Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 22
________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां अथैवमर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधूनां प्रणतिवन्दनाभिधानप्रवृत्तद्वैतद्वारेण भाव्यभावकभावविजम्भितातिनिर्भरेतरेतरसंवलन बलविलीननिखिलस्वपरविभागतया प्रवृत्ताद्वैतं नमस्कारं कृत्वा ।४। तेषामेवाहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधूनां विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधानत्वेन सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावात्मतत्त्वश्रद्धानावबोधलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानसंपादकमाश्रमं समासाद्य सम्यग्दर्शनज्ञानसंपन्नो भूत्वा, जीवत्कषायकणतया पुण्यबन्धसंप्राप्तिहेतुभूतं सरागचारित्रं क्रमापतितमपि दूरमुत्क्रम्य सकलकषायकलिकलङ्कविविक्ततया निर्वाणसंप्राप्तिहेतुभूतं वीतरागचारित्राख्यं साम्यमुपसंपद्ये । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैक्यात्मकैकाग्र्यं गतोऽस्मीति प्रतिज्ञार्थः । एवं तावदयं साक्षान्मोक्षमार्ग संप्रतिपन्नः ॥५॥ य च, इदि इति, तह तथा, जत्तो यत:-अव्यय । वट्ट ते वर्तमानान्, अरहते अर्हतः-द्वि० एक० । माणुसे मानुषे, खेत्ते क्षेत्रे-सप्तमी ए० । किच्चा कृत्वा-असमाप्तिकी क्रिया । अरहंताणं अर्हद्भ्यः, सिद्धाणां सिद्धेभ्यः, गणहराणं गणधरेभ्यः, अज्झावयग्गाणं अध्यापकवर्गेभ्यः, साहूणं साधुभ्यः, सव्वेसि सर्वेभ्य:-चतुर्थो बहु० । णमो नमः-अव्यय । तेसिं तेषां-षष्ठी बहु० । विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रम-द्वि० एक० । समासेज्ज समासाद्य:-असमाप्तिकी क्रिया । उपसंपयामि उपसंपद्य-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक० । सम्म साम्यं-द्वि० एक० । णिव्वाणसंपत्ती निर्वाणसंप्राप्ति:-प्रथमा एक० । निरुक्तिसमासक्रियते इति कर्म, तीर्थ करोतीति तीर्थंकरः तान, सर्वच सिद्धाश्चेति सर्वसिद्धाः तैः सहिताः ससर्वसिद्धाः तान्, विशुद्धः सद्भावः येषां ते विशुद्धसद्भावास्तान्, ज्ञानं च दर्शनं च चारित्रं च तपश्च वीयं च ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याणि तेषां आचारः येषां ते तान्, एकं एक प्रति इति प्रत्येकं ।। १-५ ॥ और इसी कारण कृतज्ञाताप्रकाशनमें प्रथम हो इनको प्रणाम किया गया है । (५) वर्द्धमान देवको प्रणाम करनेके अनंतर ही तुरंत सर्व परमेष्ठियोंको प्रणाम किया गया है । (६) सभी पाराध्य समान हैं, अतः सबको एक साथ ही प्रणाम करनेकी उमंग हुई है, फिर भी प्रत्येककी वंदना साथ है । (७) प्रत्येक आराध्यको वन्दनाके भाव बिना समुदायको वंदनाका प्रसंग नहीं आ पाता। (८) यद्यपि इस काल में यहाँ तीर्थंकर नहीं है तो भी पाराधक अत्यन्त भक्तिके बलसे ढाई द्वीपमें विदेहक्षेत्रमें प्रवर्तमान तीर्थनायकोंके साथ वर्तमानकाल जोड़ता हुअा समक्षो. कृत पाराध्योंको प्रणाम करता है। (६) पाराध्य परमेष्ठियोंको प्रणाम वन्दनाके शब्दों द्वारा द्वैतनमस्कार होता है । (१०) आराध्यके स्वरूपकी पाराधनाके बलसे स्वपरविभाग विलीन हो जानेपर स्वरूपाराधनमें अद्वैतनमस्कार होता है । यहाँ प्रात्मा ही आराध्य है व आत्मा ही पाराधक है। (११) सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्न होकर आगे बढ़नेका पौरुष होनेपर भी कषायकण की जीवितताके समय विशिष्ट पुण्यबन्धकी प्राप्तिका कारणभूत सरागचारित्र आ पड़ता ही है तो भी ज्ञानो उसका उल्लंघन कर निर्वाणप्राप्तिका कारणभूत वीतरागचारित्रनामक समताभावको प्राप्त करता है । (१२) ग्रंथकर्ताने इसी साम्यभावकी भावना की है।

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