Book Title: Pramey Ratnamala Vachanika
Author(s): Jaychand Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोऽनेकान्ताय प्रमेयरत्नमाला। वचनिका भाषाकर्तापं. जयचंदजी छाबडा। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री अन्तकीर्ति दिगम्बर जैनग्रंथमालाका तृतीय पुष्प । श्रीवीतरागाय नमः । प्रमेयरत्नमालान अर्थात् श्री माणिक्यनन्दि प्रणीत परीक्षामुख सूत्रकी श्रीमदनन्तवीर्य सूरिकृत संस्कृत टीकाकी जयपुरनिवासी पंडितप्रवर जयचन्द्रजीकृत भाषा वचनिका । प्रकाशक मुनि अनंतकीर्ति ग्रन्थमाला समिति । प्रथमावृत्ति ] 13-6-0 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकराजमल वडजात्या मंत्री, मुनि अनंत कीर्तिग्रंथमाला कालबादेवी रोड बम्बई। मंगेश नारायण कुळकर्णी, कर्नाटक प्रेस, ४३४, ठाकुरद्वार, बम्बई। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागायनमः नियमावली। मुनि श्री अनन्तकीर्ति ग्रंथमाला । १ यह ग्रन्थमाला श्री अनन्तकीर्ति मुनिकी स्मृतिमें स्थापित हई हैं जो दक्षिण कनड़ाके निवासी दिगम्बर साधु चारित्रके तत्व ज्ञानपूर्वक पालनेवाले थे और जिनका देहत्याग श्री गो० दि० जैन सिद्धान्त विद्यालय मुरैना (गवालियर) हुआ था। * २ इस प्रन्थमाला द्वारा दिगम्बर जैन संस्कृत व प्राकृत ग्रन्थ भाषाटीका सहित तथा भाषाके ग्रन्थ प्रबंधकारिणी कमेटीकी सम्मतिसे प्रकाशित होंगे। ३ इस ग्रन्थमालामें जितने ग्रन्थ प्रकाशित होंगे उनका मूल्य लागत मात्र रक्खा जायगा लागत में ग्रन्थ सम्पादन कराई संशोधन कराई छपाई जिल्द बधाई आदिके सिवाय आफिस खर्च भाड़ा और कमीशन भी सामिल समझा जायगा। ४ जो कोई इस ग्रन्थमालामें रु. १००) व अधिक एकदम प्रदान करेंगे उनको ग्रन्थमालाके सब ग्रन्थ विनान्योछावरके भेट किये जायगे यदि कोई धर्मात्मा किसी ग्रन्थकी तैयारी कराई में जो खर्च परे वह सब देवेंगे तो ग्रन्थके साथ उनका जीवन चरित्र तथा फोटो भी उनकी इच्छानुसार प्रकाशित किया जायगा यदि कमती सहायता देगे तो उनका नाम अवश्य सहायकोंमें प्रगट किया जायगा इस ग्रव्यमाला द्वारा प्रकाशित सब ग्रन्थ भारतके प्रान्तीय सर. कारी पुस्तकालयोंमें व म्यूजियमोंकी लायबेरियोंमें व प्रसिद्ध २ विद्वानों व त्यागियोंको भेटस्वरूप भेजे जायंगे जिन विद्वानोंकी संख्या २५ से अधिक न होगी। ५ परदेशकी भी प्रसिद्ध लायब्रेरियों व विद्वानोंको भी महत्वपूर्ण ग्रन्थ मंत्री भेट स्वरूपमें भेज सकेंगे जिनकी संख्या २५ से अधिक न होगी। ६ इस ग्रन्थमालाका सर्व कार्य एक प्रबंधकारिणी सभा करेगी जिसके सभासद ११ व कोरम ५ का रहेगा इसमें एक सभापति एक कोषाध्यक्ष एक मंत्री तथा एक उपमंत्री रहेंगे। ७ इस कमेटीके प्रस्ताव मंत्री यथा संभव प्रत्यक्ष व परोक्ष रूपसे स्वीकृत करावेंगे। ८ इस ग्रन्थमालाके वार्षिक खर्चका बजट बन जायगा उससे अधिक केवल १००) मंत्री सभापतिकी सम्मतिसे खर्च कर सकेंगे। __ ९ इस ग्रन्थमालाका वर्ष वीर सम्वत्से प्रारम्भ होगा तथा दिवाली तककी रिपोर्ट व हिसाब आडीटरका जचा हुआ मुद्रित कराके प्रति वर्ष प्रगट किया जायगा। १. इस नियमावलीमें नियम नं. १-२-३ के सिवाय शेषके परिवर्तनादि पर विचार करते समय कमसे कम ९ महाशयोंकी उपस्थिति आवश्यक होगी। Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दि० जैन मुनि अनंतकीर्तिग्रंथमालाके मुख्यसहायक महाशय । २२०२) सेठ गुरुमुखरायजी सुखानंदजी बम्बई. ११०१) मुनिमहाराजके आहार दान समय. ११०१) यात्रार्थ आये हुए दिल्ली के संधके समय. ११०१) से. हुकमचंदजी जगाधरमलजी-दिल्ली. ११०१) से. उम्मेदसिंहजी मुसद्दीलालजी-अमृतसर. ५०१) श्री जैनग्रंथरत्नाकरकार्यालय-बम्बई. ४११) श्री धर्मपत्नी लाला रायबहादुर हजारीलालजी-दानापुर. २५१) से. नाथारंगजी वाले-बम्बई. २०१) से. चुन्नीलाल हेमचंदजी-बम्बई. १०१) साहु सुमतिप्रसादजी-नजीवावाद. १०१) लाला जुगलकिशोरजी-हिसार. १.१) श्री जैनधर्मवर्धिनी सभा बम्बई। १०१) राजमलजी बड़जात्या बम्बई । १०१) से. बैजनाथजी सरावगी हाथरस । १०१) से. कस्तूरचंद वेचरदासजी बम्बई । १०१) लाला जैनेन्द्रकिशोरजी। ठि:-उत्तमचंद भरोसालाल-आगरा । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका। ग्रंथपरिचय । श्रीमत्सकलतार्किकचक्रचूडामणिमाणिकनंदिजी आचार्यका परीक्षामुख ग्रंथ सूत्र रूपसे समुपलब्ध है। जो कि यह सूत्र ग्रंथ यथा नाम तथा गुणकी कहावतको चरि. तार्थ कर रहा है क्योंकि परीक्ष्य पदार्थों की परीक्षाका यह मुख्य कारण है । अथवा जिनके द्वारा हेयोपादेयारूप समस्त पदार्थोंकी परीक्षा होती है उन प्रमाण लक्षण फल वगैरःका स्वरूप दिखानेके लिये यह ग्रंथ दर्पणके समान है । इसी विषयको स्पष्ट करनेके लिये खुद ग्रंथकर्ता ही इस ग्रंथकी प्रशस्तिमें इस प्रकार लिखते हैं। परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः संविदे मादृशोबालः परीक्षादक्षवद्व्यधाम् ॥१॥ तथा यह ग्रंथ समस्त न्याय वचनका सारभुत अमृत हैं क्योंकि इसकी शानी ( मुकाविले) का सारभूत न्यायका सूत्र ग्रंथ ऐसा कोई भी अभी तक देखनेमें नहीं आया है । वास्तविक दृष्टिसे विचार किया जाय तो यह अन्य न्याय शास्त्रोंकी पूंजी है। क्योंकि इसकी उत्पत्ति श्री १००८ भगवान् जिनेन्द्रदेव तथा उनकी शिष्य परंपराके प्रशिष्य तार्किक सिद्धान्त प्रधान श्रीमत् अकलंकदेवजीके वचन रूप समद्रसे सुधा सदृश हुई है। इस विषयमें श्री अनंतवीर्यजी महाराज इस प्रकार लिखते हैं अकलंकवचोम्भोधेरुदभ्रे येन धीमता । न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दने ॥२॥ इस ग्रंथके ऊपर श्रीप्रभाचंद्राचार्यजीकी बड़ी प्रमेय कमलमार्तड, और छोटी श्रीअनंतवीर्यजीकृत प्रमेयरत्नमाला टीका है । प्रभाचंद्राचार्यजी तथा उनके ग्रंथका अनंतवीर्यजीने बड़ेही महत्वसूचक शब्दोंसे स्तुतिरूप गान किया है और इस प्रमेय रत्नमालाकी रचना प्रमेय कमल मातडके आधारपर सारवचनों में हुई है इस विषयको दिखाते हुए ग्रंथकारने अपनेमें कृतज्ञता तथा लघुताके साथ अपने ग्रंथमें प्रमाणीकता सूचित की है जैसे कि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभेन्दु वचनोदारचंद्रिकाप्रसरे सति मादृशा क्व नु गण्यन्ते ज्योतिरिंगणसन्निभा ॥१॥ तथापि तद् वचो पूर्वरचना रुचिरं सताम्। चेतोहरं भृतं यद्वन्नद्या नवघटे जलम् ॥२॥ इस कथनसे यह स्पष्ट सिद्ध है कि इस ग्रंथके पठन तथा मननरूप अवलंबनसे प्रमेय कमलमार्तड, तथा प्रमेय कुमुदचंद्रोदय सरीखे शास्त्रसमुद्र में प्रवेश कर समस्त न्याय विषयमें पारंगत हो सकता है । अर्थात् न्याय विषयमें प्रवेश करनेके लिये यह ग्रंथ मुखद्वारही सिर्फ नहीं है किंतु इसके पढ़नेसे जितनी विद्वत्ता तथा जानकारी होनी चाहिये उससे कई अंशमें अधिक यह ग्रंथ जानकारी तथा विद्वत्ताका विशेष साधन है। __ अन्यधर्म में कारिकावलीकी टीका एक मुक्तावली है और वह उस मतके विशेष शास्त्रोंमें प्रवेश करानेके लिये मुखद्वार माना जाता है । परंतु प्रमेय रत्नमालामें इससे भी अधिक यह विलक्षणता है कि यह स्वमत परमतसंबंधी समस्त विशेष शास्त्रोंमें प्रवेशमार्ग प्राप्त कराने के अलावा कुछ विशेष विद्वत्ता व दक्षताको भी हासिल करा सकती है। क्योंकि इसका मूल पाया जो परीक्षामुख है वह उस शैलीसे सूत्रित किया गया है कि जिसमें प्रायः सर्वही विषय परमत निराकरणके साथ स्वमतकी स्थापनास्वरूप हैं जैसे दृष्टान्त में 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् , इस सूत्रमें प्रमाणका लक्षण जो ज्ञान कहा है वह साथहीमें ऐसे विशेषणसे विशिष्ट है कि जिस विशेषणमें अन्य मतावलंबियोंद्वारा माने गये प्रमाणके लक्षण हैं उन सबका उसमें खंडन विशेष है इसी शैली पर इस समस्त ग्रंथकी रचना है । और उसका विशेष खुलासा स्वरूप यह प्रमेयरत्नमाला टीका है वह योग्य दक्षतापूर्वक विद्वत्ता तथा समस्त दर्शन प्रवेशिताका मुख्य कारण है। क्योंकि इस ग्रंथके विना उच्च कोटिके प्रमेयकमल मार्तण्डादि ग्रंथोंमें प्रवेश होना अति दुःस्सह है इसी हेतुसे दयाशील श्रीमदनंत वीर्याचार्यजीने शांतिषेण नामके किसी शिष्यके लिये वैजेयके पुत्र हीरपके आप्रहसे इसका निर्माण किया-इस विषयको ग्रंथमें स्वतः आपनेही प्रदर्शित किया है। वैजेयप्रियपुत्रस्य हीरपस्योपरोधतः। शान्तिषणार्थमारब्धा परीक्षामुखपंचिका । १ ऐसीही प्रख्याति कारिकावली मुक्तावलीके विषयमें भी है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रंथका दूसरा नाम परीक्षामुखपंचिका भी है। पदोंके जुदे २ कर अर्थ करनेको पंचिका कहते हैं क्योंकि कहा भी है पंचिका पदभंजिका इसी अर्थको पंडित जयचंद्रजी छावड़ाने भी कहा है 'सूत्रनिके पद न्यारे करि तिनका न्यारा न्यारा अर्थ कहिये ताकू पंचिका कहिये है ' इत्यादि । इस टीकामें विशेषताके साथ अर्थकी ऐसीही रचना है इस लिये इसका-परीक्षामुख पंचिका नाम भी वास्तविक है। इस टीकाका प्रमेय रत्नमाला जो नाम है वह यथा नाम तथा गुणसे खाली नहीं है। क्योंकि रत्नचीज जिस तरह स्वपरप्रकाशक होती है उसी तरह प्रत्यक्ष परोक्षादि रूप अनेक प्रकारके प्रमाण स्वरूप प्रमेयकी माला अर्थात् पंक्ति स्वरूप यह ग्रंथ है। __ तथा इस नामसे यह सूचित किया है कि भाग्यशालियोंके हृदयको यह भूषित करनेवाली हैं और भाग्यहीनोंको दुर्लभ है। जैसे रत्नमाला भाग्यशालियोंको ही प्राप्त होकर उनके हृदयको भूषित करती है भाग्यहीनोंको उसकी प्राप्ति होना ही दुर्लभ है इसी प्रकार भाग्यशील विशिष्ट क्षयोपशमके धारक ही इसको धारण कर सकते हैं भाग्यहीन मंदक्षयोपशमी इसको धारण नहीं कर सकते, इसी अर्थको श्री वीरनंदिस्वामिजीनें भी सूचित किया है। गुणान्विता निर्मलवृत्तमौक्तिका नरोत्तमैः कंठविभूषिणीकृता। न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समंतभद्रादिभवा च भारती ॥१॥ ___ यह ग्रंथ भी परीक्षामुख सूत्र ग्रंथके समान छह समुद्देशोंमें विभक्त है उनमेंसे छहोंके ही नाम विषय प्रतिपादनकी अपेक्षासे रखे गये हैं। वे इस प्रकार हैं। प्रमाण स्वरूप समुद्देश १ प्रत्यक्षसमुद्देश २ परोक्षसमुद्देश ३ विषय समुद्देश ४ फलसमुद्देश ५ आभास समुद्देश । ६ । इन छहों समुद्देशोंमेंसे प्रत्येक २ समुद्देश में क्या २ विषय है यह यद्यपि इन समुद्देशोंके नामसे ही प्रतीत होता है तथापि इनमें विशेष २ विषय कोन २ सें है इस बातकी बहुत आवश्यकता है। इसी हेतुसे मैने पाठकोंके संतोषके लिये कुछ विषयसूचि और सूत्र सूची बनाकर ग्रंथके साथ लगादी है उससे इस ग्रंथके पाठक ग्रंथका कुछ ज्ञान तथा महत्व समझ सकेंगे। इस ग्रंथकी देशभाषा वचनिकामें टीका श्रीमत् पंडित जयचंद्रजी छावड़ाने की है जिसमें सूत्र तथा प्रमेय रत्नमालाके पदार्थ तथा भावार्थ बहुतही मनोज्ञता १ जैन धर्ममें ज्ञानको स्वपरप्रकाशत्व माना है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा विद्वत्तासे लिखे गये हैं कि जिसके पठनेसे सामान्यबुद्धि भी प्रमेय रत्नमाला सरीखे पदार्थोंको वखूवी समझ सकता है तथा कहीं कहीं विशेष स्पष्टी करनके लिये ग्रंथमें कुछ २ विशेष विषय भी संगठित किये गये हैं। वे इस ग्रंथके स्वाध्याय करनेवालोंको स्वतःही प्रतीत हो सकते हैं। ग्रन्थकर्ताओंका परिचय । माणिक्यनंदिजी। __ मूल सूत्र ग्रंथ (परीक्षामुख ) के कर्ता श्रीमन्माणिकश्यनन्दीजी एक बड़ेही प्रतिभाशाली विद्वान् हुए हैं क्योंकि उनने समस्त न्याय समुद्रको मथन कर यह अमृत सरीखा ग्रंथराज बनाया है। इस ग्रंथके शिवाय इनका कोई दूसरा ग्रंथ अभीतक देखने में नहीं आया है तथा इस विषयमें इनके पीछेके किसी भी आचार्यने ऐसा उल्लेख किया हो ऐसा भी देखने में अभीतक नहीं आया । और अपने विषयकी इस ग्रंथमें भी आपने कुछ भी प्रशस्ति नहीं दी है इससे हम निश्चित रूपसे आपके विषयमें कुछ भी लिख नहीं सकते तथापि इतना निश्चय हो जाता है कि ये या तो अकलंक देवके समयके तथा उनके कुछ पीछेके और प्रभाचंद्रजीके कुछ समय पहलेके तथा उनकेही समयके विद्वान् हैं। क्योंकि प्रभाचंद्राचार्यजीने प्रमेय कमल मार्तडकी प्रशस्तिमें-उनको गुरु शब्दसे स्मरण किया है। और गुरु शब्दके ऊपर जो टिप्पणी दीहै उसमें 'स्वस्य' लिखा है इससे स्पष्ट हो जाता है कि ये आचार्य प्रभाचंद्राचार्यजीके गुरु थे । फिर अखीरके पद्यमें अपनेको इस प्रकार लिखते हैं। श्रीपद्मनंदिसैद्धान्तशिष्योऽनेकगुणालयः प्रभाचंद्रश्चिरंजीयाद्रत्ननन्दिपदे रतः॥१॥ इस पद्यमें-पद्मनंदि आचार्यका सिद्धान्तविषयका शिष्य और-माणिक्यनंदिके चरणोंमें रत ऐसे दो विशेषण दिये हैं। उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सिद्धान्त विषयके शिवाय अन्य विषयके गुरु प्रभाचंद्रजीके माणिक्य नंदिजीही थे। इससे यह निश्चय हो जाता है कि श्रीमाणिक्यनंदीजी तथा प्रभाचंद्रजीका समय एकही है। परंतु वंशीधरजी शास्त्रीने प्रमेयकमल मार्तडके उपोदूधातमें माणिक्यनंदिजीके परीक्षामुखसूत्र बननेका समय विक्रमसंवत् ५६९ दिया है और प्रभाचंद्रजीका १ निर्णय-सागर प्रेसकी छपी हुई प्रतिमें । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६० से १११५ तक विक्रम संवत् दिया है और विद्याभूषण तथा ए. एम्. आदि पदधारक श्रीसतीश्चद्रजीने अकलंक स्वामीजीको ईसवी ८ वी शताब्दीके विद्वान् स्वीकृत किया है । प्रभाचंद्रजीने प्रमेयकमल मार्तडकी समाप्ति भोजदेवराज्यके समयमें की तथा अपनेको धारा नगरीका निवासी लिखा है। परंतु कई भोजराज्योंके होनेसे प्रभाचंद्रजीका समय भोजराज्यपरही निभरित नहीं रह सकता है। परंतु प्रमेय. कमल मार्तडके अंतिम पद्यसे यह अवश्यही निश्चय हो सकता है-अकलंक देवकेपीछे या अकलंक देवके समयमें। ये दोनों (माणिक्यनंदि-प्रभाचंद्र) आचार्य एकही समयके हैं। इस विषयके विशेष विचारमें हम विद्वानोंके ऊपरही निर्भरित हैं। अनंतजीवीर्याचार्य इन आचार्यके विषयमें हम कुछ भी नहीं लिख सकते क्योंकि इनका जो प्रमेय रत्नमाला नामक ग्रंथ है उसकी प्रशस्तिमें आपने अपने ग्रंथ निर्माणका समय तथा निवास वगैरःका कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। तथा आपके समयादिके विषयमें हमें अन्यत्र भी इस समय तक कुछ भी विषय उपलब्ध नहीं हुआ है इस लिये इनके विषयों में इस समय विशेष परिचय देनेके लिये अस. मर्थ हूं। सामन्य परिचयमें भी सिर्फ इतनाही है कि ये आचार्य उच्च कोटिके विद्वान् थे इस विषयका ज्ञान आपके प्रमेयरत्नमाला नामक ग्रंथके अवलोकनसे ही हो जाता है। आपने अपनी जो प्रशस्ति दी है वह अर्थसहित इस ग्रंथके अंतमें लगी हुई है उससे पाठकोंको इनके विषयमें जितना ज्ञान हो सकेगा वस उतनाही ज्ञान हमको है। ग्रथोंके विषयमें भी इस समय आपका एक प्रमेय रत्नमालाही ग्रंथ उपलब्ध है जो कि मुद्रित हो चुका है। पं. जयचंद्रजी छावडा . ढुंढाहरदेशके विशाल जयपुर नगरमें पं. जयचंद्रजी छावड़ाका जन्म तथा निवासस्थान था । आप विक्रम उन्हींसवीं १९०० शताब्दिके एक गण्य तथा मान्य विद्वान् थे । आपके ग्रंथोंका अनुवाद पढ़नेसे मालूम होता है कि आप न्याय अध्यात्म साहित्य वगैर सर्वही विषयके अच्छे विद्वान तथा परोपकारी और उद्यमशील पुरुष थे। इस शताब्दीके विद्वानोंमेंसे पं. टोडरमल्लजीके समान आपही , गणना योग्य तथा माननीय व्यक्ति हो सकते हैं। आपनें १३ तेरह ग्रंथोंपर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा वचनिकायें लिखी हैं । इन सब वचनिका ग्रंथोंकी श्लोकसंख्याका प्रमाण ६० हजारके करीब है। वे १३ प्रन्थ विक्रम सम्वत्के साथ नीचे लिखे प्रमाण हैं। १ सर्वार्थसिद्धि १८६१ २ प्रमेयरत्नमाला (न्याय ) १८६३, ३ द्रव्यसंग्रह वचनिका १८६३ ४ आत्मख्यातिसमयसार १८६४ , ५ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा १८६६ ,, ६ अष्टपाहुड १८६७ यह इस ग्रंथमालामें जल्दी निकलनेवाला है। ७ ज्ञानार्णव १८६५ ८ भक्तामरस्तोत्र १८७० ९ आप्तमीमांसा (देवागमन्याय) १८८६ यह ग्रंथ इस ग्रंथ मालामें तैयार हो चुका है; १० सामायिकपाठ समय लिखा नही. ११ पत्रपरीक्षा (न्याय) १२ मतसमुच्चय (न्याय) १३ चंद्रप्रभद्वितीयसर्गका न्यायभाग, समय मालूम नहीं. ये सर्व ग्रंथ बड़ेही कठिन गंभीराशयके हैं तथा बड़ेही महत्वके संस्कृत प्राकृत भाषाके हैं । इनमेंसे पांच ग्रंथ तो केवल न्यायके हैं और सभी ग्रंथ उच्च कोटिके तात्विक विषयके हैं तथा धर्ममें दृढ़ता और भक्ति पैदा करनेवाले हैं। आप देशभाषाके पद्य रचना करनेमें भी सिद्ध हस्त थे आपने फुटकर विनतियां वगैरः लिखी हैं उनकी श्लोक संख्या ११०० के करीब होगी तथा द्रव्य संग्रहको भी अपने पद्यमें लिखा है। आपकी १८७० की लिखी हुई एक पद्यात्मक चिठी वृन्दावन विलासमें प्रकाशित हो चुकी है । इन सबसे यह निश्चित होता है कि आप गद्य पद्य बनाने में बहुतही सिद्ध हस्त थे। तथा संस्कृत और प्राकृतमें आपका ज्ञान खूबही चढ़ा बढ़ा था इस विषयका ज्ञान आपके ग्रंथों का अवलोकन करनेसे सभीको हो सकता है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० तथा चार प्रकारके कवियोंमेंसे आपमें गमककवि शक्ति भी श्रेष्ठ थी क्योंकि आपने नतामर-इत्यादि प्रमेयरत्नमालाके प्रथम श्लोकके अर्थको 'मोक्षमार्गस्यनेतारं' इत्यादि श्लोकके भावमें प्रदर्शित कर बड़ेही महत्व भरे पांडित्यको प्रद. र्शित किया है। इससे आपने यह दर्शित कर दिया है कि जिस प्रकार तत्वार्थ मोक्ष शास्त्रके ऊपर सर्वार्थ सिद्धि छोटी तथा गभीराशयवाली टीका है उसी प्रकार इस न्यायकी पूंजी स्वरूप-परीक्षामुखसूत्र पर यह प्रमेय रत्नमाला टीका है । क्योंकि ( मोक्षमार्गस्य नेतारं- ) यह श्लोक सर्वार्थ सिद्धिका मंगलाचरण माना जाता है । तथा सूत्र ग्रंथके ऊपर छोटी और गंभीराशयकी सर्वार्थ सिद्धि टीका है उसी प्रकार इस ग्रन्थमें भी यह सर्व समानता मौजूद है इत्यादि। आपने अपनी सर्वही टीकाओमें ग्रंथोंके आशयको कहीं २ बढ़ाकर भी बहुत खूब सूरतीके साथ समझाया है। जैसे कि इस प्रमेय रत्नमालाहीमें-विशेष लिखिये है इस प्रकारसे ग्रंथके विषयको समझानमें विशेष खूबी की है उसी प्रकार सर्व ही (अपने टीका किये हुए) ग्रंथोंको समझानेमें बहुतही मनोज्ञ शैली व शक्तिको भरकस रूपसे काममें लाये हैं सर्वार्थसिद्धि तथा आप्त मीमांसा वगैरः ग्रंथों में आपने मूल ग्रंथके आशयको अच्छी तरह समझानेके हेतुसे उनके बड़े २ टीकाग्रंथ राजवार्तिक श्लोकवार्तिक अष्ट सहस्री वगैरःको भी देशभाषामें उद्धृत करके ग्रंथोंके आशयको बहुतही भव्य बना दिया है । इस प्रकारके आपके प्रयत्नसे सामान्य भाषा जाननेवाले भी इन बड़े ग्रंथोंके अभिप्रायोंको समझ सकते हैं । आपकी इन सर्व कृतियोंसे मालूम होता है कि आप बड़ेही परोपकारी महात्मापुरुष थे। तथा प्रायः सर्वही बड़े २ न्याय अध्यात्म आदि ग्रंथोंके मर्मज्ञ रूपसे जानकार थे। अर्थात् आप सर्वांगसुन्दर एक अद्वितीय विद्वान थे तथापि आपने अपनी लघुताही दिखाई है जैसा कि प्रमेयरत्नमालाके अंतमें आपने अपने विषयमें लिखी है। बालबुद्धिलखिं संतजन हसैं न कोप कराय इहैरीति पंडितगहै धर्मबुद्धि इमभाय ॥ इस परसे यह पता चलता है कि आप पूर्ण विद्वान् होकर भी अहंकार रहित थे। अहंकारताका अभाव विद्वत्तामें सोनेको सुगंधिकी कहावतको चरितार्थ करता है। १ कविके गूढ तथा गंभीर आशयको स्पष्ट करनेवाला गमक कवि होता है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ विद्वान होकर जो अहंकार रहित होगा वही अपने वचनादि प्रयत्नों द्वारा प्राणियोंका उपकार कर सकता है तथा वही प्रमाणताका पात्र हो सकता है । - खंडेलवाल जातिभूषण - पं. जयचंद्रजी छाबड़ामें ये सर्व गुण मौजूद थे इसी कारण इनकी समाजमें विशेष प्रतिष्ठा रही तथा आगे भी कायम रहेगी । उक्त पंडितजीके विषयमें जो कुछ हमने लिखा है वह बहुत ही थोड़ा संक्षेपतासे लिखा है यदि विशेष लिखते तो एक ग्रंथका ग्रंथही बन जाता । पंडितजी ने अपने थोडेसे जीवन कालमें इतने टीका तथा विनतीस्वरूप ग्रंथों का निर्माण कर अपनी बुद्धिकी बहुत ही विचक्षण विलक्षणताका परिचय दिया है । हमने सुना है कि उक्त पंडितजी साहेबने इन ग्रंथोंके अलावा अन्य भी कई ग्रंथोंपर टीका की है। यदि यह बात सर्वांग सत्य है तो कहना पड़ेगा कि पंडि जी में कोई विलक्षण शक्ति थी । पाठकगण पंडितजी के विषय में विशेष जानने की इच्छा रखते हों तो उनके निर्माण ग्रंथों में उनके हाथकी लिखी हुई प्रशस्तिसे अपनी इच्छा की पूर्ण पूर्ति करें । विनीत रामप्रसाद जैन- बम्बई । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची। प्रथम समुद्देश? १९ पं. जयचंद्रजी विरचित मंगल और प्रतिज्ञा तथा भाषाटीका बनानेका प्रयोजन। पं. जयचंद्रजी विरचित मूल ग्रंथ रचनाके संबंधमें कुछ हेत्वात्मक वाक्य। संकृत टीकाकारका मंगलाचरण। माणिक्यनंदिजीको नमस्कार तथा परीक्षामुख और प्रमेयरत्नमालाकी प्रमाणीकता विषयक कथन । टीका बननेका संबंध और टीकाके द्वितीय नामका निरुक्त्यक अर्थ । तथा परीक्षामुख बननेका प्रयोजन। न्याय तथा प्रमेयरत्नमाला शब्दका निरुक्तिपूर्वक अर्थ। प्रमाण प्रमाणाभासरूप प्रतिज्ञा। ग्रंथकी उपादेयताके कारण अभिधेयादिका निरूपण । मंगलाचरणविषयक शंका और उसका समाधान । प्रमाणका लक्षण तथा तद्. पत्र. विषयक अन्य प्रमाण कल्प१ नाओंका परिहार । ज्ञानही प्रमाण है इस विष यको दिखानेमें सहेतुकताका २ निरूपण। बोद्धकल्पित ज्ञान प्रमाणविषयक अनध्यवसायताका खंडन और अध्यवसायताका मंडन। दो प्रकारसे अपूर्वार्थका निरूपण। परपदार्थके समान ज्ञान अपनाभी निश्चय करानेवाला है। इत्यादि विषयका कर्मकतृकर| णादि द्वारा सोदाहरण निरूपण । ज्ञानके स्वप्रकाशकहेतुका विशेषतासे निरूपण। ज्ञानके स्वप्रकाशकत्वमें दीपकका दृष्टान्त । अभ्यस्तदशामें ज्ञान स्वतः प्रणाम है और अनभ्यस्त दशामें परतः प्रमाण है इस विषयका निरूपण तथा मीमांसक मतका ११ । खंडन । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र. खंडन । द्वितीय समुद्देश २ तृतीय समुद्देश. पत्र. प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष दो। ३४ परोक्षका लक्षण और उसके भेद । ८५ भेदका वर्णन तथा अन्य वादियों सोदाहरण स्मृतिका लक्षण, ८६ कर मानी गई जो प्रमाण आकारनिर्देशपूर्वक प्रत्यभिज्ञान संख्या है उसमें समस्त का लक्षण। प्रमाणके भेदोंका अंतर्भाव अन्यवादिकृत उपमान प्रमानहीं होता ऐसा वर्णन। णका खंडन। क्रमपूर्वक सब संख्या वादि प्रत्यभिज्ञानके उदाहरण योंका मत प्रदर्शन पूर्वक आकारसहित तक प्रमाणका लक्षण तथा उदाहरण ।। प्रत्यक्षका लक्षण । अनुमानका लक्षण, हेतुका लक्षण तथा अन्यवादिमुख्य तथा सांव्यवहारिकरूप ४८ स्वीकृत हेतु लक्षणका परिहार। प्रत्यक्षके भेद और सांव्यव अविनाभावका लक्षण तथा हारिकका स्वरूप और भेद। सहभावका लक्षण। नैयायिक परिकल्पित अर्थ क्रमभावका लक्षण, अविना- ९५ और आलोककी कारणताका भावका तर्कसे निर्णय होता है खंडन। ऐसाकथन तथा साध्यका लक्षण । बोद्ध द्वारा माने गये जो अर्थ धर्मी (पक्ष) का लक्षण। विषयक ताद्रूप और तदुत्पत्ति धर्मी प्रसिद्ध होता है ऐसा ९९ ज्ञानकारण हैं उनके इस मत कथन और उसके भेदका वर्णन का खंडन और स्वमतविष पक्षके वचनकी आवश्यकता। १०३ यक कारणताका प्रतिपादन । पक्ष और हेतु ये दोही मुख्य प्रत्यक्षका लक्षण तथा ५६ अनुमानके अंग हैं उदाहरण उसमें आवरण सहितत्व और नहीं इत्यादि समर्थन । करणजन्यत्वका निषेध। | बालव्युत्पत्तिके निमित्त शास्त्रमें ११० मुख्य प्रत्यक्ष तथा सर्वज्ञ विष- ही उदाहरणादिका उपयोग यक अन्यवादि स्वीकृत अन्यथा है इत्यादि। मतोंका परिहार और अपने दृष्टान्तके भेद और अन्वय- १११ मतका स्थापन। । व्यतिरेक दृष्टान्तका लक्षण । १०६ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपनयनिगमनका लक्षण | अनुमान के स्वार्थ और परार्थ भेद तथा उनके लक्षण | तुके भेद प्रभेदों का सोदाहरण वर्णन । मीमांसित आगमका लक्षण, कल्पित वेद अपौरुषेय त्वका खंडन | नामजाति गुण क्रिया आदि स्वरूप शब्दका अर्थ नहीं है क्योंकि शब्द और अर्थके संबंधका अभाव है फिर शब्द में प्राप्तप्रणीत पना होनेपर भी सत्यार्थ ज्ञान किस प्रकार हो सकता है इस प्रकाकी शंकाका उत्तर तथा उसमें दृष्टान्त | बौद्ध अन्यापोह ज्ञानरूप आगमको प्रमाण मानता है तथा कोई अन्य प्रकार भी मानता है उन सबका निराकरण | १४ पत्र. ११२ ११३ उर्द्धता सामान्यका दृष्टान्त सहित लक्षण तथा विशेष विषयके भेद | पर्याय विशेषका उदाहरण ११५ सहित लक्षण | व्यतिरेक विशेषका उदाहरण १३३ | सहित लक्षण । १५० १५१ चतुर्थ समुद्देश. विषयका लक्षण तथा अन्य वा- १५७ दिकल्पित सत्ता प्रधान आदि विषयके लक्षणका खंडन । अनेकान्तात्म वस्तुके समर्थन के हेतु तथा समान्य विषयके भेद और तिर्यक् सामान्यका उदाहरण सहित लक्षण | १७९ नाभासका लक्षण । तर्काभास, अनुमानाभास तथा अनुमान के अवयवाभासमें पत्र. १८० १८१ पंचम समुद्देश. फलका लक्षण तथा फलके भेद । १८७ छठ्ठा समुद्देश. आभास सामान्यका लक्षण स्व- १९० रूपाभास सामान्यका लक्षण । प्रत्यक्षाभासका उदाहरण सहित १९५ लक्षण । परोक्षाभासका लक्षण, उदाहरण १९६ सहित स्मरणाभास, प्रत्यभिज्ञा लक्षण । वालप्रयोगाभासका लक्षण । आगमाभासका उदाहरणसहित १८५ १९७ पक्षाभासका लक्षण | भेदसहित हेत्वाभासका लक्षण । २०० भेदपुरस्सर दृष्टान्ताभासका २०५ २०७ २०९ लक्षण । संख्याभासका लक्षण सोदाहरण । २१० विषयाभास । २१२ फलाभास । २१४ नय तथा नयामास । २१७ २१८ मूलग्रंथकर्ता की प्रशस्ति । संस्कृतीका कर्ताकी प्रशस्ति । २१९ भाषाटीका कर्ताकी प्रशस्ति । २२१ इति । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षामुखसूत्रसूची। मंगलाचरण । प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः । इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमप्लं लघीयसः॥१॥ प्रथम समुद्देश. सूत्र. १ स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्. २ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्. ३ तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत्. ४ अनिश्चितोऽपूर्वार्थः. ५ दृष्टोऽपि समारोपात्ताक ६ स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ७ अर्थस्येव तदुन्मुखतया ८ घटमहमात्मना वेनि. ९ कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः १० शब्दानुच्चारणेपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ११ कोवा तत्प्रतिभासनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव नेच्छेत् १२ प्रदीपवत् १३ तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च द्वितीयसमुद्देश. १ तद्वेधा २ प्रत्यक्षेतरभेदात् ३ विशदं प्रत्यक्षम् ४ प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् ५ इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम् ६ नालोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत् ७ तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच केशोण्डुकज्ञानवनकंचरज्ञानवच्च Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ९ स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यता हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति १० कारणस्यच परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभिचारः ११ सामिप्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियमशेषतो मुख्यम् १२ सावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबन्धसंभवात् तृतीयसमुद्देश. १ परोक्षमितरत् २ प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्वानुमानागमभेदम् ३ संस्कारोद्बोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः ४ सदेवदत्तो यथा ५ दर्शनस्मरणकारणकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि. ६ यथा स एवायं देवदत्तः, गो सदृशो गवयः, गो विलक्षणो महिषः, इदमस्माहूरम्, वृक्षोयमित्यादिः, ७ उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः इदमस्मिन्सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च ८ यथामावेव धूमस्तदाभावे न भवत्येवेतिच ९ साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम् १० साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः ११ सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः १२ सहचारिणोप्प्यव्यापकयोश्च सहभावः १३ पूवोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्चक्रमभावः १४ तर्कात्तनिर्णयः १५ इष्टमबाधितमसिद्ध साध्यम् १६ संदिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथास्यादित्यसिद्धपदम् १७ अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः साध्यत्वं माभूदितीष्टाबाधितवचनम् Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ꮫ Ꮫ Ꮫ Ꮫ Ꮫ Ꮫ Ꮫ १८ नचासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः १९ प्रत्यायनाय हीच्छा वक्तुरेव २० साध्यं धर्मः कचित्तद्विशिष्टोवा धर्मी २१ पक्षइति यावत् २२ प्रसिद्धो धर्मी २३ विकल्पसिद्ध तस्मिन्सत्तेतरे साध्ये २४ अस्ति सर्वज्ञो नास्ति खरविषाणम् १०० २५ प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता १०१ २६ अग्निमानयं देशः परिणामी शब्द इति यथा १०२ २७ व्याप्तौ तु साध्यं धर्मएव १०३ २८ अन्यथा तदघटनात् १०३ २९ साध्यधर्माधारसंदेहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् १०३ ३० साध्यधर्मणि साधनधर्मावबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत् १०४ ३१ को वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति १०५ ३२ एतद्वयमेवानुमानाङ्गं नोदाहरणम् १०६ ३३ न हि तत्साध्यप्रतिपत्यङ्गं तत्र यथोकहेतोरेव व्यापारात् ३४ तदविनाभावनिश्चयार्थ वा विपक्षे बाधकादेव तत्सिद्धेः ३५ व्यक्तिरूपं च निदर्शनं सामान्येन तु व्याप्तिस्तत्रापि तद्विप्रतिपत्तावन. १०८ वस्थानं स्यात् दृष्टान्तरापेक्षणात् ३६ नापि व्याप्तिस्मरणार्थ तथाविधहेतुप्रयोगादेव तत्स्मृतेः १०८. ३७ तत्परमभिधीयमानं साध्यधर्मिणि साध्यसाधने सन्देहयति १०८. ३८ कुतोन्यथोपनयनिगमने १०९ ३९ न च ते तदङ्गे साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययोवचनादेवासंशयात् १०९ ४० समर्थनं वा वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वास्तु साध्ये तदुपयोगात् ११. ४१ वालव्युत्पत्यर्थं तत्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ११० ४२ दृष्टान्तो द्वेधाऽन्वयव्यतिरेकभेदात् १११ ४३ साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदश्यते सोऽन्वयदृष्टान्तः १११ ४४ साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः १११ ४५ हेतोरुपसंहार उपनयः ११२ ४६ प्रतिज्ञायास्तु निगमनम् ११२ Ꮫ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४७ तदनुमानं द्वेधा ४८ स्वार्थपरार्थभेदात् ૬૮ ११३ ११३ ११३ ११३ -५१ तद्वचनमपितद्धेतुत्वात् ११४ ५२ सहेतुद्वेधोपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ११५ ५३ उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ११५ ११५ ५४ अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा व्याप्य कार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् ५५ रसादेक सामग्र्यनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किंचित्कारणं हेतु- ११६ सामर्थ्याप्रतिबंध कारणान्तरवैकल्ये ४९ स्वार्थमुक्तलक्षणम् ५० परार्थतु तदर्थपरामर्शिवचनाज्जातम् ५६ नच पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ११८ ५७ भाव्यतीतयोर्मरणजागृब्दोधयोरपि नारिष्टोद्बोधौ प्रति हेतुत्वम् ५८ तदूव्यापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ११९ ११९ ५९ सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात् सहोत्पादाच. १२० १२१ ६० परिणामीशब्दः कृतकत्वात्, य एवं स एवं दृष्टो यथा घटः, कृतकश्चायं तस्मात्परिणामीति यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा वन्ध्यास्तनंधयः, कृतकश्चायं तस्मात् परिणामी ६१ अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिर्व्याहारादेः ६२ अस्त्यत्र छाया छत्रात् - ६३ उदेश्यति शकटं कृतिकोदयात् ६४ उदगाद्भरणि: प्राक्त एव ६५ अत्यत्र मातुलिंगेरूपं रखात् ६६ विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथा १२२ १२२ १२३ १२३ १२४ १२४ १२४ १२४ १२५ ७० ७१ नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात्पूर्व पुष्योदयात् १२५ ७२ नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽवग्भागदर्शनात् १२५ -७३ अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वी- १२५ तरसहचरानुपलंभभेदात् ६७ नास्त्यत्र शीतस्पर्श औष्ण्यात् ६८ नास्त्यत्र शीतस्पर्शो धूमात् -६९ नास्मिन् शरीरिणि मुखमस्ति हृदयशल्यात् नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्मुदयात् Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ ७४ नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धेः ७५ नास्त्यत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेः ७६ नास्त्यत्र प्रतिवद्धसामर्थ्योऽग्निर्धूमानुपलब्धेः ७७ नास्त्यत्र धूमोsनग्नेः ७८ न भविष्यति मुहूर्त्तान्ते शकटं कृतिकोदयानुपलब्धेः ७९ नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात् प्राक्रएव ८० नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामो नामानुपलब्धेः ८१ विरुद्धानुपलब्धिर्विधौत्रेधा विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिभेदात् ८२ यथास्मिन् प्राणिनि व्याधिविशेषोस्ति निरामयचेष्टानुपलब्धेः ८३ अस्त्यत्र देहिनिदुःखमिष्टसंयोगाभावात् ८४ अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तस्वरूपानुलब्धेः ८५ परंपरया संभवत्साधनमत्रैवान्तर्भावनीयम् ८६ अमूत्र चक्रे शिवकः स्थासात् ८७ कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ८८ नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिसंशब्दनात् कारणविरुद्धकार्यं विरुद्धकार्योपलब्धौ यथा ८९ व्युत्पन्नप्रयोगस्तुतथोपपत्यान्यथानुपपत्यैव ९० अग्निमानयं प्रदेशस्तथैव धूमवत्वोपपत्तेर्धूम - वत्वान्यथानुपपत्तेर्वा ९१ हेतु योगो हि यथा व्याप्तिग्रहणं विधीयते सा च तावन्मात्रेण व्युत्पन्नैरवधार्यते ९२ तावता च साध्यसिद्धिः ९३ तेन पक्षस्तदाधारमूचनायोक्तः ९४ आप्तवाक्यदिनिबंधन मर्थज्ञानमागमः चतुर्थसमुद्देश १ सामान्यविशेषात्मा तदर्थोविषयः २ अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात् पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थिति लक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्व ३ सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्द्धताभेदात् ४ सदृशपरिणामस्तिर्यकू खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् १२६ १२६ १२६ १२७ १२७ १२७ १२७ १२८ १२८ १२८ १२९ १२९ १२९ १३० १३० १३१ १३१ १३१ १३२ १३२ १३३ १५७ १७८ १७९ १७९ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ ५ परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्खता मृदिब स्थासादिषु १८. ६ विशेषश्च १८. ७ पर्याय व्यतिरेकभेदात् १८१ .