________________
हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
कहिये । ऐसें भी ते आप्तके तीनूं विशेषण भये ऐसा जाननां । ऐसैं मंगलकै अर्थि नमस्कार कीया। तहां मंगल दोय प्रकार हैं-एक मुख्यमंगल, दूजा अमुख्य मंगल । तहां मुख्यमंगल तौ जिनेन्द्रके गुणनिका स्तोत्र करना है अरु अमुख्यमंगल लौकिक है तहां दधि अक्षत आदि हैं । सो इहां मुख्यमंगल जिनेंद्रके गुणनिका स्तोत्र है सो ही किया है। आगैं इस ग्रंथके कर्ताकू टीकाकार नमस्कार करै हैं;
अकलंकवचोंऽभोधेरुद्दभ्रे येन धीमता।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥२॥ याका अर्थ-तिस माणिक्यनंदिनाम आचार्यकै अर्थि हमारा नमस्कार होहु--जा बुद्धिवाननैं अकलंक कहिये कर्मकलंककरि रहित श्रीवर्द्धमानस्वामी अथवा अकलंकनामा आचार्य तिनिके वचन अथवा अकलंक कहिये निर्दोष सर्वज्ञकी दिव्यध्वनि सोही भया समुद्र तातें न्यायविद्यारूप जो अमृत सो मथिकरि काढ्या-प्रगट कीया ऐसे हैं । इहां लौकिक कथा है जो नारायण समुद्र मथिकरि चौदह रत्न काढे तिनिमैं अमृतभी है सो प्रसिद्ध अपेक्षा अलंकाररूप वचन है ।
आगें इस ग्रंथकी बड़ी टीका 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' है ताका कर्ता प्रभाचन्द्र आचार्य है ताकी महिमा दोय श्लोकमैं करै है;
प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिकाप्रंसरे सति । मादृशाः क्व नु गण्यंते ज्योतिरिंगणसन्निभाः ॥३॥ तथापि तद्वचोऽपूर्वरचनारुचिरं सताम् ।
घेतोहरं भृतं यद्वन्नद्या नवघटे जलम् ॥४॥ इनिका अर्थ-प्रभाचन्द्रनाम आचार्यके वचनरूप उदार चांदणीका फैलना होते हम सारिखे आग्यानामा कीटजीवतुल्य कौन गणनांमैं गणिये तोऊ हम इस ग्रंथकी टीका करै हैं सो जैसैं नदीका जल