________________
( 42 )
जीव में सक्रियता होती है अतः वह पौद्गलिक कर्म का संग्रह या स्वीकरण करता है । पौद्गलिक कर्म का संग्रहण करता है अतः उससे करण वीर्य प्रभावित होता है ।
दो आयुष्य के कर्मपुदगल जीव को एक साथ प्रभावित नहीं करते । पुद्गल जिस स्थान के उपयुक्त बने हुए होते हैं, उसी स्थान पर जीव को घसीट ले जाते हैं । उन पुद्गलों की गति उनकी रासायनिक क्रिया के अनुरूप होती है ।
द्रव्येन्द्रिय अजीव है, पुदगल है । भावेन्द्रिय जीव है । एक जन्म से दूसरे जन्म में व्युत्क्रम्यमाण जीव द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा अन-इन्द्रिय व्युत्क्रांत होता है और लब्धीन्द्रिय की अपेक्षा सइन्द्रिय ।
जैसे खाया हुआ भोजन अपने आप सात धातु के रूप में परिणत होता है, वैसे ही जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म योग्य पुद्गल अपने आप कर्म रूप में परिणत हो जाते ।
अजीव के चार प्रकार - धर्म, अधर्म, आकाश और काल गतिशील नहीं है, केवल पुद्गल गतिशील है । उसके दोनों रूप परमाणु और स्कंध परमाणु समुदय गतिशील है । इनमें नैसर्गिक व प्रायोगिक दोनों प्रकार की गति होती है । स्थूल स्कंध - प्रयोग विना गति नहीं करते हैं । सूक्ष्म स्कंध स्थूल प्रयत्न के बिना भी गति करते हैं ।
न्याय और दर्शन का विशेष अध्ययन के लिए हमने निम्नलिखित थोकड़े सीखें - कंठस्थ किये ।
(१) पचीसबोल, (२) पचीसबोल की चरचा, (३) तेरह द्वार, (४) लघुदंडक, (५) गतागत, (६) जाणपणाका पचीसबोल, (७) हितशिक्षा के पचीसबोल, (८) कर्म प्रकृति, (९) कार्यस्थिति, (१०) शील की नवबाड़, (११) आराधना, (१२) इकबीस द्वार का बासठिया, (१३) बावनबोल, (१४) तेरापंथ प्रबोध, (१५) श्रावक संबोध, (१६) खंडाजोयण, (१७) प्रतिक्रमण, (१८) भक्तामर (१९) गुणस्थान का बासठिया, (२०) १४ जीव भेद की अल्पबहुत्व, (२१) संजया, (२२) नियंठा, (२३) पानाको चरचा, (२४) सेरचा, (२५) सोलहस्वप्न, (२६) तेबीसपदबी, (२७) परीक्षा मुखन्याय, (२८) पांच भाव, (२९) ९८ बोल की अल्पबहुत्व, (३०) मोक्षमार्ग का थोकड़ा, (३१) उपसर्ग स्तोत्र, (३२) श्वासोच्छ्वास का थोकड़ा, (३३) विध्वंसन की हुंडी, (३४) लोकोंजी की हुंडी, (३५) छः आरा, (३६) जैन सिद्धांत दीपिका आदि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org