८ एकस्मिन्द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्ष विषादादिवत् १८१ ९ अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् पंचम समुहेशा. १ अज्ञाननिवृत्तिर्हानोपादानोप्रेक्षाश्च फलम् १८७ २ प्रमाणादभिनं भिन्नं च। ३ यः प्रमिमीते सएव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्ते उपेक्षा चेति प्रतीतेः १८८ छठा समुदेश. १ ततोऽन्यत्तदाभासम् १९० २ अस्वसंविदितगृहीतार्थदर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः १९० ३ स्वविषयोपदर्शकत्वाभावात् १९३ ४ पुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छतृणस्पर्शस्थाणुपुरुषादिज्ञानवत् १९३ ५ चक्षुरसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च १९४ ६ अवैशये प्रत्यक्षं तदाभासम् बौद्धस्याकस्माद्धमदर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् १९५ ७ वैशद्यपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत् ८ अतस्मिँस्तदिति ज्ञानं स्मरणाभासं जिनदत्ते स देवदत्तो यथा १९६ ९ सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशं यमलकवदित्यादि प्रत्यभिज्ञानाभासम् १० असंबद्धे तज्ज्ञानं तर्काभासं यावाँस्तवपुत्रः स श्याम इति यथा १९७ ११ इदमनुमानाभासम् १९७ १२ तत्रानिष्टादिः पक्षाभासः १९७ १३ अनिष्टो मीमांसकस्यानित्यः शब्दः १४ सिद्ध श्रावणशब्दः १९८ १५ बाधितः प्रत्यक्षानुमानागम लोकस्ववचनैः १९८ १६ तत्र प्रत्यक्षवाधितो यथा अनुष्णोऽनिर्द्रव्यत्वाज्जलवत् १९८ १७ अपरिणामी शब्दः कृतकत्वाद् घटवत् १९९ १८ प्रेत्याऽसुखप्रदोधर्मः पुरुषाश्रितत्वादधर्मवत् १९९ १९ शुचिनरशिरःकपालं प्राण्यंगत्वाच्छंखशुक्तिवत् १९९ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ २०० २०० २०१ २०१ २०१ २०१ २०१ २०२ २०२ २०२ २० मातामे वंध्या पुरुषसंयोगेप्यगर्भत्वात् प्रसिद्धवंध्यावत् २१ हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानकान्तिकाकिंचित्कराः २२ असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः २३ अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दः चाक्षुषत्वात् २४ स्वरूपेणैवासिद्धत्वात् २५ अविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुद्धिं प्रत्यग्निरत्र धूमात् २६ तस्य वाष्यादिभावेन भूतसंघाते संदेहात् २७ सांख्य प्रति परिणामी शब्दःकृतकत्वात् २८ तेनाज्ञातत्वात् २९ विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धोऽपरिणामी शब्दः कृतकत्वात् ३० विपक्षेप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः ३१ निश्चितवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्याद् घटवत् ३२ आकाशे नित्येप्यस्य निश्चयात् ३३ शंकितवृतिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् ३४ सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ३५ सिद्धे प्रत्यक्षादिवाधिते च साध्येहेतुरकिंचित्करः ३६ सिद्धः श्रावणः शब्दः शब्दत्वात् ३७ किञ्चिदकरणात् ३८ यथानुष्णोऽग्निद्रव्यत्वादित्यादौकिंचित्कर्तुमशक्यत्वात् ३९ लक्षण एवासौदोषोव्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ४० दृष्टान्ताभासा अन्वयेऽसिद्धसाध्यसाधनोभयाः ४१ आपौरुषेयः शब्दोऽमूर्तत्वादिन्द्रियसुखपरमाणुघटमत् ४२ विपरीतान्वयश्च यदपौरुषेयं तदमूर्तम् ४३ विद्युदादिनातिप्रसंगात् ४४ व्यतिरेके सिद्धतदूब्यतिरेकाः परमाण्विन्द्रियसुखाकाशवत् ४५ विपरीतव्यतिरेकश्च यन्नामूर्ततनापौरुषेयम् ४६ वालप्रयोगाभासः पंचावयवेषु कियद्धीनता ४७ अग्निमानयं प्रदेशो धूमवत्वाद्यदित्थं तदित्थं यथा महानसः ४८ धूमावाँश्चायम् ४९ तस्मादग्निमान् धूमवाँश्वायम् . WWW AM २०३ २०४ २०४ २०४ २०५ २०५ २०६ २०७ २०७ २०८ २०८ २०८ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ० ० ० ० ० - २११ २१२ ५० स्पष्ट तया प्रकृतप्रतिपत्तेरयोगात् २०८ ५१ रागद्वेषमोहाक्रान्तपुरुषवचनाजातमागमाभासम् ५२ यथा नद्यास्तीरे मोदकराशयः संति धाव_ माणवकाः २०९ ५३ अङगुल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते इति च २०९ ५४ विसंवादात् २०१ ५५ प्रत्यक्षमेवकं प्रमाणमित्यादि संख्याभासम् २१. ५६ लौकायतिकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य परबुद्वयादेश्चासिद्धे. २१० रतद्विषयत्वात् ५७ सौगतसांख्ययोगप्रभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्य- २११ भावैरेकैकाधिकाप्तिवत् ५८ अनुमानादेरतद्विषयत्वे प्रमाणान्तरत्वम् ५९ तर्कस्येव व्याप्तिगोचरत्वे प्रमाणान्तरत्वं, अप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात् २११ ६० प्रतिभासभेदस्यच भेदकत्वात् ६१ विषयाभासः सामान्यं विशेषोद्वयं वा स्वातंत्रम् २१२ ६२ तथा प्रतिभासनात्कार्यकारणाच २१२ ६३ समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् २१३ ६४ परापेक्षणे परिणामिकत्वमन्यथा तदभावात् २१३ ६५ स्वयमसमर्थस्याकारकत्वात्पूर्ववत् २१३ ६६ फलाभासः प्रमाणादभिन्न भिन्नमेव वा २१४ ६७ अभेदे तद् व्यवहारानुपपत्तेः २१४ ६८ व्यावृत्यापि न तत्कल्पना फलान्तरादू व्यावृत्याऽफलत्वप्रसंगात् २१४ ६९ प्रमाणान्तरादू व्यावृत्येवाप्रमाणत्वस्य २१५ ७० तस्माद्वास्तवो भेदः २१५ ७१ भेदेस्वात्मान्तरवत्तदनुपपत्तेः २१५ ७२ समवायेऽतिप्रसंगः २१६ ७३ प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भावितौ परिहृतापरिहृतदोषौ वादिनः २१६ साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो द्वषणभूषणे च ७४ संभवदन्यद्विचारणीयम् २१७ परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्वयोः संविदे मादृशोवालः परीक्षादक्षवव्यधाम् ॥१॥ इति. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन इस ग्रंथका संशोधन श्रीयुत पंडित पन्नालालजी सोनी तथा मैंने किया है संभव है कि अज्ञान वश इसमें बहुतसी त्रुटियां रह गई होंगी तथा मैंने जो यह भूमिका और विषय सूची तथा सूत्र सूची लिखी है वहां भी प्रमाद हुआ ही होगा उसका खयाल न कर पाठकगण हमें अनुगृहीत करेंगे । निवेदकरामप्रसाद जैन, बम्बई । Page #27 --------------------------------------------------------------------------  Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TOS । 9000 ANDRONAL ACHERSAR स्वर्गीय पंडित जयचंदजी विरचित हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । दोहा। श्रीमत वीरजिनेश रवि तम अज्ञान नशाय । शिवपथ वरतायो जगति वंदौं मैं तसु पाय ॥ १ ॥ माणिकनंदिमुनीशकृत ग्रंथ परीक्षाद्वार । करूं वचनिका तासकी लघुटीका अनुसार ॥२॥ ऐसैं मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करी । अब परीक्षामुखनाम संस्कृतसूत्रबंध माणिक्यनंदिआचार्यकृत ग्रंथ है ताकी बड़ी टीका तो प्रमेयकमलमार्तडनाम है सो प्रभाचन्द्र आचार्यकृत है, तामैं तौ विशेष करि वर्णन है । बहुरि छोटी टीका प्रमेयरत्नमाला है सो लघु अनन्तवीर्य आचार्यकृत है ताकै अनुसार मैं देशभाषामय वचनिका लिखू हूं। तामैं बुद्धिकी मंदतातें तथा प्रमादसे कहूं हीनाधिक अर्थ लिख्या होय तौ पंडितजन हास्य मत करियो, मूलग्रंथ देखि शुद्ध करलीजियो । इहां कोई कहै जो प्रमाणके प्रकरण तौ संस्कृतवचनरूपही चाहिये, देशभाषामय वचन" हीनाधिक कहनां वणै तो विपर्यय होनेरौं बड़ा दोष लागै । ताका समाधान-जो यह तो सत्य है देशभाषाके वचन अपभ्रंश बहुत हैं तहां अर्थ विपर्ययरूपभी भासै परन्तु कालदोषौ संस्कृतके पढ़नेवाले विरले हैं, अर केई हैं ते भी गुरुसंप्रदायके विच्छेद Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। होने” अर्थ यथार्थ न समझें हैं तारौं संस्कृतका भावार्थ समझनेंकू देशभाषा करिये हैं । अर जे विशेष पंडित हैं ते मूलग्रंथ तथा संस्कृतटीकातें समझेंहींगे। जैनमतमैं प्रमाणनयरूप स्याद्वाद न्यायके ग्रंथ बहुत हैं तिनिके अर्थ समझनेंकू यह प्रकरण बड़ा उपकारी है तातैं याका भावार्थ देशभाषामयभी लिखिये हैं। अर जे जिनमतकी आज्ञा मानैं हैं तिनिकै अर्थका विपर्ययभी न होयगा जेता यथार्थ समझेंगे तेता तौ यथार्थ रहैहीगा अर कहीं अन्यथा होयगा तौ विशेष बुद्धिवान पंडितनिका संयोग भये यथार्थ होयगा, जैनमतके श्रद्धानवाले पुरुष हठग्राही नाही होहै तातै देशभाषा करनेमें दोष न लागैगा ऐसें जाननां । तहां प्रथमही याका संबंध ऐसा-जो पहले श्री अकलंकदेव आचार्य भये, ते कैसे भये, अपनी निर्दोष ज्ञान अरु संयमरूप संपदा ताकरि प्रत्येकबुद्ध श्रुतकेवली सूत्रकार आदि बड़े ऋषीश्वर तिनिकी महिमांकू आप लेते भये, बहुरि कल्याणरूप भये । बहुरि समस्त तार्किकनिका समूह तिनिविर्षे जे बड़े तार्किक तेई भये चूड़ामणि तिनिकी किरण सारिखी नमनक्रिया ताकरि मिली है चरणनिके नखनिकी किरण जिनिकी। भावार्थ-बड़े बड़े तार्किक जे तर्कशास्त्रके वेत्ता ते जिनिके चरण सेबें हैं । बहुरि कविता करना, टीका करना, वाद जीतना, वक्तापणा करना, यहु च्यारि प्रकार पंडितपणा तिसके जाननेके इच्छुक तृषातुर ग्रहण करनेके इच्छुक जे विनयकरि नम्रीभूत शिष्यजन तिनिसहित किया आप अनुभव जिनू. ऐसे भये, तिनिनँ तर्क ग्रंथनिके सात प्रकरण रचे । बृहत्रय, लघुत्रय, चूर्णिका । ते अतिकठिन जिनिमैं मन्दबुद्धि प्रवेश न करि सकै, तातै तिनिमैं मन्दबुद्धीहूनिका प्रवेश होनेके अर्थि तिनिहीका अर्थ लेकरि धारा नगरीकैवि श्रीमाणिक्यनंदिआचार्य तिनि. यह परीक्षामुख नाम प्रकरण रच्या । तिसका विवरण करनेके Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित इच्छुक जे लघु अनंतवीर्य आचार्य ते तिसकी आदि वि नास्तिकताका परिहार, शिष्टाचारपालन, पुण्यकी प्राप्ति, निर्विघ्न शास्त्रकी समाप्ति आदि फलकू चाहते संते श्लोक कहैं हैं; नतामरशिरोरत्नप्रभाप्रोतनखत्विषे । नमो जिनाय दुर्वारमारवीरमदच्छिदे ॥ १॥ याका अर्थ-टीकाकार कहै हैं जो जिन कहिये कर्मशत्रुके जीतने हारे जे अरहंत परमेष्ठी तिनि सर्वनिके अर्थि हमारा नमस्कार होहु । कैसे हैं जिन--नमे जे देवनिके मस्तक तिनिके मुकुटनिके मणिनिकी प्रभा तिसविर्षे पोई है मिली है चरणके नखनिकी किरण जिनिकी । भावार्थ-अरहंत परमेष्टीकू च्यारि प्रकारके देव नमस्कार करै हैं । बहुरि कैसे हैं कठिन है निवारन जाका ऐसा जो कामरूप सुभट ताका मदके छेदन हारे हैं । इस श्लोकमैं मारवीरमदच्छिदे ऐसा विशेषण जिनका है ताका ऐसाभी अर्थ है;—मा कहिये लक्ष्मी ताहि राति कहिए दे ताकू मार कहिए, सो इस मार शब्दके अर्थ तैं मोक्षमार्गके दाता भये । बहुरि वीर शब्दकरि वि कहिए विशेष करि ईर कहिए समस्त पदार्थनिकू जाननहारे हैं ऐसे सर्वज्ञ भये । बहुरि मदच्छित् कहिए मानकषायके छेदनहारे हैं, ऐसैं मद ऐसा उपलक्षणपदतै सर्व रागादिकका नाश करन हारे भये ऐसैं " मोक्षमार्गस्य नेतारं " इत्यादि सूत्रकी टीका विर्षे कहे जे आप्तके तीनूं विशेषण ते सिद्ध भये । बहुरि अन्य प्रकार कहै हैं;—मा कहिये प्रमेयका प्रमाणरूप जाननहारा केवलज्ञान सोई भया रवि कहिये सूर्य, बहुरि इरा कहिये वाणी दिव्यध्वनि, ये दोऊ कैसे ? दुर्वार कहिये खोटे हेतु दृष्टांतनिकरि निवारन जिनका न होय ऐसे जाके होय सो दुर्वारमारवीर कहिये । बहुरि मद कड्ने सर्व रागादिक लेने तिनकौं छेदै सो मदच्छित् Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। कहिये । ऐसें भी ते आप्तके तीनूं विशेषण भये ऐसा जाननां । ऐसैं मंगलकै अर्थि नमस्कार कीया। तहां मंगल दोय प्रकार हैं-एक मुख्यमंगल, दूजा अमुख्य मंगल । तहां मुख्यमंगल तौ जिनेन्द्रके गुणनिका स्तोत्र करना है अरु अमुख्यमंगल लौकिक है तहां दधि अक्षत आदि हैं । सो इहां मुख्यमंगल जिनेंद्रके गुणनिका स्तोत्र है सो ही किया है। आगैं इस ग्रंथके कर्ताकू टीकाकार नमस्कार करै हैं; अकलंकवचोंऽभोधेरुद्दभ्रे येन धीमता। न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥२॥ याका अर्थ-तिस माणिक्यनंदिनाम आचार्यकै अर्थि हमारा नमस्कार होहु--जा बुद्धिवाननैं अकलंक कहिये कर्मकलंककरि रहित श्रीवर्द्धमानस्वामी अथवा अकलंकनामा आचार्य तिनिके वचन अथवा अकलंक कहिये निर्दोष सर्वज्ञकी दिव्यध्वनि सोही भया समुद्र तातें न्यायविद्यारूप जो अमृत सो मथिकरि काढ्या-प्रगट कीया ऐसे हैं । इहां लौकिक कथा है जो नारायण समुद्र मथिकरि चौदह रत्न काढे तिनिमैं अमृतभी है सो प्रसिद्ध अपेक्षा अलंकाररूप वचन है । आगें इस ग्रंथकी बड़ी टीका 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' है ताका कर्ता प्रभाचन्द्र आचार्य है ताकी महिमा दोय श्लोकमैं करै है; प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिकाप्रंसरे सति । मादृशाः क्व नु गण्यंते ज्योतिरिंगणसन्निभाः ॥३॥ तथापि तद्वचोऽपूर्वरचनारुचिरं सताम् । घेतोहरं भृतं यद्वन्नद्या नवघटे जलम् ॥४॥ इनिका अर्थ-प्रभाचन्द्रनाम आचार्यके वचनरूप उदार चांदणीका फैलना होते हम सारिखे आग्यानामा कीटजीवतुल्य कौन गणनांमैं गणिये तोऊ हम इस ग्रंथकी टीका करै हैं सो जैसैं नदीका जल Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित नवीन घटविय लागे तैसें तिस सुंदर सत्पुरुष नवीन घटविषै किळू घालिये सोहू शीतल होय पीवञवाले पुरुषनिके चित्त• प्रिय लागै तैसैं तिस प्रभाचंद्रके वचनही अपूर्व रचना कहिये तिनिकू नई रचनारूप किये संते सुंदर सत्पुरुषनिके चित्त• हरनहारे होयंगे। आरौं यह टीका जिस निमित्त बणी है सो संबंध कहै हैं; वैजेयप्रियपुत्रस्य हीरपस्योपरोधतः । शांतिषणार्थमारब्धा परीक्षामुखपचिका ॥५॥ याका अर्थ-वैजेयका प्यारा पुत्र जो हीरपनामा ताकी प्रार्थनात शांतिषेणनामा कोई शिष्य हैं ताके पढ़नेके अर्थ यह परीक्षामुखनामा ग्रंथकी पंचिका आरंभी है। इहां “परीक्षामुख" ऐसा नामका अर्थ ऐसा, जो परीक्षानाम विचारका है जो वस्तु ऐसे है कि नाही है कि अन्यप्रकार है ऐसा विचारकू कहिए सो इहां प्रमाणका लक्षण आदिकी परीक्षा करिये हैं इस द्वारतें सर्वही वस्तुकी परीक्षा होय है तातै परीक्षामुख है । बहुरि ताकी टीकाकू पंचिका कही सो सूत्रनिके पद न्यारे करि तिनिका न्यारा न्यारा अर्थ कहिये ताकू पंचिका कहिए है, सो इस टीकामैं सूत्रनिका भिन्न भिन्न पदनिका अर्थ करियेगा तातै पंचिका नाम है । याका दूजा नाम प्रमेयरत्नमालाभी है। आरौं मूलग्रंथका आदि सूत्रकी सूचनिका कहै है; श्रीमत् कहिये पूर्वापरविरोधरहितपणां सो ही जो श्री लक्ष्मी ताकरि सहित ऐसा जो न्याय सो ही भया समुद्र जामैं अगणित प्रमेय वस्तुरूप रत्न भरे सो ही है सार जामैं ऐसा न्यायरूप समुद्र ताके अवगाहन करनेकू अव्युत्पन्न जे न्यायशास्त्रके अभ्यासरहित पुरुष ते असमर्थ हैं, ऐसा विचारि श्रीमाणिक्यनन्दिनाम आचार्य तिनिके अवगाहनेंकू जिहा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । जसारिखा यह परीक्षामुखनाम प्रकरण रचै है । इहां न्याय ऐसा शब्द है सो 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'इण् गतौ' धातुकै घञ्प्रत्यय करण अर्थमैं जोड्या है तातें ऐसा अर्थ होय है--जो कोई प्रकार नियमकरि प्रमेयपदार्थका स्वरूप जाकरि जाणिये सो न्याय है । अथवा नयप्रमाणरूप युक्ति ताका कहनेहारा होय ताकू भी न्याय कहिये । बहुरि याका श्रीमान् विशेषण किया ताका यहु अर्थ-जो निवधिपणां होय सो श्री, अथवा श्रद्धान आदि गुणका उपजावना है लक्षण जाका ऐसी श्रीकरि युक्त होय सो श्रीमान् । बहुरि याकू समुद्र कह्या सो रूपकालंकार करि कह्या सो याका विशेषण किया जो अमेयप्रमेयरत्नसार है । सो अमेय कहिये मिथ्यादृष्टीनिकरि जाननेमैं न आवै अथवा गणनारहित अनंतानंत ऐसे जे प्रमेय कहिये प्रमाणकरि जिनिकू जानिये ऐसे जीव आदिपदार्थ वस्तु है । बहुरि रत्ननिबिर्फे सार होय सो रत्नसार कहिये, ऐसैं अमेय प्रमेय है रत्न सार जामैं ऐसे बहुव्रीहि समास है । बहुरि अमेय प्रमेय जे रत्न तिनिकरि सार है-उत्कृष्ट है ऐसा न्यायरूप समुद्र है ऐसे तत्पुरुष समास है। ऐसैं इस परीक्षामुख प्रकरणके संबंध, अभिधेय, शक्यानुष्ठानइष्टप्रयोजन इनि तीनूंनिकौं जानें विना परीक्षावान पुरुषनिकी प्रवृत्ति या विर्षे होय नाहीं, इस हेतु” तिनि तीनूंनिका अनुवाद कहिये पूर्वाचार्यनि करि कह्या होय तिस अनुसार कहना सो है पुरस्सर कहिये मुख्य जामैं । बहुरि वस्तु जाका कथन कीजिये सो ऐसा इहां वस्तुशब्दकरि प्रमाण अर प्रमाणाभास लेनां ताका निर्देश कहिये स्वरूप कहनां तिस विषै पर कहिये उत्कृष्ट–तत्पर ऐसा प्रतिज्ञाका श्लोक कहै है । भावार्थ-इस ग्रंथका आदिका श्लोक है तामैं अभिधेय संबंध शक्यानुष्ठानइष्टप्रयोजन इन तीनूंकौं जनाय अर प्रमाण अर प्रमाणाभासका लक्षण, जो पूर्वाचार्यनिकरि कया है तिनिका अनुसार ले कहनेकी प्रतिज्ञा करै है; Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः । इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः ॥ १॥ याका अर्थ-प्रमाण” अर्थकी संसिद्धि होय है, बहुरि प्रमाणाभास” अर्थकी संसिद्धि नाही होय है-विपर्यय होय है। या हेतु” मैं ग्रंथकर्ता हूं सो तिस प्रमाणका अरु प्रमाणाभासका लक्षण कहूंगा । टीका-अहं कहिये मैं ग्रंथकर्ता माणिक्यनंदिआचार्य हूं सो तल्लक्ष्म कहिये प्रमाण अर तदाभास इनि दोऊनिका लक्षण है ताहि वक्ष्ये कहिये कहूंगा। सिद्धं कहिये पूर्वाचार्यनिकरि प्रसिद्ध किया सो ही। बहुरि कैसा ? अल्प कहिये थोरे अक्षरनिकरि कहने योग्य अरु अर्थतें महान् । बहुरि कौनकू विचारि करि कहूंगा? अतिशय करि लघु जे शिष्यजन तिनिकू विचारि करि । इहां लघुपणां बुद्धिकृत ग्रहण करना, शरीरपरिमाणकृत न लेणां, जातें छोटे शरीरवालेहू बड़े बुद्धिवान होय है, बहुीर अवस्थाकृत भी न लेणां जाते छोटी अवस्थावालेभी केई बड़े बुद्धिवान होय हैं, तातै जिनिमैं बुद्धि थोड़ी होय ते इहां लघुशब्दकरि ग्रहण करनें। इहां लक्षणका तौ स्वरूप ऐसा जाननां-जो बहुत वस्तु एकठी मिलिरही होय तिनिमैंसूं जुदी करनेका जो किछु वस्तुमैं प्रसिद्ध चिह्न होय सो लक्षण होय । बहुरि सिद्ध विशेषणतैं अपनीही रुचि करि नाही कीया पूर्वै कह्या तिसही अर्थरूप है ऐसा जनाया है। बहुरि अल्प कहनेते यामैं थोरे अक्षरनिमैं ही अर्थ बहुत है ऐसें याका निष्प्रयोजनपनां निषेध्या है। यह प्रमाण तदाभासका लक्षण कौंन हेतु” कहिये है जातें अर्थ जो जानने योग्य वस्तु ताकी संसिद्धि कहिये प्राप्ति होनां अथवा जाननां ये दोऊ प्रमाणतें होय हैं यातें । बहुरि केवल प्रमाणते अर्थकी संसिद्धि होय है, ऐसाही नांहीं है प्रमाणाभासतें अर्थसंसिद्धिका अभावभी होय है यारौं दोऊहीका लक्षण कहनां । बहुरि इति Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। शब्द है सो हेतु अर्थमैं है अर याका समुदायार्थ उपरि कह्या सो जाननां । इहां तर्क-जो अभिधेय, संबंध, शक्यानुष्ठानइष्टप्रयोजन इन तीननि करि सहित शास्त्र होय हैं । तहां इस प्रकरणका जहां ताई अभिधेय अरु संबंध ये दोऊ न कहिये तहां ताई याका उपादेयपणां न होय-यहु ग्रहण करने योग्य न होय। इहां उदाहरण-जैसैं काहू नैं कह्या जो यह वंध्याका पुत्र जाय है, आकाशके फूलनिका जाकै मस्तक सेहुरा है, मरीचिका-भाडलीमैं स्नान करि जाय है, सुसाके सींगका धनुष धारे है, ऐसे कहनेमैं किछू वस्तु नांही अवस्तु कहे तातैं यामैं अभिधेय-अर्थ नाही । बहुरि काहूनैं कह्या-दश दाडिम हैं, छह पूवा हैं, चरवी है, छलीका चामड़ा है, मांसका पिंड है अथवा अहो देखो यह गेरू है स्पष्ट किया ताका पिता शीला होय गया ऐसे वचन कहे तिनिमैं काहूका संबंध न मिल्याप्रलापमात्र भये । ऐसें शास्त्रमैं अभिधेय सम्बन्धरहित वचन होयतौ परीक्षावान आदरै नांही । बहुरि तैसैं ही जो अशक्यानुष्ठानइष्टप्रयोजन होय जाका ग्रहण करना कठिन होय अरु अपने इष्ट होय तो जैसे सर्पका मणि सर्वज्वर–रोगका हरनहारा है ऐसे कहनेमैं रोगका हरणां तौ इष्ट है परन्तु तिसका ग्रहण करना कठिन है ऐसे वचनकू परीक्षावान आदरै नांही । तैसैंही शक्यानुष्ठान अनिष्टप्रयोजन होय, जैसैं काहू. कह्या माताका विवाह करना, तौ याका करनां तौ सुगम है परन्तु यह इष्ट नाही सो ऐसे वचन भी परीक्षावान आदरै नांही । तातैं ये तीनूं ही या शास्त्रके कहे चाहिए ? ताका समाधान;-आचार्य कहै है जो यहु सत्य है । या प्रकरणके अभिधेय प्रमाण अरु प्रमाणभास हैं ते तौ इस श्लोकमैं प्रमाण तदाभास पदका ग्रहण” कहे ही, जातें इस प्रकरणकरि प्रमाण प्रमाणाभासकाही Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितकथन करिये है । बहुरि संबंध है सो अर्थका सामर्थ्यहीनैं आया जातें या प्रकरणकै अरु प्रमाण प्रमाणाभासरूप अभिधेयकै वाच्यवाचक है लक्षणजाका ऐसा संबंध प्रतीतिमैं आवैही है। बहुरि प्रयोजन शक्यानुष्ठानरूप अरु इष्टरूप है सोभी आदि श्लोककरिही लखिये है, जातै प्रयोजन दोय प्रकार है एक साक्षात् , दूजा परंपरा। तहां इस श्लोकमैं 'वक्ष्ये' ऐसा पद है सो या पदकरि साक्षात् प्रयोजन कहिये है जातें संशय विपर्ययरहित शास्त्रका ज्ञान होनेरौं शिष्यजन देखि लैंगे, शिष्यजननिहीकू विचारि करि कहनेकी प्रतिज्ञा करी है सो यही साक्षात् प्रयोजन है; बहुरि परंपराप्रयोजन अर्थका ज्ञान तथा प्राप्ति है सो आदि श्लोकमैं 'अर्थसंसिद्धि' ऐसा पद है ताकरि कह्या, जातैं शास्त्रके ज्ञानकै अनंतर अर्थका ज्ञान तथा प्राप्ति होयगी ऐसैं जाननां । फेरि तर्क-जो समस्त विघ्नके नाशकै आर्थ इष्टदेवताका नमस्कार शास्त्रकी आदि विषं चाहिये सो इस प्रकरणके कर्त्तानैं न किया सो कहा कारण ? ___ ताका समाधान;-आचार्य कहै है जो ऐसैं न कहनां, जातॆ नमस्कार मन अरु कायकरि भी संभव है तातें ऐसैं जानूं मन करि अरु कायकरि शास्त्रके प्रारंभ करतें कर लिया होयगा। बहुरि वचनकरि नमस्कारभी इस आदि वाक्यकरि जाननां, जातें केई वाक्य ऐसे हैं जिनका दोय आदि अर्थभी देखिये हैं; जैसैं काहूनैं कह्या 'श्वेतो धावति' ऐसे वाक्यके दोय अर्थ होय हैं, एक तौ ऐसा जो 'श्वा' कहिये कूकरा (कुत्ता) -सो 'इतः'कहिये या तरफ 'धावति' कहिये दोडै है । बहुरि दूजा अर्थजो श्वेत कहिये धोला गुणयुक्त कोई दोडै है । ऐसे दोय अर्थकी प्रतीति है । तहां आदिके वाक्यकै विर्षे नमस्काररूप अर्थभी है, सोही कहिये हैं;-तहां अर्थ कहिये हेयोपादेयरूप वस्तु ताकी संसिद्धि कहिये यथार्थ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ! ज्ञान सो प्रमाण” होय है, तहां मा कहिये लक्ष्मी अन्तरंग तो अनंतचतुष्टयरूप अरु बाह्य समवसरणादिकरूप; बहुरि आण कहिये शब्द इनि दोऊनिका द्वन्द्वसमासतें माण ऐसा भया, बहुरि उपसर्ग जोड्या तब प्रमाण भया सो इस उपसर्गके योग” ऐसा अर्थ भया जो ऐसी प्रकृष्ट उत्कृष्ट लक्ष्मी हरि-हर-ब्रह्मा आदिकू लौकिकदेव मानै है तिनिकै नांही । बहुरि ऐसी दिव्यध्वनि वाणी प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणते विरोधरहित अन्यकै नाही, ऐसा प्रमाणनाम भगवान अरहंतकाही भया ऐसैं असाधारण गुण दिखावनां-कहना है सो भगवानका स्तवनही है तातें अर्थकी संसिद्धिकू अवश्य कारणभूत जो प्रमाण कहिये भगवान अर्हन्त तारै तौ अर्थकी संसिद्धि सम्यग्ज्ञान होय है । बहुरि प्रमाणाभास जे हरिहरादिक तिनि” अर्थकी संसिद्धिका अभाव-मिथ्याज्ञान होय है । इस हेतु” इस प्रकरण तिनि प्रमाण प्रमाणाभासका लक्षण कहूंगा । ऐसैं कह्या तैसा आगैं सूत्र कहियेगा । जो “सामग्रीविशेष" इत्यादिक तिनिमैं सर्वज्ञ असर्वज्ञका निश्चय करियेगा। ऐसैं अरहंतका सत्यार्थस्वरूप कहनां सो मंगलरूप भया, अन्यका निषेध सो अमंगलका निषेध है ऐसा जाननां । आगैं अब कहनेंकू प्रारंभ किया जो प्रमाणतत्व ताविषै अन्यवादी. निकै च्यारि विप्रतिपत्ति हैं । स्वरूपविप्रतिपत्ति १ संख्या विप्रतिपत्ति २ विषयविप्रतिपत्ति ३ फलविप्रतिपत्ति ४ ऐसैं च्यारि । तिनिमैं प्रथमही स्वरूपकी विप्रतिपत्तिका निराकरणकै अर्थि सूत्र कहै है । इहां विप्रतिपत्ति नाम अन्यथा जाननेंका है सो प्रमाणका स्वरूप अन्यवादी अन्यप्रकार कहै है सो बाधासहित है, सत्यार्थ नाहीं, ऐसा इस सूत्रतें सिद्ध होय है; स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ॥ १ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित याका अर्थ-स्व कहिये आप आत्मा अपूर्वार्थ कहिये पहिले जाकी प्रमाणता न भई ऐसा अन्य वस्तु इनि दोऊनिवि व्यवसायात्मक कहिये व्यापारकरि निश्चय करने स्वरूप जो ज्ञान सो प्रमाण है । इहां प्रमाण शब्दकी निरुक्ति ऐसी;-'प्र' कहिये प्रकर्षरूप संशय, विपर्यय, अनध्यवसायकरि रहित होय कार 'मीयते ' कहिये वस्तुस्वरूपकू जानिये जा करि सो प्रमाण है, ऐसे करणसाधनरूप निरुक्ति है, सो ऐसा ज्ञान विशेषणकरि तौ जे अज्ञानरूप संनिकर्ष आदिकू प्रमाण मानें है तिनिका निराकरण भया । तहां लघु नैयायिकमतवाले तौ इंद्रियकै अर पदार्थकै संबंध होना ऐसा जो सन्निकर्ष ताकू प्रमाण मानै है, अर बड़े पुराणे नैयायिक ते कर्ता कर्म आदि कारकनिका सकलपणांकू प्रमाण मानें हैं । बहुरि सांख्यमतवाले इन्द्रियनिकी प्रवृत्तिहीकू प्रमाण मानें हैं । बहुरि प्राभाकर जे मीमांसकमतके भेदवाले अज्ञानरूप जो ज्ञाता का व्यापार ताकू प्रमाण मानें हैं तिनिका निषेध ज्ञान कहनेंतें भया। बहुरि बौद्धमती प्रमाण ज्ञानहीकू कहैं हैं परन्तु प्रमाणका भेद जो प्रत्यक्ष ताके च्यारि भेद करें हैं । स्वसंवेदनप्रत्यक्ष १ इन्द्रियप्रत्यक्ष २ मानसप्रत्यक्ष ३ योगिप्रत्यक्ष ४ ऐसैं यहू च्यारूंही प्रकारका प्रत्यक्ष निर्विकल्प-व्यापार करि रहित मानैं हैं तिनिके निराकरणकै अर्थि व्यवसायपदका ग्रहण है। जो व्यापाररूप सविकल्प होय-निश्चय करनेवाला होय सो प्रमाण है । बहुरि अर्थपदका ग्रहणते जे बाह्य पदार्थका लोप करनेवाले विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धमती तथा ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्तमती तथा दीखती वस्तुका लोप करनेवाले शून्यएकान्तवादो तिनिका निराकरण है। बौद्धमतीके च्यारि भेद हैं तहां माध्यमिक तौ सर्वशून्य मानै हैं, बहुरि योगाचार बाह्यपदार्थकू शून्य मानें है ज्ञान• अद्वैत मानैं हैं, बहुरि सौत्रांतिक अनुमानका विषय अनुमेयकू अवस्तु मानें हैं, बहुरि वैभाषिकभी सर्व वस्तुकू शून्य Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । मानैं हैं । बहुरि अर्थका अपूर्व विशेषण है सो गृहीतग्राही पहले ग्रहण किया-जान्यां ताहीकू ग्रहण करै-जानै ऐसा जो धारावाही ज्ञान ताकै प्रमाणताका निषेधकै आर्थ है, धारावाहीज्ञान प्रमाणका फलरूप प्रमिति है करणस्वरूप प्रमाण नाही । बहुरि स्वपदका ग्रहणते ज्ञानकू परोक्षही मानैं ऐसे मीमांसकमती तथा ज्ञान स्वसंवेदनस्वरूप नाही परही• जान है-आपकू आप जानै नांही ऐसे मानने वाले सांख्यमती तथा ज्ञान है सो दूसरे ज्ञान करि जानिये है आपकू आपही जानें नाही ऎसैं माननेवाले यौगमती नैयायिक इनिका निषेध है; ज्ञान स्वपरप्रकाशक है। ऐसैं अव्याप्ति अतिव्याप्ति असंभव ऐसे तीन लक्षणके दोष हैं तिनि” रहित भलै प्रकार ठहरया निश्चय भया प्रमाणका लक्षण है। ऐसैं यहु सूत्र है सो प्रमाणभूत है। तहां अनुमानप्रमाणका प्रयोगस्वरूप या सूत्रकू दिखाइए है;-तहां प्रमाण तौ इहां धर्मी है ता वि. यह लक्षण कह्या सो साध्य है, बहुरि प्रमाण जो धर्मी सो ही इहां हेतु कहनां । इहां प्रश्न;-जो प्रमाण शब्दकै तौ प्रथमा विभक्ति है अर हेतु विर्षे पंचमी होय है सो प्रमाण शब्द हेतु कैसैं ? ताका समाधान;-जो कोई जायगां प्रथमा विभक्ति अंतपदभी हेतुस्वरूप होय है, जैसैं कह्या है 'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं' इहां साध्य साधनका प्रयोग करिये तब प्रथमाभी हेतुरूप है, इस सूत्रका प्रयोग ऐसे किया है, “प्रमाण है सो स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान है, काहे तैं जाते प्रमाणपनां याही है, तातें जो स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान नाहीं सो प्रमाण नाहीं जैसे संशयादिक स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक नाही ते प्रमाणभी नाही तथा घट आदि जडपदार्थ ते भी ऐसे नाही ते प्रमाण नाहीं, बहुरि प्रमाण है सो ऐसा है, ता” स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान है सो ही प्रमाण Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित १३ है ।" ऐसैं अनुमानके पंच अवयवरूप यह सूत्र है । धर्मी अर साध्य दोऊ स्वरूप पक्ष कहिये ताका वचन सो प्रतिज्ञा है, साधनका वचन सो हेतु है, व्याप्तिकूं लार लगाय दृष्टांतका वचन सो उदाहरण है, दृष्टांतकूं अरु पक्षं समान कहनां हेतुको संकोचनां सो उपनय, साध्यका नियम कहनां सो निगमन, ऐसैं इनि पांचनिका स्वरूप आगैं सूत्रकार कहसी । ऐसैं सूत्र है सो प्रमाणभूत है आप्तका यह वचन है तातें तौ आगमप्रमाणरूप हो है, बहुरि अनुमानके अवयवरूप हो है । बहुरि सूत्रका ऐसा भी स्वरूप कह्या है; - जामैं अक्षर अल्प होय, बहुरि जामैं संदेह न उपजै, बहुरि सारर ( स ) हित होय निःसार नाही होय, बहुरि जामैं निर्णय गूढ होय, अर्थ गंभीर होय, बहुरि शब्द अर्थ जामैं निर्दोष होय, बहुरि हेतुसहित होय, बहुरि सत्यार्थ होय ऐसा होय सो सूत्र है, सो इस प्रकर के सर्वसूत्रनिका ऐसा स्वरूप जाननां । इहां प्रमाणकूंही हेतु कह्या सो असिद्ध नांही है जातैं सर्वही प्रमाणका स्वरूप कहनेवालेनिकै प्रमाणसामान्यविषै विप्रतिपत्तिका अभाव है, प्रमाणसामान्य प्रसिद्ध है जो ऐसैं नांही मानिये तो अपना इष्टतत्वकं साधनां परका इष्टतत्वकं दूषण देनां न होय. प्रमाण विनां काहे साधै का दूषै । इहां तर्क; - जो धर्मीहीकूं हेतु कहे प्रतिज्ञाका एकदेश भया सो असिद्धनामा हेत्वाभास भया । ताका समाधान; -- जो ऐसैं नांही, प्रमाणका विशेषकं धर्मीकरि अरु प्रमाण सामान्यकूं हेतु कहैं तिनिकै दोष नाही आवै है इसही वचनतैं या हेतुकं अपक्षधर्म कहै सो भी नांही है जातैं सामान्य है सो समस्त विशेषनिमैं ब्यापक होय है सो पक्षका धर्मही है । बहुरि हेतुकै पक्षका धर्मपणांका बलकार साध्य प्रति गमकपणां नही है साध्य विनां न होना इस बलतैं ही साध्य प्रति गमकपणां हैं तो यह साध्यान्यथानुपपत्ति कहिये,. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। सो इहां प्रमाणनामा हेतुकै स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञाननामा साध्यतै नियम करि पाइए है सो विपक्ष जो संशयादिक तिनिविर्षे यह साध्यान्यथानुपपत्ति नाहीं है सोही बाधक प्रमाण है ताके बलते निश्चयस्वरूप है। इसही कथनतें इस हेतुकै विरुद्धपणां बहुरि अनैकान्तिकपणां भी निराकरण भया ऐसा जाननां जाते विरुद्ध हेतुकै अरु व्यभिचारी हेतुकै अविनाभावका नियमका निश्चय सो ही है लक्षण जाका ऐसी व्याप्तिका अयोग है या” प्रमाणत्वनामा हेतु तैं यथोक्त साध्यकी सिद्धि होयही है, यह केवलव्यतिरेकी हेतु है तारौं साध्य प्रति गमकही है । जैसैं ऐसे हेतु और भी कहैं हैं;-जीविता शरीर आत्मासहित है, जातै प्राणादिसहितपणा है, जो आत्मासहित नाहीं होय सो प्राणादिसहित नाही होय-श्वासोच्छासादिक्रिया जामैं नाहीं होय जैसैं मृतकशरीर, ऐसैं प्राणादिमत् पणां हेतु केवलव्यतिरेकी है याका अन्वयव्याप्तिरूप दृष्टांत नाही ता” केवलव्यतिरेकी कहिये, तैसैं प्रमाणत्वनामा हेतु भी केवलव्यतिरेकी जाननां, याकाभी अन्वयव्याप्तिरूप दृष्टांत नांही है। ___ इहां पहले कह्या था जो प्रमाण संशयादिरहित वस्तुकं जानै है संशयादिकका स्वरूप न कह्या सो ऐसे है-जो दोय पक्षमैं ज्ञान समान होय-निर्णय न होय सकै, जैसैं स्थाणु था ता वि अंधकारादिके निमित्त संशय उपज्या ‘जो यह स्थाणुहै कि पुरुष है। ऐसे दोऊ पक्षमें निश्चय न भया, जो कहा है सो तौ संशय है । बहुरि 'दोऊ पक्षमैं एकका अन्यथाका निश्चय होना सो विपर्यय है' जैसैं स्थाणु था ता विर्षे ऐसा निश्चय भया जो यहु पुरुषही है, ऐसा विपर्यय है । बहुरि अनध्यवसायजामैं चलते तृणादिका स्पर्श भया तहां ऐसा 'ज्ञान जो कछु है' ऐसैं जामैं संशय भी नांही अन्यथा निश्चय भी नाही यथार्थ निश्चय भी नांही सो अनध्यवसाय है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित बहुरि अव्याप्त अतिव्याप्त असंभवि ये तीन लक्षणाभास कहे । तिनिका स्वरूप ऐसा-जो लक्ष्य काहू वस्तुकू स्थापि ताका लक्षण करिये सो जो लक्षण लक्ष्यके सर्वविशेषभेदनिमैं न व्यापै कोईमैं होय कोई विशेषमैं न होय सो लक्षण अव्याप्तस्वरूप है । बहुरि जो लक्षण लक्ष्य स्थाप्या तामैं भी होय अरु जो लक्ष्य नाही तामैं भी होय सो अतिव्याप्त है । बहुरि जो लक्ष्य स्थाप्या तामैं नांही संभवै सो असंभवि है। सो इहां प्रमाण तो लक्ष्य है अर स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान लक्षण है, सो ज्ञान ऐसा कहनेमैं तौ सम्यग्ज्ञानके पांच भेद हैं ते परोक्ष प्रत्यक्ष प्रमाणके भेद हैं तिनिमैं सर्वमैं पाइए है तातें अव्याप्त लक्षण नाही । बहुरि व्यवसायात्मकविशेषण" संशयादिक अप्रमाण ज्ञान हैं तिनिमैं व्यवसाय कहिये यथार्थ निश्चयस्वरूपपणां नाही तातै तिनिमैं व्यापै नांही तातें अतिव्याप्त नाही । बहुरि स्वविशेषण" असंभव दोष भी नाही है जो आपकू न जानैं सो परकू भी न जानैं ऐसा असंभवदोष यामैं नाही । ऐसे त्रिदोषरहित लक्षण जाननां । जो लक्ष्य अप्रसिद्ध होय ताका प्रसिद्ध चिह्न होय सो लक्षण होय है ॥ १॥ ___ आगैं अब अपना कह्या जो प्रमाणका लक्षण ताका ज्ञान ऐसा विशेषण किया, ताकू समर्थनरूप दृढ करते संते आचार्य सूत्र कहैं हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ॥२॥ ___ याका अर्थ-हि कहिये जातें हितकी प्राप्ति अहितका परिहार विौं समर्थ प्रमाण है तातें ऐसा ज्ञानही है । अज्ञानरूप सन्निकर्षादिकवि यह सामर्थ्य नाही । तहां हित तौ सुख है जाते सर्व प्राणी सुखहीकू चाहें हैं, बहुरि सुखका कारण है सो भी हित ही है । बहुरि Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । अहित दुःख है जातै सर्व प्राणी दुःखकू दूरि किया चाहैं हैं बहुरि दुःखका कारण है सो भी अहित ही है इहां दोऊनिका द्वंद्वसमास है। बहुरि प्राप्ति अरु परिहारका द्वंद्वसमास करणां ताकू यथासंख्य लगा. वनां, तब हितकी प्राप्ति अहितका परिहार ऐसा भया । इनि दोऊविौं समर्थ कहिये करनेकी शक्तियुक्त ऐसा । बहुरि 'हि' शब्द हेतु अर्थमैं है तातें ऐसा अर्थ भया जो हिताहितकी प्राप्ति परिहार वि. समर्थ है सो ही प्रमाण है । तातै प्रमाणपणां करि मान्यां जो वस्तु सो ज्ञानही होने योग्य है । अज्ञानरूप जे अन्यमतीनिकरि मानें सन्निकर्ष आदि प्रमाण ते हितकी प्राप्ति अहितका परिहारविर्षे समर्थ नाही तातें ते प्रमाण नाही । या सूत्रका अनुमान प्रयोग ऐसैं करना;'प्रमाण ज्ञान ही है,' यह तौ धर्मी अर साध्यके वचनरूप प्रतिज्ञा भई, बहुरि ‘हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थपणांतें' यह साधनका वचनरूप हेतु भया, बहुरि 'जो ज्ञान है सोही ऐसा है अन्य ऐसा नाही जैसैं घट आदि जड़पदार्थ' यह व्यतिरेकव्याप्तिरूप दृष्टांतका वचन सो उदाहरण भया, बहुरि 'ऐसा यह प्रमाण है' यह उपनय भया, बहुरि 'तारौं हिताहितप्राप्तिपरिहारविर्षे समर्थ जो प्रमाण सो ज्ञान ही है' यहु निगमन भया। ऐसैं पांच अवयरूप अनुमानका प्रयोग या सूत्रका होय है । इहां हेतु, असिद्ध नाही है जानै परीक्षावान पुरुष हैं ते हितकी प्राप्ति अहितका परिहारकै अर्थिही प्रमाणकू विचारें हैं, निष्प्रयोजन व्यसनमात्रही प्रमाणकी कथनी नांही करें है । ऐसैं सर्वही प्रमाणके कहनेवाले मात्रै हैं ॥२॥ __ आरौं बौद्धमती कहैं हैं जो सन्निकर्षादिक अज्ञानरूप ही प्रमाणकू मानें हैं तिनिके निराकरणकै अथि ज्ञानहीकै प्रमाणपणां कह्या सो तौ होहु याकू हम नाही निषेधै हैं, बहुरि तुम व्यवसायात्मक ज्ञानका विशेषण किया सो या वि हम युक्ति नाही देखें हैं जो यह तुम कैसे Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १७ कहौ हौ ? हमारै तौ अनुमान प्रमाणकै तौ व्यवसायात्मकपणांकरि प्रमाणपणांका अंगीकार है, बहुरि प्रत्यक्षप्रमाणकै तौ निर्विकल्पणां होते ही सत्यार्थपणांत प्रमाणपणां वर्ण है, ऐसैं बौद्ध कहै ताके समाधानकै अर्थि सूत्र कहैं हैं; तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥३॥ याका अर्थ-तत् कहिये प्रमाणस्वरूप कह्या जो ज्ञान सो निश्चयात्मक कहिये निश्चयस्वरूप है, काहे तैं ? जातें समारोप कहिये संशयादिक तिनित विरुद्ध है यथार्थ है, जैसे अनुमान है तैसैं । इहां याका प्रयोग ऐसैं–तत् कहिये सो प्रमाणपणांकरि मान्यां वस्तु यह तौ धर्मी भया, बहुरि यह निश्चयात्मक कहिये व्यवसायस्वरूप है यहु साध्य है, दोऊ मिल्या हुवा पक्ष है, याका वचनकू प्रतिज्ञा कहिये । बहुरि समारोपविरुद्धपणांतँ यह हेतु है, इहां समारोप नाम संशयादिकका है। बहुरि अनुमानवत् यहु दृष्टांतका वचन सो उदाहरण है । इहां यहु अभिप्राय है जो संशय विपर्यय अनध्यवसाय स्वभाव जो समारोप जिसका विरोधी जो वस्तुका ग्रहण कहिये जाननां सो है लक्षण जाका ऐसा व्यवसायस्वरूपपणांकू होते ही अविसंवादी पणां कहिये बाधारहित सत्यार्थपणां सो वणै है, बहुरि जो अविसंवादी पणां है सो ही प्रमाणपणां है । ऐसें बौद्धमतीनैं मान्यां जो च्यारि प्रकारका प्रत्यक्षप्रमाण ताकै प्रमाणपणांकू अंगीकार करनेका इच्छुक है तौ समारोपका विरोधी जो ग्रहण—जाननां सो है लक्षण जाका ऐसा निश्चयात्मक ज्ञानकू ही प्रमाण माननां योग्य है। इहां बौद्धमती कहै है जो समारोपका विरोधी अरु व्यवसायात्मक ये दोऊ रूप तौ एक ज्ञानहींके भये तहां साध्यसाधनभाव एक ज्ञानहीकै हि. प्र. २ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित कैसै वर्णै ? ताकू आचार्य कहै है-ऐसैं न माननां जाते इनि दोऊनिकै ज्ञानस्वभावकार अभेद होतें भी व्याप्यव्यापक जो धर्म तिनिका आधारपणां करि भेदभी वणै है, जैसैं शीघ्र नामा वृक्ष है ताकै शीघ्र पणांकै वृक्षपणांतें अभेद होतें भी व्याप्यव्यापक धर्मके आधारपणांकार भेद वण है । भावार्थ-व्यापककै तौ व्याप्य बहुत है बहुरि व्याप्यकै सो व्यापक एक ही है, तहां व्यापककू तौ गम्यसंज्ञा कही है अरु व्याप्यकू गमकसंज्ञा कही है, सो इहां व्यवसायस्वरूप ज्ञान तौ व्यापक है जारौं यथार्थनिश्चयात्मक जो प्रमाण ताविर्षे भी वर्ते है अरु अन्यथानिश्चयात्मक जो विपर्यय ज्ञान तामैं भी वर्ते है । बहुरि समारोपका विरोधीपणां है सो यथार्थनिश्चयात्मक ज्ञान विषं ही प्रवत्र्त है, विपर्ययवि. नांही है तातें भेद है; जैसैं वृक्षपणां तौ सर्व वृक्षनिमैं वत्त है सो व्यापक है बहुरि शीतूंपणां शीघ्र वृक्षविषै ही व” है तातें व्याप्य है, तातै शीतूंपणां तौ वृक्षविर्षे गमक भया अर वृक्षपणां शीतूंकै गम्य भया, ऐसा जननां तातें साध्यसाधनभाव वणै है। बौद्धमती प्रत्यक्ष प्रमाणाका लक्षण कल्पनारहित अभ्रांत ऐसा कहै है, ताकू अविसंवादस्वरूप कहैं हैं, अर्थक्रियाहीतैं कहैं हैं, वस्तुका प्राप्त करनेवाला कहैं हैं, याहीकू वस्तुका प्रवर्तक कहैं हैं, अपने विषयका दिखावनेवाला कहैं है, वस्तुविर्षे निश्चय उपजावनहारा कहैं हैं सो ऐसा तौ व्यवसायात्मक विशेषण किये ही बगैंगा। बहुरि अनुमानकू बौद्धमती सविकल्प सामान्यमात्रविषयस्वरूप कहैं हैं ताकू इहां दृष्टांत कीया है जो जैसैं अनुमानकू निश्चयस्वरूप सविकल्प मानें हैं तैसैं प्रत्यक्षकू भी मानों, सर्वथा निर्विकल्पकै प्रमाणपणां वर्णं नाही । बहुरि इहां समारोपका विरोधी कह्या सो विरोध तीनप्रकार होय है, एक तौ सहानवस्थानलक्षण, जहां दोऊ विरोधी एकठे हैं नांही जैसैं प्रकाश अरु अंधकार । बहुरि दूजा परस्परपरिहारलक्षण, जैसे Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। एकठे तौ रहैं परन्तु स्वरूप मिलै नांही जैसैं रूपगुण अर रसगुण, एक वस्तुमैं रहै स्वरूप जुदा जुदा है ही । तीसरा वध्यघातकलक्षण, परस्पर घातकरै जैसैं सर्पकै अरु न्योलाकै वैर होय । सो इहां समारोपकै अरु यथार्थनिश्चयात्मककै सहानवस्थानलक्षण विरोध है, यथार्थ निश्चय होय तहां समारोप संशय विपर्यय अनध्यवसाय रहै नांही ॥ ३ ॥ ____ आगैं अब प्रमाणका लक्षणमैं अपूर्व विशेषणसहित अर्थका ग्रहण है ताकू समर्थन करि दृढ़ करता संता—तिसकू स्पष्ट करता संता सूत्र कहैं है; अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ॥४॥ ___ याका अर्थ-जाका पूर्वं निश्चय न भया होय ऐसा वस्तु अपूर्वार्थ है। तहां जो अन्य प्रमाणकरि संशयादिकका व्यवच्छेद करि निश्चय न किया ऐसा जो अर्थ कहिये वस्तु सो अपूर्वार्थ है । ऐसा कहने करि ईहा ज्ञानका विषय वस्तुकू पहिले अवग्रहादिक करि ग्रहण किया ताकै गृहीतग्राहीपणां होतें भी पूर्वार्थपणां नांही है, जातें ईहादिक ज्ञानका विषयभूत वस्तु अवग्रहके ग्रहे पीछे जो अवान्तरॅविशेष कहिये अन्यावशेष सो अवग्रहादिकरि निश्चय नाही होय है तातै पूर्वार्थ नाही है, अपूर्वार्थ ही है ॥ ४ ॥ ___ आगैं कहै हैं, जो अपूर्वार्थ कह्या सो याही प्रकार है कि कोई अन्य भी प्रकार है ऐसैं पू. सूत्र कहै हैं; दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् ॥५॥ याका अर्थ-जो वस्तु पूर्वै देख्या होय-प्रमाण निश्चय किया होय पी2 ताविर्षे संशयादिक जो समारोप सो होय जाय तौ वस्तु 'तादृक्' कहिये विना निश्चय कीया समान है-अर्वार्थ है । तहां 'दृष्टोऽपि' Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित कहिये अन्य प्रमाणकरि ग्रह्मा होय तौ भी तादृक् कहिये अपूर्वार्थ हीं है । इहां ऐसा अर्थ भया जो अनिश्चित ऐसैं पूर्वै कह्या सो ही केवल अपूर्वार्थ नांही है, देखे विषै भी संशयादिक होय जाय सो भी अपूवार्थ है । इहां ऐसा अर्थ है जो अन्यप्रमाणकरि पहली ग्रह्या था सो धुंधला आकारपणां करि निर्णय न होय सकै सो भी वस्तु अपूर्व है जातैं तिसविषै प्रवर्त्त्या जो समारोप कहिये संशयादिक तिनिका व्यवच्छेद नांही है ॥ ५ ॥ आगैं जे ज्ञानकूं स्वप्रकाशक नांही मांनैं हैं ते कहैं हैं जो विज्ञान कै अपूर्वार्थ व्यवसायात्मकपणां तौ होहु परन्तु स्वव्यवसाय तौ हम नांही जानैं हैं, ऐसैं कहै ताकूं उत्तरका सूत्र कहै है; - स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्थ व्यवसायः ॥ ६ ॥ 1 याका अर्थ — अपने सन्मुखपणां करि अपनां प्रतिभासनां सो अपना व्यवसाय है । अपनें स्वोन्मुखपणां सो तौ ' स्वोन्मुखता कहिये ऐसैं अपना अनुभव ताकरि प्रतिभासनां प्रतीति होनां सो 'स्वस्य व्यवसाय' कहिये । तहां मैं मेरै तांई जानूं हूं ऐसी प्रतीति जाननीं ॥६॥ इहां दृष्टान्तका सूत्र कहै हैं; अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥ ७ ॥ याका अर्थ —जैसैं अर्थ कहिये अन्यपदार्थ ताकै सन्मुख होय ताकू जानै है तैसैं ही आपके सन्मुख होय अपनीं तरफ देखै तब आपकूं जानैं । इहां 'तत्' शब्द करि तौ अर्थका ग्रहण करनां जैसैं अर्थके सन्मुखपणां करि प्रतिभासनां होय तब अर्थका निश्चय होय है तैसैं अपने सन्मुखपणां करि अपनां प्रतिभासनां होय तब अपनां निश्चय. होय है ॥ ७ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । आमैं इहां उल्लेख कहै हैं;-( दृष्टान्त दार्टान्तिकका उदाहरणकू उल्लेख कहिये ); घटमहमात्मना वेभि ॥८॥ याका अर्थ—मैं आपही करि घट है ताहि जानूं हूं। इहां 'अहं' ऐसा तौ कर्ता है, 'घट' कर्म है, 'आत्मना' करण है, 'वेद्मि' ऐसी क्रिया है । सो जैसैं आप आपकरि घट वस्तुकू जानैं है तैसैं आप आपकरि आपकू भी जानैं है ऐसा जाननां ॥ ८ ॥ आगैं इहां नैयायिक तौ कहै है;-ज्ञान है सो अन्यपदार्थकू ही निश्चय करै है-कर्महीकू जानैं है आपकू नांही जानैं है, आप करण है तथा आत्मा जो कर्ता है ताकू भी नांही जानैं है तथा फलरूप क्रिया है ताकू भी नांही जानैं है । इहां जैनमत अपेक्षा अज्ञानका नाश होनां हेयोपादेयका जाननां तथा वीतरागतारूप होनां ऐसा प्रमाणका फल जाननां । बहुरि मीमांसकनिमैं भट्टमतवाले कहै हैं—जो कर्ता अरु कर्मकू ही ज्ञान जान है, आप करण है सो आपकू आप नांही जान है अर क्रियारूप फलकू भी नांही जान है। बहुरि मीमांसकमतमैं ही जैमिनीय मत हैं ते हैं हैं कर्ता कर्म क्रियाकू ज्ञान जानै है अरु आप करण है सो आपकू आप नांही जानैं है । बहुरि मीमांसकमतमैं ही प्रभाकरका मत है सो कहै है-कर्म क्रियाही• ज्ञान जानै है आत्मा कर्ताकू अर आप करण• नांही जानैं है । सो ये सर्वही मत प्रतीतिबाधित हैं ऐसा दिखावता संता सूत्र कहैं हैं; कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः ॥ ९॥ याका अर्थ-ज्ञानविषं जैसैं कर्मकी प्रतीति है तैसे ही कर्ता, करण, क्रियाकी प्रतीति है ऐसैं पूर्वसूत्रका हेतुरूप यहु सूत्र है; तातै पंचमी Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित विभक्ति अन्तमैं है । तहां ज्ञानका विषयभूत वस्तु है सो तौ कर्म कहिये है, जानैं कर्मका स्वरूप ऐसा है जो क्रियाकै व्याप्य होय-प्राप्त होने योग्य होय तथा रचने योग्य होय तथा विकार करने योग्य होय सो इहां ज्ञप्तिक्रियाकै व्याप्य ज्ञानका विषय वस्तु ही है । बहुरि कर्मवत् कह्या सो यह उपमा अलंकाररूप दृष्टान्तका वचन भया । बहुरि कर्ता आत्मा है । बहुरि करण प्रमाणरूप ज्ञान है । बहुरि क्रिया प्रमिति है । तिनिका द्वंद्व समास करि प्रतीति शब्दः षष्ठीतत्पुरुष समास करना, ताकै अंतविर्षे हेतु अर्थ मैं पंचमी विभक्ति करनी । इहां वृत्तिमैं 'का' ऐसी पंचमीकी संज्ञा है सो जैनेन्द्रव्याकरण अपेक्षा है । ऐसैं पहले सूत्र कह्या तामैं अनुभवका उल्लेख है ता विर्षे यथा अनुक्रम संबंध करणां तब ऐसा अर्थ होय है-जो ज्ञान जैसैं अपनां विषयभूत वस्तु जो कर्म ताकी प्रतीति करै है तैसैं ही कर्ता आत्माकी तथा करणरूप आपकी तथा क्रियाकी प्रतीति करै है यातैं जैसैं घटकू मैं आप करि जानूं हूं ऐसी प्रतीति करै है तैसैं ही कर्ता करण क्रिया विषै भी मैं इनिकू जानूं हूं ऐसी प्रतीति करै है यामैं बाधा नाहीं है, अनुभवसिद्ध है । इहां ऐसा जाननां जो एक ही ज्ञानमैं कर्ता आदि अनेक कारक अवस्था भेद विवक्षा कार संभवै है तातें जैनमत स्याद्वाद है तामैं अपेक्षातै विरोध नाहीं है, सर्वथा एकांतीनिकै विरोध आवै है ॥ ९॥ आगैं कोई कहै जो यह कर्ता आदिकी प्रतीति कही सो तौ शब्दका उच्चारमात्र ही है वस्तुका स्वरूपका बलतें तौ नाहीं उपजी, कहने मात्र है, वस्तुस्वरूप ऐसें नाहीं, ऐसा प्रश्न होतें सूत्र कहैं हैं;-- शब्दांनुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ॥१०॥ याका अर्थ-यह कर्ता आदिकी प्रतीति ज्ञाने कै होय है सो शब्दका उच्चार विना भी होय है ऐसैं आपका अनुभव आपकै है जैसैं Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। २३ अन्य अर्थका अनुभवन है तैसैं ही आपका है । तहां जैसैं घट आदिक शब्द है तिनिका उच्चार किया विना भी घट आदि वस्तुका ज्ञानविय तदाकार अनुभव होय है तैसैं ही 'मैं हूं मैं हूं' ऐसा जो अन्तरङ्गकै विर्षे सन्मुख होतें आपका तदाकारपणा करि प्रतिभास होय है सो शब्दके उच्चार किये विना ही आपकरि अनुभव कीजिये है ॥ १० ॥ ___ आगें इस ही अर्थकू युक्तिपूर्वक अन्यवादीका उपहाससहित वचन जैसैं होय तैसैं सूत्र कहैं हैं; को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छस्तदेव तथा नेच्छेत् ॥ ११ ॥ __याका अर्थ-तिस ज्ञान करि प्रतिभास्या जो अर्थ कहिये वस्तु ताकू प्रत्यक्ष इष्ट करता संता पुरुष ऐसा कौन है जो तिस ज्ञानहीकू प्रत्यक्ष इष्ट न करे, इष्ट करै ही । इहां ' को या' ऐसा कहने से लौकिक जन तथा परीक्षक जन सर्व ही लेणें । बहुरि 'तत्प्रतिभासिनं' कहिये तिस ज्ञानकरि प्रतिभासनेंका जाका स्वभाव होय सो लीजिये । ऐसा जो प्रत्यक्ष विषयरूप वस्तु ताकू प्रत्यक्ष इष्ट करता पुरुष सो ऐसा कौन है जो 'तदेव' कहिये सो ही ज्ञान ताहि 'तथा' कहिये प्रत्यक्षपणांकार नाही इष्ट करै 'अपि तु' कहिये निश्चय” इष्ट करै ही करै। जा” विषयी जो ज्ञान ताका प्रत्यक्षपणां धर्म है सो उपचार करि ताके विषयभूत पदार्थकू प्रत्यक्ष कहिये है, मुख्य तौ प्रत्यक्षपणां ज्ञानका धर्म है । इह ऐसा जाननां-जो मुख्यका अभाव होतें बहुरि प्रयोजन अरु निमित्त होतें उपचार प्रवत्तै है सो इहां अर्थकै तौ प्रत्यक्षपणां मुख्य नांही है अरु प्रत्यक्षपणां मुख्य धर्म ज्ञानका है सो ताकै विषयभूत अर्थ वि. प्रत्यक्षपणांका उपचार है सो प्रयोजन तौ इहां व्यवहारका प्रवर्त्तना है अरु निमित्त इहां ज्ञानकै अरु वस्तुकै विषयविषयीभाव संबंध है सो है, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित ऐसा जाननां । जो ऐसैं न मानिये तो अप्रामाणिकपणां कहिये अपरीक्षकपणांका प्रसंग आवै है ॥ ११ ॥ आगैं इहां इसका उदाहरण कहै हैं; प्रदीपवत् ॥ १२ ॥ याका अर्थ-जैसैं दीपककै प्रत्यक्षता अर प्रकाशता विना तिसकरि भासे जे घटादिक पदार्थ तिनिकै प्रकाशता प्रत्यक्षता न वणै तैसैं प्रमाणस्वरूप ज्ञानकै भी जो प्रत्यक्षता न होय तौ तिसकरि प्रतिभास्या अर्थक भी प्रत्यक्षता न वणै । इहां तात्पर्य कहै है—ताका प्रयोग-ज्ञान है सो अपने प्रतिभास करनें विआपतै अन्य जो समानजातीय अन्य अर्थ तिसकी अपेक्षा न चाहै है यह तौ धर्मिसाध्यका समुदायरूप पक्षका वचन सो प्रतिज्ञा है। प्रत्यक्ष पदार्थका गुण होते अदृष्ट जो शक्ति ताकी व्यक्तिरूप अनुयायिकरणपणांतें यहु हेतु है । बहुरि प्रदीपभासुराकारवत् यह उदाहरण है । इहां भावार्थ ऐसा-जो ज्ञान अपने जाननें विषै अन्यज्ञानकी अपेक्षा न करै है आप ही आपकू जानैं है जाते ज्ञान आत्मा ही का गुण है सो जाननेकी शक्तिकी व्यक्तिरूप करण अवस्थाकू प्राप्त होय है । आपकी प्रमिति प्रति आपही करण है जैसैं दीपककी प्रकाशरूप लोय है सो आपके प्रकाशनेमें अन्य लोयकी अपेक्षा नाही करै है, आप ही आपकू प्रकाशै है, ऐसें जाननां ॥१२॥ __ आरौं कोई आशंका करै है जो प्रमाणका लक्षण कह्या सो ऐसा तौ होहु तथापि इस प्रमाणकी प्रमाणता ' स्वतः' कहिये आपही” होय है कि 'परतः' कहिये अन्यतै होय है ? जो स्वतः ही कहोगे तो अविप्रतिपत्ति होयगी आप अन्यथा भी ग्रहण करै ताका निषेध काहेरौं होयगा ? बहुरि परतें कहोगे तो अनवस्थानामा दूषण आवैगा जातें Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ! २५ 1 प्रमाणकी प्रमाणता अन्यतैं होय तब तिस अन्यकी प्रमाणता काहेतैं होय ? बहुरि तिसकी भी अन्यतैं कहिये तौ कहूं ठहरनां नांही तब अनवस्था भई | ऐसैं दोऊ आशंकाका निराकरणकार अपना मत स्थापते संते सूत्र कहैं हैं । इहां ऐसा भावार्थ — जो मीमांसकमती तौ प्रमाणका प्रमाणपणां स्वतः कहैं हैं अप्रमाणपणां परत: कहैं हैं । बहुरि सांख्यमती प्रमाणपणां तौ परतः अप्रमाणपणां स्वतः कहैं हैं । बहुरि नैयायिकमती दोऊ ही परतः होय है ऐसें कहैं हैं । ऐसें बहुत वादीनिकरि अन्य I अन्य प्रकार कहनेंतैं संशय उपजै है ता कथंचित् स्वतः कथंचित् परत: ऐसैं स्याद्वाद यथार्थसिद्धि होय है ऐसैं सूत्र कहैं हैं; तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ॥ १३ ॥ याका अर्थ — तिस प्रमाणका प्रामाण्य कहिये प्रमाणपणां कथंचित् आपहीतैं होय है कथंचित् परतैं होय है । तहां सूत्रनिके संप्रदाय मैं ऐसी परिभाषा है— जो वाक्य कहिये सूत्र हैं ते सोपस्कार कहिये अन्यपदनिका अध्याहार — मेलनां सहित होय हैं, सो इहां ऐसी प्राप्ति करणीं, जो अभ्यासदशा विषै तौ प्रमाणका प्रमाणपणां आपहीतैं होय है, बहुरि अनभ्यासदशा विषै परतें होय है । ऐसैं कहनेंतैं दौऊ एकान्तका निराकरण भया । इहां कथंचित् अनभ्यास दशा विषै परतैं प्रमाणपणां कहनें मैं अनवस्था जैसैं एकान्त कहनें मैं आवै है तैसें समान नही आ है जातैं अभ्यस्तविषयस्वरूप जो अन्यज्ञान ताकरि आप ही तैं प्रमाणपणां होय है ताकरि अनवस्थाका परिहार होय है ऐसा अंगी - कार हम किया है । अथवा प्रमाणका प्रमाणपणां उत्पत्तिविर्षै तौ परतें ही हो है जातै विशिष्ट नवीन कार्यका होनां विशिष्ट नवीन कार - तैं ही होय है । बहुरि विषयका जाननेंरूप तथा विषयविषै प्रवर्त्तनें-रूप जो प्रमाणका कार्य ता विषै अभ्यासदशा मैं तौ आपहीतैं प्रमाणता Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विराचित है, बहुरि अनभ्यासदशाविर्षे परतें प्रमाणता होय है, ऐसा निश्चय है। इहां अभ्यासदशा तौ सो कहिये जहां बारबार ग्रहण होय अनभ्यास जो प्रथम ही ग्रहण होय सो कहिये। जैसैं जा गांवमैं आप वसै ताका सरोवरका जल आपकै अभ्यासमै आप रह्या होय तहां तिसका जलका प्रमाणपणां तथा जलज्ञानका प्रमाणपणां आपकै आपही” होय है ताकी प्रमणता करने में अन्य प्रमाणदिकका सहाय चाहै नांही तिस सरोवरकै समीप जाते ही स्नान करनां, जल भरना, पीवनां आदि कार्य निःशंकपणे करै है सो इहां तौ अभ्यासदशाविर्षे स्वत: प्रामाण्य भया। बहुरि सो ही पुरुष अन्यप्रामादिक जाय तहां मार्गमैं दूरितैं जलका निवास देखै तहां अपने ज्ञानकी तथा जिस जलरूप विषयकी प्रमाणता आई नाही, विचारने लगा यह जल है कि भाडली है ? कि कांश फूलि रह्या है ? कि मोकू अन्यथा दीखै है ? ऐसा संशय उपज्या तहां जे जलकी प्रमाणता करनेके कारण पूर्वै अभ्यासमैं थे, जो जहां अन्य लोक जल भरि ल्यावते होय तथा जल भरते होय तथा घट आदि जलके पात्र जहां दीखते होय तथा कमलनिकी सुगंध आवती होय मींडके बोलते होय इत्यादि कारणनितें तिस जलकी प्रमाणता आवै तहां अनभ्यासदशाविर्षे परतें प्रमाणपणां कहिये । बहुरि उत्पत्तिमैं परहीरौं कह्या सो अन्तरंग तो ऐसा ही ज्ञानावरणका क्षयोपशम अर बाह्य पापकर्म आदि दोषरहित अपना ज्ञान होय । बहुरि ज्ञानके कारण जे इंद्रियादिक ते निर्दोष निर्मलता आदि गुणकरि युक्त होय तब नवीन प्रमाणतारूप कार्य उपजै, जातें विशिष्ट कार्य होय जो विशिष्ट कारण” ही होय । बहुरि विषायका जाननेंरूप क्रिया है लक्षण जाका अर विषयविर्षे प्रवृत्ति होनां है लक्षण जाका ऐसा जो प्रमाणका कार्य ताविर्षे अभ्यासदशाविर्षे तौ प्रमाणकी प्रमाणता आपही” होय है अर अनभ्यासदशाविर्षे परतें होय है, ऐसा निश्चय कीजिये है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । २७ ___ इहां मीमांसकमती कहैं हैं;-जो प्रमाणपणांकी उत्पत्तिविष विज्ञानके कारण जे निर्दोष नेत्र आदिक तिनि” भिन्न अन्य कारणकी अपेक्षापणां है सो असिद्ध है-अन्यकारण नाहीं है तातै प्रमाणका प्रमाणपणां तिस प्रमाणही” होय है जाते तिस प्रमाणते अन्य वस्तुका ही अभाव है, अर जो कहोगे अन्यकारण नेत्रादिककै निर्मलपणां आदि गुण है ते है तो यह कहना वचनमात्र है-वस्तुभूत नाही, जातै विधिकी मुख्यताकरि अथवा कार्यकी मुख्यताकरि गुणनिकी प्रतीति नाहीं है प्रमाण सिवाय गुण न्यारे किछू भासते नांही प्रत्यक्ष कार तो किछू गुण प्रमाणते न्यारे दचि नाही जातै प्रत्यक्ष तौ इन्द्रियनिकार जाननां है सो इन्द्रियनिकी प्रवृत्ति अतीन्द्रियविषै होय नाही इन्द्रियनितें किछू न्यारे ही गुण दीखें नांही । बहुरि अनुमानकरि किछू गुणनिका लिंग दीखै नाही, ताकरि अनुमान कीजिये, इन्द्रियनिकरि लिंग ग्रहण होय तब अनुमान होय है अर लिंगका भी लिंग अनुमानकरि ग्रहण करनां कहिये तो अनवस्था आवै है तातै प्रमाणतै न्यारे गुण प्रमाणसिद्ध नाही । बहुरि प्रमाणकी अप्रमाणता तौं आपहीतैं होय है अर प्रमाणता परहीरौं होय ऐसा विपर्यय भी कह्या न जाय, जातै पक्षधर्म, सपक्षे सत्व, विपक्षाब्यावृत्ति इनि तीनरूप सहित जो लिंग तिसहीतैं केवल अनुमान प्रमाणकै प्रमाणपणां उपजता देखिये हैं। अन्वय व्यतिरेक करि ऐसे ही उत्पति दीखै है अन्य प्रकार तो नाही । बहुरि ऐसे ही प्रत्यक्षविर्षे भी लगावणां जो निर्दोष नेत्रादिकरि ही प्रमाणमणां उपजै है अन्यप्रकार नाही । तैसैं ही आगमवि भी लगावणां जो आप्तका कह्यापणां आगममैं गुण होते आगमका प्रमाणपणां तिस गुण” नाही है, तिस आगमवि गुणनितै दोषनिका अभाव है अर दोषानिके अभावतें संशय-विपर्ययस्वरूप जो अप्रमाण Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितपणां ताका अभाव होते स्वाभाविक प्रमाणपणां निर्दोष आप ही तिष्ठै है तातें यह ठहरी जो प्रमाणपणां उत्पत्तिवि अन्यसामग्रीकी अपेक्षा नाही करै है । बहुरि विषयका जाननेकी क्रियारूप जो अपना कार्य ताविर्षे अपने जाननेंकी भी अपेक्षा न करै है । जो प्रमाण आप आपकू जानैं तब अन्यविषयकू जाणें ऐसी अपेक्षा नाही चाहै है, जातें आपका प्रमाणपणां जानें विना ही ज्ञानकै विषयके जाननेकी क्रियारूप कार्य देखिये है । बहुरि कहोगे जो जाननक्रियामात्र तौ प्रमाणका कार्य नाही जातें जाननक्रियामात्र तो मिथ्याज्ञानवि भी पाइए है । जाननक्रियाका विशेष है सो तो पहली प्रमाणकी प्रमाणता ग्रहण होय तब उपजै सो ऐसा कहनां भी बालकका विलास है विना समझ्यां कहनां है जातें प्रमाणका प्रमाणपणां ग्रहणके उत्तरकालमैं उत्पत्ति अवस्थातें जाननक्रियाका विशेष कछू भासै नाही, जैसा जाननां प्रमाणपणां ग्रहण होते होय है तैसाही विना ग्रहण किये होय है जाका प्रमाणपणां ग्रहण किया जो यह मेरा ज्ञान प्रमाण है तिसतें भी विषयके जाननेमैं तो किछू विशेष भासता नाही, निर्विशेष विषयकी उपलब्धि है । बहुरि कहोगे जो जाननेमात्रका तौ सीपकै विर्षे रूपेका ज्ञान भया तामैं भी सद्भाव है सो याकै भी प्रमाणका कार्यपणांका प्रसंग आवै है । तो ऐसैं तो जब होय जो वस्तुविर्षे अन्यथापणांकी प्रतीति अर अपने कारणकरि उपज्या दोषका ज्ञान इनि दोऊनिकरि निराकरण न कीजिये सो इहां सीपविथें रूपाका ज्ञान होय तौ ताका निराकरण होय है जो यह रूपा नाही सीप है । बहुरि नेत्रनिमैं दोष है तातैं रूपा दीखै है ऐसैं तिसज्ञानका बाधक है तातें तिसकै प्रमाणपणांका प्रसंग नाही आवै है । तातें जिस वस्तुविर्षे प्रमाणका कारणका तौ दोषका ज्ञान अर बाधककी प्रतीति न होय तहां प्रमाणका प्रमाणपणां आपहीतें होय है । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । बहुरि ऐसे अप्रमाणपणांविषै नांही है अप्रमाणपणां पर ही होय है, जारौं विज्ञानके कारणनै भिन्न जो दोषस्वभावरूप सामग्री ताकी अपेक्षा सहितकरि अप्रमाणपणां उपजै है । बहुरि अप्रमाणताकी निवृत्तिस्वरूप जो अप्रमाणका कार्य तावि. अपनां अप्रमाणतारूप स्वरूपका ग्रहणकी सापेक्षा है ही सो जैसे अपनी अप्रमाणताकू न जाणौं तेतें अपना अन्यथापणांरूप जो विषय तातै पुरुषकू नहीं निवृत्तिरूप करै है, अप्रमाणताकू जाणें तबही विषयका अन्यथापणां जाणि छोडै, ऐसैं मीमांसक स्वतः प्रमाणकी पक्षकू दृढ किया। अब याका निराकरण आचार्य करै है;--जो यह मीमांसकनैं कह्या सो सर्वही बड़े अज्ञानरूप अन्धकारका विलास है, सो ही कहिये हैप्रथम तौ प्रामाण्यकी उत्पत्तिविषै अन्य सामग्रीकी अपेक्षापणां असिद्ध कह्या सो असिद्ध नांही है, आगमके आप्तका कह्यापणांरूप जो गुण ताका संनिधान होतें संतॆ ही आप्तप्रणीत वचन विर्षे प्रमाणता देखिये है, जातें जिसके अभावतें तौ अनुत्पत्ति अर जिसके सद्भावनै उत्पत्ति होय सो तिसका कारण होय है ऐसा लोकमैं प्रसिद्ध है सो आगमकी प्रमाणता सत्यार्थ आप्त होतें होय है न होते नाही होय है, सो जो मीमांसक. कह्या जो विधिकी मुख्यताकरि तथा कार्यकी मुख्यताकरि गुणनिकी प्रतीति नहीं है, तहां प्रथम तो आप्तके कहे शब्दविर्षे गुणनिकी प्रतीति नांही है ऐसा कहनां अयुक्त है जातें ऐसे होय तौ आप्तके कहेपणेंकी हानिका प्रसंग आवै है, अनाप्तका वचनकै समान ठहरै है, अर जो कहै नेत्र आदिकै वि गुणनिकी अप्रतीति है तौ सो भी अयुक्त है, नेत्रनिके निर्मलपणां आदि गुण है ते स्त्री बालक गुवाल सर्वके प्रसिद्ध हैं—सर्व जानै है, जो ये नेत्र निर्मल है ये निर्मल नाही है । बहुरि जो कहै निर्मलपणां तौ नेत्रका स्वरूप ही है गुण नांही है. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित I तौ हेतुकै अविनाभावकरि रहितपणां है सो भी स्वरूपकी विकलता ही है दोष नांही है ऐसें गुणका निषेध तैसैं ही दोषका निषेध दोऊ समान भये । बहुरि कहै जो स्वरूपकी विकलता है सो ही दोष है तौ लिंगकै - तथा नेत्रादिककै तिसका स्वरूपका सकलपणां है सो ही गुण है ऐसैं क्यों न कहिये ? ऐसैं ही आप्तके कहे शब्द विषै भी मोह, राग, द्वेष आदि लक्षण दोषका अभाव सो ही यथार्थज्ञानादिलक्षण गुणका सद्भाव अंगीकार करता मीमांसक अन्य प्रमाणवि ऐसैं न मानें सो उन्मत्त कैसैं नांही ? उन्मत्त ही है । 1 I बहुरि मीमांसकनैं कह्या जो शब्द विषै गुण तौ है परन्तु प्रमाणकी उत्पत्तिविषै ते व्यापार नांही करें हैं, दोषका अभाव है सो ही प्रमाणकी उत्पत्तिविषै व्यापार करे है । सो यह कह्या तौ सत्य परंतु युक्त नांही, जातें कहने मात्र ही करि साध्यकी सिद्धिका अयोग है जातें गुणनितें दोषनिका अभाव है । ऐसैं कहनें विषै तौ अज्ञान ही कारण है अन्य किछू नांही है, भावार्थ — यह भूलि करि कहै है । फेरि मीमांसक कहै है; — जो अनुमानविषै तीनरूप सहित जो लिंग तिस हीमात्र करि उपजी प्रामाण्यकी उपलब्धि होय है सो ही तहां हेतु है । ताकूं कहिये ऐसें नांही है याका उत्तर तौ पहले दिया था तहां तीनरूप पप्पां है सो ही गुण है, जैसें तिसकी विकलता कहिये तीनरूपपणांसूं रहित सो ही दोष है, ऐसें हेतु है सो भलै प्रकार मान्यां हूवा है । ऐसें ही अप्रामाण्यविषै भी कहा जाय है तहां दोषनि तैं गुणनिका अभाव है तिनिके अभाव प्रमाणपणांका अभाव होतैं अप्रमाणपणां स्वाभाविक तिष्ठै ही है । ऐसैं अप्रामाण्य स्वतैं ही आवै है ताका भिन्न कारण उपजनेका वर्णन उन्मत्तभाषित ही ठहरे है । भावार्थ — जो मीमांसक प्रामाण्य तौ स्वतैं है है अर अप्रामाण्य परतें कहै है सो इहां दोऊ ही स्वतैं होय I 1 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । है ऐसे दिखाय तिसका मत खंडन किया है । बहुरि विशेष कहै है;जो गुणनितै दोषनिका अभाव है ऐसैं कहता जो मीमांसक सो ऐसैं याके कहनेमैं यहु आया जो गुणनितें ही गुण होय है जानै अभाव है अन्यभावस्वभावपणां है अभावभी भाव ही स्वरूप है तातें अप्रामाण्यका अभाव है सो ही प्रामाण्य है सो एते ही कहनेमैं तौ परकी पक्षका निराकरण होय नाही जातें यह कहनां तौ परपक्षका विरोधक नाही । बहुरि अनुमानतें भी गुण प्रतीतिमैं आवै है सो ही कहिये है;---प्रामाण्य है सो विज्ञानके कारणनै भिन्न जे कारण तिनितें उपजै है जातै प्रामाण्य है सो विज्ञान” अन्य है अरु कार्य है जैसैं अप्रामाण्य है ऐसा प्रयोग है । तथा अन्य प्रयोग कहै है;-प्रमाण अर प्रामाण्य दोऊ भिन्न कारणनै उपजें हैं जातें ये भिन्न कार्य हैं, जैसे घट अर वस्त्र भिन्न कार्य है सो घट तौ माटी नामा कारणनै वर्णै अर वस्त्र सूतनामा कारण” वणें ऐसैं भिन्न कार्य होय सो भिन्न कारणही” होय । तातें यह ठहरी जो प्रामाण्य है सो उत्पत्तिविर्षे परकी अपेक्षा सहित है, भावार्थ—परतें उपजै है । बहुरि तैसैं ही प्रमाणका कार्य जो विषयका जाननेंरूप क्रियास्वरूप तथा विषयविर्षे प्रवृत्तिस्वरूप ताविौं अपनां ग्रहणकी अपेक्षा नांही है, ऐसा एकान्त नाही है । मीमांसकनें कह्या था जो अपनां स्वरूपका आपकरि जाननें विर्षे परकी अपेक्षा नाही है सो कोई अभ्यस्त विषय होय तहां ही परकी अपेक्षाका अभावका व्यवस्थापन है अर अनभ्यस्तविषय होय तहां तौ जलमरीचिकाका साधारण प्रदेश होय तहां जलका ज्ञान परकी अपेक्षाही होय है । याका प्रयोग ऐसा;-यह जल सत्य है जातें जैसा जलका आकार होय तैसा विशिष्ट आकारधारीपणां यामैं है । याका समर्थन-जो घट है पाणी भरनहारीका समूह है मींडकनिके शब्द हैं कमलनिका गंध आवै है इनिसहित Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित है जैसैं प्रत्यक्ष देख्या जल होय तैसैं यहु है ऐसैं अनुमानज्ञानतें तथा जलकी अर्थक्रियाका ज्ञानतें पहले जलका ज्ञान हुवा था तैसी ही ताक प्रमाणता कहिये यथार्थपणां सो बहुतकालपर्यन्त कल्पिये ही है जाते पहले अनुमानप्रमाणकै स्वतः सिद्ध प्रामाण्य भया तिसतैं इस जलज्ञानकै प्रमाणता भई तातै पहले अनभ्यस्तमैं परतें प्रमाणता कहिये । बहुरि मीमांसक कह्या था जो प्रामाण्यके ग्रहणके उत्तरकालमैं उत्पत्ति अवस्था" जाननेमैं किछू विशेष नाही भासै है जो प्रमाण उपजतैं जैसा था जैसा ही पीछे है। ताका उत्तर-जो अभ्यस्तविषयविषै विशेष न भासता कहै तौ यह तो हम भी मानें हैं जातें तहां पहले निःसन्देह विषयका जाननेका विशेषका अंगीकार है । बहुरि अनभ्यस्तविषयविर्षे कहै तौ जाननेंमैं विशेष है ही, प्रामाण्य ग्रहणके उत्तरकालमैं विषयका अवधारण कहिये नियमरूप स्वभाव लिये प्रतिभास भया, यह ही विशेष प्रतिभास भया । बहुरि मीमांसक कहै है---जो प्रामाण्यकै अरु जाननक्रियाकै तौ अभेदभाव है इनिमैं पहली पी3 होनां कैसैं वर्णै ? ताकू कहिये है;-जो ऐसैं नाही है जातै सर्व ही जाननेकी क्रिया प्रमाणस्वरूप नाही है अर प्रामाण्य है सो जाननक्रियास्वरूप है ही, ताक् कथंचित् भेद भया, तातै दोष नाही । बहुरि मीमांसकनैं कह्या जो बाधक अर कारण दोषका ज्ञान इनि दोऊनिकरि प्रमाण्यका निराकरण होय है सो यह कहनां भी निष्फल है जातें अप्रामाण्यविौं भी ऐसैं कह्या जाय है. सो ही कहिये है-पहले तो ज्ञान अप्रमाणरूप ही उपजै है पी, बाधारहित ज्ञान अर गुणका ज्ञान होय ताकै उत्तरकालविर्षे तिस अप्रमाणरूप ज्ञानका निराकरण होय है । तातें यह निश्चय भया जो प्रामाण्य अथवा अप्रामाण्य अपने कार्यविौं कोई जायगां आभ्यासकी अपेक्षा स्वतें होय है कोई जायगां अनभ्यासकी अपेक्षा परतें होय है सो ऐसे ही निर्णय करना योग्य है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। ३३ __ ऐसैं बौद्धमती तौ प्रमाणकी प्रमाणता आपहीतैं मानें हैं, अर नैयायिक परतें ही मानें हैं, अर मीमांसक उत्पति अर ज्ञप्तिविर्षे प्रमाणता दोऊ आपहीतै अर अप्रमाणता परहीरौं मानैं है, अर सांख्यमती प्रमाणता तौ परतें मानें हैं अप्रमाणता आपहीतैं मानें हैं तिनि सर्वनिका निराकरण स्याद्वादतै होय है । आगैं इहां टीकाकारकृत श्लोक है; देवस्य सम्मतमपास्तसमस्तदोषं वीक्ष्य प्रपञ्चरुचिरं रचितं समस्य। ___ माणिक्यनन्दिविभुना शिशुबोधहेतो __ मानस्वरूपममुना स्फुटमभ्यधायि ॥ १॥ याका अर्थ- देवस्य ' कहिये अकलङ्कदेवनामा आचार्य ताका समस्तदोषरहित विस्तारकरि सुन्दर भलै प्रकार मान्यां ऐसा जो न्यायशास्त्रमैं प्रमाणका स्वरूप ताहि विचारिकरि माणिक्यनंदिनामा जे समर्थ आचार्य तिनि. इस परीक्षामुखशास्त्रविौं संक्षेपकरि रच्या जो प्रमाणका स्वरूप तिसकू बालक जे अल्पज्ञानी तिनकै ज्ञान करनैं आर्थ मैं अनन्तवीर्य आचार्य प्रगटकरि कह्या है ॥ १३ ॥ छप्पय । आप जानि परवस्तु अपूरवका निश्चय कर करणरूप जो ज्ञान ताहि भाष्या प्रमाण वर । उपजै परतें आनकू गहै अभ्यास विन अभ्यास सहाय्य आनका लिये प्रकासै ॥ अकलंकदेव जैसैं कह्या माणिकनंदि विचारि उर । भाष्यो स्वरूप संक्षेप यह ग्रन्थ परीक्षाद्वार धुर ॥ इति परीक्षामुखकी लघुवृत्तिकी वचनिकाविर्षे प्रमाणका स्वरूपका उद्देश समाप्त भया । हि.प्र. ३ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-समुद्देश। (२) आU प्रमाणका स्वरूपकी विप्रतिपत्ति दूरि करि अब संख्याकी विप्रतिपत्ति निराकरण करता संता आचार्य सकल प्रमाणके भेदनिकी रचनाका संग्रह जामैं पाइये अर प्रमाणकी संख्या जामैं पाइये ऐसा सूत्र कहैं हैं; तद्वधा ॥१॥ __ याका अर्थ—सो प्रमाण दोय प्रकार है। इहां तत्शब्दकरि तौ प्रमाणका परामर्श करनां । सो ही प्रमाण पहले स्वरूपकरि निश्चय किया सो दोय प्रकार है । इहां एवकार अवधारण अर्थमें लेना जो संक्षेपकरि प्रमाणकी संख्या दोय है एक तीन आदि नांही है । यामैं प्रमाणके जे ते भेद हैं तिनि सर्वका अन्तर्भाव है ॥ १॥ __ आगैं जो प्रमाणकी संख्या दोय भेदरूप कही सो दोयपणां प्रत्यक्ष अनुमान भेदकरि भी संभव है ताकी आशंका दूरि करने• प्रमाणके जे समस्त भेद तिनिका संग्रह करनेवाली ऐसी संख्याकू प्रगट करै है प्रत्यक्षतरभेदात् ॥२॥ याका अर्थ-पहले सूत्रमैं कही जो प्रमाणकी दोय संख्या सो प्रत्यक्ष अर परोक्ष ऐसैं दोय भेदते है। तहां प्रत्यक्षका लक्षण आगैं कहसी तिस” इतर कहिये अन्य परोक्ष ऐसैं दोय भेदते प्रमाणकी संख्या दोयरूप है। अन्यमतीनिकरि कल्पित जो प्रमाणकी एक दोय तीन च्यारि पांच छह प्रकार संख्या ताका नियमविौं समस्त प्रमाणके भेदनिका अन्तर्भाव किया न जाय है सो ही कहिये है;-प्रथम तौ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। ३५ चार्वाक मतवाला एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानै है ताविर्षे अनुमानका अन्तर्भाव होय सकै नांही है जाते अनुमानतें प्रत्यक्ष विलक्षणस्वरूप है, तिनि दोऊनिकै सामग्री अर स्वरूप भेदरूप हैं-न्यारे न्यारे हैं। __ इहां चार्वाक कहै है;-प्रमाण तो एक प्रत्यक्ष ही है दूजा अनुमानदिकरूप परोक्षप्रमाण कहो है सो परोक्षप्रमाण नांही है जातें परोक्षप्रमाणमैं विसंवाद है-बाधा आवै है। सो दिखावै है;-देखो, अनुमान प्रमाणका स्वरूप ऐसा कह्या है जो निश्चित अविनाभावस्वरूप जो हेतु तारौं लिंगी जो साध्य ताकै विर्षे जो ज्ञान सो अनुमान है, ऐसा अनुमानप्रमाण माननेवालाका मत है । तहां लिंग दोय प्रकार, तामैं एक स्वभावलिंग ताविर्षे बहुल अन्यथापणां देखिये है। सो ही कहिये हैं;कषायला रसकरि सहित जे आमला ते इस देशकालसंबंधी देखिये हैं ते देशान्तर कालान्तर तथा अन्य द्रव्यका संबंध होते अन्यप्रकार भी देखिये हैं तातें जो स्वभाव हेतुकरि अनुमान कीजिये है तौ तामैं व्यभिचार आवै ऐसा अनुमान कीजिये जो आमला होय हैं ते कषायला होय हैं तो कोई देशकालमैं अन्य द्रव्यके संबंध” रस अन्यप्रकार होय तब अनुमानमैं व्यभिचार आवै । अथवा कोई देशमैं आम्रवृक्ष है कोई देशमैं लता-आकार आम्र है अथवा कोई देशमैं शीतूं लताकू कहैं हैं, तहां कोई ऐसा अनुमान करै जो यह वृक्ष है जातै शीतूं है तौ जिस देशमैं लताकू शीतूं कहै है तातै व्यभिचार भया । ऐसैं ही कार्यलिंग मानिये तामैं भी व्यभिचार है जैसैं धूमतें अग्निका अनुमान कीजिये है सो धूम इन्द्रजालके घड़ेमैं अग्नि विना देखिये है तथा बंबीमैं धूम अग्नि विना नीसरती देखिये है ता” अग्निका अनुमान व्यभिचारी होय है। तातें एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, याहीकै अविसंवादकपणा है--निर्बाध सत्यपणां है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित ताका समाधान आचार्य करै है; — जो यह कह्या सो बाल कहिये अज्ञानी ताका विलास सारिखा भासै है जातैं जो वार्त्ता कही सो उपपत्तितैं शून्य है — बणती न कही । सो ही कहिये हैं; इहां दोय पक्ष पूछिये जो परोक्षकै प्रमाणपणां निषेधै है सो याके उत्पत्तिके कारणके अभावतैं निषेधै है कि आलंबनके अभावतैं निषेधै है ? तहां प्रथम तौ पहला पक्ष जो उत्पादक कारणका अभाव सो तौ नांही बणै है जातैं याका उत्पादक कारण सुनिश्चित भई जो साध्यतैं अन्यथा अनुत्पत्ति ताका नियमका निश्चय सो है लक्षण जाका ऐसा जो साधन कहिये हेतु ताका सद्भाव है । बहुरि दूजा उत्तरपक्ष जो आलंबनका अभाव सो भी नांही है जातैं याका आलंबन जो अग्नि आदिक सो समस्त जे विचार करनें विषै चतुर है चित्त जिनिका तिनिकै सदाकाल प्रतीतिमैं आवै है, अग्निकं आलंब्यकरि अनुमान उपजै सो आलंबनका अभाव कैसैं कहिये । अर जो स्वभावहेतुकै व्यभिचारकी संभावना कही सो भी अयोग्य है जातैं स्वभावमात्र ही हेतु नांही होय है, जो व्याप्यरूप स्वभाव होय सो व्यापक प्रति गमक होय है सो ही हेतु होय यातैं व्याप्यकै व्यापकतैं व्यभिचार नांही है, जो व्यभिचार होय तौ वह व्याप्य ही न कहिये । इहां अन्य विशेष कहैं हैं; — जो ऐसैं अनुमानकूं व्यभिचारी कहकर उत्थापन करनेवाला जो चार्वाक ताकै प्रत्यक्ष प्रमाण भी नांही ठहरैगा, तहां भी अविसंवादपणां अर मुख्यपणां ये दोऊ ही अनुमान विना निश्चय नांही होगा जात प्रमाणपणांकै अर अविसंवादकपणांकै तथा मुख्यपणांकै अविनाभावीपणां है सो अनुमान मान्यां विना कैसे निश्चय होय, प्रमाणका सत्यार्थपणां तौ अनुमान ही करे है । बहुरि जो कार्यनामा हेतु भी व्यभिचार बताय अन्यथाका संभावन किया सो भी विना विचारयां किया, नीकेँ विचारया परीक्षारूप किया कार्य सो. