमित्त पड़नेमात्रसे वह पुदगलकृत भाव नहीं कहा जा सकता, किंतु जीवकृत भाव ही कहलायेगा । 'पुदगलके निमित्तसे आत्मा अशुद्ध कैसे हो सकता है ? पुद्गल जड़ है, आत्मा चेतन है; चेतन पर जड़ कर्मका असर कैसे पड़ सकता है ?' इस शंकाका उत्तर इस प्रकार है-यद्यपि पुदगलकर्म जड़ है, फिर भी आलाके साथ उसका अतिधनिष्ट संबंध होनेसे आत्मा पर उसका असर पड़ता है। प्रत्यक्ष देखने में आता है कि मादकपदार्थों के सेवन से आत्माका ज्ञान मूर्छित हो जाता है-मदिरा,
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