________________
प्रवचनसारः
अथ जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वं निश्चिनोति-जीवो परिणमदि जदा हे सुहेण वा सुहो असुहो । सुद्धा तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसम्भावो ॥ ६ ॥ जब परिणामस्वभावी, जीव शुभ अशुभ शुद्ध भावसे यह ।
१३
परिणमता तब होता, जीव हि शुभ अशुभ शुद्ध तथा ॥ ॥
जीवः परिणमति यदा शुभेनाशुभेन वा शुभोऽशुभः । शुद्धेन तथा शुद्धो भवति हि परिणामस्वभावः ॥ 2 11 यदायमात्मा शुभेनाशुभेन वा रागभावेन परिणमति तदा जपातापिच्छरागपरिणत
नामसंज्ञ जीव जदा सुह असुह वा सुद्ध तदा हि परिणामसभाव । धातुसंज्ञ व सत्तायां परि णम द्रव्य उस समय उष्णता रूपसे परिणमित लोहेके गोलेकी भांति उस मय है; इसलिये यह आत्मा धर्मरूप परिणमित होनेसे धर्म ही है । इस प्रकार आत्माका चारित्रपना सिद्ध हुआ । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि निश्चयतः चरित्र ही धर्म है । अब इसीके सम्बन्ध में इस गाथामें कहा गया है कि चारित्र धर्मसे परिरणत प्रात्मा ही स्वयं धर्म है ।
तथ्यप्रकाश - (१) चारित्रभावसे परिरणमा आत्मा स्वयं चारित्रमय है । (२) श्रात्मा और चारित्र अलग अलग नहीं हैं । (३) जिस कालमें जो द्रव्य जिसरूप परिणमता है उस कालमें वह द्रव्य उस मय है । ( ४ ) उदाहरण में स्पष्ट है कि उष्णता से परिणत लोहगोला उष्णतामय है ।
सिद्धान्त - ( १ ) शुद्धपर्यायके कालमें द्रव्य अशुद्धपर्यायमय है । ( २ ) शुद्धपर्यायपरिणत आत्मा शुद्धपर्यायमय है ।
। २- शुद्ध निश्चयनय [ ४६ ] |
दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय [ ४७ ] प्रयोग - मैं अपने आप केवल रह कर किस रूप हो सकता हूं ऐसे चिन्तनसे मात्र ज्ञाता द्रष्टा रूप मनन करके पर्यायध्यान छोड़कर पर्यायकी स्रोतभूमि सहजसिद्ध चिन्मात्र अपनेको अनुभवनेका पौरुष करना ||८||
जीवका शुभपना, अशुभपना श्रीर शुद्धपना निश्चित करते हैं [ परिणामस्वभावः ] परिणामस्वभाव [ जीवः ] जीव [ यदा] जब [ शुभेन वा अशुभेन] शुभ या अशुभ भावरूपसे [ परिणमति ] परिणमता है [ शुभः प्रशुभः ] तब शुभ या अशुभ ही होता है, [ शुद्ध ेन ] और जब शुद्धभावरूपसे परिणमता है [ तदा शुद्धः हि भवति ] तब शुद्ध स्वयं ही होता है ।