Book Title: Pramey Ratnamala Vachanika
Author(s): Jaychand Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 231
________________ २०४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित याका अर्थ — जैसे शब्द है सो श्रावण है श्रवण इन्द्रियका गोचर हैा श्रावण कहिये है जातैं याकै शब्दपणां है । इहां शब्दपणां हेतु है सो श्रावणपणां साध्य है सो तौ पहले ही सिद्ध है हेतु तौ किछु साध्या नांही तातैं अकिंचित्कर है ॥ ३६ ॥ आगैं याकैं अकिंचित्करपणां कैसैं है सो कहिये है; किंचिदकरणात् || ३७ ॥ याका अर्थ — इस हेतुनैं किछू किया नांही तातैं अकिंचित्कर है सो हेत्वाभास है || ३७॥ आगैं दूसरा भेद प्रत्यक्षादिवाधित जाका साध्य होय ताकूं पहला भेदका दृष्टान्तरूप करने का द्वारही करि उदाहरणरूप करें हैं;यथाऽनुष्णोऽग्निर्द्रव्यत्वादित्यादौ किंचित्कर्तुमशक्यत्वात् ॥ ३८ ॥ याका अर्थ — जैसैं अग्नि है सो अनुष्ण है जातैं याकै द्रव्यपणां है । इहां अग्नि उष्ण है, अर अनुष्ण कह्या सो साध्य स्पर्शनप्रत्यक्षकरि बाधित है तैं इस द्रव्यपणां हेतुकै अकिंचित्करपणां है जातें इहां किछू किया नांही, जैसैं इहां किछू किया नांही तैसें ही पूर्व सूत्रमैं जाननां ॥ ३८ ॥ 11 बहु यह अकिंचित्करपणां दोष हेतुका लक्षण के विचारका अवसर विषै हीं अर वादकाल विषै नांही है ऐसें प्रकट करते संते कहैं हैं ;लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ॥ ३९ ॥ याका अर्थ—यहु अकिंचित्करपणां हेतुका दोष है सो लक्षण कहिये शास्त्रविषै ही है, बाद विषै व्युत्पन्नका प्रयोग है सो पक्षके

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