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । कारण” नांही व्यभिचरै है-कारणकू साधै ही है। जैसा धूम अग्निका कार्य पर्वतके तट आदिवि अतिसघन धवलपणां करि फैलता पाइये है तैसा इंद्रजालके घड़ा आदिविर्षे नाही देखिये है । बहुरि जो कह्या बंबीविर्षे अग्नि विना धूमका सद्भाव है सो हम पूछ हैं तहां यहु बंबी अग्निस्वभाव है कि अनग्निस्वभाव है ? जो अग्निस्वभाव है तौ अग्नि ही है तिसतै भया धूमकै अन्यथाभाव कैसे कल्पिये, अर जो अग्निस्वभाव नांही है तो तिसतै भया धूम ही नाही तब तहां विना अग्नि भया धूम कैसैं कहिये--अग्निौ व्यभिचार कैसैं मानिये। सो ही कह्या है इहां श्लोक — उक्तं च ' है, ताका अर्थ-जो शक्रमूर्द्धा कहिये बंबी सो जो अग्निस्वभाव है तौ अग्नि ही है अर अग्निस्वभाव नाही है तौ तहां धूम कैसे होय । बहुरि विशेष कहै है;-जो चार्वाक प्रत्यक्ष एक प्रमाण मानें है सो परशिष्यकू प्रत्यक्ष प्रमाण कैसैं कहैगा परपुरुषका आत्मा तो प्रत्यक्ष ही करि ग्रहण करिवेकू असमर्थ है, अर कहैगा जो वचन आदि कार्यके देखने” परके बुद्धि आदि जानिये है तौ कार्यतै कारणका अनुमान आया ही, अनुमानका निषेध कैसे करै है । बहुरि जो कहै, लोकव्यवहारकी अपेक्षा अनुमान मानिये ही है परलोक आदिकके सद्भावविर्षे ही अनुमानका निषेध कीजिये है जातें परलोकका अभाव है। ताकू कहिये;-जो परलोकका अभाव कैसैं मानै है जो कहैगा मेरै परलोककी १ अग्निस्वभावः शक्रस्य मूर्द्धा चेदग्निरेव सः। अथाननिस्वभावोऽसौ धूमस्तत्र कथं भवेत् ॥ १॥ लिखित वचनिका प्रतिमें यह श्लोक नहीं लिखा है । संस्कृत प्रतिमें 'उक्तं च' कहकर दिया है सो वहांसे लेकर लिखा है। -सम्पादक। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित उपलब्धि नाही-मोकू दखै नांहीं तातै अभाव मानूं हूं तौ अनुपलब्धिनामा लिंगकरि उपज्या अनुमान एक और आया, निषेध तौ न भया । बहुरि प्रत्यक्षका प्रमाणपणां भी स्वभावहेतु” उपजी जो अनुमिति जाकू अनुमान भी कहिये तिस विना न बगैंगा सो यह पहले कह आये हैं यातें अब काहेर्दू कहैं । इस अनुमानका समर्थन बौद्धमतका आचार्य धर्मकीर्ति किया है, ताका श्लोक है ताका अर्थ;—प्रत्यक्ष प्रमाण सिवाय अन्य प्रमाणका सद्भाव तीन हेतु” होय है,—प्रथम तौ प्रमाण अर अप्रमाण सामान्यका ठहरनां प्रत्यक्ष सिवाय अन्य प्रमाण विना होय नाहीं प्रत्यक्षमैं विपर्यय ही ग्रहण भया होय ताका निषेधकू अन्य प्रमाण चाहिये । दूसरै अन्यकी बुद्धिका जाणपणां प्रत्यक्षतें नाहीं तातें अन्य प्रमाण चाहिये जाकरि अन्यकी बुद्धिका ज्ञान होय, सो वचन आदि कार्यनितें अनुमान होय है। तीसरा परलोक आदि अदृष्ट वस्तुका निषेध करनेंकू अन्य प्रमाण चाहिये । ऐसें सौगत जो बौद्धमती है सो चार्वाक एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानैं ताकै दूजा अनुमान प्रमाणका सद्भाव दिखाय अर आपका स्थापनेंकू अनुमानका समर्थन करि कहै है, जो प्रत्यक्ष अर अनुमान ये दोय प्रमाण हैं। तहां आचार्य कहैं हैं;-ऐसैं दोय प्रमाण मानता जो बौद्ध सो भी युक्तवादी नांही है जातें स्मृतिनामा प्रमाण विसंवादरहित निर्बाध है ताका सद्भाव है । याकू विसंवादरहित कह करि प्रमाण न मानिये तौ देमें लेने आदिका व्यवहारका लोपकी प्राप्ति आवै है, पहले काहूकौं धन सौंप्या पीछै ताकू यादि करै मांगे। बहुरि जाकू सौंप्या ताकू यादि १ यदप्युक्तं धर्मकीर्तिना;प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतः। प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ॥ इति Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । ३९ करि कहै इसकूं मैं धन सौंप्या था सो यह प्रत्यभिज्ञान होय तब सौंप्या धन मांगै है सो स्मृतिकूं प्रमाणभूत न मानिये तौ देनें लेनेंका व्यवहार नांहीं होय । बहुरि वह कहै जो स्मृति तौ अनुभवन किये वस्तुविषै होय है सो जिसकाल स्मृति होय तिस काल अनुभूयमान जो वस्तु जावि स्मृति भई सो वस्तु विद्यमान नांही तातैं विषयरहित जो स्मृति सो तौ प्रमाणभूत नांही । ताकूं कहिये –— जो ऐसैं नांही, जो तिस काल विषय विद्यमान नांही है तोऊ अनुभवन किया था जो वस्तु तिसका आलंबन स्मृति भई तातैं निरालंब नांही, निरालंब तौ जब होय जो अकस्मात् विना अनुभूत वस्तुविषै स्मृति होय सो ऐसें होय नांही । अर ऐसैं अनुभूत वस्तुविषै स्मृति होतैं भी निरालंबन कहिये अर अप्रमाण कहिये तौ प्रत्यक्षकै भी अनुभूत वस्तुविषै अप्रमाणपणां ठहरै | बौद्धमती प्रत्यक्षकूं अतीतपदार्थविषयरूप कहै है तातें स्मृति अतीतानुभूतार्थविषयतैं अप्रमाण कहैगा तौ प्रत्यक्ष भी ऐसा न ठहरैगा ऐसैं का है । अथवा अनुमानकरि पहिले अग्निका निश्चय भया पीछें ताविषै प्रत्यक्ष प्रवर्त्या सो ऐसा प्रत्यक्ष भी अप्रमाण ठहरैगा । अर अपना जो विषय है ताका प्रतिभासनां प्रमाण कहिये तो अपनां विषयका प्रतिभासनां तौ स्मरणविषै भी है ही याकूं अप्रमाण कैसैं कहिये । बहुरि विशेष कहैं हैं; — जो स्मृतिकूं अप्रमाण कहिये तौ अनुमानकै प्रमाणपणांकी वार्त्ता भी कहनां दुर्लभ होय है जातैं स्मृतिकरि व्याप्तिकूं याद किये अनुमान होय है, विना स्मृति व्याप्तिका स्मरण नांही तब अनुमानका उत्थान काहेतैं होय । तातैं यह कहनां जो स्मृतिकै प्रमाणता है जातैं अनुमानकै प्रमाणपणांकी याही तैं प्राप्ति है यहु न होय तौ अनुमानकै प्रमाणपणांकी प्राप्ति नांही है । ऐसें यहु स्मृति सो बौद्धमतीकै मान्यां जो प्रत्यक्ष अनुमानरूप प्रमाणकै दोयप Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित - णांकी संख्याका नियम ताहि बिगाडै है-निषेधै है तातें हमारी चिंताकरि कहा साध्य है। तैसैं ही प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है सो भी बौद्धकी दोयपणांकी संख्याका नियमका निराकरण करै है । तिस प्रत्यभिज्ञानाका भी प्रत्यक्ष अनुमानविर्षे अंतर्भाव न होय है । इहां बौद्धमती तर्क करै है;-जो प्रत्यभिज्ञानविर्षे 'तत्' कहिये सो है ऐसा तौ स्मरण भया अर ' इदं' कहिये यहु है ऐसा प्रत्यक्ष भया ऐसैं ये दोय ज्ञान भये इनितें न्यारा तीसरा तौ ज्ञान भया नांही ताकू हम प्रत्यभिज्ञान मानैं अर न्यारा प्रमाण कहैं यात तिस प्रत्यभिज्ञानकरि प्रमाणकी संख्याका निषेध कैसे होय ? ताका समाधान आचार्य करै है;-जो यह कहनां भी युक्त नांही जातै प्रत्यभिज्ञानका विषयरूप जो पूर्वापरका जोड़रूप वस्तुभूत अर्थ ताकू स्मृति अरु प्रत्यक्ष ये दोऊ ही ग्रहण करनेकू समर्थ नाही हैं, पहली अर पिछली दोऊ अवस्थाविर्षे वर्त्तनेवाला जो एक द्रव्य सो प्रत्यभिज्ञानका विषय है । यहु स्मरणकरि ग्रहणमैं आवै नांही जारौं स्मरणका तौ पूर्व अनुभवन जाका भया सो ही विषय है । बहुरि प्रत्यक्षकरि भी ग्रहणमैं आवै नांही जाते प्रत्यक्षका विषय तौ वर्तमान अवस्था ही है । बहुरि बौद्धनैं कह्या जो स्मरण अर प्रत्यक्षतें न्यारा तौ प्रत्यभिज्ञान नाही सो यह कहनां भी अयुक्त है । पूर्वोत्तरअवस्थाविर्षे अभेदका ग्रहण करनेवाला तीसरा प्रत्यभिज्ञान प्रतिभासमैं आवै है । स्मृति प्रत्यक्षमैं कोई एककै तौ पूर्वोत्तर अवस्थाविर्षे व्यापक जो अभेद ताका ग्रहणस्वरूपपणां नांही है जारौं इनि दोउनिके विषय न्यारे न्यारे हैं । बहुरि यहु प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्षविर्षे अन्तर्भाव होय नाही तथा अनुमानविर्षे अन्तर्भाव होय नाही जाते प्रत्यक्ष तौ वर्तमान निकटवर्ती वस्तुकू ग्रहण करै है याका यह ही विषय है अर अनुमान है सो Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला | ४१ अविनाभूत जो लिंग ताकरि संभावित जो वस्तु ताकूं ग्रहण करै है याका यहु विषय है, पूर्व - उत्तर पर्यायव्यापी जो एकपणां सो प्रत्यक्ष अनुमानका विषय नांही । बहुरि प्रत्यभिज्ञान है सो स्मरणविषै भी अन्तर्भूत नही है जातैं पूर्व - उत्तरका एकपणां स्मरणका भी विषय नही है | बहुरि इहां कोई कहै जो संस्कार अर स्मरणका सहायकरि ये इंद्रिय हैं ते ही प्रत्यभिज्ञानकूं उपजावै हैं सो जो इन्द्रियतैं उपजै सो प्रत्यक्ष ही है तातैं प्रत्यभिज्ञान न्यारा प्रमाण नांही ? ताकूं आचार्य कहै है; — जो ऐसी कहनेवाला तौ अतिमूर्ख ही है जातैं अपनें विषयकूं मुख्यकरि प्रवर्त्तता जो इन्द्रिय ताकैं सैंकडां सहकारी सहाय मिलै तोऊ अन्यके विषयविषै प्रवर्त्तनेंरूप जो अतिशय ताका अयोग हैं, इन्द्रिय अपनें अपनें विषै ही प्रवर्तें हैं । अर यह अतीत वर्त्तमान अवस्थाविषै व्यापी जो एक द्रव्य सो इन्द्रियनिका विषय नांही, अन्य ही है । इन्द्रियनिका विषय तौ रूप ही है ये तावन्मात्र ही विषयविषै चरितार्थ हैं । बहुरि अदृष्ट जो पुण्यपापकर्म तिसके सहकारीपणांकी अपेक्षा स्वरूप होयकरि भी इन्द्रिय इस पूर्वापर अवस्थाका एकत्वविषै नांही प्रवर्त्ते हैं तहां भी पूर्वोक्त दोष ही आवै है, सहकारीके बलतैं इन्द्रिय अपने विषय सिवाय प्रवर्तें नांही । 1 बहुरि विशेष कहै है; —– जो अदृष्ट कहिये पूर्वकृत कर्म अर धारणाज्ञानरूप संस्कार आदिकी अपेक्षात प्रत्यक्षकै एकत्व विषयविषै प्रवर्तना कह्या तौ ऐसैं प्रवर्तनां आत्माहीकै तिस एकत्वका विज्ञान क्यों न कल्पिये जातैं देखिये है जो स्वप्न सारस्वत चाण्डालिक आदि विद्याके संस्कारर्तै आत्माकै विशिष्ट ज्ञानकी उत्पत्ति होय है । तहां अतीत अनागत वर्तमानके लाभ अलाभकी सूचना जातैं होय सो स्वप्नविद्या है । बहुरि अन्यतैं ऐसा न बणै ऐसा वादीपणां कवीश्वरपणां आदिकी कर Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित णहारी सारस्वत विद्या है | बहुरि नष्ट मुष्टि आदिकी सूचना जात होय सो चाण्डलिक विद्या है । इहां बहुरि नैयायिकमती तर्क करै है, जो अंजन आदिके संस्कार नेत्रकै भी ऐसा अतिशय देखिये है ? ताका समाधान; – आचार्य कहै है, ऐसें नांहीं है जातैं नेत्रके अतिशय होय है सो अपने विषयविषै ही होय है अपना विषयकूं नांहीं उलंघै है, ऐसा तो नांहीं जो अंजनके संस्कारर्तें नेत्र अपनां विषय सिवाय जो रस गंध तिनिकौं जाणै, सो ही कया है; 'उक्तं च' श्लोक है ताका अर्थ ;जहां अतिशय देखिये है सो अपने विषयकूं उलंघिकरि नांही होय है श्रोत्रकी प्रवृत्ति रूपविषै तौ अतिशय होय नांहीं जो होय तौ दूरवर्त्ती तथा सूक्ष्मवस्तुके देखनेविषै नेत्रकै अतिशय होय । इहां नैयायिक फेरि कहै है; — जो यह श्लोक तौ सर्वज्ञके निषेधकै अर्थि मीमांसकनैं कह्या है इहां तुमनैं कह्या सो मिले नांहीं यह दृष्टान्त विषम है ? ताका सामाधान; इहां दृष्टान्त इन्द्रियनिकै अन्यके विषयविषै प्रवर्तनेंका अतिशयका अभावमात्र दिखावनेंकी समानतामात्र कह्या है ता ब है, दृष्टान्तका सर्वही धर्म तौ दान्तविषै होय नांही जो सर्व ही धर्म मिलै तौ दृष्टान्त नांही दान्त ही होय है । तातैं यह निश्चय भया जो प्रत्यक्ष अनुमानतैं न्यारा ही प्रत्यभिज्ञान वस्तुभूत है जातैं इसकी सामग्री अर स्वरूप दोऊ ही भेदरूप न्यारे ही हैं । बहुरि यह प्रत्यभिज्ञान अप्रमाण नांही है जातैं इस प्रत्यभिज्ञान अर्थकूं जाणकरि तिस विषै प्रवर्तनेवालाकै अर्थकिया मैं विसंवाद नांही है, जैसे प्रत्यक्षकार विषयविषै प्रवर्तनेवालेकै विसंवाद नांही तैसैं इहां भी १ तथा चोक्तम्;-- यत्राऽप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलंघनात् । दूर सूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तितः ॥ १ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । ४३ नाही । बहुरि इस प्रत्यभिज्ञानका विषय पूर्वोत्तर अवस्थाका एकपणां है ताका लोप कीजिये तो बंध मोक्ष आदिकी व्यवस्था बहुरि अनुमान प्रमाणकी व्यवस्था न ठहरै जातें एकत्व विना बंध्या सो ही छूट्या ऐसैं न ठहरै, तथा अनुमानका साधन जो लिंग ताका संबंधका ग्रहण एकत्वा विना कैसे होय, बहुरि या प्रत्यभिज्ञानका विषयविौं बाधक प्रमाण भी नांही है, जो बाधक होय तौ प्रमाणपणां न मानिये जातें प्रत्यक्षकै अर अनुमानकै तिस प्रत्याभज्ञानके विषयविर्षे प्रवृत्ति ही नाही बाधक कैसैं होय, अर प्रवृत्ति होय तौ तिसका साधक ही होय बाधक तौ न होय । तहां बहुत कहनेंकरि पूरी पड़ो, प्रत्यभिज्ञान प्रमाण न्यारा ही है। बहुरि तैसैं ही बौद्धकी प्रमाणसंख्याका विरोधी बाधारहित तर्कनामा प्रमाण आवै ही है सों यह तर्कनामा प्रमाण प्रत्यक्षविर्षे अन्तर्भूत नाही होय है जाते साध्यक अर साधनकै जो व्याप्यव्यापकभाव है ताका समस्तपणां करि सर्वक्षेत्रकालका ग्रहण तर्कका विषय है, सो प्रत्यक्षका विषय नाही है, यह इन्द्रियप्रत्यक्ष है सो सर्वदेशकालसंबंधी जे व्यापार हैं तिनिकू करनेंकू समर्थ नाही जातें यह प्रत्यक्ष प्रमाण विचाररहित है अर इन्द्रियनिके समीपवर्ती पदार्थ याका विषय है । बहुरि तर्कके विषयकू अनुमान भी ग्रहण करनेंकू समर्थ नाही है जाते याका भी जिस देश आदिमैं तिष्टता पदार्थ है सो ही विषय है, व्याप्ति सर्व देशकालसंबंधी है सो अनुमानका विषय नाही । बहुरि जो व्याप्तिकू अनुमानका विषय मानें तौ तहां दोय पक्ष पूछिये,—जो व्याप्तिकू ग्रहण करै सो अनुमान तिस व्याप्तिसूं सिद्ध भया सो ही है कि अन्य अनुमान है ? जो कहैगा तिसव्याप्तिसूं सिद्ध भया सो ही है तौ तहां इतरेतराश्रयनामा दूषण आवैगा जातै पहले व्याप्तिग्रहण होय तब पी2 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित अनुमान सिद्ध होय, बहुरि अनुमान सिद्ध भये पीछें व्याप्तिग्रहण होय ऐसे दौषतें दोऊकी सिद्धि नांही है । बहुरि कहै जो अन्य अनुमानतें अविनाभावस्वरूप व्याप्ति ग्रहण होय है तौ अनवस्थानामा दूषणरूपी वघे तिसपक्षकूं भखि जाय है जातैं अनुमान तौ व्याप्तिके ग्रहण विना होय नांही अरु व्याप्ति अन्य अनुमानकरि ग्रहण होय तौ तिस अनुमानकी व्याप्ति अन्य अनुमानकरि होय ऐसैं कहूं ठहरै नांही तब अनवस्था दूषण आवै । तातैं अनुमानका विषय व्याप्ति नांही सिद्ध होय है । बहुरि सांख्यमती आदिकरि कल्प्या जो आगम उपमान अर्थापत्ति अभावप्रमाण तिनिकर भी समस्तपणांकरि अविनाभावस्वरूप व्याप्तिका ग्रहण नांही है जातैं तिनि प्रमाणनिकै अपने अपने विषयका ग्राहकपणां है तातैं व्याप्ति तिनिका विषय नांही । बहुरि सांख्यमती आदि तिनि प्रमाणनिका व्याप्ति विषय मानैं भी नांही है । तहां आगमका विषय तौ वस्तुका संकेतकरि ग्रहण करना है । अर उपमानका विषय सादृश्यभाव है । अर्थापत्तिका विषय अर्थका अन्यथा न होनां है, एक वस्तुकी सामर्थ्यतैं अन्य अर्थ आय पड़े सो अर्थापत्ति है । बहुरि अभावका विषय अभाव ही है । इनिका विषय व्याप्ति नांही । I ४४ इहां बौद्धमती फेरि कहै है; - जो प्रत्यक्ष के पीछे विकल्प होय है- विचार होय है तातैं साध्यसाधनभावका ज्ञान समस्तपणांकरि होय है तातैं तिस व्याप्तिके ग्रहणकै अर्थि अन्य प्रमाण नांही हेरनां । ताका समाधान आचार्य करे हैं: -- जो यह कहनेवाला भी युक्तवादी नाही, जातें इहां ताकूं दोय पक्ष पूछिये – जो तिस विकल्पकै प्रत्यक्षकार ग्रहे विषयका व्यवस्थापकपनां है कि प्रत्यक्ष करि ग्रह्या नांही ऐसे विषयका व्यवस्थापकपनां है ? जो करूँगा प्रत्यक्षकरि ग्रहे विषयकूं ही थापै है तौ दर्शनस्वरूप प्रत्यक्षकी ज्यों ताकै पीछें भया निर्णयकै भी नियतविषयपणां ही ठहरया Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। ४५ व्याप्ति तौ ताका विषय न ठहरैगा । बहुरि कहैगा जो प्रत्यक्षकरि नाही ग्रह्या विषयकू थापै है तौ यामैं भी दोय पक्ष है;-प्रत्यक्षकै पी3 भया विकल्प ज्ञान है सो प्रमाण है कि अप्रमाण है ? जो कहैगा प्रमाण है तौ प्रत्यक्ष अनुमान सिवाय तीसरा प्रमाण आया जातै दोऊ प्रमाणमैं याका अन्तर्भाव नाही होय है। बहुरि कहैगा अप्रमाण है तौ तिसरौं अनुमानकी व्यवस्था न ठहरैगी जारौं व्याप्तिके ज्ञानकू अप्रमाण मानें तिसपूर्वक अनुमान भी प्रमाण न ठहरैगा जातै सन्दिग्ध आदि जो लिंग तारौं उपज्या अनुमानकै प्रमाणताका प्रसंग आवैगा। तातै व्याप्तिका ज्ञान जो तर्क सो विचारसहित विसंवादरहित प्रमाण प्रत्यक्ष अनुमान दोय प्रमाणते न्यारा ही माननां योग्य है । यारौं बौद्धकरि मान्यां जो प्रमाणकै दोयकी संख्याका नियम सो नांही है । ___ याही कथनकरि अनुपलंभ कहिये जाका सद्भाव ग्रहण नाही तिसरौं बहुरि कारणका अर व्यापकका अनुपलभतें कार्यकारणभाव अर व्याप्यव्यापकभावका ज्ञान होय है यह ही व्याप्तिका ज्ञान है ऐसा कहनां भी निराकरण किया, जातें अनुपलंभ तो प्रत्यक्षका विशेष है अर कारण आदिका अनुपलंभ है सो लिंग है सो लिंगकरि उपज्या अनुमान है है यातै प्रत्यक्ष अनुमानकरि व्याप्तिग्रहणमैं पहले दोष दिखाये ते ही जाननें। इस ही कथनकरि प्रत्यक्षका फल जो ऊहापोह-जो पहले तर्क उपजै जो यह कैसैं है पी3 ताका निराकरणकरै ऐसा विकल्पज्ञान ताकरि व्याप्तिका ज्ञान है ऐसा वैशेषिकमती माने है ताका भी निराकरण किया जातै प्रत्यक्षका फलफू प्रत्यक्ष अथवा अनुमान कहै तौ ते तौ व्याप्तिकू विषय करें नांही अर तिनि” अन्य कहै तौ न्यारा प्रमाण ठहरया ही । बहुरि कहै जो व्याप्तिका जाननेंरूप विकल्प तौ प्रमाण ठहरै नाही तो यह कहनां भी युक्त नाही जातै फल है तौऊ यातें Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित अनुमान होय है सो अनुमान याका फल है ताका कारणपणांकी अपेक्षा याकै भी प्रमाणपणां युक्त है यामैं विरोध नाही जैसैं इन्द्रियकै अर अर्थक जुड़नेरूप सन्निकर्ष होय ताका फल जो विशेषणका ज्ञान ताके विशेष्यका ज्ञानस्वरूप जो फल ताकी अपेक्षाकरि प्रमाणपणां मानिये है तैसैं यह भी माननां । यातै वैशेषिककरि मान्यां जो ऊहापोह विकल्प ताहीकै प्रमाणान्तरपणां आवै है, प्रमाणपणाकू उलंघि नाही वत्र्ते है । ___ याही कथनकरि तीन च्यारि पांच छह प्रमाणकी संख्या कहनेवाले जे सांख्य अर अक्षपाद कहिये नैयायिक अर प्रभाकर जैमिनीय मीमांसक ते अपने अपने प्रमाणकी संख्याके थापनेंकू समर्थ नाही हैं ऐसे कह्या जो न्याय तिसकरि स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क इनि तीन प्रमाणनिकै तिनि सांख्यमती आदिनिकरि मानें प्रमाणकी संख्याका विपक्षपणां है, स्मृत्यादि तिनिके प्रमाणकी संख्याकू निराकरण करें हैं ॥२॥ आगें प्रथम प्रमाणका भेद जो प्रत्यक्ष ताके निरूपण करनेंकू सूत्र कहै है; विशदं प्रत्यक्षम् ॥३॥ याका अर्थ-विशद कहिये स्पष्ट जो ज्ञान सो प्रत्यक्ष प्रमाण है । इहां ज्ञानकी तौ अनुवृत्ति करनी, अर प्रत्यक्ष है सो तौ धर्मी है अर विशद ज्ञानस्वरूप साध्य है अर प्रत्यक्षपणां हेतु करनां । सो ही प्रयोग कहिये है,—प्रत्यक्ष है सो विशद ज्ञानस्वरूप ही है जातें प्रत्यक्ष है, जो विशद ज्ञानस्वरूप नाही सो प्रत्यक्ष नाही जैसैं परोक्ष, इहां विवादमैं आया प्रत्यक्ष है तारौं विशद ज्ञानस्वरूप ही है, ऐसैं अनुमानके पांच अवयवरूप प्रयोग या सूत्रका है । इहां कोई कहै जो यह प्रत्यक्षपणां हेतु किया सो सूत्रमैं तो एक धर्मीहीका शब्द प्रत्यक्ष ऐसा था तिसहीकू हेतु किया सो पक्षका वचनरूप जो प्रतिज्ञा ताका अर्थका एकदशकू Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ! - हेतु किया सो यह हेतु असिद्ध है । ताका समाधान आचार्य कहै है; - जो प्रतिज्ञा कहो है अर तिसका एकदेश कहा है तब वह कहै जो धर्मका अर धर्मीका समुदाय सो प्रतिज्ञा है ताका एकदेश धर्मी अथवा धर्म है सो तिस सूं एक कह्या सो ही प्रतिज्ञाका एकदेश है ऐसा धर्मी हेतु असिद्ध है, ताका समाधान- जो धर्मीकै हेतुपणां कहते असिद्धपणांका अयोग है जातैं तिस धर्मीकै पक्षके प्रयोगकालविषै जैसें असिद्धपणां नांही है तैसैं ही हेतुके प्रयोगविषै भी असिद्धपणां नांही है धर्मी प्रसिद्ध ही कया है । बहुरि वह कहै है जो धर्मीकूं हेतु कहते अनन्वयनामा दोष आवै है जातैं धर्मी साध्यतैं अन्वयस्वरूप नांही । ताका समाधान-जो ऐसैं नांही है इहां प्रत्यक्ष विशेष तौ धर्मी है अर प्रत्यक्ष सामान्य है सो हेतु किया है सो सामान्य है सो विशेषविषै अन्वयरूप है ही जातैं सामान्य है सो विशेष विना नांही होय है । बहुरि कहै जो साध्य जो धर्मी ताकै हेतुपणां होतैं प्रतिज्ञाका एकदेशस्वरूप असिद्ध हेतु होय है कि नांही ? ताकूं कहिये – जो ताकै प्रतिज्ञाका एक देशपणा असिद्धपणां नांही है साध्यकै तौ स्वरूप ही करि असिद्धपणां है । जो प्रतिज्ञाका एक देशपणां करि असिद्धपणां कहिये तौ धर्मी भी प्रतिज्ञाका एकदेश है ताकरि व्यभिचार होय है । बहुरि है जो इहां धर्मीकूं हेतु किया अर व्यतिरेकव्याप्तिरूप व्यतिरेक ही दृष्टान्त कह्या सो सपक्षविषै याकी वृत्ति नांही तातैं अनन्वय दोष आया, ताका समाधान — जो यह भी असत्य है जातैं बौद्धमती सर्व वस्तुकै क्षणभंगका संगम है सो ही स्वरूप है ऐसैं मानें है तहां सत्वकूं हेतु करै है कि जो जो सत् है सो सर्व क्षणभंग है सो ऐसा सत्वनामा हेतुकै सपक्ष नांही जातें सर्व ही पक्षमैं आय गये, सो ऐसे हेतु भी अनन्वयदोषरूप १ क्या । ४७ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित भये तब हेतुका उदय नाही होय है । अर कहै ऐसे हेतुकै विपक्षवि. बाधकप्रमाणका अभाव है अर पक्षमै व्यापकपणां है तातै दोष नाही अन्वयवान्पणां है तो हमारा भी हेतु ऐसा ही है, याकै वाकै समानता भई तब दोष काहेका है ॥ ३ ॥ आणु प्रत्यक्ष विशद ज्ञानकू कह्या सो विशदपणांका स्वरूप कहै प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासन वैशद्यम् ॥ ४॥ याका अर्थ---जो अन्यप्रतीति बीचिमैं न आवै आप ही जानैं अर विषयकू विशेषनिसहितपणांकरि जानै सो विशदपणां है । तहां एक प्रतितितें दूसरी अन्य प्रतीति होय सो प्रतीत्यंतर कहिये तिसकरि जाकै अव्यवधान होय—बीचिमैं अन्यप्रतीति न आवै, तिस अव्यवधानकरि जो प्रतिभासनां सो वैशद्य कहिये । इहां जो अवायज्ञानकै अवग्रह ईहा प्रतीतिकरि व्यवधान है, अवायकै पहली अवग्रह ईहाकी प्रतीति होह है तौऊ तिस अवायज्ञानकै परोक्षपणां नांही है जाते इहां विषय जो पदार्थ अर विषयी जो विषयका जाननेवाला ज्ञान ताके भेदकरि प्रतीति नांही है । जहां विषयविषयीके भेद होतें व्यवधान होय तहां परोक्षपणां होय है । इहां जो अवग्रहका विषय है ताकी तिस ही कार प्रतीति है, ईहाका विषय है ताकी तिस ही करि प्रतीति है, अवायका विषय है ताकी तिस ही करि प्रतीति है; परंतु ये सारे प्रत्यक्ष ही हैं अर इनिका विषय प्रत्यक्ष ही है, प्रतीत्यन्तर न कहिये । यातें ऐसा नाही जो जो जाका विषय है ताकी प्रतीति पहले अन्यकी प्रतीति बीचिमैं आवै तब होय । बहुरि कोई कहे जो ऐसे है तौ पहिले अग्निका अनुमान भया होय पी, सो ही पुरुष अग्निकू देखै तब अग्निका देखनांकै परोक्ष Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ! पणां आवै है ? ताकू कहिये-जो यह कहना अयुक्त है जातैं इहां देखना प्रत्यक्ष है भिन्न विषयपणांका अभाव है तातै प्रतीत्यन्तर नाही, देखने” प्रतीति भई है सो ही प्रत्यक्ष है ऐसैं नाही जो पहिले अनुमान प्रतीति भई तिसरौं प्रत्यक्षकी प्रतीति भई । इहां अग्नि वस्तु है ताकू अनेक प्रमाण करि अपने अपने विषयसारू जाननेमैं दोष नाही जातें विसदृश सामग्री करि उपजै जो भिन्न विषयवि प्रतीति सो प्रतीत्यंतर कहिये है तातें पहले अनुमानकी प्रतीति भई सो अपने विषयविर्षे भई अर प्रत्यक्ष प्रतीति भई सो अपने विषयवि भई इनिकै परस्पर कार्यकारणभाव नाही है । बहुरि विशदपणां केवल एतावन्मात्र ही नाही है यामैं विशेषनिसहितपणां करि भी प्रतिभासनां है। वस्तुका आकार वर्ण रस गंध स्पर्श आदिके जे विशेष तिनिकरि वस्तुका सर्वस्व देखनां सो वैशद्य है ॥ ४ ॥ आगैं सो प्रत्यक्ष दोय प्रकार है एक मुख्य प्रत्यक्ष, दूजा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, सो आचार्य दोऊनिकू मनमैं धारि पहले सांव्यवहारिक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति करनेवाली सामग्री अर तिसके भेदनिका सूत्र कहैं इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकं ॥५॥ __याका अर्थ--इन्द्रिय अर मन है कारण जाकू ऐसा जो एकदेश विशद ज्ञान सो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । इहां विशद अर ज्ञानकी अनुवृत्ति लणीं । यातें देश विशद ज्ञान होय सो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष प्रमाण है ऐसा अर्थ भया। तहां 'सं' कहिये समीचीन-भला प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप जो व्यवहार सो संव्यवहार है तिसविर्षे होय सो सांव्यवहारिक कहिये । बहुरि कैसा है ? इन्द्रिय कहिये नेत्र आदिक अर अ हि. प्र. ४ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितनिन्द्रिय कहिये मन ये दोऊ हैं निमित्त कहिये कारण जाकू । सो इ. न्द्रिय मन समस्त भी कारण हैं अर व्यस्त कहिये न्यारे न्यारे भी कारण हैं । तहां इन्द्रियनिके प्रधानपणांतें मनके सहायतै उपजै सो तौ इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, बहुरि कर्मके क्षयोपशमतें विशुद्धि होय ताकी अपेक्षासहित जो मन तिसहीतैं उपजै सो अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष है। तहां इन्द्रिय प्रत्यक्ष है सो अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणाभेदतै च्यार प्रकार है सो भी बहु, अबहु, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिसृत, निसृत, अनुक्त, उक्त, ध्रुव, अध्रुव, इनि बारह विषयनिके भेदनिकरि अड़तालीस भेद होय हैं, ते पांचूं इन्द्रिय प्रति होय हैं सो दोयसै चालीस होय । ऐसे ही मनके प्रत्यक्षके अड़तालीस मिलाये दोयसै अठ्यासी भेद होय हैं, सो ये तो अर्थकी अपेक्षा भये । बहुरि व्यंजन विषयका अवग्रह ही होय है सो मन अर नेत्र द्वारै नांही होय ता” च्यार इन्द्रियनिकै द्वारै बहु आदि बारह विषयका अवग्रह होय ताके अड़तालीस भेद होय । सर्व भेले किये इन्द्रिय अनिन्द्रिय प्रत्यक्षके तीनसै छत्तीस भेद होय हैं। इहां प्रश्न-जो स्वसंवेदननाम प्रत्यक्ष अन्य है सो क्यों न कह्या ? ताका समाधान-ऐसैं न कहनां जातै सो संवेदन सुख ज्ञान आदिका अनुभवनस्वरूप है सो मानसप्रत्यक्षमैं आय गया अर इन्द्रियज्ञानका स्वरूपका संवेदन सो इन्द्रियप्रत्यक्षमैं आय गया । जो ऐसे न मानिये तौ तिस ज्ञानकै अपने स्वरूपका निश्चय करनेका अयोग आवै है। बहुरि स्मरण आदिका स्वरूपका संवेदन है सो मानसप्रत्यक्ष ही है अन्य नांही है सो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कहिये ही है, परन्तु जुदा भेद नाही ॥५॥ ___ आरौं नैयायिक कहै है-जो प्रत्यक्षका उत्पादक कारण कहता जो ग्रंथकार इन्द्रियादिककू कारण कहे तैसें ही अर्थ अर आलोककू कारण Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। क्यों नांही कहे । अर्थ कहिये वस्तु ताकरि भी ज्ञान उपजै है अर आलोक कहिये प्रकाशकरि भी ज्ञान उपजै है इनिङ विना कहे कारणनिका सकलपणांका संग्रह न भया तब शिष्यजनकै भ्रम ही रहेगा जातें कारण एते हैं ऐसा निश्चय न होयगा। जो परम करुणावान भगवान हैं तिनकै शिष्यजनकै भ्रम होय ऐसी चेष्टा न होय है ऐसी आशंका नैयायिककी दूरि करनेः सूत्र कहैं हैं;- नार्थालोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत् ॥६॥ __ याका अर्थ- अर्थ कहिये वस्तु अर आलोक कहिये प्रकाश ये दोऊ ही सांव्यवहारिक प्रत्यक्षकू कारण नाही हैं जातें ये परिच्छेद्य कहिये जानने योग्य ज्ञेय हैं। जैसैं अंधकार ज्ञेय है तैसे ही ये हैं । याका अर्थ सुगम है तातै टीकाकार टीका न करी है । इहां बौद्धमती तर्क करै है----जो बाह्य आलोकका अभाव सो ही अंधकार है इसनै न्यारा किछू अन्धकार वस्तु है नांही ताः सूत्रमैं अन्धकारका दृष्टान्त साधनविकल है-यामैं साधन नाही ? ताकू आचार्य कहैं हैं;-जो ऐसैं नाही है जो ऐसे होय तो बाह्यप्रकाशकू भी ऐसे कहिये, जो अंधकारका अभाव सो ही प्रकाश, इस सिवाय अन्य किळू वस्तु नाही । ऐसें तौ तेजवान पदार्थ हैं तिनिका असंभव आवै है । सो याका विस्तारकरि निरूपण प्रेमयकमलमार्तण्ड याकी बड़ी टीका ताका नाम याका अलंकार है तामैं प्रतिपादन किया है सो जाननां ॥६॥ आगैं इस सूत्रके साध्यकू साधनेंविर्षे अन्यहेतु कहै है;तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच केशोण्डुकज्ञानवन्नक्तश्चरज्ञानवच्च ।। ७॥ ___याका अर्थ-अर्थ बरालोक सांव्यवहारिकप्रत्यक्षके कारणपणांका अन्वय गतिश्या झबुनियातही अभाव है। ऐसा नियम नाही વિજય Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितजो अर्थ आलोक होतें तौ ज्ञान उपजै अर नाही होते न उपजै जैसैं केशनिका गुच्छाका ज्ञान होय है। काहूकै मांछरनिका समूह मस्तकपरि उडै था सो काहूकू केशनिकां झूमका दीख्या ऐसैं तौ अर्थ ज्ञानका कारण नाही है अर अंधकारमैं विलाव आदिकू दीखै है तातें प्रकाश ज्ञानका कारण नाही । इहां कारणकार्यकै व्याप्तिका प्रयोग करै हैजो जाकै अन्वय-व्यतिरेकका जोड़ न करै सो तिसका कार्य नाही जैसैं केशनिका झूमकाका ज्ञान, सो ज्ञान अर्थका अन्वय-व्यतिरेकपणां नाही करै है अर्थ तौ मांछरनिका समूह था अर ज्ञान केशनिका झूमकाका भया। तैसैं ही आलोक जो प्रकाश है, तहां यह विशेष है जो नक्तंचरका दृष्टान्त है ते नक्तंचर विलाव आदि हैं तिनिकू अंधारेमैं दीखै है जो प्रकाश ही ज्ञानका कारण होय तो तिनिकू अंधकारमैं ज्ञान कैसैं होय ॥७॥ __ इहां बौद्धमती तर्क करै है:-जो विज्ञान है सो अर्थ करि उपजै अर्थकै आकार होय सो अर्थका ग्राहक होय, ज्ञानकी अर्थतें उत्पत्ति न मानिये तो विषय प्रति नियमका अयोग ठहरै-घटके ज्ञानका घट ही विषय ऐसा नियम न ठहरै । बहुरि अर्थतें उपजना है सो आलोक जो प्रकाश तामैं अविशिष्ट है तातें 'ताद्रूप्य ' कहिये तदाकार होनां तिससहित ही जो ' तदुत्पत्ति' कहिये अर्थतें ज्ञानका उपजनां ताकै विषय प्रति नियमरूप हेतुपणां है। ज्ञान ज्ञेयका भिन्न काल है तौऊ ग्राह्य ग्राहकभावका अविरोध है, तैसे ही हमारै कह्या है, इहां श्लोक है ताका अर्थ-कोई पूछे जो जाका भिन्नकाल होय सो ग्राह्य कैसैं होय तौ ताकू कहै है-जे युक्तिके जाननेवाले हैं ते ऐसैं कहैं हैं१ तथा चोक्तम् भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद ग्राह्यतां विदुः । हेतुत्वमेव युक्तिशास्तदाकारार्पणक्षमम् ॥१॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला | ५३ यहु जो हेतुपणां है— अर्थकै ज्ञानकी उत्पत्तिका कारणपणां है सो ही ग्राह्यपणां है, कैसा है यह हेतुपणां ? अर्थके आकारकूं ज्ञानमें अर्पण करनेविषै समर्थ है । भावार्थ — जो अर्थकै ज्ञानका उपजावणापणां है सो ही तिस अर्थके आकार होनां ज्ञानकै करे है ऐसी बौद्धकै आशंका हो सूत्र कहै है ; 1 अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ॥ ८ ॥ याका अर्थ — जो ज्ञान अर्थकरि न उपजै है तौऊ अर्थका प्रकाशक है जैसे दीपक घट आदि अर्थतैं उपज्या नांही तौऊ तिनिका प्रकाशक है तैसें जाननां । तहां अर्थकार जन्य नांही है तौऊ ताका प्रकाशक है ऐसा अर्थ भया सो इहां ' अतज्जन्य' ऐसा शब्द है सो उपलक्षणरूप है ताकरि अतदाकार कहिये अर्थाकार न होय तौऊ ताका प्रकाशक है ऐसा भी ग्रहण करनां । बहुरि दोऊ ही अर्थ मैं प्रदीपका दृष्टान्त है जैसैं दीपककै घटादिककरि जन्यपणां नांही तथा तिनिकै आकारपणां होय नांही तौऊ तिनिकं प्रकाशै है तैसें ज्ञानकै भी है ऐसा अर्थ भया ॥ ८ ॥ इहां बौद्ध कहै है— जो अर्थतैं तौ उपज्या नांही अर अर्थंकै आकर न भया ऐसे ज्ञानकै अर्थका साक्षात्कारीपणां कहोगे तौ नियमरूप दिशा देश कालवर्त्ती जे पदार्थ तिनिका प्रकाश प्रति नियमका अभाव होनेंतैं सर्व ही विज्ञान अप्रतिनियत विषय कहिये न्यारे न्यारे नियमरूप विषय जाका होय ऐसा न ठहरेगा ऐसी बौद्धकी आशंका होतैं सूत्र कहै है; स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति ॥ ९ ॥ - याका अर्थ — अपनां आवरण जो ज्ञानावरण वीर्यान्तराय कर्म ताका क्षयोपशम सो है लक्षण जाका ऐसी जो योग्यता ताकरि प्रति Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितनियत जो जो जिस ज्ञानका अर्थ होय सो ही विश्य ताकू व्यवस्थापै है । तहां अपना आवरण तिनिका क्षय कहिये उदयका अभाव बहुरि तिनिहीका सत्ता अवस्थारूप उपशम ये दोऊ हैं लक्षण जाका ऐसी जो योग्यता सो यह तौ कारणरूप है ताकरि प्रतिनियत जो अर्थ ताहि स्थापन करै है-अपना विषय करै है सो ज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण है ऐसा सूत्रमैं वाक्य शेष है । बहुरि ' हि ' शब्द है सो ' यस्मात् ' अर्थमैं है तातें ऐसा अर्थ भया जो जातैं ऐसैं है तातै बौद्ध आशंका करी थी जो प्रतिनियत अर्थकी व्यवस्था न होगी सो ऐसा दोष नाही है । इहां यह तात्पर्य है जो तादूय कहिये तदाकारपणां अर तदुत्पत्ति कहिये तिस” उपजनां अर तदध्यवसाय कहिये तिस स्वरूप अर्थका निश्चय ये तीनूं कल्पिकरि भी योग्यता अवश्य मानने योग्य है, इस विना तीनूं ही व्यभिचारसहित हैं । सो ही दिखाइए हैं;-ताद्रूप्यकै समान अर्थकरि व्यभिचार है जो ज्ञान तदाकारपणांत उपजै सो जिस पदार्थतें उपजै तिस समान अन्यपदार्थकू तिसकाल क्यों जानै नांही सो पदार्थ भी तौ तिसही आकार है, यह ही व्यभिचार। बहुरि तदुत्पत्तिकै इन्द्रियआदिकरि व्यभिचार है, इन्द्रियतै उपजै है अर इन्द्रियनिकू तिसकाल क्यों नांही जानैं, यह ही व्यभिचार । बहुरि तिनि दोऊनिकै भी समान अर्थ समनंतर प्रत्ययनिकरि व्यभिचार है, पहिले क्षण जैसैं नीलका ज्ञान भया सो दूसरे क्षण सो ज्ञान तिस नील ज्ञानका उपजावनहारा है अर तिसतैं तदाकार भी है अर पहले क्षणका ज्ञानकू क्यों जानैं नाही यह ही व्यभिचार । बहुरि ताद्रूप्य तदुत्पत्ति, तदध्यवसाय, इनि तीनिकै धोला शंखकै विर्षं पीलेका ज्ञान होय तहां व्यभिचार है, काहूके नेत्रवि. कामला रोग था ताळू धौला शंख पीला दीख्या तहां धोला आकारकरि पीला आकारका ज्ञान उपज्या । बहुरि जो तदाकार ज्ञान अर Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला | ५५ तिसका निश्चय भया सो ऐसा ज्ञानकरि दूजे क्षण तैसा ही ज्ञान उपज्या सो तदाकार भी है तिसका निश्चयस्वरूप भी है अर पहले क्षणका पीताकारज्ञानकूं क्यों नांही जानै, यह ही व्यभिचार । ऐसें च्यारूं ही प्रकार यह व्यभिचार भया, तातैं क्षयोपशमलक्षणयोग्यता माननां श्रेष्ठ है । इस ही कथनकार जो बौद्धनैं ऐसें कह्या ताका श्लोक है ताका अर्थ — प्रत्यक्ष ज्ञान निर्विकल्प है ताहि अर्थ रूपता विना अन्य कोई अर्थ करि नांही रचै, अर्धरूपता ही प्रत्यक्षरूप निर्विकल्प ज्ञानकूं अर्थकरि जोडै है तातैं प्रमेयका जाननां प्रमाणका फल है प्रमेयरूप होनां सो ही ताका प्रमाण है, ऐसैं कहनां निराकरण किया जातै समान अर्थ आकार भये जे अनेक ज्ञान तिनिविषै प्रमेयरूप होनेंका सद्भाव है । बहुरि बौद्धमती यहु सारूप्य माने है सो समानपरिणामरूप समान्य ही सारूप्य है सो सामान्यकूं वस्तुभूत नांही मानैं हैं सो अवस्तुभूत होय सो काहेका सारूप्य ? तातैं यह ही ठहरे है जो क्षयोपशमलक्षण योग्यता है सो ही विषय प्रति नियमका कारण है ॥ ९ ॥ -- आगैं कोई ऐसा मानैं है— जो अर्थ है सो ज्ञानका कारण है याही अर्थ ज्ञेयरूप कहिये है ऐसा मतकूं निराकरण करै है ताका सूत्र :कारणस्य च परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभिचारः १० ॥ याका अर्थ — जो कारणकै परिच्छेद्यत्व कहिये ज्ञेयपणां मानिये तौ नेत्रादि करण हैं तिनिकरि व्यभिचार होय है, ते कारण तौ हैं अर परिच्छेद्य नांही हैं आपकूं आप नहीं जाने है । इहां वह कहै जो हम कारणपणात परिच्छेद्यपणां नांही कहैं हैं परिच्छेद्यपणांतें कारणपणां कहैं १ एतेन यदुक्तं - अर्थेन घटत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् । तस्मात्प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥ १ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितहैं जो ज्ञेय होय सो कारण होय तौ ऐसैं कहे केशनिका झूमका आदिकरि व्यभिचार होय है सो पूर्वै कह्या ही था काहूके मस्तक परि मांछर उ. थे सो काहूकू केशनिका झूमका दीख्या सो ते मांछर ज्ञानके कारण न भये ॥ १०॥ आगैं अब अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष जो मुख्य प्रत्यक्ष ताहि कहै है; सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियमशेषतो मुख्यम् ॥११॥ ___ याका अर्थ-सामग्री जो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावलक्षण ताका विशेष जो सर्वकी पूर्णता-एकता मिलनां ताकरि दूरि भये हैं अखिल कहिये समस्त आवरण जाके ऐसा, बहुरि अतीन्द्रिय कहिये इन्द्रियनिकू उलंघि वत्ते, बहुरि अशेषतः कहिये समस्तपणांकरि विशद कहिये स्पष्ट ऐसा ज्ञान मुख्य प्रत्यक्ष है ॥ ११ ॥ ___ इहां कोई पूछ समस्तपणांकरि विशदपणांविर्षे कहा कारण है ? ताकू कहिये-ज्ञानका प्रतिबंध जो कर्म ताका अभाव कारण है हम ऐसे करें हैं । फेरि पूछे तहां भी कहा कारण है ? ताकू कहिये अतीन्द्रियपणां है अर अनावरणपणां है ऐसैं कहैं हैं फेरि पूछे यह भी काहेरौं है ? ताका समाधानकू सूत्र कहै है;सावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबंधसंभवात् ॥१२॥ ___ याका अर्थ-जो ज्ञानकै आवरणसहितपणां होय अर इंद्रियजन्यपणां होय तौ प्रतिबंध संभवै तातै निरावरण अतीन्द्रिय होय सो ही मुख्य प्रत्यक्ष है । इहां कोई कहै कि अवधि मनःपर्यय ज्ञानका इस सूत्रकरि ग्रहण न भया ता” यहु लक्षण अव्यापक है ? ताकू आचार्य कहै है-ऐसैं न कहना तिनि दोऊनिकै भी अपने विषयवि समस्तपणांकरि विशदपणां आदि धर्म संभव है । बहार ऐसैं मति-श्रुतज्ञानकै Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । अपने विषयविर्षै भी विशदपणां नांही है ऐसैं अतिव्याप्ति दूषणका भी परिहार है सो यह अतीन्द्रिय अवधि, मन:पर्यय, केवलके भेदतैं तीन प्रकार मुख्य प्रत्यक्ष है जातैं ये आत्माके संनिधिमात्रकी अपेक्षातैं उपजै हैं; अन्य इन्द्रिय आदिकी अपेक्षा इनिकै नांही है । 1 इहां मीमांसकमती भट्टमताका आशय ले कहै है; जो समस्त विषयविषै विशदका अवभासनेवाला ज्ञानकै अर तिस ज्ञानसहित पुरुपकै प्रत्यक्ष आदि पांच प्रमाणका विषयपणांका अभावपणांकरि अभाव प्रमाण सो ही भया विषमसर्प ताकरि नष्ट भई है सत्ता जाकी तिसपणांतें कौनकै मुख्य प्रत्यक्ष होय है । भावार्थ — सर्वका जाननेवाला ज्ञान अर सर्वज्ञ ये पांचूं ही प्रमाणका विषय नांही- -अभाव प्रमाणका विषय है तातैं अभाव ही सिद्ध होय है । सो ही कहै है; - प्रथम तौ प्रत्यक्ष प्रमाण है ताका सर्वज्ञ विषय नांही, जातैं प्रत्यक्षकै तौ रूपादिक नियमरूप जे विषय तिनिविषै प्रवर्त्तनपणां है इन्द्रिय प्रत्यक्ष जो विषय संबंधरूप होय अर वर्त्तमान होय ताही विषय (विषै) प्रवर्त्ते है सो समस्तका ज्ञाता सर्वज्ञ इन्द्रियनितैं संबद्ध नांही वर्त्तमान नांही । बहुरि अनुमानतें भी ताकी सिद्धि नांही है, जातै ग्रहण किया है संबंध जानें ऐसा पुरुषकै वस्तुका एकदेश देखनेंतैं दूरववर्ती वस्तुविषै बुद्धि होय है सो सर्वज्ञका सद्भावतैं अविनाभावी कार्यलिंग तथा स्वभावलिंग हम नांही देखें हैं जातें अनुमान करें, जातैं सर्वज्ञके जानें पहली तिसका स्वभाव अर तिसका कार्य जो तिसके सद्भावतैं अविनाभावीका निश्चय करनें का असमर्थपणां है । बहुरि आगमप्रमाणकरि भी ताकी सिद्धि नांही है । इहां दोय पक्ष — आगम नित्यरूप तिसके सद्भावकूं जनावै है कि अनित्य आगम जनावै है ? तहां नित्य आगम तौ ताका सद्भाव नांही जनाये है जातें नित्य तौ अर्थवादरूप है प्रयोजनमात्रकूं कहै है । - ५७ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितअपौरुषेय वेद है सो कर्मविशेष जो यज्ञ आदि शुभकार्य ताका संस्तवन कहिये प्रशंसादिक ताकै विर्षे प्रवीण है सो पुरुषविशेषका जनावनहारा नाही । पुरुष तौ आदि लिये है अर नित्य आगम वेद है सो अनादि है सो अनादिकै आदिमान पुरुषका कहनां बणे नाही । बहुरि जो अनित्य आगम स्मृति पुराण आदि हैं ते सर्वज्ञकू साधैं है ऐसैं कहिये तौ तिस अनित्य आगमकै (कू) भी सो सर्वज्ञका कह्या कहिये तो सर्वज्ञका निश्चय पहिले किया विनां ताका प्रमाणपणांका निश्चय नाही होय है, बहुरि इतरेतराश्रयनामा दोष आवै है, सर्वज्ञके कहे पणेतै तौ तिस आगमका प्रमाणपणां सिद्ध होय अर तिस आगमका प्रमाणपणांकी सिद्धित सर्वज्ञकी सिद्धि होय ऐसे इतरेतराश्रयदोष होय । बहुरि असर्वज्ञका कह्या आगमका प्रमाणपणां ही नाही ताकै सर्वज्ञका प्ररूपणविर्यै प्रवीणपणां है ऐसा कहनां ही अतिशयकरि असंभाव्य है । बहुरि सर्वज्ञसमान अन्यका ग्रहणका असंभवतै उपमान प्रमाण ताका सद्भाव नाही जनावै है । बहुरि अर्थापत्तिप्रमाण है सो भी सर्वज्ञका जनावनेवाला नाही है जाते याका अनन्यथाभूत वस्तुतें जानना है, सो कोई ऐसा वस्तु नांही जो सर्वज्ञविना न होय ताकरि अर्थापत्ति सर्वज्ञकू जनावै । बहुरि जो धर्मादिकपदार्थ हैं तिनिका उपदेश है ताकरि अर्थापत्ति होय ऐसैं कहिये तो धर्म आदिका उपदेश तौ व्यामोहरौं भी संभव है, जातै उपदेश दोय प्रकार है सम्यक् उपदेश, मिथ्या उपदेश | तहां मनु आदि ऋषि भये हैं तिनिका तौ सम्यक् उपदेश हैं जाते तिनिकै यथार्थज्ञानका उदय है सो वेदमूल है—वेदतै उपज्या है । बहुरि बुद्ध आदिका उपदेश है सो व्यामोहपूर्वक है जारौं तिनिकै ज्ञान वेदतै उपज्या नाही ते-वेदार्थके जाननेवाले नाही । तातै सर्वज्ञ पांचूं ही प्रमाणका विषय नाही, तहां अभाव प्रमाणहीकी प्रवृत्ति है ताकरि सर्वज्ञका अभाव ही जानिये Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । है । पांच प्रमाणका तौ व्यापार भावके अंशविर्षे ही होय है ऐसैं भट्टमती अपनें मतका समर्थन कीया । ___ अब आचार्य ताका प्रतिविधान करै है;--प्रथम तौ कह्या जो सर्वज्ञकै प्रत्यक्षादिक प्रमाणका अविषयपणां है सो अयुक्त है जाते तिस सर्वज्ञका ग्राहक अनुमान प्रमाणका संभव है, सो ही कहै है;--कोई पुरुष सकल पदार्थका साक्षात् करनेवाला है जानैं तिनि पदार्थनिके ग्रहण करनेका स्वभावपणांके होते संतै प्रक्षीणप्रतिबंधप्रत्ययपणां है, भावार्थ-सूक्ष्म आदि पदार्थनिकू ग्रहण करनेका पुरुषका स्वभाव है सो ज्ञानका प्रतिबंधक कर्मके नाश भये ज्ञान प्रकट होय है । जो जिसका ग्रहणस्वभावपणांकू होतें प्रक्षीणप्रतिबंधप्रत्यय होय सो तिसका साक्षात् करनेवाला होय जैसैं जाका तिमिर दूरि भया ऐसा नेत्र सो रूपका साक्षात् करनेवाला होय, सो इहां तिसके ग्रहणरूप स्वभावपणांके होते प्रक्षीणप्रतिबंधप्रत्ययस्वरूप विवादमैं आया कोई पुरुष है । ऐसैं च्यार प्रयोगका अनुमानकरि सर्वज्ञका सद्भाव मीमांसककू आ. चार्य- बताया । बहुरि सकल पदार्थनिका ग्रहणस्वभावपणां कह्या सो आत्माकै असिद्ध नाही है जातें आत्माका ऐसा स्वभाव न मानिये तौ वेदतै सकलपदार्थका ज्ञान होय ऐसे कहनेका अयोग आवै है, जैसैं आंधे पुरुषकै आरसेसूं रूपकी प्रतीतिका अयोग होय तैसें । बहुरि व्याप्तिज्ञानकी उत्पत्तिके बलौं समस्तपदार्थसंबंधी परोक्षज्ञानका संभव मानिये ही है, इहां केवल एक ज्ञानकै विशदपणां जो स्पष्टपणां-प्रत्यक्षपणां ताही विर्षे विवाद है । तहां आवरणाका दूर होनां ही कारण है, जैसैं धूलिते आवरण तथा बरफका आवरण कोई पदार्थकै होय सो आवरण दूर होय तब पदार्थ स्पष्ट दीखै तैसें ज्ञानकै कर्मका आवरण दूर होय तब ज्ञान स्पष्ट प्रगटै है । बहुरि पूछ है-जो प्रक्षीणप्रतिबं Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित"धप्रत्ययपणां कैसैं है ? ताका समाधानकू प्रयोग करै है;-दोष अर आवरण कोई पुरुष विर्षे मूलतें नाश होय है जातें इनकी हानि बधती बधती देखिये है सो जाकी बधती हानि है सो कोई विर्षे मूलतें समस्त भी नाश होय है, जैसैं अग्निके पुटका पाकतें दूर भये हैं कीट अर कालिमा आदि अंतरंग बहिरंग दोऊ मल जाकै ऐसैं सुवर्ण शुद्ध होय है तैसैं ही बधती बधती हानिरूप दोष अर आवरण हैं, ऐसा प्रयोग जाननां । बहुरि विवादमैं आया जो ज्ञान ताकै आवरण कैसैं सिद्ध है जातै प्रतिषेध है सो विधिपूर्वक है ? इहां कहिये है-विवादमैं आया जो ज्ञान सो आवरणसहित है जातें अपने विषयकू अविशदपणांकरि जनावनहारा है जैसैं रज करि तथा धूम बरफ आदि करि पदार्थ अंतरित होय है आच्छादित होय है तैसें है। बहुरि कोई कहै आत्मा तौ अमूर्तीक है सो अमूर्तपणातै आवरणका अयोग्य है ? सो ऐसें नाही है, चैतन्यकी शक्ति अमूर्तीक है तौऊ मदिरा तथा मांचणां कोदूं आदि करि याकै आवरण होय है । कोई कहै मदिरादिकरि तौ इन्द्रियकै आवरण है तो ऐसैं भी नांही है जारौं इन्द्रिय तौ अचेतन है सो आवरण भये भी अनावरणा समान ही है बहुरि स्मरण आदिका प्रतिबंधका अयोग होय, मतवालाकै स्मरण नाही है जो इंद्रियहीकै आवरण होय तौ मदोन्मत्तकै स्मरण कैसैं न होय । बहुरि मनकै भी आवरण न कहिये जातें आत्मा विना अन्य मनका निषेध आगें करेंगे तातै अमूर्तिककै आवरणका अभाव नांही है । तातैं तद्ग्रहण स्वभावपणां होतें प्रक्षीणप्रतिबंध प्रत्ययपणां हेतु है सो असिद्ध नांही है । बहुरि यह हेतु विरुद्ध भी नांही है जातें विपरीत जो विपक्ष आत्माकै सूक्ष्मादिग्रहण स्वभावका अभाव ताविषं निश्चयस्वरूप जो अविनाभाव ताका अभाव है। बहुरि यहु हेतु अनैकान्तिक भी नांही है जाते एकदेशकरि तथा साम Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। स्त्यकरि विपक्षकै विर्षे वृत्तिका अभाव है। बहुार कालात्ययापदिष्ट भी नही है जातें यातें विपरीत अर्थका स्थापनेवाला प्रत्यक्षप्रमाण तथा आगमप्रमाणका अभाव है । बहुरि सत्प्रतिपक्ष भी यह हैतु नाही है जातें इसका प्रतिपक्षसाधनेका हेतुका अभाव है। इहां मीमांसक कहै है-जो याका प्रतिपक्षका साधनका अनुमान यह है ताका प्रयोग-विवादमैं आया जो पुरुष सो सर्वज्ञ नाही है जाते वक्ता है, पुरुष है, हास्तदिकसहित है ऐसें तीन हेतु” पुरुष सर्वज्ञ नांही जैसे हरेक गैलै चालता पुरुष सर्वज्ञ नाही तैसैं ? ताका समाधान आचार्य करै है;जो यह कहनां सुन्दर नाही जाते वक्तापणां आदि तीन हेतु कहे ते समीचीन भले हेतु नाही । इहां तीन पक्ष पूछिये, जो वक्तापणां कह्या सो प्रत्यक्ष-अनुमान” विरुद्ध अर्थका वक्तापणां कहा कि अविरुद्ध अर्थका वक्तापणां कह्या कि वक्तपणां सामान्य कह्या ? इनि तीन सिवाय चौथी गति नांही है । तहां प्रथमपक्ष तौ न बणै हैं याकै तौ सिद्धसाध्यपणांका प्रसंग हे जाते प्रत्यक्ष अनुमान” विरुद्ध अर्थ कहै सो सर्वज्ञ काहेका ? बहुार दूसरा पक्ष कह्या सो यह विरुद्ध है जातै प्रत्यक्ष अनुमान” विरुद्ध अर्थ कहै सो ऐसा वक्तापणां तौ ज्ञानके अतिशयविना न बणें जामैं ज्ञान बहुत होय सो ही वक्ता सत्यवादी होय । बहुरि वक्तापणां सामान्य है सो भी विपक्ष” अविरुद्ध है । तातै प्रकरणगोचर जो साध्य असर्वज्ञपणां ताकू साधनेंविर्षे समर्थ नाही । ज्ञानकी बधवारी होतें वक्तापणांकी हानि दीखै नाही, उलटा ज्ञानकी बधवारीवालाकै वचनकी प्रवृत्तिकी बधवारीका संभव है । इस ही कथनकरि पुरुषपणां हेतु भी निराकरण किया। पुरुषपणां होतें जो रागदिदोषदूषत होय तौ सिद्ध साध्यता ही है ताकै सर्वज्ञपणांका अभाव सिद्ध ही है अर रागादि दोषकरि दूषित नांही होय तौ हेतु विरुद्ध है, वीतराग विज्ञान आदि गुणनिकरि युक्त Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित पुरुषपणांका सर्वज्ञ विना अयोग है । बहुरि पुरुषपणां सामान्य है सो - सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिक है असर्वज्ञपणांका विपक्ष सर्वज्ञपणां सो कोई पुरुषमैं होय भी तातैं विपक्षतें व्यावृत्ति संदेहरूप है । ऐसें सकल पदा'र्थका साक्षात्कारपणां कोई पुरुषकै सिद्ध होय है इस अनुमान यातैं पांच प्रमाणका विषय सर्वज्ञ नांही ऐसैं कहना अयुक्त है । I बहुरि असर्वज्ञवादी कहै है— जो इस अनुमानविषै सामान्य सर्वज्ञपणां सिद्ध भया सो यह सर्वज्ञपणां अरहंतकै है कि अन्यकै है ? जो कहोगे अन्य जे बुद्ध आदि तिनिकै है तौ अरहंतके वाक्य अप्रमाण ठहरेंगे । बहुरि कहोगे अरहंतके है तौ आगम करि सामर्थ्यकरि अथवा स्वशक्ति कहिये अविनाभावी लिंगपणां ताकरि अथवा ताका दृष्टान्तका अनुग्रह करि तिस हेतुतैं अरहंतकौं सर्वज्ञ जाननेका असमर्थपणां है जातैं हेतुकै अन्यपक्ष जो बुद्धादिक तिनिविषै भी समानवृत्ति है, जैसें हेतुतैं अरहतकै साधिये तैसैं ही बुद्ध आदिकै भी सिद्ध होयगा । ऐसें असर्वज्ञवादी मीमांसक आदिक कहैं । सो यह कहनां भी तिनिकै अपनें घातकै अर्थि कृत्य कहिये करतूति तथा शस्त्रविशेष तथा मारीका उठावनां है जातैं ऐसैं पूछनां है सो तौ सर्वज्ञसामान्यका मानपूर्वक है । सो सर्वज्ञ सामान्य मान्यां तब अपनी पक्षका घात भया । अर जो सर्वज्ञसामान्य न मानिये तौ काढूहीकै सर्वज्ञपणां नांही है ऐसें ही कहनां । बहुरि प्रसिद्ध अनुमानवि भी इस दोषका संभवकरि जातिनामा दूषणरूप उत्तर होय है, सो ही कहिये है; जैसें काहूनें अनुमान किया जो शब्द नित्य है जातैं प्रत्यभिज्ञानकरि जान्या जाय है, ऐसें कहनें तें जातिवादी कहै है— शब्दकूं व्यापकरूप नित्य साधिये है कि अव्याप-रूप नित्य साधिये है ? जो अव्यापकरूप नित्य साधिये है तौ व्यापकपणां करि मान्यां जो शब्द सो किछू भी अर्थं पुष्ट नांही करे है. - Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । ६३ wwwwwww व्यापक माननां निरर्थक ठहरया, मीमांसक शब्दकू व्यापक मानें है। बहुरि व्यापकरूप शब्द नित्य साधिये तो आगमकरि अथवा सामर्थ्यकरि अथवा अपनी शक्तिकरि तथा दृष्टान्तके अनुग्रहकरि व्यापकपणां नाही निश्चय होय है जारौं अव्यापक नित्यपक्षविर्षे भी याकी समानवृत्ति है, ता” जाति-उत्तर होय है । दोऊ पक्षविर्षे प्रश्न उत्तर समान होय जाय तहां जातिनामा दूषण होय है । ऐसें पूर्वै सर्वज्ञका साधनरूप हेतु कह्या सो निर्दोष है तातै सर्वज्ञ सिद्ध होय है । बहुरि जो अभावप्रमाणकरि सर्वज्ञकी सत्ता ग्रासीभूत करी कही सो भी अयुक्त है-तिस सर्वज्ञका ग्राहक अनुमानप्रमाणका सद्भाव होतें पांच प्रमाणका अभाव है मूल जाका ऐसा जो अभाव प्रमाण ताकी उत्पत्तिकी सामग्रीका अयोग है जारौं हे मीमांसक ! तेरे ही मतमैं ऐसा कया है ताका श्लोक है, ताका अर्थ-वस्तुका सद्भावकू ग्रहण करि बहुरि ताका प्रतियोगीकू यादि करि इन्द्रियनिकी अपेक्षारहित मनसंबंधी नास्तिताका ज्ञान उपजै है अन्यप्रकार नाही उपजै है । ऐसें होतें तीनकाल तीन लोकस्वरूप जो वस्तु ताका सद्भावका ग्रहणविर्षे कोई काल कोई क्षेत्रविर्षे ग्रहण किया जो सर्वज्ञ ताका स्मरण होते कोई क्षेत्र कालविर्षे ताकी नास्तिताका ज्ञानरूप अभावप्रमाण युक्त होय है, अन्यप्रकार नाही है । सो कोई छद्मस्थ असर्वज्ञजनकै तीन जगत तीनकालका ज्ञान नाही बणै है तातै सर्वज्ञ अतीन्द्रियका ज्ञान न होय है, यह सर्वज्ञपणां चैतन्यका धर्म है तातैं अतीन्द्रिय है सो भी असर्वज्ञ जनका विषय नाही ऐसे होते अभावप्रमाण कैसैं उदयकू प्राप्त होय । असर्वज्ञ पुरुषकै तिस सर्वज्ञके अभावकी उपजाबनेकी सामग्रीका संभवका अभाव है । बहुरि १ गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताशानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥१॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित जो असर्वज्ञ सर्वकाल सर्वक्षेत्रका ज्ञान मानि सर्वज्ञके अभावका उपकी सामग्री मानिये तौ ऐसें जाननेवालाहीकै सर्वज्ञपणां ठहरथा । बहुरि क — जो इस क्षेत्र काल मैं सर्वज्ञका अभाव साधिये है तौ युक्त नांही यामैं सिद्धसाध्यपणांका प्रसंग आवै है कोई क्षेत्र कालकी अपेक्षा सर्वज्ञका अभाव सिद्ध ही है, सिद्धकूं कहा साधिये । तातैं मुख्य अतीन्द्रियज्ञान समस्तपणांकरि विशद ऐसा सिद्ध भया । बहुरि सर्वज्ञका ज्ञान अतीन्द्रिय है तातैं अपवित्रका देखनां तिसका रसका आस्वादन करनां ऐसा दोष भी निराकरण भया, अशुच्यादिकका देखनां रसका आस्वाद करनां दोष तौ इन्द्रियज्ञान अपेक्षा का है, वीतरागकै यह दोष नांही । - बहुरि पूछे है - जो अतीन्द्रियज्ञानकै विशदपणां कैसें है; हम तौ नेत्रादिकतैं स्पष्ट ज्ञान होता जानैं हैं । ताका समाधान; — जैसैं सांचा स्वप्नका ज्ञानकै तथा भावनाका ज्ञानकै विशदपणां है तैसें इन्द्रियनि विना भी विशदपणां जाननां, जातैं देखिये है — भावनाके बलतैं दूरदेश अन्यदेशवर्त्ती वस्तुकों विशद जानिये है, जैसे कला है ताका श्लोक है; ताका अर्थ काढू कामीजनकूं बंदीखाने मैं दीया सो कहै है; - देखो ! यह गुप्त आछाद्या जुड्या जो बंदीखानांका घर तहां ऐसा अंधकार जो सूईके अग्रभागकरि भी भेद्या न जाय तहां मेरे नेत्र मीचिंकरि मैं बैठा तौऊ तिस स्त्रीका मुख मोकूं प्रगट दीखै है । ऐसा काहू कामीका वचन है सो ऐसे बहुत उदाहरण हैं । इन्द्रियनिके संबंध विना केवल मनके ही द्वारा विशद - स्पष्ट प्रतिभास होय है, ऐसें मीमांसककूं तौ उत्तर दिया । १ पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुखाग्रदुर्भेद्ये । मयि च निमीलितनयने तथापि कान्ताननं व्यक्तम् ॥१॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। ___ अब इहां नैयायिक बोलै है; जो सर्वज्ञपणांकी तौ सिद्धि भई परंतु आवरणके अभावतें सर्वज्ञपणां है यह नाही बण है, शरीर इन्द्रिय लोक आदि ये कार्य हैं तिनिके निमित्तपणांकरि सर्वज्ञकी सिद्धि होय है । बहुरि इहां शरीर आदि कार्यनिका होनां बुद्धिवान पुरुषकरि किये होय है सो असिद्ध नांही है जाते अनुमान प्रमाण आदिकतैं इह नीकै प्रसिद्ध होय है, सो ही कहिये है, ताका प्रयोग करै है-नांही निश्चयमैं आये-विवादमैं आये जे पृथिवी पर्वत वृक्ष शरीर आदिक सो कोई बुद्धिवान पुरुषके रचे हैं तिस हेतुक हैं जातें ये कार्यरूप हैं कार्य होय सो किया विना होय नाही । बहुरि इनिका उपादान अचेतन है । बहुरि इनिका संनिवेश कहिये आकारादिकी रचनां सो भलै प्रकार है ऐसे आकारादिक बुद्धिमान पुरुष विना होय नाही जैसे वस्त्र आदिका बनावनेवाला कारीगर तिनिकी यथास्थान रचना बनावै तैसैं ये भी काहू. बनाये हैं । बहुरि आगम भी तिस सर्वज्ञका प्रतिपादक सुनिये है, सो वेदका वचन है-' विश्वतश्चक्षुः' कहिये सर्व तरफ जाके नेत्र हैं---समस्तकू देखै है, ' उत विश्वतो मुखः' कहिये सर्व तरफ जाका मुख है, बहुरि · विश्वतो बाहुः' कहिये सर्व तरफ जाका भुजानिका व्यापार है, 'उत विश्वतः पात् ' कहिये सर्व तरफ जाके पग हैं-सर्व व्यापक है, बहुरि ‘संबाहुभ्यां धमति' कहिये पुण्य पाप सर्वकू जोडै है--सर्व प्राणीनिकै पुण्य पापका संयोग करै है, ऐसा 'संपतत्रैः द्यावा. भूमी जनयन् देव एकः', कहिये एक देव ईश्वर है सो पृथिवी आकाशकू परमाणूनिकरि उपजावता संता व” है । बहुरि व्यासका वचन ऐसा १-विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतः पात् सम्बाहुभ्यां धमति सम्पतत्रै-वाभूमी जनयन् देव एकः॥ हि. प्र. ५ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित - 1 -ताका' श्लोक है ताका अर्थ ; यह जंतु कहिये जीव सो अज्ञानी है आप ही आपकै सुख दुःख करिवेकूं असमर्थ है या ईश्वरका प्रेरया हुआ स्वर्ग तथा नरककूं गमन करे है । बहुरि ऐसैं भी न कहनां जो अचेतन जे परमाणु आदि कारण तिनिहीकरि कार्यकी निष्पत्ति होय है ततैं बुद्धिमान कारणका अनर्थकपणां है जातैं अचेतनकै कार्यकी उत्पत्तिविषै आपहीतैं व्यापार करनेका अयोग है— जड़ आप ही कार्य करि सकै नांही, जैसैं कोलीके राछ वेम तुरी अर तंतु इनितैं आपहीतैं वस्त्र बणें नांही कोली पुरुष व्यापार करै तब बणै । बहुरि ऐसैं चेतनकै भी अन्यचेतनपूर्वक कार्य करनां नांही है जातैं यामैं अनवस्था आवै । ईश्वर है सो सकल पुरुषनितैं बड़ा है समर्थ है अतिशयकी हदकूं प्राप्त है, सर्वज्ञबीज कहिये जगत्का कारण सर्वज्ञ सो ही बीज है | बहुरि क्लेश कर्म विपाक आशय इनिकरि अपरामृष्ट है—रहित है बहुरि अनादिभूत अविनाशी ज्ञानका संभव जाकै है, ऐसे ही पैंतंजलिनें कह्या है— क्लेश कहिये अविद्या १ अस्मिता १ रागद्वेष १ अभिनिवेश १, तहां अविद्या तौ विपरीत जाननां सो है, बहुरि अस्मिता कहिये अहंकार, रागद्वेष कहिये सुख - दुःख तथा ताके साधनविर्षै प्रीतिअप्रीति, अभिनिवेश कहिये अपना ईश्वरपणांका भंगका भय, ये तौ क्लेशके विशेष | बहुरि कर्म कहिये धर्म-अधर्मके साधन यज्ञ अर ब्रह्महत्यादिक । बहुरि विपाक कहिये जाति आयु भोग, तहां जाति देव मनुष्य आदि१ - अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ १ ॥ I ६६ २ – यदाह पतञ्जलिः - क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषः सर्वशः स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनाविच्छेदादिति । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । ६७ 1 । पणां, आयु कहिये आयुर्बल, सुख दुःखका भोगनां सो भोग ये विपाकके विशेष | बहुरि आशय कहिये निवृत्ति तांई जो भाव लाग्या रहै सो ऐसे भावनिकरि सर्वज्ञ पुरुष स्पर्शित नांही है । सो सर्व ही विषै गुरु है बड़ा है कालकरि जाका विच्छेद नांही है, ऐसैं पतंजलि के वचन हैं । बहुरि अवधूत जो संन्यासीनिका आचार्य ताके ऐसे वचन हैं, श्लोकका अर्थ – हे भगवन् ! एते विशेषण तेरे ही हैं, प्रथम तौ जो काहूकार हत्या न जाय ऐसा ऐश्वर्य तेरे ही है, बहुरि स्वभावही विरागता तेरै ही है, बहुरि स्वभावतैं उपजी तृप्तिता तेरै ही है, बहुरि इन्द्रियनिका वश करनां तेरे ही है, बहुरि अत्यन्तमुख तेरे ही है, बहुरि आवरणरहित शक्ति तेरै ही है, बहुरि सर्वविषयका जाननहारा ज्ञान तेरे ही है ऐसा अवधूतका वचन है । ऐसैं ईश्वर सर्वतैं बड़ा है तातैं कार्यके कर मैं अनवस्था नांही है । बहुरि तहां ईश्वरकी सिद्धिकं कार्यत्वनामा हेतु है सो असिद्ध नांही है, अवयवसहितपणांकरि कार्यत्वकी सिद्धि है जो अवयवनिकरि सहित होय सो कार्य है सो किया ही होय । बहुरि यह हेतु विरुद्ध भी नांही है जाते याकी विपक्ष जो बिना किया होना तावि वृत्तिका अभाव है । बहुरि अनैकान्तिक भी नांही है विपक्ष जे परमाणु आदि तिनि विषै याकी अप्रवृत्ति है, परमाणु आप कार्य नांही । बहुरि प्रकरणसम भी नांही है जातैं प्रतिपक्षकी सिद्धिका कारण जो अन्य हेतु ताका अभाव है । २ - ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विरागस्तृप्तिर्निसर्गजनिता वशितेन्द्रियेषु । आत्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्तिज्ञानं च सर्वविषयं भगवंस्तवैव ॥ इत्यवधूतवचनाच्च । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित बहुरि इहां कोई कहै -- याका प्रतिपक्षका साधन हेतु है, ताका प्रयोग -तनु आदि बुद्धिमान हेतुक नांही है जातै देख्या है कर्त्ता जाका ऐसा जो प्रासाद आदिक तिनितैं यह तनु आदि विलक्षण हैं, प्रासाद आदि सारिखे नांही, जैसैं आकाश आदिक है, ऐसैं याका प्रतिपक्षका हेतु है तनु आदिककै अकर्त्ताकूं साधै है, तातैं कार्यत्व हेतु प्रकरणसम है । ताकूं नैयायिक कहै है - यह कहनां अयुक्त है जातैं इस हेतु कै असिद्धपणां है, संनिवेशविशिष्टपणांकरि प्रासादादिकतैं समानजातीयपणांकरि शरीरादिकका उपलंभ है जैसैं प्रासादादिकका आकार रचनाविशेष है तैसे ही शरीरादिकका आकार ऐसा ही रचना विशेष है । बहुरि कहोगे जैसा प्रासादादिकविषै संनिवेशविशेष देखिये है तैसा तनुशरीर आदि विषै नांही तौ सर्व ही एकसे सर्वस्वरूप तौ होय नांही कोई मैं किच्छू विशेष होय कोई मैं किछू होय । अतिशयसहित संनिवेश होय सो सातिशय कर्ताकूं जनाबे है, जैसें प्रासादादिक, जो प्रासाद सुन्दर वर्णै तब जानिये चतुर कारीगरनैं वणाया है । बहुरि कोईका तौ कर्त्ता दृष्ट है— जानिये है फलाणांनैं बनाया है अर कोईका कर्त्ता अदृष्ट है जाण्यां न पड़े है तौ इनि दाऊ रीतितैं तौ बुद्धिवानका किया अर बुद्धिवान न किया स्वयमेव है ऐसा सिद्ध होय नांही । मणि मोती आदिका कर्त्ता कौंननैं देख्या ये स्वयमेव भये ठहरे हैं, ऐसें संनिवेशविशेष हेतु सिद्ध है । इस ही कथनकरि अचेतन उपादानपणां आदि हेतु भी दृढ़ किया । ऐसैं बुद्धिवान हेतुक तनु आदि है ऐसा भलै प्रकार कह्या हुवा बणै है । इस ही हेतु तैं सर्वज्ञपण सिद्ध होय है । ऐसें नैयायिकनैं अपना मत दृढ़ किया । I - ताका समाधान आचार्य करे है; — जो यहु कहनां अनुमानरूप मुद्रा करनेंकूं धनकरि रहित दरिद्रीके वचन है जातैं कार्यत्व आदि हेतु Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । ६९ कहे तिनिकै असम्यक् हेतुपणांकरि तिनि हेतुनिकरि उपज्या ज्ञानकै मिथ्यारूपपणां है, सो ही कहिये है; यह कार्यत्वनामा हेतु कह्या सो याका कहा स्वरूप हैं, स्वकारणसत्तासमवायस्वरूप कार्यत्व है, कि अभूत्वा भावित्व है, कि अक्रियादर्शीकै कृतबुद्धि उत्पादकपणां है, कि कारणके व्यापारकै अनुविधायीपणां है ? इनि सिवाय गतिका अभाव है, ऐसें चार पक्ष पूछिये हैं । तहां आदिका पक्ष कहैगा तौ योगीश्वरनिकै समस्त कर्मका नाशनामा जो कार्य सो भी कार्यत्वपक्षमैं ही है ताविषै कार्यत्वनामा हेतुकी अप्रवृत्ति है यातें हेतु भागासिद्ध होयगा । जो हेतु पक्षके कोई देश मैं न व्यापै सो भागासिद्ध कहिये । सो इस कर्मका नाशविषै स्वकारणसमवाय भी नांही अर सत्तासमवाय भी नांही । वस्तुकी सत्तासूं एकता होय सो तौ सत्तासमवाय कहिये, बहुरि वस्तु के कारणसूं एकता होय सो स्वकारणसमवाय कहिये । सो कर्मका नाश प्रध्वंसनामा अभावस्वरूप है सो यामैं सत्ता भी नांही अर समवाय भी नांही जातैं सत्ता तौ द्रव्य, गुण, क्रियाकै आधार मानिये है, बहुरि समवाय द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, इन पांच पदार्थ मैं वर्त्तनेवाला मानिये है यह नैयायिक-वैशेषिकका मत है। तहां पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश, दिशा आत्मा, काल, मन, ये नव तौ द्रव्य मानैं हैं । बहुरि बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, संस्कार, धर्म, अधर्म, रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, १ - सत्तासूं वस्तुकै एकता होय सो तौ सत्तासमवायस्वरूप कार्य वस्तु है बहुरि वस्तु कारणं सत्ताकै एकता होय सो स्वकारणसत्तासमवायस्वरूप कार्य है ऐसें दोऊ मैं ही कहिये, वस्तु मैं वा वस्तुके कारण मैं सत्तासमवाय मान्या यातें सत्तासमवाय लक्षण कार्यका स्वरूप मानैं है । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .७० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित द्रवत्व, स्नेह, शब्द, ए चौईस गुण मानें हैं । बहुरि प्रसारण, आकुंचन, उत्क्षेपण, गमन, आगमन, ये पांच कर्म मानें हैं। पर सामान्य, अपर सामान्य ये दोय प्रकार सामान्य मानें हैं । विशेष अनेक हैं सो इनिमैं अभाव नाही । अभावनामा सातवां पदार्थ न्यारा है । बहुरि कहे जो अभावका परित्याग करि इहां भाव ही विवादाध्यासितकरि पक्ष किया है तातें तुमनैं दोष बताया सो इहां नांही प्रवेश करै है ? ताकू कहिये-जो अभावकू कार्यका पक्षमैं न लीजिये तो मुक्तिके अर्थी जे मुनि तिनिकै ईश्वरका आराधनां अनर्थक ठहरैगा जाते तिस कर्मनाशके कार्यविर्षे ईश्वरका आराधनां किछू करनेवाला नाही । बहुरि यह सत्तासमवाय कार्यका स्वरूप माननां विचार किये सैंकडां प्रकार खंड्या जाय है तातै कार्यत्व हेतु स्वरूपासिद्ध है, जातै सो सत्तासमवाय पदार्थ उत्पत्ति भये होय है कि उपजते संतेकै होय है ? जो कहेगा उत्पत्ति भये होय है तौ तहां भी पूछिये जो छतेनिकै होय कि अछतेनिकै ? जो कहेगा अणछतेनिकै होय है तो गदहाके सींग आदिकै भी सत्तासमवायका प्रसंग आवैगा । बहुरि कहैगा जो छते पदार्थनिकै होय है तौ तहां पूछिये जो सत्तासमवायतें होय है कि आपही” होय है ? तहां प्रथम सत्तासमवायतें कहैगा तौ अनवस्थाका प्रसंग आवैगा जातें पहले पूछया था जो छत्ते पदार्थकै होय है कि अणछतेनिकै सो ही विकल्प फेरि पूछिये तब अनवस्था चली जाय । बहुरि कहैगा पदार्थनिकै आपहीतैं सत्तासमवाय है तौ जुदा सत्तासमवायका माननां अ. नर्थक है । बहुरि दूजा कहै जो पदार्थ उपजते संतेनिकै सत्तासमवाय है जाते पदार्थनिकी निष्पत्ति अर संबंध इनि दोऊनिकै एक कालपणांका अंगीकार है तौ पूछिये जो यह सत्तासंबंध है सो उत्पादतै भिन्न है कि अभिन्न है ? जो कहेगा भिन्न है तौ उत्पत्तिके असत्त्व" अवि Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। ७१ शेष भया तौ उत्पत्तिकै अर अभावकै भेद कैसैं भया । अहार कहेगा उत्पत्तिकरि सहित वस्तुकै सत्व है तातें उत्पत्ति भी तैसा ना पाई है तौ ऐसा कहनां भी मूर्खपणांकरि ही है जानैं इहां उत्पत्तिका-सत्कार विवाद है तहां वस्तुका सत्व कहनां कबहू न बगैंगा । बहुरि यामैं इतरेतराश्रयदोष आवैगा, वस्तुविधैं उत्पत्तिका सत्त्व होते तिस ही काल भया सत्तासंबंधका निश्चय होय अर तिसका निश्चय होय तब ही तिस वस्तुके सत्त्वकरि उत्पत्तिका सत्त्वका निश्चय होय ऐसैं इतरेतराश्रय होय है । बहुरि इस दोषके दूर करनेकी इच्छाकरि उत्पत्तिकै अर सत्तासंबंधकै एकता मानिये तो सत्तासंबंध ही कार्यत्व भया तातै बुद्धिमानहेतुपणां तनु आदिकै होते आकाश आदिकरि हेतु अनैकान्तिक भया जातें आकाश आदिविर्षे सत्तासंबंध तौ है अर कार्यपणां नाही। नित्यवस्तुकै कार्यपणां होय नाही तातै बुद्धिमानहेतुकपणां भी नाही । ऐसैं सत्तासमवाय तौ कार्यत्व नाही तैसैं ही स्वकारणमंबंध भी कार्यत्व नाही, जो चर्चा सत्तासंबंधमैं है सो ही इहां भी लगावणीं । बहुरि कहै जो स्वकारणसमवाय अर सत्तासमवाय दोऊ संबंध कार्यत्व है तो सो भी युक्त नांही है, तिनि संबंधनिकै भी कदाचित् काल होतें तौ समवायकै अनित्यताका प्रसंग आवै जैसैं घट आदिककै अनित्यता है तैसैं, बहुरि सदाकाल कहै तौ सर्वकाल तिस कार्यपणांका उपलंभ कहिये प्राप्ति ताका प्रसंग आवै । बहुरि इहां कहै जो वस्तुनिके उत्पादक कारणनिकी निकटता न होय तब समवाय न होय याः सर्वकाल उपलंभका प्रसंग न आवै तौ तहां पूछिये है-वस्तुकी उत्पत्तिकै अर्थि तौ कारणनिका व्यापार है अर उत्पाद स्वकारणसत्तासमवायस्वरूप है सो यह सर्वकाल है ही, ऐसें तौ कारणका ग्रहण अनर्थक ही है। बहुरि कहै जो वस्तुकै कारणका ग्रहण उत्पत्तिकै अर्थि तौ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितनांही अभिव्यक्तिकै आर्थ है, सो यह भी कहनां वार्तामात्र ही हैवस्तुके उत्पादकी अपेक्षाकरि अभिव्यक्ति कहनां बणे नाही, वस्तुकी अपेक्षा अभिव्यक्ति कहिये तो ताविर्षे कारणके आवनें पहले भी कार्यवस्तुका सद्भावका प्रसंग आवै है । बहुरि उत्पादकै अभिव्यक्ति भी असंभवरूप है जातें स्वकारणसत्तासंबंध है लक्षण जाका ऐसा जो उत्पाद ताकै वस्तुके कारणके व्यापार पहले सद्भाव होते वस्तुका सद्भावका प्रसंग आवै है जातै वस्तुके सत्त्वका सो ही लक्षण इहां है । सो पहले सत्-रूप होय ताकै ही कोई कारणकरि आच्छादित होय ताकी अभिव्यंजककरि अभिव्यक्ति होय, जैसैं घट आदि वस्तु अंधकारकरि आच्छादित होय तब दीपक आदि अभिव्यंजककरि ताकी व्यक्ति होय तैसैं इहां भी जाननां । तातें अभिव्यक्ति आर्थ कारणका ग्रहण करनां युक्त नाही । तातै स्वकारणसत्तासंबंध तौ कार्यत्व नाही है । __बहुरि अभूत्वा भावित्वनामा दूसरा पक्ष है सो भी कार्यत्व नाही है ताकै भी विचारका सहबापणां नांही है, परीक्षा किये अयुक्त ही है जाते अभूत्वा भावित्वपणां है सो पहले न होय करि आगामी होय ताकू कहिये है। सो भिन्नकालविर्षे जो दोय क्रिया ताका आधारभूत जो कर्ता ताकै सिद्धि होतें सिद्धि होय है जातें अतीतकालवाची जो ‘क्त्वा' प्रत्यय तदन्तपदकरि विशेषित जो वाक्यका अर्थपणां तिसरूप है, जैसैं 'भुक्त्वा व्रजति' इत्यादि वाक्यार्थ है । कोई पुरुष भोजन करि चलै है, तहां 'भुक्त्वा' ऐसा तो अंतीतकाल भया 'पीछे चलै है ' सो यह भावीकाल है सौ इहां दोऊ कालविर्षे क्रिया दोयका आधार पुरुष है सो इहां कार्यत्वविर्षे ‘भवन अभवन' कहिये होनां न होनां रूप जो दोय क्रिया ताका आधारभूत एक कर्तीका अनुभव नाही है जाते अभवनका आधारकै अविद्यमानपणांकरि अर भवनका आधारकै विद्यमानमणांकरि भाव Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। ७३ अभावका एक आश्रयकै विरोध है, भावार्थ-कार्य है सो भावस्वरूप ही है अभावस्वरूप नाही है । अर जो अविरोध मानिये तो तिनि दोऊनिकै पर्यायमात्रकरि ही भेद आवै वस्तुभेद नाही आवै । अथवा कोई प्रकार अभूत्वा भावित्व है सो कार्यत्वका स्वरूप होहु तौऊ तनु आदिक सर्वविधैं नाही माननेंतें हेतु भागासिद्ध होय है जातें हमारै पृथिवी पर्वत समुद्र उद्यान आदि पहली न होय करि होते नाही मानिये है जातें हमार जैनीनिके पृथिवी आदिका सदाकाल अवस्थान मानें हैं। बहुरि कहै जो पृथिवी आदिकै अवयवसहितपणांकरि आदिसहितपणां साधिये है सो ऐसा कहनां भी विना सीखेकरि कह्या है, जातें इहां दोय पक्ष पूछिये, अवयवनिविर्षे अवयव की प्रवृत्तिते है कि अवयवनिकरि आरंभिये है यारौं है ? इनि दोऊ ही पक्षनिवि अवयवसहितपणांकी अनुपपत्ति है। जो प्रथम पक्ष लीजिये तो अवयवसामान्यकरि अनेकांत है जातें अवयवसामान्य है सो अवयवनिविर्षे वत्तै है अर कार्य नाही है । बहुरि दूसरी पक्ष जो अवयवनिकरि अवयवी आरंभिये है तौ साध्यतै अविशिष्ट है जाते आदिसहितपणां साधिये है सो ही अवयवनिकरि आरंभिये है ऐसा हेतु कह्या यामैं साध्यतै विशेष कहा भया। बहुरि कहै—जो यह संनिवेश है आकाररूप रचनाविशेष है सो ही सावयवपणां है सो ही घट आदिकी ज्यों पृथिवी आदिवि पाइए है यातें अभूत्वा भावित्व ही कहिये है सो ऐसैं कहनां भी सुन्दर नाही, संनिवेशके भी विचारका असहपणां हैपरीक्षा किये बणे नांही है । इहां दोय पक्ष पूछिये, यह संनिवेश है सो अवयवनिका संबंध है कि रचनाका विशेष है ? जो कहैगा अबयवनिका संबंध है तौ आकाश आदिकरि अनेकांत होगा जाते आकाशकै समस्त मूर्तीक द्रव्यका संयोग है कारण जाकू ऐसा प्रदेश Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित निका नानापणांका सद्भाव है। इहां कहै-जो आकाशकै विर्षे तौ प्रदेश उपचरित है तौ समस्त मूर्तीक द्रव्यनिका संबंधकै भी उपचरितपणां आया तब आकाशकै सर्वगतपणां भी उपचरित ठहरया, तब श्रोत्रकै अर्थक्रियाकारीपणां न ठहरैगा श्रोत्र इन्द्रिय आकाशतें जुडै तब शब्द आकाशका गुण है सो ग्रहण होय है ऐसें नैयायिक मानें है सो संबंध उपचरित ठहरै तब श्रोत्रकै अर्थक्रियाकारीपणां-शब्दका ग्रहण करनां है सो न ठहरैगा जातैं आकाश उपचरित प्रदेशरूप मान्यां है । बहुरि कहै जो धर्म अधर्मके संस्कार” श्रोत्रौं अर्थक्रिया होय है, ताकू कहिये-जो उपचरित तौ अभावरूप है सो ताके तिनि धर्मादिकरि उपकारका अयोग है जैसैं गदहाके सींगकै कछू काहूकरि उपकार न होय तैसैं है । ता” अवयवनिका संबंधस्वरूप जो संनिवेश कह्या सो तौ किछू भी नाही । बहुरि दूसरी पक्ष रचनाविशेष है सो मानिये तौ हमारै जैनिनकै पृथ्वी आदि रचनाविशेषकू सावयवरूप कार्यस्वरूप नाही मानिये है तातें यह हेतु भागासिद्ध होय है सो यह दूषण अवस्थित होय है ऐसैं अभूत्वा भावित्व है सो विचारमैं नाही बरौं है । बहुरि तीसरा पक्ष अक्रियादीकै कृतबुद्धिका उत्पादकपणां है, याका अर्थ यह-जो कार्यके उपजनेकी क्रिया तौ न देखी तौऊ ताविषै ऐसी बुद्धि उपजै जो यह काहूनें किया है सो यह कार्यपणां मानिये तो दोय पक्ष पूछिये है, सो ऐसी बुद्धि उपजै जो पहले काहूनैं संकेत किया होथ जो ऐसा तो किया ही होय है ताकै उपजै है कि बिना ही संकेत उपजै है ? जो कहैगा संकेत करनेंवालेकै उपजै है तौ आकाश आदिकै भी बुद्धिमानकरि कियापणां ठहरेगा। तहां भी कहूं खोदिकरि माटी काढ़े तब खानां (डा) होय जाय आकाश प्रगट होय तहां ऐसी बुद्धि उपजै है जो यह आकाश काहू. