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सहजानन्दशास्त्रमालायां जराजविभवक्लेशरूपो बन्धः । अतो मुमुक्षुरगेष्टफलत्वाद्वीतरागचारित्रमुपादेयमनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् ॥६॥ सुरमनुजराजविभवैः-तृतीया बहु । जीवस्स जीवस्य--१० ए० । चरित्ता दो चारित्रात्-पंचमी ए० । दसणणाणप्पहाणादो दर्शनज्ञानप्रधानात्-पं० ए० । निरुक्ति-नि:शेपेण वानं निर्वाण, दीव्यति देवः, सुरति सुरः, मनोः जातः मनुजः, विशेषेण भवनं विभवः, जीवति जीवः, चरणं चारित्रं । समास-दिवाश्च असुराश्च मनुजाश्च देवासुरमनुजा) तेषां राजानः देवा०, तेषां विभवाः तैः, दर्शनशाने प्रधाने यत्र तत् तस्मात् ।।६।। प्राणीका उद्धार कर निर्विकार शुद्ध चतन्य में धारण करने वाला चारित्र है, अतः चारित्र धर्म है । (३) मोह और क्षोभका शामक होनेसे चारित्र शम है । (४) राग द्वेष परिणतिसे निवृत्ति करने वाला होनेसे चारित्र साम्यभाव है । (५) शुद्धात्मश्रद्धानरूप सम्यक्त्वका विनाशक दर्शनमोह मोह कहलाता है। (६) निविकार निश्चल जानवृत्तिरूप चारित्रका विनाशक चारित्रमोह क्षोभ कहलाता है । (७) जिसके सम्यग्दर्शन ज्ञान हुया है उसीके चारित्र होता है । (८) जिस साधुके कषायकरण जीवित है उसका चारित्र सरागचारित्र है । (६) जिस साधुके रागका अभाव हो गया उसका चारित्र वीतरागचारित्र है । (१०) वीतरागचारित्रसे मोक्ष होता है । (११) सरागचारित्रसे देवेन्द्र असुरेन्द्र नरेन्द्रके वैभवक्लेशरूप बंध होता है। (१२) सरागचारित्रसे होने वाले बन्धका कारण रागांश है, चारित्रांश बन्धका कारण नहीं । (१३) सरागचारित्रसे देवेन्द्रादि वैभव प्राप्त होते, फिर भी वह ज्ञानी निर्ग्रन्थ पुरुष हो जाता है । (१४) सम्यक्त्वमें मरण करने वाला असुरोंमें व असुरेन्द्रों में उत्पन्न नहीं होता, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव निदान बंध से सम्यक्त्वकी विराधना करके असुरोंमें उत्पन्न होता है । (१५) निश्चयसे वीत. रागचारित्र उपादेय है व सरागचारित्र हेय है ।
सिद्धान्त-(१) वीतरागचारित्रसे मोक्ष होता है ।
दृष्टि-- १- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकन य, शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय [२४, २४ब] ।
प्रयोग-सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्न होकर ज्ञाता द्रष्टा रहनेका पौरुष करना और प्रारंभमें वहाँ पाने वाले सरागचारित्रके विकल्पको उपेक्षा कर वीतरागचारित्रमय होनेका ध्यान बनाना ॥६॥
अब चारित्रका स्वरूप व्यक्त करते हैं--- [चारित्रं] चारित्र [खलु] वास्तवमें [धर्मः] धर्म है । [यः धर्मः] जो धर्म है [तत् साम्यम्] वह साम्य है, [इति निर्दिष्टम्] ऐसा कहा गया है। [साम्यं हि] साम्य [मोहक्षोभविहीनः] मोहक्षोभरहित [प्रात्मनः परिणामः] प्रा. त्माका परिणाम है।
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