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सहजानन्दशास्त्रमालायां
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उन उन सबको युगपत्, अथवा प्रत्येक एकशः प्ररणमू। मानुष क्षेत्रमें सुस्थित, बन्दू अरहंत देवोंको ॥३॥ अरहंतों सिद्धोंको, प्रणमन करके तथा गणेशोंको । उपाध्याय वर्गोको, तथा सकल साधुवृन्दोंको ॥४॥ उनके विशुद्ध दर्शन, ज्ञान प्रधानी चिदाश्रम हि पाकर ।
साम्य श्रामण्य पाऊं, जिससे शिवलब्धि होती है ।। ५ ।। एष सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितं धौतघातिकर्ममलम् । प्रणमामि वर्धमानं तीथ धर्मस्य कर्तारम् ।। १ ।। शेषान् पुनस्तीर्थंकरान् ससर्वसिद्धान् विशुद्धसद्भावान् । श्रमणांश्च ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ।। २ ।। तांस्तान् सर्वान् समकं समकं प्रत्येकमेव प्रत्येकम् । वन्दे च वर्तमानानहतो मानुषे क्षेत्रे ॥ ३ ।। कृत्वाहद्भ्यः सिद्धेश्यस्तथा नमो गणधरेभ्यः । अध्यापकवर्गेभ्यः साधुभ्यश्चेति सर्वेभ्यः ।। ४ ।। तेषां विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं समासाद्य उपसंपद्ये साम्यं यतो निर्वाणसंप्राप्तिः ।। ५ ।।
एष स्वसंवेदनप्रत्यक्षदर्शनज्ञानसामान्यात्माहं सुरासुरमनुष्येन्द्रवंदितत्वात्रिलोकैकगुरु, धौतघातिकर्ममलत्वाञ्जगदनुग्रहसमर्थानन्तशक्तिपारमैश्वर्यं, योगिनां तीर्थत्वात्तारणसमर्थ, धर्मकर्तृत्वाच्छुद्धस्वरूपवृत्तिविधातार, प्रवर्तमानतीर्थनायकत्वेन प्रथमत एव परमभट्टारकमहादेवा. समगं, समगं, पत्तेग, एव, पत्तेग, य, वट्टत, अरहंत, माणुस, खेत्त, अरहंत, सिद्ध, तह, णमो, गणहर, अज्झावयवग्ग, साहु, च, इदि, सव्व, त, विसुद्धदंसणणाणपहाणासम, सम्म, जत्तो, णिव्वाणसंपत्ति । धातुप्रणाम करता हूं । तत्पश्चात् इन्हीं पंचपरमेष्ठियोंको, उस उस व्यक्तिमें (पर्याय में) व्याप्त होने वाले सभीको, वर्तमान में इस क्षेत्रमें उत्पन्न तीर्थंकरोंका अभाव होनेसे और महाविदेहक्षेत्रमें उनका सद्भाव होनेसे मनुष्यक्षेत्रमें प्रवर्तमान तीर्थनायकोंके साथ वर्तमानकालको गोचर करके, युगपद् युगपद् अर्थात् समुदायरूपसे प्रौर प्रत्येक प्रत्येकको अर्थात् व्यक्तिगत रूपसे मोक्षलक्ष्मीके स्वयंवर समान परम निर्ग्रन्थताकी दीक्षाके उत्सवके उचित मंगलाचरणभूत कृतिकर्मशास्त्रोपदिष्ट वन्दनोच्चारके द्वारा पाराधता हूं। अब इस प्रकार अरहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुनोंको प्रणाम और वन्दनोच्चारसे प्रवर्तमान द्वैतके द्वारा, भाव्यभावक भावसे उत्पन्न अत्यन्त गाढ़ इतरेतर मिलनके कारण समस्त स्वपरका विभाग विलीन हो जानेसे प्रवृत्त है अद्वैत जिसमें ऐसा नमस्कार करके, उन्हीं अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधूप्रोंके विशद्धज्ञानदर्शनप्रधान होनेसे सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाव वाले प्रात्मतत्त्वका श्रद्धान ज्ञान लक्षण वाले सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके सम्पादक पाश्रमको प्राप्त करके सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्न होकर, कषायकरण विद्यमान होनेसे जीवको पुण्यबन्धको प्राप्तिके कारणभूत क्रमापतित भी सराग चारित्रको दूर उल्लंघन करके, समस्त कषायक्लेशरूपी कलंकसे भिन्न होनेसे निर्वाणप्राप्तिके कारणभूत वीतरागचारित्र नामक साम्यको प्राप्त करता हूं। सम्यग्दर्शन, सम्य
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