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। . ७५ wrimmmmmmnanam किया है जातें पूर्वै खोदता देख्या था तथा काहूके वचन" निश्चय किया था तहां ऐसा संकेत भया था जो खोदेरौं आकाश नीकसैं है तातैं इहां कृतबुद्धि उपजै है। इहां कहै-जो यह बुद्धि तौ मिथ्या है तौ तेरी भी बुद्धि अन्यवि किये उपजै है सो मिथ्या क्यों न होय ? बाधाका सद्भाव अर प्रतिप्रमाण विरोधका अन्यविर्षे समानपणां है, जो आकाशविर्षे कृतबुद्धिमैं बाधक बतावैगा सो ही तन्वादिकमैं आवैगा, बहुरि कर्ताका ग्रहण दोऊ ही जायगां प्रत्यक्ष नांही है । इहां प्रमाणकी समानताका प्रयोग ऐसा-पृथिवी आदिक हैं ते बुद्धिमान हेतुक नाही हैं जातें हम आदिककै नांही ग्रहण करने योग्य याका परिमाण अर आधार है, जैसा आकाश आदिकका परिमाण आदि नांही ग्रहणमैं आवै है तैसैं यहु भी है ऐसा प्रमाण पृथिवी आदिका कर्ताका निषेधका समान है । तारौं कृतसमय कहिये जानैं संकेत किया ताकै तौ पृथिवी आदिकवि. कृतबुद्धिका उपजावनहारापणां नाही है। बहुरि अकृतसमय कहिये नाही किया है संकेत जानैं ताकै भी कृतबुद्धिका उपजावनहारा नांही है जातँ यह असिद्ध है विना संकेत किये कृतबुद्धि उपजै नांही जो उपजै तौ विप्रतिपत्ति नाही होय सर्वहीकै उपजै । कोई कहै-जो अग्नि शीतल है तौ जाकै अग्निका संकेत नाही सो ऐसैं जानैं जो शीतल ही होगी यामैं संदेह न उपजै तैसैं पृथिवी आदि कार्य काहूके किये बतावै तौ किये ही मानें न किये बतावै तौ विना किये ही मानैं । बहुरि चौथा पक्ष कारणव्यापारानुविधायिपणां है, याका अर्थ यह-जो जैसा कारणका व्यापार होय तिसकै अनुसार तैसा ही कार्य होय । सो इहां दोय पक्ष पूछिये, तहां जो कारणमात्र ही की अपेक्षा कहै तो यह विरुद्ध होय जातें कार्य तौ अबुद्धिमानके किये भी होय Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित है सो विपक्षकू साध्या तब कारणविशेष जो ईश्वर ताकी सिद्धि भई तातै विरुद्ध भया । बहुरि कारणविशेषकी अपेक्षा कहै तो इतरेतराश्रयनामा दूषण आवै, कारणविशेष जो बुद्धिमान ताकी सिद्धि होते तौ तिसकी अपेक्षाकरि कारणव्यापारानुविाधयित्वस्वरूप कार्यत्व सिद्ध होय अर तिसतै ताके विशेषकी सिद्धि होय ऐसैं इतरेतराश्रय भया । ___ बहुरि इहां संनिवेशविशिष्टपणां अर अचेतन-उपादानपणां ये दोऊ भी हेतु हैं ते कहे जे दोष तिनकरि दुष्ट हैं-निधि नाही, तातै न्यारे नांही विचारे हैं । संनिवेशविशिष्ट तौ सुख आदिवि नांही वत्तै तातै भागासिद्ध है, सुख आदि कार्य तौ है अर रचनाविशेषरूप नाही है । बहुरि अचेतनोपादानपणां ज्ञानस्वरूप कार्यविर्षे नाही ताभागासिद्ध है, ज्ञान कार्यरूप तो है अर अचेतनोपादानरूप नाही ऐसैं भागासिद्धनामा दूषण तहां भी सुलभ है । बहुरि ये हेतु विरुद्ध हैं जाते दृष्टांतके अनुग्रह कहिये घट आदि दृष्टांतका बल ताकरि शरीररहित सर्वज्ञपूर्वक साधन किया है अर घटका कर्ता कुंभकार है सो शरीरसहित असर्वज्ञ है तातें हेतु विरुद्ध होय है। बहुरि कहैजो ऐसें तौ धूमतें अग्निका अनुमान कीजिये तामैं भी यह दोष आवैगा सो दोष नाही आवै है जारौं तहां तृणकी अग्नि तथा पान आदिकी अग्नि सर्व ही अग्निमात्रविर्षं व्याप्त जो धूम सो देखिये हैं तैसैं इनि हेतुनिमैं नाही देखिये हैं जो सर्वज्ञ तथा असर्वज्ञ जो कर्ताका विशेष ताका आधार जो कर्त्तापणां सामान्य तिसकरि कार्यत्वनामा हेतुकी व्याप्ति है ऐसैं नाही देखिये है अर सर्वज्ञ जो कर्ता ताकी इस अनुमान पहले असिद्धि है, इस ही अनुमानकरि कर्ता साधिये है। बहुरि यह हेतु व्यभिचारी है बुद्धिवान कारण विना भी विजली आदि कार्य प्रकट होय है । बहुरि सूता आदि पुरुषकी अवस्थाविधैं बुद्धिपूर्वक विना भी कार्य Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । ७७ होते देखिये है । बहुरि कहै जो शिव तिनि कार्यनिविर्षं भी अवश्य कारण है तो ऐसा कहनां अतिमुग्धका विलास है जातें तहां शिवका व्यापारका असंभव है जातें शिव शरीररहित है अर ज्ञानमात्र ही करि कार्यकारीपणां बणै नाही, बहुरि इच्छा अर प्रयत्न ये दोऊ शरीरविनां संभवै नांही, ताका असंभव आप्तपरीक्षा आदि ग्रंथनिविर्षे पुरातन बड़े आचार्यनिकरि विस्तारकरि कह्या है तातै इहां नांही कहिये है । बहुरि जो महेश्वरकै क्लेश आदिका रहितपणां अर निरतिशयपणां अर ऐश्वर्य आदि सहितपणां कह्या सो सर्व ही आकाशके कमलकी सुगंध ताका वर्णन सारिखा है जातें जाका आधार सिद्ध होय नाही तातें हमारै आदरने योग्य नाही । तातैं महेश्वरकै सर्वज्ञपणां कहै सो नाही। ___ बहुरि ब्रह्मकै सर्वज्ञपणां कहै सो भी नांही है जातें ताका सद्भावका कहनेवाला जनावनेवाला प्रमाणका अभाव है। तहां प्रथम तो प्रत्यक्ष. प्रमाण ताका जनावनेवाला नाही है, जो प्रत्यक्ष ब्रह्म दीखै तौ विप्रतिपत्ति नाही होय, सन्देह काहेर्दू होय । बहुरि अनुमान भी ताका सिद्धि करनेंवाला नांही है जातें ब्रह्मतें अविनाभावी जो लिंग ताका अभाव है लिंग विना अनुमान कैसैं होय । - इहां ब्रह्मवादी कहै है-प्रत्यक्षप्रमाण ब्रह्मका ग्राहक है ही जातें नेत्र उघाडिकरि देखें लगता ही निर्विकल्प अभेदरूप सत्तामात्रकी विधि दीखे है ताका विषयपणांकरि प्रत्यक्षकी उत्पत्ति है, सर्व वस्तु एक सत्तारूप भासै है, बहुरि जो सत्ता है सो ही परमब्रह्मका स्वरूप है, ताका श्लोकका अर्थ-प्रथम ही आलोचना कहिये दर्शन१ तथा चोक्तम् अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम् । बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥१॥ . Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित मात्र ज्ञान है सो निर्विकल्पक है-भेदरहित है जैसा बालक तथा मूक कहिये गूंगा बहरा आदिकै ज्ञान होय है तैसा होय है सो यह ही शुद्ध वस्तु” उपज्या है । भावार्थ-शुद्धसत्तामात्र अभेद ब्रह्मका स्वरूप है। बहुरि कोई कहै-विधिकी ज्यों परस्पर जुदायगीरूप निषेध भी प्रत्यक्षकरि प्रतीतिमैं आवै है तातें विधिनिषेधरूप द्वैतकी सिद्धि होय है सो ऐसैं नांही है जातै प्रत्यक्षका विषय निषेध नांही है, सो ही हमारै कही है; ताका श्लोकका अर्थ-पंडित पुरुष हैं ते प्रत्यक्षप्रमाणकू विधान करनेवाला कहैं है निषेध करनेवाला न कहै हैं तातै एकत्व जो अद्वैत ताके कहनेवाला आगम है सो तिस प्रत्यक्षकरि न बाधिये है । बहुरि अनुमानौं भी ब्रह्मका सद्भाव पाइये है, ताका प्रयोग;-ग्राम बाग आदि पदार्थ हैं ते प्रतिभासमात्रमैं सर्व प्रवेशकरि रहे हैं जातें प्रतिभासमानपणां सबकै पाइये है जो प्रतिभासै है सो सर्व प्रतिभासकै मध्य आय गया जैसैं प्रतिभासका स्वरूप, ऐसे ही सर्व विवादमैं आये पदार्थ प्रतिभासै हैं, ऐसें च्यार प्रयोगरूप अनुमानौं ब्रह्म सिद्ध होय है । बहुरि तिसके आगममैं भी वचन बहुत पाइये हैं 'जो हूवा अर जो होयगा बहुरि यह वर्तमान है सो सर्व एक पुरुष है, ऐसा वचन है । बहुरि श्लोक है, ताका अर्थ;— 'इदं सर्वे' कहिये यह जो प्रत्यक्ष सर्व दीखै है सो निश्चयतें ब्रह्म है इस जगतमैं नानारूप किछू वस्तुं नाही है अर १ तथा चोक्तम् आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेधृ विपश्चितः। नैकत्वे वागमस्तेन प्रत्यक्षण प्रबाध्यते ॥१॥ २-सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन। आरामं तस्य पश्यन्ति नतं(तत्) पश्यति कश्चन ॥१॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । लोक है सो तिस ब्रह्मके आराम कहिये विवर्त्तरूप पर्यायनिकू देखै है तिसकू कोई न देखै है ऐसा वेदका वचन सुनिये है । इहां कोई पूछे -परमब्रह्मकै ही परमार्थ सत्त्व होतें घट आदिका भेद भासै है सो कैसे है ? सो ऐसा तर्क इहां नाही करनां जाते सर्व ही घट आदि वस्तु हैं ते तिसके विवर्त्तपणांकरि भासे हैं जैसे दर्पणकै विर्षे प्रतिबिंब भासे है तैसें है । एक ही वस्तुके अपरमार्थरूप अनेक प्रतिबिंब भासै सो विवर्त्त कहिये । बहुरि सर्व ही भेद हैं तिनिकै ब्रह्मका विवर्त्तपणां असिद्ध नांही जात प्रमाणकरि सिद्ध होय है, ताका प्रयोग-विवादमैं आया जो विश्व लोक सो एक कारणपूर्वक है जातें एकरूपते जुड़ि रह्या है, जैसैं घड़ा हांडी ढांकणां डीबा आदिक हैं ते मांटीस्वरूप हैं तारौं अन्वयरूप हैं सो ये मांटीनामा कारणपूर्वक ही हैं तैसैं सत्रूप करि जुड़े सर्व वस्तु हैं। तैसैं ही आगम भी ताका साधक है; ताका श्लोकका अर्थ-जैसैं मांकड़ी है सो जालाके तंतूनिका एक कारण है अथवा जैसे जलका चंद्रकांतमणि कारण है अथवा जैसैं कुंपलनिका बडवृक्ष कारण है तैसैं सर्व जीवनिका एक ब्रह्म कारण है, ऐसैं ब्रह्मवादीने अपना मत दृढ़ किया । ___ अब ताईं आचार्य कहै है-हे ब्रह्मवादी ! यह तेरा कहनां जैसैं मदिराका रसकू पानकरि गदगद वचन कहै तैसा है अथवा मांचणां कोदूं खायकरि गहला होय मूर्ख विलास करै-यथा कथंचित् कहै तैसा है जातें यह विचारमैं आवै नांही-परीक्षामैं न आय सके है । जाते जो प्रत्यक्षकै सत्ताविषयपणां कह्या तहां दोय पक्ष पूछिये है;-निर्विशेषसत्ताविषयपणां कया कि विशेषसहित १-ऊर्णनाभ इवांशूनां चद्रकांत इवांभसाम् । प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम् ॥१॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित सत्ताका जनावनहारा कह्या ? तहां प्रथम पक्ष तौ न ब है जातैं सत्ताकै सामान्यरूपपणां है तातैं विशेषकी अपेक्षारहितपणांकरि सत्ताका प्रतिभास होय नांही जैसैं गोत्वसामान्य है सो काबरा धोला आदि विशेषरहित प्रतिभासता नांही, जातैं ऐसा कह्या है जो विशेषरहित सामान्य है सो मुस्साके सींगसमान अवस्तु है, बहुरि सामान्यरूपपणां सत्ताका सत् सत् ऐसा अन्वयरूपबुद्धिका विषयपणांकरि प्रसिद्ध ही है । बहुरि दूसरा पक्ष हैगा तौ परमपुरुषकी सिद्धि न होयगी जातैं परस्पर न्यारे न्यारे हैं आकार जिनके ऐसे विशेषनिका प्रत्यक्ष प्रतिभास होय है । बहुरि अनुमानका साधन का जो प्रतिभासमानपणां सो भी समीचीन नांही जातैं विचार मैं बनता नांही । तहां दोय पक्ष पूछें हैं - यह प्रतिभासमानपणां स्वतैं होय है कि परतैं होय है ? जो कहैगा स्वतै होय है तौ नांही बणैगा जातैं हेतु असिद्ध है जातैं पदार्थनिका स्वयमेव प्रकाशन है तौ नेत्र मीचिये अथवा प्रकाश नांही होय तहां भी प्रतिभासनां होहु सो नांही होय है तातें असिद्ध है । बहुरि कहैगा परतैं होय हैं तौ विरुद्ध है पर प्रतिभासनां पर विना न बण, बहुरि प्रतिभासमात्र भी नांही सिद्ध होय है जातैं तिस प्रतिभासकै ताके विशेषनितैं अविनाभावीपणां है, बहुरि प्रतिभासकै विशेष मानिये तौ द्वैतका प्रसंग आया । बहुरि किछू विशेष कहै है - अनुमानका उपायभूत जे धर्मी हेतु दृष्टांत ये प्रतिभासै है कि नांही ? जो कहैगा प्रतिभासै है तौ प्रतिभासमांही प्रवेश भये प्रतिभासै है कि तातैं बाह्य न्यारे प्रतिभासै है ? जो कहँगा प्रतिभासमांही प्रतिभासे है तौ साध्यकै मांही ही आय पड़े तिनितैं अनुमान कैसे होय, बहुरि प्रतिभासकै बाह्य प्रतिभासैं है तौ तु तिनिहीकरि व्यभिचार भया । बहुरि जो कहै - प्रतिभासैं नही है तो धर्मी आदिकी व्यवस्थाका अभाव है तब तिनि विना ८० Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। ८१ अनुमान कैसे होयगा । बहुरि ब्रह्मवादी कहै है-जो अनादि अविद्याके उदयतें यह सर्व असंबद्ध है ? तहां आचार्य कहै है-यह कहनां भी महा-अज्ञानका विलास है जातें अविद्याविर्षे भी पहिले कहे जे दोष तिनिका प्रसंग है । बहुरि कहै—जो अविद्या सर्वविकल्पनि” रहित है तारै दोष नाही आवै है सो यह कहनां भी अतिमुग्धका वचन है जारौं अविद्याका कोई ही रूपकरि प्रतिभासका अभाव होते तिसका स्वरूप ही अवधारण मैं आवे नाही । बहुरि और भी इहां विस्तार करि विचार है सो देवागमस्तोत्रका अलंकार जो अष्टसहस्री ताविपैं है तातें इहां विस्तार न कीजिये है । बहुरि समस्त भेदनिकै विवर्त्तपणां कह्या, तहां एकरूपकरि अन्वयपणां हेतु है सो अन्वय करनेवाला अर अन्वीयमान कहिये जाका अन्वय करिये सो वस्तु इनि दोऊनिकरि अविनाभावीपणांकरि पुरुषाद्वैतकू निषेधै है यातें अपनां इष्ट जो अद्वैतब्रह्म ताका विघातकारीपणांतॆ विरुद्ध है। बहुरि अन्वितपणां है सो एक हेतुक जे घट आदिकविर्षे अर अनेक हेतुक जे स्तंभ कुंभ कमल आदिवि दोऊविषै पाइये हैं तातें अनैकान्तिक हैं। बहुरि पूछिये-जो यह अद्वैत ब्रह्म हैं सो जगतनामा कार्य कौन अर्थि करै है, तहां च्यार पक्ष है;-एक तौ अन्यका प्रेरया करै, दूसरे कृपाके वश” करै, तीसरां क्रीडाके वश करै, चौथे स्वभावही” करै। तहां जो कहैअन्यका प्रेरया करै है तो स्वाधीनपणांकी हानि भई अर द्वैतका प्रसंग भया । बहुरि कृपाके वशतें करनां कहै तो कृपाविषै दुःखिनिका तौ न करनेका प्रसंग आवै जगतमैं दुःखी हैं ही अर तिसकै कृपाका करणा तौ परके उपकार करनेंतें बगैं, बहुरि सृष्टि रचे पहली प्राणी है नाही तिनिकी कृपा अर्थि नवीन सृष्टि रचै तो कृपाकै अर्थि रचनां युक्त होय, बहुरि कृपावि तत्पर होय ताकै प्रलयका विधान युक्त होय नाही, हि. प्र. ६ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितबहुरि प्रलय तौ प्राणीनिके अदृष्ट जो पाप ताके वश” होय है तो ऐसें तौ स्वाधीनपणांकी हानि होय है, कृपाविषं तत्पर होय ताकै पीड़ाका करनां अर अदृष्ट-पाप ताकी अपेक्षाका अयोग है। बहुरि क्रीड़ाके वशतें करनां कहै तौ क्रीड़ा अर्थि प्रवृति करनेमें प्रभुपणां नाही जैसैं बालक क्रीड़ा करनेंकू उपाय गीन्दड़ी आदि बनावै तैसें ठहरै यामैं कहा बड़ाई, बहुरि क्रीड़ाका उपाय बनाया जो जगत अर याकरि साध्य जो सुख ताकी एक काल उत्पत्ति भई चाहिये, जातें समर्थ कारणके होते कार्यका अवश्य होना होय, जो समर्थ कारण न होय तौ अनुक्रमतें भी तिसतै कार्य न होय, जैसैं दीपक है सो काजलका पाड़नां तेल शोषणां बातीका बालनां प्रकाश करना एककाल करै है यह सामर्थ्य है, अर ऐसैं न होय तौ अनुक्रमकरि भी ये कार्य न होय । बहुरि कहै-ब्रह्म स्वभावहीतैं जगतकू रचै है जैसे अग्नि स्वभावहीरौं बालै है पवन स्वभावही चले है ता यह कहनां भी अज्ञानका वचन है, पहले कहे जे दोष ते मिटैं नाही, सर्व दोष आ4 हैं, सो ही दिखावै है ताका प्रयोग-समस्त अनुक्रमतें उपजता जो विवर्त्तका समूह सो एककाल उपजै जारौं जिस - सहकारी कारणकी अपेक्षा कीजिये सो एककाल उपजै जातें जिस सहकारी कारणकी अपेक्षा कीजिये सो भी ब्रह्महीकरि साधने योग्य है ताका एककाल संभव है। भावार्थ-सर्व ही ब्रह्मके कार्य मानिये हैं, तहां ब्रह्म तौ समर्थकारण है ही बहुरि सहकारी चाहै तो सो भी तिसहीका किया होय तब सर्वजगत एककाल उपज्या चाहिये, बहुरि अग्नि पवनका उदाहरण दिया ताकै भी विषमपणां है, कोई कालविर्षे स्वहेतु जो काष्ठादिक ताकरि उपज्या अग्निके दहन करनेकी शक्ति स्वरूपपणांकी प्राप्ति मर्याद रूप है जिस देशकालमैं भया तेता ही है, अर ब्रह्मविषै तौ नित्यपणां सर्वव्यापकपणां Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ! ८३ अर सर्वसामर्थ्यस्वरूप एकस्वभावरूप कारणकरि उपजावापणां है सो देशकालका न्यारा न्यारा नियमरूप कार्यनिवि बणें नाही । सो ऐसैं ब्रह्मकी असिद्धि होते वेदनिमैं ताकी सुप्त अवस्थाका कहनां अर ताकी जागृत अवस्थाका कहना अर तिस परमपुरुषनामा महा. भूत ताका निश्वास वेद है ऐसा कहनां आकाशके कमलकी सुगंधका वर्णन सारिखा है, सो अग्राह्य पदार्थ है विषय जाका तिस स्वरूप होनेंतैं आदरने योग्य नाही है, असत्यार्थकू कौन आदरै । बहुरि जो ब्रह्मके साधनेविर्षे आगम प्रमाण कह्या “ सर्व वै खल्विदं ब्रह्म ” इत्यादि "बहुरि ऊर्णनाभ” इत्यादि सो सर्व ही कहे विधानकरि अद्वैतका विरोधी हैं यात अवकाश नांही पावै है । बहुरि आगमकू अपौरुषेय कहै है सो बण नाही याका विस्तार आगें कहसी तातै पुरुषोत्तम परमब्रह्म कहैं सो भी परीक्षामैं नाही आवे है । ऐसें मुख्यप्रत्यक्षका वर्णन किया, तहां सर्वज्ञकी सिद्धि यथार्थ करी, अन्यवादीकी बाधाका परिहार किया । इहां टीकाकारकृत श्लोक है; प्रत्यक्षतरभेदभिन्नममलं मानं द्विधैवोदितं देवैर्दीप्तगुणैर्विचार्य विधिवत्संख्याततेः संग्रहात् । मानानामिति तदिगप्यभिहितं श्रीरत्ननंद्याव्हयैस्तद्वयाख्यानमदो विशुद्धद्धिषणैर्वोद्धव्यमव्याहतम् ॥१॥ याका अर्थ-'देवैः' कहिये श्रीअकलकदेव आचार्य जैसे विधि जिनागममैं है तैसे विचारिकरि अर प्रत्यक्ष अर परोक्ष भेदकरि भिन्न निर्दोषप्रमाण दोय प्रकार ही कह्या, कैसे है आचार्य ? दीप्त कहिये देदीप्यमान है सम्यग्दर्शन आदि गुण जिनिमैं बहुरि प्रमाणनिक Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित संख्याकी पंक्तिका संग्रह कहिये संक्षेप” तिनि प्रमाणनिका उपदेश श्रीमाणिक्यनंदिनाम आचार्य भी ऐसे ही करया, बहुरि तिनिका व्याख्यान यह मैं अनन्तवीर्य आचार्य. किया है सो विशुद्धबुद्धीनिके मानने योग्य है कैसा है व्याख्यान ? अव्याहत कहिये बाधारहित है । बहुरि श्लोकमुख्यसंव्यवहाराभ्यां प्रत्यक्षमुपदर्शितम् । देवोक्तमुपजीवद्भिः सूरिभिापितं मया ॥२॥ याका अर्थ-प्रत्यक्ष प्रमाण मुख्य-संव्यहारके भेदकरि दोय प्रकार अकलंकदेवजीनैं कह्या सो ही माणिक्यनंदिजीनें दिखाया सो ही मैं अनंतवीर्यनै जनाया है ॥१२॥ सवैया तेईसा । श्री अकलंक मुनीश भजो परतक्ष परोक्ष प्रमाण जु दोउ । ता मधि हू परतक्ष कह्यो व्यवहार यथारथ भेद है सोउ ॥ माणिकनंदि लयो अनुसार कह्यो तसु आगम जानहु कोउ । वृत्ति रची जु अनंत सुवीरजि देशकथामय मैं सब जोउ॥ ऐसैं परीक्षामुखनाम प्रकरणकी लघुवृत्तिकी वचनिकाविर्षे द्वितीय समुदेश समाप्त भया । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय- समुद्देश । ( ३ ) आर्गै अब प्रत्यक्ष-परोक्षभेदकर प्रमाण दोय प्रकार कह्या ताविषै प्रथमभेद जो प्रत्यक्ष ताका व्याख्यानकरि अर परोक्ष प्रमाणकूं कहै है; परोक्षमिरत् ॥ १ ॥ - याका अर्थ — प्रत्यक्षतैं इतरत् कहिये अन्य विलक्षण सो परोक्ष है । इहां कह्या जो प्रत्यक्ष ताका प्रतिपक्षीकूं इतर शब्द कहे है तातैं तिस प्रत्यक्षतैं इतरत् ऐसा पाइये सो परोक्ष प्रमाण है । प्रत्यक्षका स्वरूप विशद का था इहां अविशद ग्रहण करनां ॥ १ ॥ · --> आगैं याके सामग्री अर स्वरूपभेद कहते संते सूत्र कहैं हैं; - प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदम् ॥ २ ॥ याका अर्थ —- प्रत्यक्ष आदि प्रमाण हैं निमित्त जाकूं ऐसा परोक्ष प्रमाण है ताके पांच भेद हैं, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आगम ऐसैं । तहां प्रत्यक्ष अर आदिशब्दकरि परोक्ष ग्रहण करनां ये दोऊ निमित्त हैं — उत्पत्तिकं कारण हैं सो तौ यथावसर निरूपण करियेगा । बहुरि प्रत्यक्ष आदि हैं निमित्त जाकूं ऐसा समास करनां । स्मृति आदिविषै द्वन्द्वसमास करनां ॥ २ ॥ आगें अनुक्रममैं आया जो पहले स्मृति ताहि दिखावते संते सूत्र कहैं हैं; Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितसंस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः ॥३॥ याका अर्थ-संस्कारका जो उद्बोध कहिये प्रगट होना सो है निबंधन कहिये कारण जाकू, बहुरि तत् कहिये पूर्वै अनुभवमैं आया था ताका 'सो है' ऐसा यादि आवनां ऐसा जाका आकार है ऐसी स्मृति है। इहां 'भवति' ऐसी क्रिया सूत्रमैं वाक्यशेषतैं लेनी ॥ ३ ॥ आगैं याका उदाहरण कहैं हैं; स देवदत्तो यथा ॥४॥ याका अर्थ-जैसैं पहले काहू पुरुषकू देख्या था सो वर्तमानमैं मनविर्षे यादि आया जो ‘सो फलाणां पुरुष ' ऐसा स्मृति प्रमाण है ॥ ४॥ आरौं प्रत्यभिज्ञानप्रमाण कहनेका अवसर हे सो कहैं हैं; दर्शनस्मरणकारणकं सङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ॥५॥ याका अर्थ-वर्तमानका दर्शन-पूर्व देख्या ताका स्मरण ये दोन्यों है कारण जाकू ऐसा जोड़रूप ज्ञान ताकू प्रत्यभिज्ञान कहिये । सो च्यार प्रकार है-वर्तमानमैं काहू वस्तुकू देखिकरि अर ताकू पूर्वै देख्या था ताकू यादिकरि ऐसा जान्यां जो 'यह सो ही है। ऐसा तौ एकत्वप्रत्यभिज्ञान है । बहुरि वर्तमानमैं देख्या तिस सारिखा पूर्वै देख्या था ताकू जान्या जो 'यह तिस सारिखा है' सो सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है। बहुरि वर्तमानमैं काहूकू देखिकरि तिस विलक्षण पूर्वै देख्या था ताकू यादिकरि तिसतै विलक्षण जान्यां जो 'यह तिसतै विलक्षण है' सो त. द्विलक्षण प्रत्यभिज्ञान है । बहुरि पूर्वै देख्या था तिसका वर्तमानमैं प्रतियोगी कहिये जिसतै अवश्य जोड़ मिली जाय ऐसा अन्यपदार्थकू देखि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। ८७ जान्यां जो 'यह तिसका प्रतियोगी है' सो तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान है । आदिशब्दतें और भी पूर्वापरका जोड़रूप ज्ञान होय सो जाननां । इहां दर्शन-स्मरणकारणपणांतें सादृश्यादिक जाका विषय होय सो भी प्रत्यभिज्ञान ही कया है । बहुरि जिनिके मतमैं सादृश्यविषयकू उपमाननामा जुदा प्रमाण कह्या है तिनिके मतमैं वैलक्षण्यादिक जाका विषय ऐसा ज्ञान भी अन्य प्रमाण ठहरैगा, सो ही कह्या है, ताका श्लोकका अर्थ-प्रसिद्ध पदार्थके समान-धर्मपणांतें साध्यका साधनां सो उपमानप्रमाण मानिये तो तिसके असमानविलक्षणधर्म" साध्य साधनां सो प्रमाण कहा कहिये, किछू कह्या चाहिये । बहुरि जहां संज्ञा जो नामरूप पदार्थ ताका प्रतिपादन जो संज्ञा पहले सुनी थी तातें जोडरूप प्रतिपादन करिये सो प्रमाण न्यारा कहनां, ऐसैं उपमान... न्यारा प्रमाण मानें दोष आवै है । बहुरि यह यातें अल्प है, यह यातें बहुत है, यह यातँ दूर है, यह यातें निकट है, यह यातें ऊँचा है, यह यातें नीचा है, बहुरि इनके निषेध यह यातें अल्प नाही है इत्यादि, ऐसे प्रत्यक्ष देख्या पदार्थविर्षे परस्पर अपेक्षा” अन्यभावका निश्चय होय है सो ये अन्य प्रमाण ठहरै तब अपने इष्ट जो प्रमाणकी संख्या ताका विघटन होय है। तातै उपमान प्रमाण न्यारा माननां युक्त नाही ॥५॥ आरौं इनि प्रत्यभिज्ञानका भेदनिका अनुक्रमकरि उदाहरण दिखावता संता सूत्र कहैं हैं;१-तथा चोक्तम् उपमानं प्रसिद्धार्थसाधर्म्यात्साध्यसाधनम् । तद्वैधात्प्रमाणं किं स्यात्संज्ञिप्रतिपादनम् ॥१॥ इदमल्पं महदूरमासनं प्रांशु नेति वा। व्यपेक्षातः समक्षेऽर्थे विकल्पः साधनान्तरम् ॥२॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित यथा स एवायं देवदत्तः, गोसदृशो गवयः, गोविलक्षणो महिषः, इदमस्माद्दूर, वृक्षोऽयमित्यादि ॥६॥ याका अर्थ-जैसैं काहू पुरुषकू देखिकरि कहै ' यह पहले देख्या था सो ही पुरुष है' यह तौ एकत्वप्रत्यभिज्ञानका उदाहरण भया। बहुरि काहू. वनवि गवयनाम तिर्यच प्राणी देखिकरि जानी 'जो गऊ पहले देख्या था तिस सारिखा यह गवय है। यह सादृश्यप्रत्यभिज्ञानका उदाहरण है। बहुरि भैंसाकू देखिकरि यह जान्यां 'जो पहले गऊ देख्या था ता” विलक्षण यह भैंसा है' यह तद्विलक्षण प्रत्यभिज्ञानका उदाहरण है। बहुरि काहू वस्तुकू निकट देखिकरि अन्य काहूकू ऐसैं जान्यां 'जो यह यातें दूर है' यह तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञानका उदाहरण है । बहुरि काहू वृक्षकू देखिकरि वृक्षसामान्यकी संज्ञाकू यादि करि जानैं 'जो यह वृक्ष है। यह भी प्रत्यभिज्ञान है । बहुरि आदिशब्दकरि अन्यमी उदाहरण हैं-जैसे पहले सुन्यां था तथा देख्या था जो जलका अर दूधका भिन्न करनेवाला हंस होय है, बहुरि कहूं जल दूधकू भिन्न करता देखि जान्यां जो ‘यह हंस है। यह भी प्रत्यभिज्ञान भया । बहुरि पहली सुन्यां था जो छह पादका भ्रमर होय है, बहुरि छह पाद देखिकरि पहले सुण्यां ताकू यादिकरि जाण्यां जो — यह भ्रमर है। यह भी प्रत्यभिज्ञान भया । बहुरि पहले सुण्यां था जो सात पान जाकै एकलगमैं होय सो १-पयोऽम्बुभेदी हंसः स्यात् षट्पादैर्धमरः स्मृतः। सप्तपर्णैस्तु तत्वज्ञैर्विज्ञेयो विषमच्छदः ॥१॥ पंचवर्ण भवेद्रत्नं मेचकाख्यं पृथुस्तनी। युवतिश्चैकशंगोऽपि गण्डकः परिकीर्तितः ॥२॥ शरभोऽप्यष्टभिः पादैः सिंहश्चारुसटान्वितः॥३॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । विषमच्छद वृक्ष होय तब सात पत्र देख पहले सुण्यां ताकू यादकरि जान्यां जो यह 'विषमच्छद है। भीमसेनी कर्पूरकी उपजावनेवाली जो वेलि ताकू भी विषमच्छद कहैं हैं, यह भी प्रत्यभिज्ञान है । बहुरि पहले सुण्यां था जो पंचवर्णका मेचकनामा रत्न होय है तब कहूं पंचवर्णका देखकरि पहले सुण्यां ताकू यादिकरि जानैं 'यह मेचकनाम रत्न है, यह भी प्रत्यभिज्ञान भया। बहुरि पहले सुनी थी जो जाके कुच बड़े भारे विस्तारसहित होय सो स्त्री होय है पीछ भारे स्तन देखि पहले सुनींकू यादकरि जानैं जो ‘यह स्त्री है' यह भी प्रत्यभिज्ञान भया । बहुरि पहले सुन्यां था जो जाकै एक सींग खग होय सो गैंडा होय है पी0 एक सींग देखि पहलेकू यादकरि जाण्यां जो 'यह गैंडा है' यह भी प्रत्यभिज्ञान है । बहुरि पहले सुन्यां था जो जाकै आठ पग होय सो शरभ होय है पीछे आठ पग देखि पहले सुनेंकू यादिकरि जानी जो 'यह शरभ है' शरभ ऐसा नाम अष्टापदका है यह भी प्रत्यभिज्ञान है। बहुरि पहले जान्यां था जो जाकै सुन्दर मस्तकपरि सटा कहिये केशनिकी लटी बहुत होय सो सिंह होय है पीछे सटाकू देखिकरि पहले जाण्यांकू यादकरि जानैं 'यह सिंह है। यह भी प्रत्यभिज्ञान है। ऐसैं इनिकू आदि देकरि ये उदाहरण हैं । इनिके नामके शब्द सुनि बहुरि तैसा ही हंस आदिकू देखिकरि पहले सुनेंकू यादिकरि तैसैं ही प्रतीति करै तब तिनिका संकलनरूप जोड़का ज्ञान भया सो प्रत्यभिज्ञान कह्या है जातें इनिमैं देखनां अर याद करनां ये दोऊ कारण सर्वमैं समान हैं। बहुरि अन्यमतीनिकै ये न्यारे प्रमाण ठहरें हैं जातै उपमानप्रमाणवि. इनिका अन्तर्भाव नाही होय है तब प्रमाणकी संख्या बिगडै है॥६॥ __आणु ऊह कहिये तर्क प्रमाणके कहनेका अवसर पाया है ताकू कहैं हैं; Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितउपलंभानुपलं भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूह इदमस्मिन् सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च ॥७॥ याका अर्थ-उपलंभ तौ प्राप्ति अनुपलंभ अप्राप्ति ये दोऊ हैं निमित्त जाकू ऐसा व्याप्तिका ज्ञान सो ऊह कहिये तर्कप्रमाण है । तहां यह याकै हो” संतें ही होय ऐसा तौ अन्वय, बहुरि यह न होय तौ नहीं होय ऐसा व्यतिरेक, ऐसैं दोऊनितें व्याप्तिज्ञान है । इहां उपलंभ तौ प्रमाणमात्रका ग्रहण करनां । जो प्रत्यक्षहीकू उपलंभ शब्दकरि ग्रहण कीजिये तो अनुमानके विषय जे साधन तिनिविर्षे व्याप्तिका ज्ञान न होय । इहां कोई कहै-व्याप्ति तो सर्वोपसंहारवती है सर्व क्षेत्र-कालका संग्रहकरि प्रतीति कीजिये है सो अतीन्द्रिय ही साध्य होय अर ताका साधन भी अतीन्द्रिय होय तौ तिस साध्यकरि साध. नकै व्याप्ति कैसे जानी जाय ? ताका समाधान-जो ऐसैं नहीं है, जैसे प्रत्यक्षके विषय साध्य-साधन होय तिनिविर्षे व्याप्ति जानिये है तैसैं ही अनुमानके विषय साध्य-साधनकैविधैं भी व्याप्ति जाननेका अविरोध है । जातें व्याप्तिका ज्ञान जो तर्क ताकै परोक्षपणां मानिये है ॥ ७॥ इहां याका उदाहरण कहैं हैं;यथाऽग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च ॥८॥ याका अर्थ-जैसैं अग्निके होतें ही वूम होय अग्निके अभाव होते धूम नाही ही होय ऐसैं । इहां अतीन्द्रिय साध्यसाधनका उदाहरण ऐसा-जो जैसैं सूर्यकै गमनशक्तिसहितपणां साध्य करै अर गतिमानपणांकू हेतु करै सो ये दोऊ ही अतीन्द्रिय हैं-सूर्यकी गमनशक्ति दीखै नांही अर चलता भी दीखै नांही सो यह आगमगम्य है। बहुरि Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । ९१ याका समर्थन यह-जो जब दूरि देश जाय तब जानिये चाले है, ऐसे अनुमान दृढ़ होय है । ऐसैं ही अन्यत्र जाननां ॥ ८ ॥ आगैं अनुमान अनुक्रममैं आया ताका लक्षण कहैं हैं; - साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम् ॥ ९ ॥ याका अर्थ — साधन कहिये हेतु तातैं साध्य कहिये साधनें योग्य जो वस्तु ताका विज्ञान होय सो अनुमान प्रमाण है ॥ ९ ॥ आर्गै साधनका लक्षण कहैं हैं ; साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः ॥ १० ॥ याका अर्थ — साध्यतैं अविनाभावीपणांकरि जो निश्चय किया होय सो हेतु कहिये । इहां बौद्धमती कहै है— जो हेतुका लक्षण तीनरूपपणा ही है ताके होतैं ही हेतुकै असिद्ध आदि दोषका परिहार बर्णै है, सोही कहिये है; - प्रथम तौ हेतु पक्षका धर्म होय तब असिद्धपणां दोषका परिहार होय तातैं ताकै अर्थ हेतुकूं पक्षधर्मरूप कहिये । बहुरि सपक्षविषै जाका सत्व होय सो विरुद्धपणांका निराकरणकै अर्थ है । बहुरि विपक्षविषै जाका असत्व होय सो अनैकान्तिकके निषेधकै अर्थि है, ऐसैं तीनरूप हेतु कहै, सो ही कहिये है —- श्लोकका अर्थ – दिग्नागनामा बौद्धमतका आचार्य हेतुकै तीन रूपनिविषै निर्णय वर्णन किया है जातैं ये तीन रूप असिद्ध विरुद्ध व्यभिचारी जे हेतु सदूषण तिनिके प्रतिपक्षी हैं । ताका समाधान आचार्य करै है; जो यह कहनां अयुक्त है जातैं अविनाभावका नियमका निश्चय होतैं तीनूं दोषनिका परिहार बर्णै है, अविनाभाव है सो साध्यविनां न बणनां है । इस अ -- १ - हेतोत्रिष्वेपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः । असिद्ध विपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः ॥ १ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित विनाभावपणाकू ही अन्यथानुपपन्नपणां ऐसा नाम कहिये, सो यहु अन्यथानुपपन्नपणां असिद्ध हेतुकै संभवै नांही । जातें ऐसा कह्या है जो अन्यथानुपपन्नपणां असिद्धकै नांही सिद्ध होय है । बहुरि विरुद्धहेतुकै भी तिसके लक्षणकी उपपपत्ति नाही बण है जातें साध्यतै विप. रीत अविनाभावस्वभावरूपविर्षे साध्यतै अविनाभावनियमलक्षणकी अनुपपत्ति है जातें दोऊनिकै विरोध है। बहुरि व्यभिचारी हेतुवि भी तिस प्रकृत कहिये कह्या लक्षणका अवकाश नांही है जाते विरुद्धविर्षे हेतु सो ही इहां जाननां । तातें हेतुका स्वरूप अन्यथानुपपत्ति ही श्रेष्ठ है अर तीन रूपता श्रेष्ठ नांही है। जाते तिस त्रिरूपताकै हो” भी यथोक्तलक्षणका अभाव होते हेतुकै साध्य प्रति गमकपणां नाही देखिये है, सो ही कहिये है-जैसैं काहूकै पहले पांच पुत्र भये थे ते श्याम भये थे तिनिकू देखिकरि तिनिकी ज्यों ही ताकी स्त्रीकै गर्भविषै तिष्ठताकै भी तिसपुत्रपणां नामा हेतु" श्यामपणां साधनेमैं तीनरूपपणां तौ संभव है-जातें गर्भमैं तिष्ठताकै तिसके पुत्रपणां है यह तौ पक्षधर्मपणां भया । बहुरि सपक्ष अन्य पुत्रनिमैं तिसके पुत्रपणां है ही । बहुरि अन्यके पुत्रमैं गौरपणां है तिनि विपक्षनितें व्यावृत्ति है ही । ऐसें तीनरूप होतें भी साध्य जो श्यामपणां तिस प्रति गमकपणां नाही, गर्भमैं तिष्ठता गौर भी होय तौ बाधक कहा । इहां बौद्ध कहै—जो इस हेतुमैं विपक्ष” व्यावृत्ति नियमरूप नाही दीखै है तातें गमकपणां नाही ? ताकू कहिये-जो यह कहना भी मुग्धका विलास हैं, जाते तिस विपक्षतँ व्यावृत्ति कहिये न्यारापणांक ही अविनाभावरूपपणां है, अन्य दोयरूपका सद्भाव होय अरु विपक्ष” व्यावृत्ति न होय तौ हेतुकै अपने साध्यकी सिद्धि प्रति गमकपणांकी अनिष्टि होते सो विपक्ष” व्यवृत्ति ही हेतुका निर्बाध लक्षण करनां Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww जारौं ताका सद्भाव होते अन्य दोयरूपकी अपेक्षा विना ही साध्य प्रति गमकपणां बनै है । इहां उदाहरण-जैसैं अद्वैतवादीकै प्रमाण है जातें अपने इष्टका साधन अनिष्टका दूषणकी अन्यथा अप्राप्ति है प्रमाण विना साधन-दूषण बणे नाही । इस हेतुमैं पक्षधर्मपणां नांही है सपक्षविर्षे अन्वय भी नांही है, केवल एक अविनाभावमात्रहीकरि साध्य प्रति गमकपणांकी प्रतीति है साध्यकू साधै है । बहुरि बौद्धादिकनैं और भी कही है-जो पक्षधर्मपणांका अभाव होतें भी हेतुडूं गमक कहिये तौ काकके कृष्णपणांतें यह प्रासाद कहिये महल धवल है ऐसैं हेतुकै भी गमकपणां आवै है, भावार्थ-कोई श्वेत महल था तापरि काक बैठा था तहां काहूनें कह्या जो महलकू धवल कहिये है सो काकके कालापणांकी अपक्षातें साधिये है, ऐसे कहे काकका कृष्णपणां पक्ष जो प्रासाद ताका धर्म नाही अर पक्षधर्म विनां हेतुकै गमकपणां नाही । ताका समाधान आचार्य करै है-जो यह कहनां भी इस ही कथनकरि निराकरण किया जातें अन्यथानुपपत्तिका बलहीकरि पक्षधर्मरहित हेतुकै भी साधुपणां मान्या है, सो इस तेर प्रयोगमैं अन्यथानुपपत्ति नांही है । तातैं हेतुका स्वरूप अविनाभाव ही प्रधान है जाकू अन्यथानुपपत्ति भी कहिये सो ही अंगीकार करना, जातें अविनाभावकू होते तीनरूपपणां न होतें भी हेतुकै साध्य प्रति गमकत्वका दर्शन है। तातें तीनरूपपणां हेतुका लक्षण नांही है जाते याकै अव्यापकपणां है, सो ही कहिये है--बौद्ध आप मान है जो जहां सर्व पदार्थनिविौं क्षणिकपणां साध्य थापै है ताका सत्त्व आदि साधन थापै है ताका सपक्ष नाही है सर्वहीकू साधतें () पक्षमैं सर्व आय गये सपक्ष न रह्या तब तहां त्रिरूपपणांकी हानि भई तौऊ गमकपणां मानैं है । बहुरि इस ही कथनकरि नैयायिक हेतुकै पंचरूपपणां मानें है सो भी नांही बर्षे है ऐसे कह्या Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित जाननां। पक्षधर्मपणां बहुरि सपक्षसत्वपणां सो तौ अन्वयरूप अर विपक्ष” व्यावृत्तिपणां सो व्यतिरेकरूप, अर अबाधितविषयपणां, असत्प्रतिपक्षपणां ऐसे पांच लक्षण हैं । तिनिकै भी अविनाभावहीका विस्तारपणां है । पंचरूपपणां अविनाभावहीका विशेष है । जो बाधितविषय है सो जाका विषय साध्य ही बाधासहित होय ताकै अविनाभावका अयोग है जाकै प्रतिपक्षीसहितपणां होय ताकी ज्यों ऐसें जाननां । बहुरि साध्याभास जाका विषय ताकै असम्यक् हेतुपणां है-समीचीनहेतुपणां नाही जारौं जैसा पक्ष कह्या तैसा ताका विषयका अभाव है। तिस ही दोषकरि हेतु दोषसहित है ! यातें यह निश्चय भया जो साध्यतै अविनाभावीपणांकरि निश्चित होय सो ही हेतु है ॥ १०॥ आण अविनाभावका भेद दिखावते संते सूत्र कहैं हैं;सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः ॥ ११ ॥ याका अर्थ-साध्य साधनकै लार एककाल होनेका नियम सो तो सहभावनियम कहिये, बहुरि जहां कालभेदकरि साध्य साधन अनुक्रमतें होय सो क्रमभावनियम है। ऐसैं अविनाभाव नियम दोय प्रकार है ॥११॥ आरौं सहभावनियमका विषय दिखावते संते सूत्र हैं हैं;सहचारिणोप्प्यव्यापकयोश्च सहभावः ॥१२॥ याका अर्थ–सहचारीनिकै जैसैं रूप रसके एक वस्तुवि युगपत् रहनेका नियम है । बहुरि व्याप्यव्यापकपणांक जैसे वृक्षपणांकै अरु शीतूंपणांकै व्याप्यव्यापकभाव नियम है। ऐसैं सूत्रवि. सप्तमीविभक्ति करि विषय दिखाया है सो सहभावनियम जाननां ॥ १२॥ आगें क्रमभावनियमका विषय दिखावते संते सूत्र कहैं हैं; Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः ॥१३॥ याका अर्थ-पूर्वोत्तरचारी कहिये पहली पीईं होय ते कृतिका नक्षत्रका उदय अर रोहिणीका उदय पूर्वोत्तरचारी है तिनिकै क्रमभाव नियम है । बहुरि कार्यकारणकै जैसैं धूमकै अर अग्निकै कार्यकारणभाव है तिनिकै क्रमभाव नियम है ॥ १३ ॥ ___ आगें इस प्रकारका अविनाभावका ग्रहण कैसे प्रमाणकरि होय है तहां कहै है प्रत्यक्ष प्रमाणकरि तौ ग्रहण नाही जातै प्रत्यक्षका विषय तौ निकटवर्ती वस्तु है । बहुरि अनुमानकार भी ग्रहण नांही जातें प्रकृत अनुमानकरि ग्रहण मानिये तो इतरेतराश्रय दूषण आवै अर अन्य अनुमानकरि मानिये तौ अनवस्था दूषण आवै । बहुरि आगम आदिका भी यह अविनाभाव विषय नाही जाते तिनिका न्यारा न्यारा विषय है सो प्रसिद्ध है । तातै अविनाभावकी काहू प्रमाणकरि प्रतिपत्ति नाही, ऐसी आशंका होतें ताका ग्राहक प्रमाणका सूत्र कहैं हैं; . तर्कात्तन्निर्णयः ॥ १४ ॥ याका अर्थ-पूर्वै कह्या है लक्षण जाका ऐसा जो तर्क प्रमाण ताका द्वितीयनाम ऊह है तातै तिस अविनाभावका निर्णय है—यह अविनाभाव ताका विषय है ॥१४॥ आगैं अब साध्यका लक्षण कहैं हैं; इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम् ॥ १५ ॥ याका अर्थ-जो साधने योग्य होय सो साध्य कहिये, तिस साध्यके तीन विशेषण हैं;-साधनेवालेकै इष्ट होय जाकू साधनेका अभिप्राय होय ऐसा, बहुरि जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणकरि. बाध्या न जाय ऐसा, बहुरि जो पहले सिद्ध न किया होय ऐसा सो साध्य है । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित इहां अन्यवादी दूषण कहै है-जो इष्टकू साध्य कहे आसन शयन भोजन यान मैथुन इत्यादिक भी इष्ट हैं ते साध्य ठहरै हैं ? ताकू आचार्य कहै है-ऐसी कहनेवाले अतिमूर्ख हैं जारौं विना अवसर कहनेवालाकै अतिप्रलापीपणां है, इहां तौ साधनका अधिकार किया है जो साधनका विषय होय ताकी अपेक्षा इहां इष्ट कह्या है ॥१५॥ आगें आपनैं कह्या जो साध्यका लक्षण ताके विशेषणनिकू सफल करते संते प्रथम ही असिद्ध विशेषणकू दृढ़ करने• सूत्र कहैं हैं; सन्दिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्यादित्यसिद्धपदम् ॥१६॥ याका अर्थ-सन्दिग्ध विपर्यस्त अव्युत्पन्न इनिकै साध्यपणां जैसे होय इस हेतु” साध्यका असिद्धपदरूप विशेषण है । तहां काहू क्षेत्रमैं अंधकार आदिके निमित्ततें खड़ा पदार्थ देखि विचारै जो यह स्थाणु है कि पुरुष है ? ताका निश्चय न होय ज्ञान दोऊ तरफ स्पर्शता रहै ऐसैं संशयकरि व्याप्त जो वस्तु सो तो संदिग्ध है । बहुरि सत्यार्थ” विपरीत वस्तुका निश्चय करनेवाला जो विपर्यय ज्ञान ताका विषयभूत जो वस्तु जैसैं सीपविौं रूपेका ज्ञान तहां रूपा आदि विपर्यस्त वस्तु है । बहुरि नाम जाति संख्या आदि विशेषनिका ज्ञान विना जो अनिर्णीत विषयरूप वस्तु निश्चय विनां ग्रहण करनां जाका होय सो वस्तु अव्यु. त्पन्न है यह अनध्यवसायज्ञानका विषय जाननां । इनि तीननिकै साध्यपणां कहनेंकै अर्थि असिद्धपदका ग्रहण है, ऐसा अर्थ जाननां ॥१६॥ ___ आगैं अब इष्ट अर अबाधित इनि दोऊ विशेषणनिका सफलपणां दिखावते संते सूत्र कहैं हैं; Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः साध्यत्वं मा भूदितीष्टाबाधितवचनम् ॥१७॥ ___याका अर्थ-अनिष्टकै अर प्रत्यक्षादि प्रमाणकरि बाधितकै साध्यपणां न होय इस हेतु” इष्ट अर अबाधित ऐसा वचन है । अनिष्ट तौ जैसैं मीमांसककै शब्दकै अनित्यपणां है जातें मीमांसक शब्दकू नित्य मानें है सो अनित्य साधै तौ अनिष्ट होय । बहुरि शब्दकै अश्रावणपणां कहिये श्रोत्रके सुननेंमें न आवनां साधै तो प्रत्यक्षप्रमाणकरि बाधित होय आदिशब्दकरि अनुमान-आगम-लोक स्ववचनकरि बाधित लेनें । इनिका उदाहरण अकिंचित्कर हेत्वाभासका निरूपण करसी तिसके अवसरमैं ग्रंथकार आप विस्तारकरि कहसी यातै इहां न कहिये है ॥१७॥ इहां साध्यका असिद्धविशेषण तौ प्रतिवादी जो पीछे उत्तर कहै ताहीकी अपेक्षाकरि है जानैं पहलै पक्ष स्थापै ऐसा जो वादी ताकै प्रसिद्ध ही है, बहुरि इष्टपद है सो वादीकी अपेक्षा ही है ऐसा विशेष दिखावनें• सूत्र कहैं हैं; न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः ॥१८॥ याका अर्थ-जैसैं प्रतिवादीकी अपेक्षा असिद्धळू साध्य कहिये है तैसै ताकै इष्ट साध्य नाही है । इहां ऐसा प्रयोजन है-जो साध्यके सर्व ही विशेषण सर्वकी अपेक्षा नांही है कोई कोईकी अपेक्षा है कोई कोईकी अपेक्षा है । बहूरि असिद्धवत् ऐसा व्यतिरेककू मुख्यकार उदा. हरण दिया है । जैसैं असिद्ध प्रतिवादीकी अपेक्षा है तसैं इट ताकी अपेक्षा नांही है ऐसा अर्थ है ॥ १८ ॥ आगें यह काहेरौं कह्या ऐसें पू0 सूत्र कहैं हैं; --- प्रत्यायनाय हीच्छा वक्तुरव ।। ५९ ॥ हि.प्र.. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित___ याका अर्थ-परकू प्रतीति उपजावनें• इच्छा वक्ता ही की है तातें इष्ट वादीहीकी अपेक्षा है । जो इच्छाका विषय ताकू इष्ट कहिये ताकी परकू प्रतीति कहनेवाला ही उपजावै तातें ताहीकी इच्छा कही ॥१९॥ __ आगें पूछे है कि यह साध्य धर्म है कि इस साध्य धर्मकरि विशिष्ट धर्मी है ? ऐसैं प्रश्न होते तिसका भेद दिखावते संते सूत्र कहैं हैं; साध्यं धर्मः कचित्तद्विशिष्ठो वा धर्मी ॥२०॥ याका अर्थ-धर्म है सो साध्य है, बहुरि कोई जायगां तिस साध्यधर्मकरि विशिष्ट धर्मी है सो साध्य है । जाकै आधार साध्य वस्तु होय सो धर्मी कहिये तिसकी अपेक्षा साध्यकू धर्म कहिये । इहां ऐसा अर्थ है-जो व्याप्तिकालकी अपेक्षाकरि तौ साध्यनामा धर्म ही साध्य है, बहुरि कोई जायगां प्रयोगकालकी अपेक्षा तिस साध्यधर्मकरि विशिष्ट धर्मी साध्य है जाते सूत्रके वाक्य हैं, ते उपस्कारसहित होय हैं, सूत्रमैं पद ऊपरतें लाइये ताकू उपस्कार कहिये सो इहां अपेक्षाका पद उपरतें आया है । इहां भावार्थ ऐसा-जो धर्मीकै साध्यपणां तौ प्रयोग कालहीविर्षे कोई ठिकानै है । जहां अनुमानकै प्रतिज्ञा हेतु आदि अवयव वचनकरि कहिये ताकू प्रयोग कहिये । अर जहां व्याप्ति जनाइये तहां साध्य धर्महीनै जोड़िये है साधनकै साध्य धर्महीतैं है ॥२०॥ ___ आरौं साध्यधर्मकरि विशिष्ट जो धर्मी तिसका नामान्तर कहिये अन्य नाम कहैं हैं; पक्ष इति पावत् ॥२१॥ याका अर्थ-जाकै आधार साध्य होय सो धर्मी कहिये ताहीका दूसरा नाम पक्ष भा है। इहां प्रश्न-जो धर्मधर्मीका समुदाय सो पक्ष है ऐसा पक्षका स्वरूप पुरातन आचार्य अकलंक देव आदिकरि कह्या है सो इहां Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। धर्मीहीकू पक्ष कह्या सो सिद्धान्तका विरोध कैसैं न भया ? ताका समाधान आचार्य करै है--जो ऐसे नांही है जाते साध्य जो धर्म ताके आधारपणांकरि विशेषितरूप किया जो धर्मी ताकू पक्षवचनकरि कहतें भी दोषका अवकाश नांही है। रचनाका विचित्रपणांमात्रकरि तात्पर्यका निराकरण नाही होय है तातै सिद्धान्तका अविरोध है॥२१॥ - इहां बौधमती कहै है धर्मीकू पक्ष कह्या सो तौ होहु परंतु धर्मी है सो विकल्पबुद्धिकैवि वर्तमान ही है अर वस्तुस्वरूप नाही है जातें " अनुमान अनुमेयका व्यवहार सर्व ही बुद्धिकरि कल्पिये है, बुद्धिकरि कल्पे जे धर्म धर्मी तिस न्यायकरि बाह्य ताका सत्व है कि नाही है ऐसी अपेक्षा नाही करै है" ऐसा हमारै कह्या है सो ताकै निराकरणके अर्थि आचार्य सूत्र कहैं हैं; प्रसिद्धो धर्मी ॥२२॥ याका अर्थ-धर्मी है सो प्रसिद्ध है कल्पित ही नाही है इहां यह अर्थ है-जो बाह्य अर अन्तरंग पदार्थका नाही है आलंबनभाव जाकै ऐसी विकल्पबुद्धि है सो ही धर्मीकू स्थापै है सो ऐसें नाही है। जो धर्मी अवस्तुस्वरूप होय तौ तिसकै व्यापार जो साध्यसाधन ताकै भी वस्तुस्वरूपणां न बनें जाते अनुमानकी बुद्धिकै परंपराकरि भी वस्तुकी व्यवस्थाका कारणपणांका अयोग होय । तातै विकल्पकरि अथवा अन्यप्रमाणकरि स्थापन किया जो पर्वत आदिक सो अनुमानका विषयस्वरूप होता संता धर्मीपणांकू पावै है । ऐसा निश्चय भया जो धर्मी प्रसिद्ध है बहुरि तिसकी प्रसिद्धि है सो कोई वि. तौ विकल्पतें, कोई वि. प्रमाणते है, कोई वि. प्रमाण अर विकल्प दोऊनितें है, ऐसैं एकांतकरि विकल्पवि” ही ल्यायाकै अथवा प्रमाण प्रसिद्धहीकै धर्मीपणां नाही॥२२॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित . आण मीमांसक कहै है जो धर्मीकी विकल्प” प्रतिपत्ति होते तुमारे साध्य कहा है ऐसी आशंका होते सूत्र कहै है; विकल्पसिद्धे तस्मिन् सत्तेतरे साध्ये ॥ २३ ॥ याका अर्थ-तिस धर्मीकू विकल्पसिद्ध होते सत्ता अर इतर कहिये असत्ता दोऊ साध्य हैं । इहां सुनिर्णीत कहिये भलै प्रकार निश्चय किया जो असंभवद्बाधक प्रमाण ताका बलकरि तौ सत्ता साध्य है। बहुरि योग्य जो अनुपलब्धि ताका बलकरि असत्ता साध्य है । ऐसे सत्ता असत्ता साध्य है ऐसा वाक्यशेष लेना ॥ २३ ॥ . इहां उदाहरण कहैं हैं; अस्ति सर्वज्ञो नास्ति क्षरविषाणम् ॥ २४ ॥ याका अर्थ-सर्वज्ञ है, इहां तो विकल्पसिद्ध जो सर्वज्ञ धर्मी ताविर्षे सत्ता साध्य है । बहुरि खरविषाण नांही है, इहां गदहाकै सींग विकल्पसिद्ध धर्मी है ताविर्षे असत्ता साध्य है । या सूत्रका अर्थ सुगम है सो टीकाकार टीका न लिखी है । इहां मीमांसक कहै है-जो असिद्ध है सत्ता जाकी ऐसा जो धर्मी तावि. सद्भाव अर अभाव अरु भावाभाव इनि तीही धर्मनिकै असिद्ध विरुद्ध अनैकान्तिकपणां है तातें अनुमानके विषयपणांका अयोग है तातें सत्ता अर असत्ताकै साध्यपणां कैसे बण । सो ही कह्या है श्लोकका अर्थ;-जो सत्ता साधिये है सो तहां हेतु भावका धर्म है तो असिद्ध है, अर अभावका धर्म है तौ विरुद्ध है, दोऊका धर्म है तो व्यभिचारी है सो ऐसी सत्ता कैसैं साधिये ? ताका समाधान आचार्य करें १ असिद्धो भावधर्मश्चेद् व्यभिचार्युभयाश्रतः। विरुद्धो धर्मो भावस्य सा सत्ता साध्यते कथं ॥१॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १०१ -जो यह कहनां अयुक्त है जातैं मानसप्रत्यक्षविषै भावरूप ही धर्मीका प्राप्तपणां है । बहुरि कहै - तिस धर्मीकी सिद्धि मानसप्रत्यक्ष मैं होतैं ताका सत्त्वभी आय गया तातैं अनुमान व्यर्थ है, सो ऐसैं नांही - तिसका सत्व अंगीकार भया तौ ऊपर वादी धीटपणांत - प्रतिपक्षप - णांत अंगीकार न करे तब तिसकूं सिद्ध करनेकूं अनुमानका सफलपणां है । बहुरि कहै— जो मानसप्रत्यक्ष मैं आकाशका फूलकाभी सद्भावकी संभावना अतिप्रसंग आवे ? सो ऐसें भी नांही है, जातैं आकाशके फूलका ज्ञानकै बाधक प्रतीतिकरि निराकरण भई है सत्ता जाकी ऐसा असत्वरूप वस्तु विषयपणांकरि ताकै मानसप्रत्यक्षाभासपणां है । बहुरि इहां कहै — जो ऐसें होतैं घोडाकै सींग इत्यादिककै धर्मीपणां कैसे बर्णैगा ? - तौ ऐसा तर्क न करनां जातैं धर्मीका प्रयोगकालविषै बाधक प्रत्ययका उदय नांही है तार्तै धर्मीका सत्त्वकी संभावना है । बहुरि सर्वज्ञादिक धर्मीविषै साधकप्रमाणका अभावपणांकरि सत्त्व प्रति संशय बताये तो संशय नांही है, सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणपणांकार जैसैं सुख आदिकै विषै का निश्चय है तैसैं सत्त्वका निश्चय है, तहां संशयका अयोग है | सुनिश्चितासंभवद्वाधकप्रमाण जाकूं कहिये जहां भलै प्रकार निश्चय किया असंभवता बाधक प्रमाण होय, भावार्थप्रमाण निश्चयतैं न होय ॥ २४ ॥ -बाधक आगैं प्रमाणसिद्ध अर उभयसिद्ध जो धर्मी तिनिविषै साध्य कहा है ऐसी आशंका होतें सूत्र कहैं हैं; प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता ॥ २५ ॥ याका अर्थ —— प्रमाणसिद्ध अर प्रमाणविकल्पसिद्ध इनि दोऊ धर्मी "विषै साध्य जो धर्म ताकरि विशिष्टता जो धर्मीपणां सो ही साध्य है । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित इहां पहले सूत्रमैं 'साध्ये' ऐसा द्विवचन है तौऊ अर्थके वश” इहां एकवचन ही संबंध करना, साध्यधर्मविशिष्टता साध्या ऐसैं । बहुरि प्रमाण अर उभय कहिये प्रमाण विकल्प दोऊ ऐसैं दोय भांतिकरि सिद्ध जो धर्मी तावि साध्य जो धर्म ताकरि विशिष्टता साध्य है। दोऊ प्रकारके धर्माविर्षे जो साध्यका पूर्वस्वरूप कह्या सो ही धर्म ताकरि सहितपणां साध्य है । जहां जैसा साध्य होय तैसाहीकरि युक्त धर्मी साध्य है । इहां यह अर्थ है-जो प्रमाणकरि प्राप्त भया भी वस्तु विशिष्टधर्मके आधारपणांकरि विवादमैं आवै सो साध्यपणांकू नांही उलंध, साध्य होय ही । ऐसे ही प्रमाण विकल्प विर्षे भी जोड़ि लेनां ॥२५॥ __ आरौं प्रमाणसिद्ध अरु उभयसिद्ध दोऊ धर्मी अनुक्रमकरि दिखावते संते सूत्र कहै हैं; अग्निमानयं प्रदेशः, परिणामी शब्द इति यथा ॥२६॥ ___याका अर्थ—यह प्रदेश अग्निसहित है यह तो प्रत्यक्षप्रमाणसिद्ध धर्मी है, बहुरि शब्द है सो परिणामी है इहां शब्द धर्मी है सो उभयसिद्ध है जो शब्द श्रवणमैं आया सो तौ श्रवणप्रत्यक्ष प्रत्यक्षप्रमाणसिद्ध है अर अन्यदेशकालवर्ती शब्द विकल्पसिद्ध है । इहां अग्नि जहां साधिये है सो प्रदेश प्रत्यक्षप्रमाणकरि सिद्ध है, बहुरि शब्द है सो उभयसिद्ध है जातें अल्पज्ञानवाले पुरुषनिकरि अनिश्चित दिशा-देश-कालविर्षे व्याप्त जे सर्व शब्द ते निश्चय करनेंकू समर्थ नाही हूजिये है तौऊ तिस प्रति अनुमानका निरर्थकपणां है, अनुमान तौ अल्पज्ञ ही करै है॥२६॥ - आगें प्रयोगकालकी अपेक्षा साध्यका नियम दिखावता संता सूत्र कहैं हैं; Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ maa हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव ॥२७॥ याका अर्थ-व्याप्तिावे. साध्य है सो धर्म ही है । याका अर्थ सुगम है यातै टीका नाही । इहां अर्थ जिस धर्माविर्षे जो साध्य साधिये ताकू तिस धर्मीका धर्म कहिये । ऐसा साध्य जो धर्म सो ही साधने योग्य है । व्याप्ति साध्यसाधनहीकै होय है ॥२७॥ ___ आU धर्मीकै भी साध्यपणां होतें कहा दोष है, ऐसैं पूछे सूत्र कहै अन्यथा तद्घटनात् ॥२८॥ याका अर्थ-जो धर्मीकू साध्य करिये तो धर्मीकै अर साधनकै व्याप्ति बणें नाही । इहां अन्यथा शब्द है सो पहले व्याप्तिविषं साध्यधर्म कह्या तिसतै विपर्यय अर्थमैं है, तातें ऐसैं कहनां जो धर्मीकै साध्यपणां होतें व्याप्ति बणे नाही । यह सूत्र पूर्वसूत्रका हेतुरूप है । धूमके दर्शन” सर्व जायगां पर्वत अग्निमान है ऐसी व्याप्ति नाही करी जाय है जाते यामैं प्रमाण विरोध आवै है ॥ २८॥ ___आरौं बौद्धमती कहै है-जो अनुमानविर्षे पक्षका प्रयोगका असंभव है तातै ' प्रसिद्धो धर्मी' इत्यादि वचन अयुक्त हैं जाते तिस धर्मीकै सामर्थ्यलब्धपणां सामर्थ्यतै जाणिये है, बहुरि जाणे पीछे भी ताका वचन कहनां सो पुनरुक्तताका प्रसंग आवै है, जातें ऐसा कह्या जो अर्थतें आय प्राप्त हूवा तौऊ ताका फेरि वचन कहनां सो पुनरुक्त है, ऐसैं सौगतनैं पक्ष करी ताका निराकरणकू आचार्य सूत्र कहैं हैं; साध्यधर्माधारसन्देहापानोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ॥ २९॥ याका अर्थ-पक्ष है सो साध्य जो धर्म ताका आधार है तातें साध्यकू साधिये तब ऐसा सन्देह पड़े जो कौंन जायगा इस साध्य... Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित साधिये है ताके सन्देह दूर करनेकू जाननेमैं भी आया जो पक्ष ताका वचनकार प्रयोग करना। साध्य सो ही धर्म ताका आधार ताविौं संदेह पडै जो अग्निकू पर्वत आदिमैं साधिये है कि महानस आदिमैं ? ऐसा सन्देहका अपनोद जो दूर करनां तिसकै अर्थि गम्यमान भी जो सा. ध्यका आधार पक्ष ताका वचन कहनां-प्रयोग करनां । इहां पक्षका गम्यमानपणां ऐसैं है जो साध्यसाधनकै व्याप्यव्यापकभाव दिखावनेकी अन्यथा अप्राप्ति है । साध्य साधनकै व्याप्यव्यापकभाव दिखावते तिसके आधारस्वरूप पक्षकू भी जानिये है तौ ऊपरके सन्देह दूर करने• पक्षका वचन कहनां युक्त है ॥ २९ ॥ आगें याका उदाहरण कहैं हैं;- . साध्यधर्मिणि साधनधर्मावबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत् ॥ ३०॥ याका अर्थ-साध्यकरि विशिष्ट जो धर्मी पर्वतादिक ताविर्षे साधन धर्मका जाननेकै अर्थि जैसैं पक्षधर्मका उपसंहाररूप जो उपनय ताका प्रयोग करिये है तैसैं पक्षका भी प्रयोग करनां । साध्यकरि विशेषणरूप जो धर्मी पर्वतादिक तहां साधनधर्मकै जाननेंकै अर्थि जैसैं पक्षधर्मका उपसंहाररूप उपनय कहिये है जातै पक्षधर्म जो हेतु ताका उपसंहार कहिये संक्षेप करनां सो उपनय है जैसैं अग्निमानू साध्यका प्रयोगविर्षे धूमवान् यहु है ऐसा उपनय कहनां ताकी ज्यों पक्षका भी प्रयोग युक्त है । इहां यह अर्थ है-जो साध्यौं व्याप्त जो साधन ताकै दिखावनेंकरि तिस हेतुके आधारका जाणपणां होते भी नियमरूप जो धर्मी ताका संबंधीपणांकै दिखावनेकू जैसे उपनयका प्रयोग करिये है तैसैं साध्यकै. विशिष्ट जो धर्मी ताका संबंधीपणा जनावनेकू पक्षका भी वचन कहनां । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १०५ बहुरि किछू विशेष कहै है; जो हेतुका प्रयोग करिये है ताका समर्थन भी अवश्य है-कहने योग्य होय है जाते विना समर्थन हेतुपणांका अयोग है, ऐसे होते समर्थनका प्रयोगते ही हेतुकै सामर्थ्य सिद्धपणां होय तब हेतुका प्रयोग भी अनर्थक ठहरै है। इहां कहै-जो हेतुका प्रयोग न करिये तो समर्थन किसका कहिये ? तौ ताकू कहियेजो पक्षका प्रयोग न करिये तौ हेतु किसका कहिये ? ऐसे यह प्रश्नोत्तर समान है। तातै कार्य, स्वभाव, अनुपलंभ, ऐसे तीन भेदकरि हेतुडूं कहता तथा पक्षधर्मपणां आदेि तीन प्रकार हेतुकू कहकरि ताका समर्थन करता जो बौद्धमती ताकरि पक्षका प्रयोग भी अंगीकार करने योग्य ही है । इहां भावार्थ ऐसा-जो बौद्धमती अनुमानका प्रयोग करता व्युत्पन्न पंडितकै एक हेतु ही मानें है, ताकू कह्या है जो पक्षका वचन भी मानने योग्य है जातै पक्ष कहे विना साध्य जा ठिकानें साधिये तामै सन्देह रहै तौ पक्षके वचन विना दूर होय नाहीं । बहुरि हेतुका समर्थन बौद्ध करै है-ताकू चेत कराया जो जा हेतुका समर्थन हेतु कह्या तब पहला हेतु तौ पक्ष ही भया सो पक्षका प्रयोग निषेध किये हेतुका भी प्रयोग अनर्थक ठहरै है, समर्थन ही कहनां युक्त ठहरै है । तातै पक्षका ही वचन पहले क्यों न कहनां, ऐसें जाननां ॥३०॥ ___ आगें इस ही अर्थके कहनेकू सूत्र कहै हैं; को वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति ॥३१॥ याका अर्थ-'को वा' कहिये वादी प्रतिवादी ऐसा कौन है जो तीन प्रकार हेतुकू कहकरि अर ताका समर्थन करता संता तिस हेतुडूं पक्ष न करे, करै ही करै । इहां 'को' ऐसा कहने” वादी प्रतिवादी कोई लेनां । बहुरि 'वा' शब्द है सो निश्चय अर्थमैं है, सो युक्तिकरि Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित पक्षप्रयोगका अवश्य भाव होते निश्चयतें कौन पक्ष नांहीं करै है, अवश्य करै ही है । कहा करता संता ? हेतुका समर्थन करता संता-हेतुकू कह करि ही समर्थ है विना कहे नांहीं समर्थं है । इहां समर्थनका स्वरूप ऐसा-जो हेतुका असिद्धपणां आदि दोषका परिहारकरि अपनें साध्यकू अर साधनकू सामर्थ्यरूप प्ररूपणा करनेंकू समर्थ वचन होय सो ही समर्थन है । सो हेतुके प्रयोगकै पीछे बौद्धमतीकरि अंगीकार किया है ता” सूत्रमैं उक्त्वा' ऐसा वचन है ॥ ३१॥ अब इहां सांख्यमती कहै है—जो पक्षका प्रयोग तो होहु परन्तु पक्ष, हेतु, दृष्टांत, भेदकरि अनुमानके तीन ही अवयव हैं । बहुरि मीमांसक कहै है-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, भेदकरि च्यार अवयवस्वरूप अनुमान है। बहुरि यौग कहिये नैयायिक कहै है-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, भेदतैं पांच अवयवस्वरूप अनुमान है। तिनिके मतकू निराकरण करते संते अपनें मतवि सिद्ध जो अनुमानके अवयव दोय तिनिहीकू दिखावते संते सूत्र कहैं हैं; एतद्धयमेवानुमानाङ्गं नोदाहरणम् ॥ ३२ ॥ याका अर्थ-अनुमानके अवयव पक्ष अर हेतु ये दोय ही हैं अर उदाहरण नाही है । ये पक्ष अर हेतु तिनिका द्वय कहिये द्विक सो ही अनुमानके अंग हैं अधिक नाही हैं। इहां एवकारकरि उदाहरण आ. दिका निषेध सिद्ध होतें भी परमतके निराकरणकै आर्थि फेरि उदाहरण नांही है ऐसा वचन कह्या है ॥३२॥ ..आगैं सो उदाहरण कहा साध्यकी प्रतिपत्तिकै अर्थि है कि हेतुकै अविनाभावके नियमकै अर्थि है कि व्याप्तिके स्मरणकै अर्थि है ? ऐसैं तीन विकल्पकरि तिनिकू दूषणरूप करते संते सूत्र कहैं हैं;-... Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १०७ न हि तत्साध्यप्रतिपत्त्यङ्गं तत्र यथोक्तहेतोरेव व्यापारात् ॥३३॥ याका अर्थ-यह उदाहरण है सो साध्यकी जो प्रतिपत्ति ताका अंग नाही है जातें साध्यविषै तौ जैसा हेतु कह्या तिसहीका व्यापार है । इहां तत् कहिये उदाहरण सो साध्यकी प्रतिपत्ति कहिये साध्यका ज्ञान ताका अंग-कारण नाही है ऐसा संबंध करना जारौं तिस साध्यकी प्रतिपत्तिविषै यथोक्त जो साध्यतै अविनाभावीपणांकरि निश्चय किया हेतु तिसहीका व्यापार है ॥ ३३ ।। आगें दूसरे विकल्पकू शोधता संता सूत्र कहैं हैं;तदक्निाभावनिश्चयार्थ वा विपक्षे बांधकप्रमाणबलादेव तत्सिद्धेः ॥ ३४ ॥ __याका अर्थ-'तत्' ऐसी अनुवृत्ति लेनी, बहुरि 'न' ऐसा निषेध की भी अनुवृत्ति लेनी, ताकरि यह अर्थ भया—जो उदाहरण तिस साध्यकरि हेतुका अविनाभाव निश्चय करनेकै अर्थ नाही है जातें विपक्षविर्षे बाधक प्रमाणके बलते ही अविनाभावनिश्चयकी सिद्धि होय है ॥३४॥ बहुरि किछू विशेष कहैं हैं;-जो उदाहरण तौ व्यक्तिरूप है, सामान्यके बहुत विशेष होय तिनिमैं एक विशेषकू व्यक्ति कहिये, सो व्याप्तिकू समस्तपणकरि कैसैं गमक होय, तिस व्यक्तिविषै व्याप्तिकै आर्थ अन्य उदाहरण हेरनां पड़े है ताकै भी व्यक्तिरूपपणांकरि सामान्यरूप जो व्याप्ति ताका निश्चय करनेका असमर्थपणां है या” और १ मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'बाधकप्रमाणबलादेव' इसके स्थानमें 'बाधकादेव' इतना ही पाठ है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित और उदाहरणकी अपेक्षा होते अनवस्था दूषण होय है, सो ही सूत्रमैं कहैं हैं;. व्यक्तिरूपं च निदर्शनं सामान्येन तु व्याप्तिस्तत्रापि तद्विप्रतिपत्तावनवस्थानं स्यादू दृष्टान्तान्तरापेक्षणात् याका अर्थ-निदर्शन कहिये उदाहरण सो तो व्यक्तिरूप है जिस साध्यसाधनकै जोड़िये तहां ही लागै, बहुरि व्याप्ति है सो सामान्य करि है सर्व साध्यसाधनमैं व्यापै है, सो एक उदाहरणते व्याप्तिका निश्चय नाही होय तहां दूसरी जायगां उदाहरणकै विर्षे भी तिस व्याप्तित साध्यसाधन जोड़िये तब अन्य दृष्टांत चाहिये ऐसैं अन्य दृष्टांतकी अपेक्षा करनेंतें अनवस्था होय है ॥ ३५॥ आज तीसरा विकल्पविर्षे दूषण कहै है;नापि व्याप्तिस्मरणार्थ तथाविधहेतुप्रयोगादेव तस्मृतेः ॥ ३६॥ __ याका अर्थ-यह उदाहरण व्याप्तिके स्मरण कहिये यादि करनेकै अर्थि नाही है जाते अविनाभावस्वरूपहेतुके प्रयोग करनेंहीरौं तिस व्याप्तिका स्मरण होय है । ग्रह्या है साध्यतै संबंध जानें ऐसा पुरुषकै हेतु दिखावनेंहीकरि व्याप्तिकी सिद्धि होय है । जानें संबंध न ग्रह्या होय ताकै सौ दृष्टांतकरि भी स्मरण न होय जातें स्मरण तौ पहली अनुभव होय ताहीका होय है, ऐसा भावार्थ है ॥ ३६॥ ___ आगें ऐसैं सो इस उदाहरणके प्रयोगकै साध्य पदार्थ प्रति उपयोगीपणां नांही है उलटा संशयका कारणपणां ही है ऐसैं दिखावै है; तत्परमभिधीयमानं साध्यधर्मिणि साध्यसाधने संदेहयति ॥ ३७॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १०९ याका अर्थ—सो उदाहरण परं कहिये केवल कह्या हुआ साध्यके धर्मीविर्षे साध्य अर साधनकू संदेहसहित करै है । जाते दृष्टान्तका धर्मीविर्षे साध्यतैं व्याप्त जो साधन ताकू दिखावतें भी साध्यके धर्मीवि तिस साध्यका अर साधनका निर्णयका करनेका अशक्यपणां है ऐसा वाक्यशेष है । भावार्थ-उदाहरण कह्या हुवा साध्य साधनकू संदेहरूप करै है ॥ ३७॥ ___ आगें इस ही अर्थकू व्यतिरेककू प्रधानकरि दृढ़ करते संते हैं कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ॥ ३८॥ याका अर्थ-जो उदाहरण कहें संदेह न उपजता तौ उपनय अर निगमन इनि दोऊनिका प्रयोग काहेकू करते । जातें यह जान्यां जो उदाहरणके प्रयोग” संशय होय है ॥ ३८॥ आगैं नैययिक कहै है-जो उपनय निगमन इनि दोऊनिकै भी अनुमानका अंगपणां है, जो इनिका प्रयोग न कीजिये तो निर्दोष साध्यकी सिद्धिका अयोग है तिसके निषेधकै अर्थि सूत्र कहैं हैं; न च ते तदङ्गे, साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययोर्वचनादे-.. वासंशयात् ॥ ३९॥ याका अर्थ-ते उपनय निगमन भी तिस अनुमानके अंग ही नांहीं हैं जाते साध्यके धर्मीविय हेतु अर साध्यके वचननै संशयका निराकरण है । उपनय निगमनका स्वरूप आगें कहसी । अर इहां एवकारकरि ऐसा जाननां जो दृष्टान्त आदिके प्रयोग विना ही प्रतिज्ञा हेतु” ही साध्यकी सिद्धि होय है-संशय मिटि जाय है; ऐसा भावार्थ . है ॥ ३१॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित___ आगें विशेष कहैं हैं जो दृष्टान्तादिक कहकरि भी हेतुका समर्थन अवश्य कहनां जातै विना सम• हेतुकै अहेतुकपणां है या सो समर्थन ही श्रेष्ठ है, जो हेतुस्वरूप है अथवा अनुमानका समर्थन भी होहु जातँ साध्यकी सिद्धिविर्षे ताहीका उपयोग है उदाहरण आदिक अनुमानके अवयव नांहीं है, इस ही अर्थरूप कहैं हैं; समर्थनं वा वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वाऽस्तु साध्ये तदुपयोगात् ॥४०॥ याका अर्थ-हेतुका समर्थन है सो ही श्रेष्ठ है सो हेतुरूपही है, अर यह समर्थन अनुमानका अवयव भी होहु जातें साध्यविर्षे तिसका उपयोग है-साध्य याते दृढ़ होय हैं । इहां सूत्रमैं पहला 'वा' शब्द है सो नियमकै अर्थि है । बहुरि दूसरा 'वा' शब्द है सो न्यारा पक्षके सूचनेकू है । अब शेष या सूत्रका अर्थ सुगम है ॥ ४० ॥ __ आगें पूछ हैं कि दृष्टांत आदिक विना मन्दबुद्धीनिका समझावनेंका असमर्थपणां है तारौं पक्षहेतुके प्रयोगमात्रहीकरि तिनिकै साध्यकी प्रतिपत्ति कैसैं होय, ऐसैं पूछे सूत्र कहैं हैं; बालव्युत्पत्यर्थ तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ॥४१॥ __ याका अर्थ-बाल कहिये अल्पज्ञानी तिनिकै ज्ञान होनेकै अर्थि उदाहरण उपनय निगमन ये तीन अवयव तिनिका अंगीकार होतें भी शास्त्रहीविर्षे तिनका मानना है, अर वादविर्षे नाही जाते वादविषै इनिका उपयोग नाही प्रयोजन नाही-जातें वादके कालवि. शिष्य समझावने नाही, व्युत्पन्ननिहीका वादकैवि अविकार है-जे न्यायविर्षे प्रवीण हैं तिनिह का वादविर्षे अधिकारीपना है ॥४१॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १११ आगैं बाल जे अल्पज्ञानी तिनिके समझावनें के अर्थि उदाहरण आदि तीन प्रयोग शास्त्रविषै अंगीकार किया, तिनि तीननिका स्वरूप दिखावैं है; दृष्टान्तो द्वेधाऽन्वयव्यतिरेकभेदात् ॥ २४ ॥ याका अर्थ - जा त्रिषै साध्य साधन ये दोय अंत कहिये धर्म अन्वयकूं मुख्यकार तथा व्यतिरेककूं मुख्यकरि प्रत्यक्ष दृष्ट होय सो दृष्टान्त है । याका अर्थ ऐसा -- जो दृष्ट कहिये प्रत्यक्ष देखे हैं अन्त कहिये साध्यसाधनलक्षण धर्म जहां ऐसा दृष्टान्तशब्दका अर्थ है । सो दोय प्रकार है— अन्वयदृष्टान्त, व्यतिरेकदृष्टान्त ॥ ४२ ॥ तहां प्रथम अन्वयदृष्टान्तकूं दिखावते सन्ते सूत्र कहैं हैं ;साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदर्श्यते सोऽन्वयदृष्टान्तः ॥ ४३ ॥ याका अर्थ —जा विषै साध्यकरि व्याप्त जो साधन सो नियमरूप दिखाइए सो अन्वय दृष्टांत है । इहां व्याप्तिपूर्वकपणांकरि दिखावै ऐसा अभिप्राय है । जैसैं जहां जहां धूमसहितपणां है तहां अग्निसहितपणां, जैसें रसोईका स्थान, ऐसैं अन्वयदृष्टांत जाननां ॥ ४३ ॥ 1 आमैं दूसरा भेद दिखावै है; - साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः ॥ ४४ ॥ याका अर्थ—जाके न होतें जो न होय सो व्यतिरेक कहिये, सो यहां प्रधान होय सो व्यतिरेक दृष्टांत है । जैसैं जहां अग्नि नांहीं तहां I नियमकरि धूम नांहीं, जैसैं जढ़का निवास । ऐसैं व्यतिरेकदृष्टान्त जाननां 1 8 8 11 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित आगैं अनुक्रममैं आया जो उपनय ताका स्वरूप निरूपण करै है; हेतोरुपसंहार उपनयः ॥४५॥ याका अर्थ-इहां 'पक्षे' ऐसा अध्याहार लेनां, ताकरि यह अर्थ है; जो पक्ष विर्षे हेतुका संक्षेप करिये सो उपनय है । धूमवानपणां हेतु” अग्निमानपणां काहू जायगां साथै ताका दृष्टान्त कहकरि अर हेतुकू पक्षका विशेषण करै, जैसैं कहै-जो यह धूमवान है ऐसा कहनां उपनय है । याकी निरुक्ति ऐसे है-'उपनीयते' कहिये फेरि उचारिये हेतु जा करि सो उपनय है, ऐसा जाननां ॥४५॥ ___ आरौं निगमनका स्वरूप दिखावै है; प्रतिज्ञायास्त निगमनम् ॥ ४६॥ याका अर्थ-जहां प्रतिज्ञाका उपसंहार करिये सो निगमन है। इहां उपसंहारकी अनुवृत्ति लेनी । प्रतिज्ञाकू साध्य जो धर्म ताकरि विशिष्टपणांकरि दिखावनां । जैसैं पहले प्रतिज्ञा कहै जो यह पर्वत अग्निमान है पीछे हेतु दृष्टान्त उपनय कहकरि फेरि फेरि प्रतिज्ञाकू संकोचकरि नियम करै जो तातें अग्निमान ही है, ऐसे प्रतिज्ञाका संक्षेप करना सो निगमन है ॥ ४६॥ ___ आरौं अन्यबादी तर्क करै जो शास्त्रविर्षे दृष्टान्त आदि कहनें ही ऐसा नियम तौ मान्यां नाही तब आचार्य इहां तिनि तीननिकू कैसैं दिखाये ? ताका समाधान-जो इहां ऐसा तर्क न करनां जातें आप आचार्य इनि तीनूं निकू अंगीकार न किये हैं तौऊ जिनमतके अनुसारी आचार्यनि- शिष्यके वशकरि प्रयोगकी पारेपाटीतैं मानें है सो प्रयोगकी परिपाटी तिनिका स्वरूप जिनिनैं न जान्यां होय तिनकरि करी जाय नाही इस हेतु” तिनिका स्वरूप भी शास्त्रविर्षे कहनां ही Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । ११३ योग्य है। ऐसैं सो अनुमान मतभेदकरि दोय अवयव, तीन अवयव, च्यार अवयव, पांच अवयवस्वरूप मानिये है सो अनुमान दोय प्रकार ही है ऐसैं दिखावते संते सूत्र कहैं हैं;- तदनुमानं वेधा ॥४७॥ याका अर्थ—सो अनुमान दोय प्रकार है ॥ ४७ ॥ आगैं सो दोय प्रकारपणांकू कहैं हैं; स्वार्थपरार्थभेदात् ॥४८॥ याका अर्थ-स्वार्थानुमान परार्थानुमान ऐसे भेदकरि दोय प्रकार है । अपनी अर परकी जो अनुमानविर्षे अन्यथा मानि ताका दूर होना याका फल है तातै दोय ही प्रकार है ऐसा अभिप्राय जाननां ॥४८॥ आज स्वार्थानुमानके भेदकू कहैं हैं; स्वार्थमुक्तलक्षणम् ॥४९॥ याका अर्थ-" साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं " ऐसा पूर्व अनुमानका लक्षण कया था सो ही स्वार्थानुमान जाननां ॥ ४९ ॥ आगें दूसरा अनुमानका भेदकू दिखावते संते सूत्र कहैं हैं;परार्थ तु तदर्थपरामर्शिवचनाज्जातम् ॥ ५० ॥ याका अर्थ-तिस स्वार्थानुमानका जो अर्थ साध्यसाधन है लक्षण जाका तिसकू जो अपनां विषय करै प्रगट करै ऐसा जाका स्वभाव होय सो तदर्थपरामर्शी कहिये ऐसा जो वचन तिसौं उपज्या होय ज्ञान सो परार्थानुमान है। इहां नैयायिक कहै है-पंचावयवरूप वचनात्मक परार्थानुमान प्रसिद्ध है सो इहां स्वार्थानुमानका अर्थका प्रतिपादक वचनकरि उपज्या ज्ञानकू परार्थानुमानपणां कहता जो आचार्य सो तिस- वचनकू कैसे ग्रहण न किया ? ताका समाधान करै है-जो हि.प्र. ८ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित ऐसें न कहनां, जाते वचन तौ अचेतन है सो अचेतनकै साक्षात् प्रमिति जो प्रमाणका फल ताका कारणपणां नांही है, तातें मुख्य प्रमाणपणांका अभाव है, बहुरि मुख्य अनुमानके कारणपणांत तिस वचनकै उपचरित अनुमानका व्यपदेश कहिये नाम कहनां सो नाहीं निवारण कीजिये है ॥ ५० ॥ आगें परार्थानुमानके वचनकै जो कह्या उपचारकरि परार्थानुमानपणां सो ही आचार्य सूत्रकरि कहैं हैं; तद्वचनमपि तद्धतुत्वात् ॥ ५१ ॥ याका अर्थ-तिस परार्थानुमानका वचन है सो भी परार्थानुमान है जारौं ज्ञानरूप जो परार्थानुमान ताका कारण है । इहां ऐसा जाननांजो उपचार है सो मुख्यका अभाव होते प्रयोजन अर निमित्त होते प्रवर्ते है । तहां वचनकै मुख्य अनुमानपेणांका तौ अभाव है अर तिसका कारणपणां है सो ही परार्थानुमानपणांविषै निमित्त है तातें परार्थानुमानका प्रतिपादक वचन भी परार्थानुमान है ऐसा संबंध करना, जाते कारणविर्षे कार्यका उपचार होय है। अथवा परार्थानुमानका प्रतिपादक जो वक्ता ताका अनुमान सो है कारण जाकू ऐसा परार्थानुमानका वचन सो भी अनुमान है ऐसा संबंध करनां, इस पक्षविर्षे कार्यवि. कारणका उपचार होय है । बहुरि वचनकै अनुमानपणां कहतें प्रयोजन ऐसा जो अनुमानके प्रतिज्ञा आदि अवयव हैं तिनिका शास्त्रवि व्यवहार है सो ही प्रयोजन है जाते ज्ञानस्वरूप अनुमान निरंश है अभेदरूप है । तातें अवयवरूप भेदका व्यवहार नाही कियाजाय है वचनकरि अवयवनिका प्रयोगरूप व्यवहार प्रवर्ते है ॥ ५१ ॥ __ आगैं सो एसैं 'साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं' ऐसा अनुमानका सामा. य लक्षण है सो ही अनुमान दोय प्रकार है ऐसैं तिसके प्रकार विस्ता Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । ११५ रसहित कहकर अब साधन है सो लक्षण कह्या ताकी अपेक्षा एक तौऊ अतिसंक्षेपकरि भेदरूप किये दोय प्रकार हैं, ऐसें कहैं हैं;स हेतुर्द्वधोपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ॥ ५२ ॥ याका अर्थ — सो हेतु दोय प्रकार है; उपलब्धि अनुपलब्धि ऐसे दो भेद । याका अर्थ सुगम है । जो पदार्थ विद्यमान भावरूप ग्रहणमैं आवै सो उपलब्धि कहिये, बहुरि जो पदार्थ ग्रहण मैं नांही आवै अभावरूप सो अनुपलब्धि कहिये ॥ ५२ ॥ आर्गै अन्यवादी कहै है—जो उपलब्धि है सो विधिहीका साधक है बहुरि अनुपलब्धि है सो प्रतिषेधहीका साधक है ऐसा नियम है; तहां आचार्य तिसके नियमकूं निषेध करता संता उपलब्धिकै अर अनुपलब्धिकै अविशेषकर विधिप्रतिषेधका साधकपणां है, ऐसे कहें हैं; उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ॥ ५३ ॥ याका अर्थ —— उपलब्धि है सो विधि अर प्रतिषेध दोऊनिकी साधक है, बहुरि अनुपलब्धि भी तैसैं ही दोऊनिकी साधक है । याका अर्थ पहले कह्या सो ही है ॥ ५३ ॥ आमैं अब उपलब्धिका भी संक्षेपकरि विरुद्ध अविरुद्ध भेदतैं दोय प्रकारपणां दिखावते संते अविरुद्ध उपलब्धिकै विधिसाध्य होतैं विस्तारतैं भेद कहैं हैं; अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा व्याप्यकार्यकारणपूर्वीत्तरसहचरभेदात् ॥ ५४ ॥ याका अर्थ — अविरुद्धोपलब्धि कहिये साध्य विरुद्ध नांही ऐसी जो प्राप्ति सो विधि कहिये वस्तुका सद्भाव ताकूं साधै ऐसी छह प्रकार है । साध्यतैं व्याप्यस्वरूप, साध्यका कार्य, साध्यका कारण, साध्यत Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित पूर्वै प्रवर्ते, साध्यतैं पीछें दीखै, साध्यकै साथि ही रहै, ऐसें छह भेद हैं । इहां सूत्रविषै समास ऐसें करनां - पूर्व, उत्तर, सह, इनि तीन शब्दनिका द्वन्द्वसमासकरि पीछें चर शब्द करनां सो द्वंद्वतैं चरशब्द प्रत्येककै लगावणां, तब पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर ऐसा होय । पीछें व्याप्य आदिकार द्वंद्व करनां तातैं पूर्वोक्त अर्थ भया ॥ ५४ ॥ इहां सौगत कहिये बौद्धमती सो कहै है – विधिका साधन दोय प्रकार ही है, स्वभाव अर कार्य ऐसें । बहुरि कारणकै तौ कार्य अविनाभावका अभाव है तातैं साध्यका लिंग नांही जातैं कारण हैं ते कार्यसहित अवश्य होय नाही ऐसा वचन है । बहुरि इहां कहोगे जो - जा कारणका सामर्थ्य काहूतें रुकैं नांही ऐसा कारण है सो कार्य प्रति गमक होय है सो ऐसा कहनां न बनेगा जातें सामर्थ्य तौ इन्द्रियगोचर नांही जो कारण मैं विद्यमान भी है तौ ताका निश्चय होय सकै नाही ? ताका समाधान आचार्य करें हैं—ऐसा कहनां विना विचारे है, ऐसें दिखावनेकूं सूत्र कहैं हैं;-- रसादेक सामग्र्यनुमानेन रूपानुमानामिच्छाद्भरिष्टमेव किंचित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबंधकारणान्तरावैकल्ये ॥ ५५ ॥ 