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प्रवचनसार:
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अथायमेव बीतरागसरागचारित्रयोरिष्टानिष्टफलत्वेनोपादेयहेयत्वं विवेचयति--
संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं । जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो ॥६॥ नृसुरासुरेन्द्र वैभव-पूर्वक निर्वाण प्राप्त होता है ।
दर्शनज्ञानप्रधानी चारित सेये हि जीवोंको ॥ ६ ॥ संपद्यते निर्वाणं देवासुरमनुजराजविभवः । जीवस्य चरित्राद्दर्शनज्ञानप्रधानात् ॥ ६ ॥
___ संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्षः । तत एव च सरागाद्देवासुरमनुनामसंज्ञ---णिव्वाण, देवासुरमणुयरायविहव', जीव, चरित्त, दंसणणाणप्पहाण । धातुसंज्ञ - सं पज्ज गतौ प्रथमगणी, निर वा वायुसंचरणयोः । प्रातिपदिक-निर्वाण, देवासुरमनुज राजविभव, जीव, चारित्र, दर्शनज्ञानप्रधान । मूलधातु-सं पद गतौ दिवादि, निस् वा गतिगन्धनयोः अदादि । पदविवरण-संपज्जदि संपद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । णिव्वाणं निर्वाण-प्र० ए० । देवासुरमयरायविहवेहिं देवा
सिद्धान्त--- (१) अद्वैतनमस्कारमें ध्याता ध्येयका विकल्प न रहकर मात्र अात्मस्वरूप का आदर है।
दृष्टि- १- अविकल्पनय, ज्ञानज्ञेयाद्वैतनय (१६२, १७६) ।
प्रयोग--समतापुञ्ज अाराध्य परमेष्ठियोंकी द्वैत आराधनासे आगे बढ़कर स्वरूपरुचिमात्र अद्वैत अाराधनामें अविकार स्वरूपका अनुभव करना ॥१-५॥
___अब ये ही (कुन्दकुन्दाचार्यदेव) वीतरागचारित्रकी इष्टफल रूपसे और सरागचारित्र की अनिष्टफल रूपसे उपादेयता व हेयताका विवेचन करते हैं- [जीवस्य] जीवको [दर्शनज्ञानप्रधानात्] दर्शनज्ञान प्रधान [चारित्रात् ] चारित्रसे [देवासुरमनुजराजविभवैः] देवेन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्रके वैभवोंके साथ [निर्वाणं] निर्वाण [संपद्यते प्राप्त होता है ।
__ तात्पर्य---दर्शनज्ञानप्रधान चारित्रसे अनेक वैभवोंसे गुजरकर निर्वाणकी प्राप्ति होती
टीकार्थ-दर्शनज्ञानप्रधान वीतराग चारित्रसे, मोक्ष प्राप्त होता है, और दर्शनज्ञानप्रधान सरागचारित्रसे देवेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र के वैभवक्लेशरूप बंधकी प्राप्ति होती है । इसलिये मुमुक्षुत्रोंको इष्ट फल वाला होनेसे वीतरागचारित्र उपादेय है, और अनिष्ट फल वाला होनेसे सरागचारित्र हेय है।
प्रसंगविवरण-पूर्व गाथामें बताया था कि मैं समताको प्राप्त होता हूं , जिससे कि निर्वाणकी प्राप्ति होती है । अब इस गाथामें निर्वाणप्राप्तिका साधन बताया गया है ।
तश्यप्रकाश-(१) शुद्धचित्स्वरूपमें रमना चारित्र है । (२) भावसंसारमें डूबे हुए