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प्रवचनसारः
अथ चारित्रस्वरूपं विभावयति
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो समो त्ति णिदिट्टो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥७॥ चारित्र धर्म धर्म भि, साम्य बताया व साम्य भी क्या है ।
मोह क्षोभसे विरहित, अविकृत परिणाम प्रात्माका ॥७॥ चारित्रं खलु धर्मो धर्मो यस्तत्साम्य मिति निदिष्टम् । मोक्षोभविहीनः परिणाम आत्मनो हि साम्यम् ।।७।।
स्वरूपे चरणं चारित्रं । स्वसमय प्रवृत्तिरित्यर्थः । तदेव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्मः । शुद्धचैतन्यप्रकाशनमित्यर्थः तदेव च यथावस्थितात्मगुरणत्वात्साम्यम् । साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्तमोहक्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणामः ॥७॥
नामसंज्ञ--चारित्त, खलु, धम्म, ज, त, सम, इत्ति णिद्दिव, मोहक्खोहविहीण, परिणाम, अप्प, ह, सम । धातुसंज्ञ-णि दिस प्रेक्षणे। प्रातिपदिक चारित्त, खलु, धर्म, यत्, तत्, साम्य इति निदिष्ट, मोहक्षोभविहीन, परिणाम, आत्मन्, खलु, साम्य । मूलधातु-निर दिश देशने । पदविवरण---चारितं चारित्रप्र० ए० । खलु खलु-अव्यय । धम्मो धर्म:-प्र० एक० । जो सो यः सः समो सम:-प्र० एक० । इत्ति इति-- अव्यय । णिद्दिट्ठो निर्दिष्ट:--प्र० एक० कृदन्त क्रिया। मोहनखोहविहीणो मोहक्षोभविहीनः परिणामो परिणामः समो सम:-प्र० ए० । अप्पणो आत्मनः-पष्ठी एक० । निरुक्तिसमास-चरण चारित्रं,मोहक्षोभश्च मोहक्षोभो ताभ्यां विहीनः मोहक्षोभविहीनः ।। ७ ।।।
तात्पर्य-सहजात्मस्वरूप में रमना सम्यक्चारित्र है, यही धर्म है।
टीकार्थ--स्वरूप में चरण करना (रमना) चारित्र है । स्वसमयमें प्रवृत्ति करना (अपने स्वभावमें प्रवृत्ति करना) ऐसा इसका अर्थ है। वही वस्तुका स्वभाव होनेसे धर्म है। शुद्ध चैतन्यका प्रकाश करना ऐसा इसका अर्थ है । वही यथावस्थित आत्मगुरण होनेसे साम्य है । और साम्य दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीयके उदय से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह और क्षोभके अभावके कारण जीवका अत्यन्त निविकार परिणाम है।
प्रसंगविवरण---पूर्व गाथामें बताया था कि निर्वाणकी प्राप्ति चारित्रसे होती है। अब उसी चारित्रका स्वरूप इस गाथामें बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश --- (१) चारित्रके फलको बताकर उत्थानिकामें कहा है कि अब चारित्रके स्वरूपको विशेष रूपसे हुवाते हैं इसमें अपना भाव व उद्यम बताया गया है । (२) अपने प्रात्मस्वरूपमें रमण चारित्र है । (३) अपने प्रात्मस्वरूप में रमण स्वसमयवृत्ति है। (४) अपने
आत्मस्वरूपमें रमण धर्मधारण है । (५) अपने आत्मस्वरूपमें रमणके मायने शुद्ध चैतन्यका प्रकाशन है । (६) अपने आत्मस्वरूपमें रमण साम्यभाव है । (७) अपने प्रात्मस्वरूपमें रमण
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