1 याका अर्थ — आस्वादमैं आया जो रस तातैं तिसके उपजावनहारी फल आदि सामग्री ताका अनुमान कीजिये है । पीछें तिस अनुमानतें रूपका अनुमान होय है ऐसैं मानता जो बौद्धमती ताकरितानैं किछु कारणकूं हेतु मान्यां ही ? जिस कारणविर्षे सामर्थ्यका रोकनेवाला न होय तथा सहकारी अन्यकारणका विकलपणां न होय, समस्त सहकारी आय मिलै तिस कारणकै कार्य जो साध्य ता प्रति गमकपणां होय है, जातैं पहला रूपका क्षण है सो अपनां सजातीय जो Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । पिछलारूपका क्षणस्वरूप कार्य ताहि करता संता ही रूप” विजातीय जो रस तिसस्वरूप कार्यकू करै है, ऐसैं रसौं रूपका अनुमानकू इष्ट करता मानता जो बौद्धमती सो किस ही कारणकं हेतु इष्ट करै ही हैमानैं ही है, जातै पहला रूपका क्षण है तातें अपनां सजातीय रूपका दूसरा क्षणकै व्यभिचार नाही है, उत्तर क्षणनामा कार्यकू उपजावै ही है। जो ऐसैं न मानें तो रसके ही काल रूपकी प्राप्तिका अयोग ठहरे। बहुरि अंत्यक्षण प्राप्त भया जो कारण तथा अनुकूलमात्रहीकू नाही लिंग मानिये है । जाकरि मणिमंत्र आदिकरि जाकी सामर्थ्य रुकनेरौं तथा अन्य सहकारी कारणका सकलपणां न होनेंतें कार्य नांहीं उपजावै तब कारणनामा हेतुकै व्यभिचारीपणां आवै । अर दूसरे क्षण कार्य प्रत्यक्ष देखिकरि कारण मानि तिस कारणनै अनुमान करिये तब अनुमानकै अनर्थकपणां आवै । हमनैं तौ कार्यतै अविनाभावीपणांकरि निश्चय किया ऐसा जो छत्र आदि कारण ताकू छाया आदिका लिंगपणांकरि अंगीकार किया है । जहां जाकी सामर्थ्य तौ काहूकरि रुकै नांही अर सहकारी अन्यकारणका सकलपणां होय कोई सहकारी घटता न होय ऐसा निश्चयनै कारण• हेतु मान्यां है सो तिस ही कारणकै लिंगपणां है, अन्य जामैं व्यभिचार दीखै सो कारण हेतु नांहीं है तातें बौद्ध कहै सो दोष नांहीं है। ___ इहां भावार्थ यह-जो बौद्धमती कारणकू तौ हेतु कहै नांही अर मानैं ऐसैं जो काहूनै अंधारेमैं विजोरा आदि फलका रस चाख्या तब ताका अनुमान भया जो यह रस विजोरा आदिका है। पीछे तिस विजोरा आदि कारणनै ताके रूपका अनुमान किया सो ऐसे अनुमानमैं तौ कारण हेतु आया ही, अर यामैं व्यभिचार भी नांहीं । जातै सर्व तत्वकू क्षणिक मानि ऐसैं कहै है-पहला क्षण तौ कारण है अर उत्त Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित क्षण ताका कार्य है सो पहले रूपकै क्षण पिछला रूपक्षणकूं उपजाया तैसें ही पहलै रसकै क्षण पिछले रसक्षणकूं उपजाया ऐसैं दोऊ समानकाल कारण अर कार्य भये । तहां कारणतैं कार्यका अनुमान निर्व्यभिचार होय है । ऐसा नांही — जो प्रथमक्षण दूजे क्षणका अनुकूलमात्र ही कारण है जातैं इहां तिसकी सामर्थ्यका रोकनेवाला कोई नाही अर सहकारीकी घटती नांही; अथवा अन्त्यक्षणमात्र नांही जातैं कार्य न उपजै । अर अब कार्य अवश्य उपजै तब व्यभिचार काहेका ? ऐसें जामैं व्यभिचार नांही सो कारण हेतु अवश्य माननां योग्य है ॥५५॥ आगैं अब पूर्वचर अर उत्तरचर हेतुका स्वभाव, कार्य, कारणनामा, हेतुनिविषै अन्तर्मात्र नांही, तातैं न्यारे ही भेद हैं, ऐसें दिखावै हैं; - न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ॥ ५६ ॥ याका अर्थ — पूर्वचर अर उत्तरचर हेतुकै तादात्म्य अर तदुत्पत्ति ही है इनकै कालका व्यवधान है— कालका बीच मैं अंतर है, सो जहां कालव्यवधान होय तहां तादात्म्य अर तदुत्पत्तिकी प्राप्ति है । तादात्म्य तौ स्वभाव अर स्वभाववान्‌कै कहिये अर तदुत्पत्ति कार्य कारणकै कहिये । भावार्थ साध्यसाधनकै तादात्म्यसंबंध होतें स्वभाव हेतुविषै अंतर्भाव होय, अर तदुत्पत्तिसंबंध होतें कार्य अथवा कारणविषै अन्तर्भाव होय । सो पूर्वचर उत्तरचर हेतुकै अंतर है ता दोऊ ही संबंध नांही, तातैं स्वभाव कार्य कारण मैं इनिका अन्तर्भाव न होय, जो सहभावी होय तिनिकै ही तादात्म्य संबंध होय, अर अनंतर होय तिनिकै ही हेतु कहिये कारण अर फल कहिये कार्य ऐसा भाव होय, कालके अन्तरमैं ते दोऊ ही भाव नांही ॥ ५६ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। इहां तर्क करै है जो-कालका व्यवधान कहिये अंतर होतें भी कार्यकारणभाव देखिये है जैसैं जागताकी दशाका ज्ञानकै अर सोयकरि फेरि जागताकी दशाका ज्ञानकै कार्यकारणाभाव है, तथा मरणकै अर पहले आवते अरिष्टकै कार्यकारणभाव है, ऐसा तर्कका परिहारकै अर्थि सूत्र कहै है; भाव्यतीतयोमरणजाग्रबोधयोरपि नारिष्टोडोधौ प्रति हेतुत्वम् ॥ ५७ ॥ __याका अर्थ-आगामी होगा ऐसा तौ मरण अर पहले जागै था ताका अतीतज्ञान इनि दोऊनिकै मरणकै पहलै आया जो अरिष्ट अर सूतां पीछे जाग्याकी अवस्थाका ज्ञान इनिकै कारणकार्यभाव नाही है । अरिष्ट तौ आवै अर मरण होय तथा नाही भी होय अर सूता जागै तब पूर्वली बात यादि आवै तथा नाही यादि आवै ॥ ५७ ॥ याहीका समर्थन करें हैं; तदयापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ॥ ५८॥ ___याका अर्थ-इहां 'हि' शब्द हेतु अर्थमैं है तातैं यह अर्थ है जातें तिस कारणके सद्भाव होते कार्यका होना है सो कार्यमैं है सो कारणके व्यापारकै आश्रय है, तातैं जो पूर्व कहे जाग्रत्दशा अर प्रबोधदशाका ज्ञान अर मरण अर अरिष्ट इनिकै तौ कारणकै अर कार्यकै कालका अंतर है तहां कारणकै व्यापारका आश्रय काहेका ? तातै कार्यकारणभाव नाही है । इहां यह अर्थ-जो अन्वय व्यतिरेककरि निश्चयरूप सर्वत्र कार्यकारणभाव है सो ये दोऊ कार्य प्रति कारणके व्यापारकी अपेक्षा लिये ही होय है जैसैं कुंभकारकै कलश प्रति होय है । जो कुंभकार होय तौ कलश होय न होय तौ न होय तैसैं है । सो जे अतिव्यव Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित हित कालके अंतरसहित होय तिनिविर्षे कारणका व्यापारका आश्रितपणां कहां ? भावार्थ-ऐसा तर्क किया जो कोई पुरुष रात्रिकू जागते कार्य विचारि सूता पी, प्रभात जाग्या तब जो विचाया था सो यादि आया तहां पहली अवस्थाका ज्ञान पीछली अवस्थाका ज्ञानकू कारण भया । बहुरि मरणकै पहले अरिष्ट आवै है तिनिळू मरण कारण है। ऐसे कालके अंतर होतें भी कार्यकारणभाव होय है । ताका समाधान आचार्य किया—जो ऐसैं नही जाते कार्य है सो कारणके व्यापारकै आश्रय है सो जिनिकै कालका अंतर है तिनिकै कारणका व्यापारका आश्रय कहांतें होय । कार्य-कारणकै तौ अन्वयव्यतिरेकपणां है । जो कारण होय तौ कार्य होय ही होय, कारण न होय तो कार्य न होय । सो जहां कालका अन्तर होय तहां कारणके व्यापारका आश्रय कार्यकै संभवै नांही, बिना व्यापार कार्य होय नाही, ऐसा जाननां ॥ ५८॥ ___ आगैं सहचर हेतुकै भी स्वभाव कार्य कारण हेतुनिीवर्षे अंतर्भाव नांही है, ऐसा दिवावै है ; सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहो. त्पादाच ॥ ५९॥ याका अर्थ-जे सहचारी एककाल लारा रहैं हैं तिनिकै भी तादात्म्य अर तदुत्पत्ति नाही होय है जानै परस्पर स्वरूपभेदकरि परिहार पाइए है अर एक काल दोऊका उत्पाद है। तारौं व्याप्यव्यापकभाव अर कार्यकारणभाव नाही है तातें न्यारा ही हेतुपणां है । इहां यहु अभिप्राय है-परस्पर परिहारकरि जिनिका ग्रहण होय है तिनिकै तादात्म्य नाही तातें तो स्वभावहेतुविौं अन्तर्भाव नाही । अर जिनिकी साथ उत्पत्ति है तिनिका कार्यवि तथा कारणविर्षे अन्तर्भाव नाही जाते एककाल वत्तै जिनिकै कार्यकारणभाव नाही है, जैसैं गऊकै बावां दा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १२१ हिणां सींग है तिनिकी साथ उत्पत्ति है परस्पर कार्यकारणभाव नाही तैसैं जाननां । बहुरि एककाल उप● तिनिकै कार्यकारणभाव मानिये तौ कार्यकारणकै प्रति नियमका अभावका प्रसंग आवै । इहां एक वस्तुवि. दोय भाव तिष्ठें तौऊ तिनिकै स्वरूपभेदतै तादात्म्य न (2) कहिये, जैसैं रूप-रसमैं स्वरूप भेद है अर एकवस्तुमैं दोऊ है ही । बहुरि जिनिकै साथ उत्पाद नांही ऐसे धूम अग्नि आदि तिनिकै कार्यकारणभाव है ही। तातैं सहचर न्यारा ही हेतु है ॥ ५९॥ ___ आगैं अब कहे हेतुनिके उदाहरण कहैं हैं । तहां पहले क्रममैं आया जो व्याप्यनामा हेतु ताहि उदाहरणरूप करते संते कहे जे अन्वय व्यतिरेक तिनिकू प्रधानकरि शिष्यके आशयके वश” कहे जे अनुमानके प्रतिज्ञादिक पांच अवयव तिनिकू दिखावै है; परिणामी शब्दः कृतकत्वात्, य एवं स एवं दृष्टो यथा घटः, कृतकश्वायं, तस्मात्परिणामीति, यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा वंध्यास्तनंधयः, कृतकवायं, तस्मात्परिणामी ॥६॥ ___याका अर्थ-शब्द है सो परिणाभी है यह तौ प्रतिज्ञा है, जातें कृतक है यहु हेतु है, जो कृतक है सो परिणामी देखिये है जैसैं घट है यहु अन्वयव्याप्तिपूर्वक उदाहरण है, बहुरि यहु शब्द कृतक है यह उपनय है, तातै परिणामी है यहु निगमन है । ऐसें तौ अन्वयव्याप्तिकरि पंच अवयव दिखाये, बहुरि जो परिणामी नाही है सो कृतक नाही देखिये है जैसैं बांझका पुत्र यहु व्यतिरेकव्याप्तिपूर्वक उदाहरण है । अरु यहु शब्द कृतक है तातै परिणामी है। ये व्यतिरेकव्याप्तिकार दिखाये ते पांचूं ही समझनें । इहां अपनी उत्त्पत्तिविर्षे जो परके व्यापारकी अपेक्षा करै ऐसा भाव होय सो कृतक कहिये । सो ऐसा कृतक. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित पर्णा कूटस्थ जो सदाकाल एक अवस्थारूप रहै ऐसा नित्यपक्षविर्षे नांही बण है। बहुरि क्षणिक जो समय समय अन्य अन्य ही होय ताविर्षे भी नांही बण है, तातै परिणामीपणां होते ही बणै है ऐसैं आगें कहसी । इहां परिणामीकी निरुक्ति ऐसी जो पूर्व आकारका तौ परिहार उत्तर आकारकी प्राप्ति अर दोऊमैं स्थिति ऐसा जाका लक्षण सो परिणाम, सो जाकै होय सो परिणामी कहिये । बहुरि कृतकका ऐसा स्वरूप कहनेंतें कार्यपणांका कोई स्वरूप कहै जो स्वकारणसत्तासमवायकू कार्यत्व कहिये, तथा अभूत्वाभावित्वकू कार्यत्व कहिये, तथा 'अक्रियादर्शिनोऽपि कृतबुद्धयुत्पादकत्वं' ऐसा कहै, तथा 'कारणव्यापारानुविधायित्वं' ऐसा कहै, ते सर्व निराकरण किये । कृतकका ऐसा ही अर्थ सर्वत्र जाननां । ऐसैं कृतकपणां हेतु है सो शब्दकै परिणामीपणांकू साधै है, सो परिणामीपणांतें व्याप्य है तातें व्याप्यनामा हेतु भया॥६॥ आरौं कार्यहेतुकू कहैं हैं;__ अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिाहारादेः ॥ ६१ ॥ याका अर्थ-या प्राणीविर्षे बुद्धि है जाते याकै वचनादिककी प्रवृत्ति है । इहां आदि शब्दतै व्यापार आकारविशेष आदि लेनें । वचनादिकी चतुरता आदि बुद्धि विना होय नाही । ऐसें बुद्धिका कार्य वचनादिक हैं ते बुद्धिनामा कारण जो साध्य ताकू साधैं हैं तातै कार्यनामा हेतु भया ॥६१॥ आगें कारणहतुकू कहैं हैं: अस्त्यत्र छाया छत्रात् ॥ ६२ ॥ याका अर्थ-इहां छाया है जाते छत्र देखिये है। काहू जायगां छत्र देख्या तब जाणीं जो याकै नीचें छाया भी है, जहां छत्र है तहां Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। छाया भी होय ही । ऐसैं छत्रनामा कारणहेतु छायानामा साध्यकू साधै है तातें कारणहेतु भया ॥ ६२ ॥ आग पूर्वचर हेतुकू कहैं हैं; उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात् ॥ ६३ ॥ याका अर्थ-रोहिणी नक्षत्र उगिसी जातें कृत्तिका नक्षत्रका उदय देखिये है । इहां 'मुहूर्तान्ते' ऐसा सम्बंध करनां जातें ऐसा नियम है जो कृत्तिकाका उदय भये पीछ एक मुहूर्तमैं रोहिणीका उदय होय है। सो पहले कृत्तिकाका उदय देख्या तब जानी रोहिणी एक मुहूमैं अवश्य उगिसी, ऐसा पूर्वचर हेतु कृत्तिकाका उदय भया ॥६३॥ आगैं उत्तरचर लिंगकू कहैं हैं; उद्गाद्भरणिः प्राक्तत एव ॥ ६४ ॥ ___याका अर्थ-भरणी नक्षत्रका उदय पहले भया जातें कृत्तिकाका उदय देखिये है । इहां मुहूर्ततें पहलैं ऐसा संबंध करनां । काहू. कृत्तिका नक्षत्रका उदय देखिकरि जान्यां जो यातैं मुहूर्त पहले भरणीका उदयका नियम है सो वह भी उदय पहले भया है । यहु भरणीके उदय पीछे उदय है तातें उत्तरचर हेतु कहिये ॥ ६४ ॥ आरौं सहचर लिंगकू कहैं हैं; अस्त्यत्र मातुलिंगे रूपं रसात् ॥ ६५ ॥ याका अर्थ-इस मातुलिंग कहिये विजोराकैविौं रूप है जाते रस है । काहू. अंधारेमैं मातुलिंगका रसका स्वाद लिया तब जान्यां यह मातुलिंग है तामैं रूप भी है । इहां रस हेतु है सो रूप” सहचर. है । ऐसैं अविरुद्धोपलब्धि हेतुके छह भेद कहे ॥६५॥ आ विरुद्धोपलब्धिकू कहैं हैं; Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथा ॥६६॥ याका अर्थ—साध्यतै विरुद्ध जे पदार्थ तिनिसंबंधी जे व्याप्य कार्य कारण पूर्वचर उत्तरचर सहचर तिनिकी उपलब्धि है सो प्रतिषेध साध्यविौं तथा कहिये पूर्वोक्त प्रकार ही छह भेद रूप है ॥६६॥ आगें तहां साध्यविरुद्धव्याप्य उपलब्धिकू कहैं हैं; नास्त्यत्र शीतस्पर्श औष्ण्यात् ॥ ६७ ॥ याका अर्थ-इस जायगां शीतस्पर्श नांही है जातें उष्णपणां है, इहां शीतस्पर्श साध्य है सो प्रतिषेधरूप है तातै विरूद्ध अग्नि है तिसतें व्याप्यस्वरूप उष्णपणां है सो शीतस्पर्शसे विरुद्ध व्याप्योपलब्धिहेतु है ॥ ६७ ॥ आणु विरुद्ध कार्यका उपलंभ कहैं हैं; नास्त्यत्र शीतस्पर्शी धूमात् ॥ ६८॥ याका अर्थ-इहां शीतस्पर्श नांही है जातें धूम है । इहां भी प्रतिषेधरूप साध्य शीतस्पर्श ता” विरुद्ध अग्नि है ताका कार्य धूम है सो हेतु है शीतस्पर्शका प्रतिषेधकू साधै है सो साध्यविरुद्धकार्योपलब्धि हेतु भया ॥६८॥ आणु विरुद्ध कारणकी उपलब्धि कहैं हैं;नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥६९॥ याका अर्थ-इस प्राणीविौं सुख नाही है जाते याके हृदयमैं शल्य है । इहां सुखका विरोधी जो दुःख ताका कारण जो हृदयशल्य सो हेतु है सो सुखके प्रतिषेधकू साधै है । सो प्रतिषेध साध्यवि विरुद्ध कारणोपलब्धि हेतु भया ॥ ६९ ॥ आणु विरुद्ध पूर्वचर हेतुकू कहैं हैं; Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १२५ नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदयात् ॥ ७० ॥ याका अर्थ---इस मुहूर्त्तके अन्तमैं रोहिणी नाही उगैगा जारौं खेतीका उदय है। इहां रोहिणीके उदयत विरुद्ध जो अश्विनीका उदय ताकै पूर्वचर रेवतीका उदय हेतु है सो रोहिणीके उदयका प्रतिषेधकू साधै है, सो विरुद्धपूर्वचर हेतु भया ॥७०॥ . आज विरुद्ध उत्तरचर लिंगकू कहैं हैं; नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात्पूर्व पुष्योदयात् ॥ ७१ ॥ याका अर्थ-भरणी नाही उगी है मुहूर्ततें पहली, जातै पुष्यका उदय है । इहां भरणीके उदयतें विरुद्ध पुनर्वसुका उदय है ताकै उत्तचर पुष्यका उदय हेतु है सो भरणीका उदयका प्रतिषेधकू साधै है, सो विरुद्ध उत्तरचर हेतु भया ॥७१॥ आ विरुद्ध सहचर हेतुकू कहैं हैं;नास्त्यत्र भित्ती परभागाभावोऽर्वाग्भागदर्शनात् ॥७२॥ ___याका अर्थ-या भीतिविर्षे परले भागका अभाव नांही है जाते वैला एक भाग देखिये है । इहां परले भागका अभावकै विरुद्ध जो तिस परले भागका सद्भाव ताकै सहचर जो वैलाभाग ताका दर्शन सो विरुद्ध सहचर हेतु है । ऐसैं विरुद्धोपलब्धि हेतुके छह भेद कहे ॥७२॥ ___ आगैं साध्यतै अविरुद्ध जो अनुपलब्धि कहिये अप्राप्ति ताके भेद कहैं हैं; अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलंभभेदात् ।। ७३॥ याका अर्थ—साध्यतै अविरुद्धकी अनुपलब्धि सो प्रतिषेधविर्षे सात प्रकार है;-स्वभाव, ब्यापक, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित - सहचर, इनि भेदनि । इहां स्वभाव आदि पदनिका द्वंद्व समास है, तिनिका अनुपलंभ ऐसें पीछें षष्ठीतत्पुरुष समास है ॥ ७३ ॥ आगैं स्वभावानुपलंभका उदाहरण कहैं हैं; --- नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धेः ॥ ७४ ॥ याका अर्थ-या पृथिवीतलविषै घट नांही है जातैं अनुपलब्धि है, दीखै नांही है । इहां कोई पिशाच काहूकूं दीखै नांही तथा परमाणु आदि सूक्ष्म वस्तु काकूं दीखें नांही अर तिनिका नास्तित्व है नांही तातें हेतुकै व्यभिचार आवै है तो ताके परिहारकै अर्थ इहां उपलब्धिलक्षण प्राप्तपणां कहिये दृश्यपणां जामैं है अरु दीखै नांही है, हेतुका ऐसा विशेषणकरि लेणां । इहां केवल भूतल घटरहितस्वभाव है सो ही अनुपलब्धि है सो प्रतिषेधस्वरूप जो घट ताकै अविरुद्ध है सो 'घटके प्रतिषेधकं साधै है, तातैं स्वभावानुपलंभ हेतु भया ॥ ७४ ॥ आगैं व्यापकानुपलब्धि हेतुकूं कहें हैं; नास्त्यत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेः ॥ ७५ ॥ याका अर्थ — इस क्षेत्र मैं शीसूं नांही है जातैं वृक्षकी अनुपलब्धि हैवृक्ष दीखै नांही । इहां वृक्ष व्यापक है ताके अभाव होतैं तिसके व्याप्य शीसूं है ताका भी अभाव है सो वृक्षकी अनुपलब्धि शीसूंके प्रतिषेधकूं साधै है, तातैं व्यापकानुपलब्धि हेतु है ॥ ७५ ॥ आ कार्यकी अनुपलब्धिकूं कहैं हैं; - नास्त्यत्राप्रतिबद्धसामर्थ्योऽग्निर्धूमानुपलब्धेः ॥७६॥ याका अर्थ — इस जायगां नांही रुकै है सामर्थ्य जाका ऐसी अग्नि नांही है जातै धूमकी अनुपलब्धि है । इहां अग्निका कार्य धूम है सो अग्निका विशेषण किया जो अप्रतिबद्ध सामर्थ्य सो इस विशेषणतैं घूम Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ! १२७ नामा कार्यकू अवश्य निपजावै ऐसी अग्निका प्रतिषेध है सो साध्य है। इहां धूमनामा कार्य दीखै नाही, यह हेतु अग्निके प्रतिषेधकू साधै है । तारौं कार्यानुपलब्धिनामा हेतु भया ॥ ७६ ॥ आगैं कारणका अनुपलंभकू कहैं हैं; नास्त्यत्र धूमोऽनग्नेः ॥ ७७॥ याका अर्थ-इस जायगां धूम नांही है जाते अग्नि नाही है । इहां अग्नि धूमका कारण है सो ताकी अनुपलब्धि” धूमका प्रतिषेध साध्या है, तातैं कारणानुपलंभ हेतु भया ॥ ७७ ॥ __ आगें पूर्वचरकी अनुपलब्धिकू कहैं हैं; न भविष्यति मुहूर्तान्ते शकटं कृत्तिकोयानुपलब्धेः ॥ ७८॥ याका अर्थ-मुहूर्त्तके अंतमैं रोहिणीका उदय न होसी जातें कृत्तिकाका उदयकी अनुपलब्धि है, नांही दीखै है । इहां मुहूर्त्तके अंतमैं रोहिणीका उदयका प्रतिषेध साध्य है ताका कृत्तिकाके उदयका अनुपलंभ पूर्व चरानुपलब्धि हेतु है ॥ ७८ ॥ आगें उत्तरचरकी अनुपलब्धिकू कहैं हैं;नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात्प्राक्तत एव ॥७९॥ याका अर्थ-मुहूर्त पहली भरणि नाही उगी है जातें कृत्तिकाका उदयकी अनुपलब्धि है । इहां मुहूर्त पहली भरणिके उदयका प्रतिषेध साध्य है ताका कृत्तिकाका उदयकी अनुपलब्धि हेतु है सो उत्तरचरानुपलब्धि हेतु भया ॥ ७९ ॥ आU सहचरकी अनुपलब्धिका अवसर है, सो कहै है;नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामो नामानुपलब्धेः॥८॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित याका अर्थ-इस बराबर ताखड़ीकैविर्षे डांडी एक वोर ऊंची नाही है जानैं दूसरी वोर नींची डांडीकी अनुपलब्धि है । एक वोर नीचापणां एक वोर ऊंचापणां सहचर हैं तिनिमैं एकका निषेध साध्य एकका निषेध हेतु भया, सो सहचरानुपलब्धि हेतु है ॥८०॥ आणु विरुद्ध कार्य आदिककी अनुपलब्धि विधि विौं संभवै है ताके भेद तीन ही हैं, तिनिकू दिखावनेकू कहैं हैं; विरुद्धानुपलब्धिर्विधी त्रेधा विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिभेदात् ॥ ८१ ॥ __याका अर्थ-साध्यतै विरुद्धकी अनुपलब्धि सो विधिसाध्यविर्षे तीन प्रकार है; विरुद्धकार्यानुपलब्धि कहिये साध्यतै विरुद्ध पदार्थका कार्यका अभाव, बहुरि विरुद्धकारणानुपलब्धि कहिये साध्यतै विरुद्ध पदार्थका कारणका अभाव, बहुरि विरुद्धस्वभावानुपलब्धि कहिये साध्यतै विरुद्ध पदार्थका स्वभावका अभाव, इनि भेदनितें ॥ ८१ ॥ आशैं तिनिमैं विरुद्धकार्यानुपलब्धिकू कहैं हैं;यथास्मिन् प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेष्टानुपलब्धेः॥ ८२ ॥ __याका अर्थ;—इस प्राणीविषै रोगका विशेष है जानैं नीरोग चेष्टा कि यावि अनुपलब्धि है। इहां व्याधिविशेषका सद्भाव साध्य है तिसतै विरोधी व्याधिविशेषका अभाव है ताका कार्य नीरोग चेष्टा ताकी अनुपलब्धि हेतु है, सो विरुद्ध कार्यकी अनुपलब्धिनामा हेतु भया॥८२॥ आणु विरुद्धकारणकी अनुपलब्धिकू कहैं हैं;अस्त्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् ॥८३॥ याका अर्थ-इस प्राणीविर्षे दुःख है जाते इष्ट संयोगका याकै अभाव है । इहां दुःखके विरोधी सुख ताका कारण इष्टसंयोग ताकी Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला | १२९ अनुपलब्धि हेतु है सो दुःखके सद्भावकूं इष्टसंयोगका अभाव साधै है, तातैं विरुद्धकारणानुपलब्धि हेतु भया ॥ ८३ ॥ आगैं विरुद्धस्वभावानुपलब्धिकूं कहैं हैं; - अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तस्वरूपानुपलब्धेः ॥८४॥ याका अर्थ — वस्तु है सो अनेकान्तस्वरूप है जातैं एकांतस्वरूपकी अनुपलब्धि है । इहां अनेकान्तात्मकका विरोधी नित्य आदि एकान्त है सो लेनां बहुरि तिसका ज्ञान नांही लेनां जातैं एकान्तका ज्ञानकै तौ मिथ्याज्ञानरूपपणांकरि उपलभका संभव है । एकान्तका स्वरूप अवस्तुभूत है ताकी अनुपलब्धि हेतु है सो वस्तुकूं अनेकान्तस्वरूप साधै है, तातैं विरुद्धस्वभावानुपलब्धि हेतु भया ॥ ८४ ॥ आगे पूछे है कि व्यापकविरुद्ध कार्यादिकका बहुरि परंपराकरि अविरोधी कार्यादि लिंगनिका बहुलताकरि उपलंभका संभव है सो ते भी आचार्य उदाहरणरूप किये नांही ? ऐसी आशंका होतैं सूत्र कहैं हैं; परम्परया संभवत्साधनमत्रैवान्तर्भावनीयम् ||८५॥ याका अर्थ — परंपराकरि जे साधन कहिये हेतु संभवते होंहि ते इन कार्य आदि हेतुनिविषै ही अन्तर्भाव करनें ॥ ८५ ॥ आगैं तिस ही हेतुके उपलक्षणकै अर्थ दोय उदाहरण दिखावैं हैं;अभूत्र चक्रे शिवकः स्थासात् ॥ ८६ ॥ याका अर्थ — इस चाकविर्षे शिवक पहले हुवा है जातैं स्थास देखिय है । इहां ऐसा भावार्थ- जो कुंभार चाकपरि माटीका पिंड धरि वासण बणावै है तब पिंडके आकार अनुक्रमतें करे है, तिनकी संज्ञा हि. प्र. ९ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित ऐसी-शिवक, छत्रक, स्थास, कोश, कुसूल इत्यादि, सो इहां काहू. स्थास देख्या तब जान्यां जो इहां पहले शिवक भया था ॥ ८६ ॥ सो इस हेतुकी संज्ञातौ कही अर अन्तर्भाव कौनमैं भया ऐसी आशंका हो” कहैं हैं; कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ॥ ८७ ॥ .. याका अर्थ- यह कार्यका कार्य है सो अविरुद्ध कार्योपलब्धिविर्षे अंतर्भाव करनां । इहां सूत्रविर्षे 'अन्तर्भावनीयं' ऐसा उपरले सूत्र" संबंध करनां । पहले शिवककार्य छत्रक भया ताका कार्य स्थास भया सो याकू अविरुद्धकार्यकी उपलब्धिविर्षे अन्तर्भूत करनां ।। ८७ ॥ आरौं दृष्टान्तद्वारकरि दूसरा उदाहरण कहैं हैं; नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिसंशब्दनात्, . कारणविरुद्धकार्य विरुद्धकार्योपलब्धौ यथा ॥ ८८॥ याका अर्थ-इस पर्वतकी गुफाविर्षे मृगका क्रीडन नांहीं है जातें नाहर बोले है । इहां कारणविरुद्ध कार्य है सो विरुद्धकार्यकी उपलब्धिविर्षे अन्तर्भूत करनां । यह सूत्र पहले सूत्रका दृष्टांतरूप है, जैसैं इहां अन्तर्भाव तैसैं पहले सूत्रमैं जानना जातै मृगक्रीड़ाका कारण मृग है ताका विरोधी मृगारि कहिये नाहर है तिसका कार्य संशब्दन कहिये बोलना है सो मृगकी क्रीड़ाके अभावकू साधै है, तातें हेतु है। जैसैं विरुद्धकार्यकी उपलब्धिविर्षे अन्तर्भूत होय है तैसैं पहले कह्या सो तिसमैं अन्तर्भूत जाननां ।। ८८॥ • आ बाल कहिये अल्पज्ञ ताकै ज्ञान करनेकै आर्थ पांच अवयवनिका प्रयोग है ऐसैं कह्याथा सो जो व्युत्पन्न होय ज्ञानवान होय न्याय Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १३१ शास्त्रवि प्रवीण होय, तिस प्रति प्रयोगका नियम कैसे हैं; ऐसी आशंका होतें सूत्र कहैं हैं,व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथानुपपत्यैव वा ॥८९॥ ___ याका अर्थ-न्यायशास्त्रकै विर्षे प्रवीण जो व्युत्पन्न ता प्रयोग कीजिये सो दोय ही प्रकार है-एक तौ तथोपपत्ति कहिये साध्य होते ही हेतुकी उपपत्ति है, दूसरा अन्यथोपपत्ति कहिये साध्यका अभाव होते हेतुकी अनुपपत्ति ही है, ऐसैं दोय प्रकार हैं; इनिमैं एकका प्रयोग करनां । इहां व्युत्पन्न प्रयोगका समास ऐसा-जो 'व्युत्पन्नका प्रयोग'ऐसैं षष्ठी तत्पुरुष, तथा व्युत्पन्नकै अर्थि ऐसैं चतुर्थीतत्पुरुष ॥ ८९ ॥ आशैं तिसही अनुमानका रूप कहैं हैं; अग्निमानयं प्रदेशस्तथैव धूमवत्त्वोपपत्तधूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेवों ॥९॥ ___ याका अर्थ—यह प्रदेश अग्निमान है जाते तैसें होते ही धूमवानप'णांकी यामैं उपपत्ति है-धूमवानपणां बण है; अथवा धूमवानपणांकी अग्निमानपणां विना अनुपपत्ति है-धूमवानपणां नांही बर्षे है। ऐसे प्रयोग करनां ॥९०॥ ___ आगें पूछै है—जो साध्यसाधनते न्यारे ऐसे दृष्टान्त आदिककै व्याप्तिकी प्रतिपत्ति प्रति उपयोगीपणां है ये भी उपकारी है सो व्युत्पनकी अपेक्षा इनिका प्रयोग कैसे नाही, ऐसैं पू0 सूत्र कहैं हैं;-. हेतुप्रयोगो हि यथा व्याप्तिग्रहणं विवधीयते सा च तावन्मात्रेण व्युत्पन्नैरवधार्यते ॥ ९१ ॥ याका अर्थ-व्युत्पन्न पुरुष हेतुका प्रयोग करें हैं ते जैसैं व्याप्ति ग्रहण होजाय तैसें करें हैं सो तिस व्याप्तिकू व्युत्पन्न पुरुष तिस हेतुके Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित प्रयोग मात्रहीकरि अवधारण करें हैं-निश्चय करैं हैं । इहां 'हि' शब्द है सो हेतु अर्थमैं है तातें ऐसा अर्थ भया । जातें तथा उपपत्ति अन्यथा अनुपपत्ति ऐसैं अन्वय व्यतिरेक रूप व्याप्तिका ग्रहणकू न उलंधि करि हेतुका प्रयोग व्युत्पन्न करें हैं, तातैं ताकरि ही व्युत्पन्न हैं ते व्याप्तिका निश्चय करि ले हैं, दृष्टान्तादिकका किछू प्रयोजन न रह्या । दृष्टान्तादिककै व्याप्तिकी प्रतिपत्ति प्रति अंगपणां जैसैं नाही है तैसैं पहले कह आये, इहां फेरि काहे• कहिये ॥ ९१ ॥ .. आगैं दृष्टान्त आदिका प्रयोग है सो साध्यकी सिद्धिकै अर्थि भी फलवान नांही है, ऐसैं कहैं हैं; तावता च साध्यसिद्धिः॥ ९२ ॥ याका अर्थ-तावता कहिये विपक्षविर्षे जाका असंभव निश्चित होय ऐसे हेतुके प्रयोगमात्र हीकरि साध्यकी सिद्धि है, दृष्टान्तादिकका प्रयोजन नाहीं ॥ ९२॥ - आगैं इस ही कारणकरि पक्षका प्रयोग है सो भी सफल है ऐसैं दिखावते संते कहैं हैं;... तेन पक्षस्तदाधारसूचनायोक्तः ॥ ९३ ॥ याका अर्थ-जा कारणकरि पूर्वोक्त विधानही करि व्याप्तिकी प्रतिपत्ति होय तिस कारणकरि तिसका आधारका सूचन कहिये साध्यतै व्याप्त जो साधन ताके आधारके सूचनेकै अर्थि पक्ष कह्या है । इस कहनेकरि बौद्धमती कहै है ताका निराकरण किया, बौद्धमतीका श्लोकका ऐसैं परोक्ष प्रमाणके भेदनिविर्षे अनुमानका निरूपण किया। . १ ततो यदुक्तं पेरण; तद्भावहेतुभावी हि दृष्टान्ते तदवेदिनः । ख्याप्यते विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः ॥१॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १३३ अर्थ-जे साध्यव्याप्त साधनकू नांही जानैं हैं तिनि प्रति पंडितजन दृष्टान्तविर्षे साध्यसाधनभाव पक्ष हेतुभाव कहैं हैं अर पंडितकू तो एक हेतु ही कहने योग्य है, ऐसैं बौद्धमती कहै है । जो पंडितनिकै तौ एक हेतु प्रयोग ही युक्त है, तिनिका निराकरणं करि पक्षहेतु दोऊ प्रयोगनिका स्थापन किया है । जातै व्युत्पन्न प्रति जैसा कह्या तैसे हेतुका प्रयोग करै तौऊ पक्षके प्रयोग विना साधनकै नियमरूप आधारपणांका निश्चय न होय ॥ ९३ ॥ आU अनुमानका स्वरूप प्रतिपादनकरि अब अनुक्रममैं आया जो आगम ताका स्वरूपकू निरूपण करनेंकू कहैं हैं; आप्तवाक्यांदिनिबंधनमर्थज्ञानमागमः ॥१४॥ याका अर्थ;-आप्तका वाक्य आदि है कारण जाकू ऐसा अर्थका ज्ञान सो आगमप्रमाण है। तहां जो जिस उपदेशादि कार्यविर्षे अवं. चक होय सो तहां आप्त है ऐसे आप्तके वचन, अर आदिशब्दकरि अंगुली आदिकी समस्या लेनी, सो है कारण जाकू ऐसा अर्थ ज्ञानकू आगमप्रमाण कहिये । इहां इस सूत्रकी पदव्यवस्था ऐसी-जो 'अर्थज्ञान' ही कहिये तो प्रत्यक्ष आदितैं भी अर्थज्ञान होय है तिनिवि अतिव्याप्त होय, तारौं वाक्य निबंधन कह्या। बहुरि ऐसैं भी कहे हरेकके वाक्यनिबंधनविर्षे अतिव्याप्ति होय, तारौं आप्त कह्या, । बहुरि ऐसैं भी कहे आप्तका वाक्य काननिकरि सुण्यां तब श्रावण प्रत्यक्ष मतिज्ञानरूप सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भया ताविर्षे अतिव्याप्ति होय यातें अर्थज्ञान ऐसा कह्या, ऐसैं आगमका लक्षण निर्दोष है । इहां अर्थका स्वरूप तात्पर्यरूप जाननां । .. १-मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'वाक्यादि' :इसके स्थानमें 'वचनादि' ऐसा पाठ है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित बहुरि आप्तशब्द के ग्रहणतें मीमांसक आगमकूं अपोरुपैय मानें हैं ताका निराकरण है । बहुरि अर्थज्ञान पदकरि अन्यापोह कहिये अन्यके निषेधकूं बौद्धमती शब्दका अर्थ मानें हैं ताका निराकरण है, तातैं अन्यापोहज्ञान आगम प्रमाण नांहीं । तथा शब्दका केई ऐसा अर्थ मानें हैं जैसे काइनें कह्या जो 'घट ल्याव' तब ताकूं सुणि ऐसा विचारै जो जल भरनेकै आर्य घट मंगावै है, यह वाक्य ऐसेंसूचे है, ऐसा अभिप्राय कल्पि घट ल्यावै; सो ऐसा अभिप्रायकै अर्थपणांका निराकरण है, तातैं अभिप्राय सूचन आगमप्रमाण नांही । अब मीमांसकमतका विशेष जो भट्टमत तिसका पक्षी कहै है;जो यह आगमका लक्षण असंभवी है जातैं शब्द के नित्यपणां है तातैं आप्तका कह्यापणांका अयोग है । बहुरि शब्दकै नित्यपणां है जातें याके अवयव जे अक्षर तिनिकै व्यापकपणां है सर्वदेशमैं अक्षर व्याप रहे हैं, भर नित्य हैं तातैं शब्द भी नित्य ही है । बहुरि अक्षरनिका व्यापकपणां असिद्ध नांही है, एक जायगां उच्चारणरूप भया जो गौशब्दका गका - रादिक अक्षर सो प्रत्यभिज्ञानकरि अन्य देशविषै भी ताका ग्रहण होय है, जो एकदेशमैं सुन्यां था गकारादिक सो ही अन्यदेश मैं सुन्यां तब जान्यां जो सो ही यह गकारादिक है । बहुरि ताका नित्यपणां तिस प्रत्यभिज्ञानकरि ही निश्चय भया जातें कालान्तरकैविषै भी तिस ही गकारादिकका निश्चय होय है । बहुरि इस हेतुतैं भी नित्यपणां निश्चय कीजिये जो शब्दकै संकेतकी नित्यपणां विना अप्राप्ति है सो ही कहिये है; — एक शब्दका संकेत ग्रहण किया ऐसा शब्द अन्य ही श्रवण मैं आया मानिये तौ इस विना संकेत ग्रहण किये शब्द अर्थकी प्रतीतिरूप ज्ञान कैसैं होय ? जो इस शब्दका यह ही अर्थ है ? अरु अर्थरूप प्रतीति लिये ज्ञान होयही है । सो इहां भी संकेत मैं ऐसा जानिये है Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १३५ कि पहले सुन्यां था सो ही यह शब्द है, प्रत्यभिज्ञान इहां भी सुलभ है । इहां संकेतका उदाहरण ऐसा- - जो गोशब्दका संकेत खुर ककुद लांगूल सास्नादिक सहित अर्थ विषै है । बहुरि अक्षरनिकै अथवा शब्दकै नित्यपणां होतैं सर्वपुरुषनिकरि सर्वकालमैं सुननेका प्रसंग आवै है, ऐसा भी न माननां जातें शब्दकी अभिव्यक्ति कहिये श्रवणमैं - आवै ऐसा प्रगट होनां सदाकाल नांही संभव है । बहुरि याका असंभवका कारण यहु — जो शब्द के अभिव्यंजक कहिये प्रगट करनेवाले पवन हैं तिनिकै अक्षर अक्षर प्रति न्यारा न्यारा पणां है तालुवा होठ आदि संबंधी पवन न्यारे न्यारे हैं सो वक्ता के प्रेरें पवन चलें तब अक्षर प्रगट होय । बहुरि ऐसा नांही जो ये पवन नांही बनैं हैं जातैं प्रमाणतैं पवन प्रसिद्ध है, सो ही कहिये है — जे वक्ताके मुखकै निकटदेशवर्ती पुरुष हैं ते तौ अपना स्पर्शनप्रत्यक्ष प्रमाणकरि शब्दके व्यंजक पवननिकूं ग्रहण करैं ही हैं जानें ही हैं, बहुरि वक्ताके दूरदेशवर्ती हैं ते मुखकै समीप तिष्ठते जे तूल कहिये रज फूंफदा सूक्ष्म तिनिके चलनेंतैं अनुमानरूप जानें हैं । बहुरि सुननेवालाका कानके प्रदेशनिविषै शब्द सुननेंकी अन्यथा अनुपपत्तितैं अर्थापत्तिप्रमाणतें भी निश्चय कीजिये है—जो पवन शब्दकूं न प्रेरै तौ श्रोताका कान तांई कैसैं जाय । तातैं पवनतैं शब्दके अक्षरनिकी अभिव्यक्ती होय है तातैं सर्वकाल सर्वकार नांही सुनिये है । बहुरि अभिव्यक्तिपक्ष मैं सर्वकरि सर्वकाल सुनेंनका प्रसंगरूप दोष बतावै तौ उत्पत्तिपक्षमैं भी ये दोष आवैं हैं: भावार्थ-मीमांसक शब्दकूं नित्य मानैं है अर अभिव्यक्ति सदा नांही मानें है । ताकी पक्ष अनित्यपक्षकार उत्पत्ति माननेवाला जो नैयायिक सो दोष बतावै तौ ताकूं मीमांसक कहै है— जो अनित्य पक्षमैं ये ही दोष बराबर आ हैं । सो ही कहै है—यह शब्द है सो पवन अ 1 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित आकाशका संयोग सो तौ असमवायिकारण कहिये सहकारी कारण अर आकाश समवायिकारण इनितें दिशा देश आदिका अविभाग करि उपजता होय है सो सर्व हीकरि तौ सुन मैं न आवै, नियमरूप न्यारे न्यारे दिशा देशमैं तिष्ठते पुरुषनिकरि सुनिये है। तैसे ही नित्यपक्षमैं अभिव्यज्यमान कहिये प्रकट होता सुनिये है, ऐसैं समान भया । बहुरि अभिव्यक्तिका संकरपणां भी नही है जातें यहभी दोऊ पक्षमैं समान है । सोही कहिये है:-जैसे तालु आदिका संयोग” जो वर्ण जिस” उपजै है सो तिसहीतै उपजै है अन्यका संयोग” अन्य नाही करिये है, तैसे ही अन्यध्वनिका अनुसारी तालु आदि हैं ते अन्यध्वनिका आरंभ नाही करै हैं । तातें संकरपणांका दोष बतावै तौ यहभी समान ही आवैहै । तातैं उत्पत्तिपक्ष अर अभिव्यक्तिपक्षविर्षे समानपणां होतें एक ही पक्षविर्षे प्रश्नका अवसर नाही, ऐसैं मीमांसक कहै है हमारा कहनां सर्वही निश्चित है । बहुरि किछू और कहै है;-जो अक्षरनिकै अर तिनिस्वरूप जो शब्द ताकै कूटस्थस्वरूप नित्यपणां भी मति होहु तौऊ वेदकै अनादिपरंपराकरि चल्या आवनेंतें नित्यपणां है, तातैं आगमका पौरुषेय लक्षण किया ताकै अव्यापकपणां दूषण आवै है। बहुरि यह प्रवाहकरि परंपराकरि नित्यपणां है सो अप्रमाण स्वरूप नाही है, अबार भी याका कर्ता कोई दिखै नांही । बहुरि अतीत अनागत कालविर्षे याका कर्ताका अनुमान करावनेवाले लिंगका अभाव है । जे साध्य साधन अतीन्द्रिय हैं तिनिका संबंध सदाकाल अतीन्द्रिय है ताकू इन्द्रियनिकार ग्रहण करनेंयोग्यपणांका अभाव है, जानैं ऐसैं कह्या है जो लिंग प्रत्यक्षकरि ग्रहण होय सो ही है तिसहीतैं अनुमान होय है। ग्रहण किया है संबंध जानें ऐसे पुरुषकै एक देशके देखनेंतें जो पदार्थ इन्द्रियनितें न भिड़े ऐसा Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला १३७ परोक्ष ताका ज्ञान होय है सो अनुमान है। बहुरि वेदके कर्ताकी अर्थापत्ति प्रमाणतें भी सिद्धि नांही होय है जातें जाके होते अवश्य अन्य पदार्थ आय प. तिसतै अर्थापत्ति होय सो अनन्यथाभूत अर्थका अभाव है । बहुरि उपमान प्रमाणभी वेदका कर्ताका साधक नांही जातै उपमान उपमेय दोऊ ही प्रत्यक्ष नांही । यातें केवल अभाव प्रमाण ही रह्या सो वेदका कर्ताका अभावहीकू साधै है । बहुरि ऐसैं नांही कहनां-जो पुरुषका सद्भावका साधनां जैसे दुःसाध्य है तैसैं याका अभावका भी साधनां दुःसाध्य है, याः संशयकी आपत्ति आवै जातें तिसके कर्ताका अभावके साधकप्रमाण सुलभ हैं । अबार कालविषै तौ तिसके अभावविर्षे प्रत्यक्ष प्रमाण साधक है । अतीत अनागत कालविर्षे अभावका साधक अनुमान प्रमाण है । इहां अनुमानके दोय प्रयोगके श्लोक हैं, तिनिका अर्थ-अतीत अनागत काल है ते वेदके कर्तीकरि रहित हैं जातें 'काल' ऐसा शब्दकार कहनेयोग्य अर्थ हैं जैसा अवार काल तैसे ही ते भी काल हैं ॥ १॥ बहुरि कोई पूछै वेदका पढनां कैसे है ? तौ ताकू कहिये-जो वेदका पढ़ना है सो सर्व ही वेदके पढ़नेपूर्वक है पहले पढ़े हैं ते अन्यकू पढ़ाऐं हैं, ऐसे ही परिपाटी चली आवै है जातें " वेदका अध्ययन" ऐसे पदकरि वाच्य कहिये कहने योग्य अर्थ है जैसैं अबार कोई पढ़े है सो ऐसे ही पढ़नेकी परिपाटी है ॥२॥ बहुरि तैसैं ही अन्य प्रयोग कहै है;-वेद है सो (१) तथा च अतीतानागतौ कालौ वेदकारविवर्जितौ । कालशब्दाभिधेयत्वादिदानीन्तनकालवत् ॥१॥ वेदस्याध्ययनं सर्व तदध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं तथा ॥२॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित अपौरुषेय है जातैं संप्रदायका अविच्छेद होतैं जाका कर्त्ताका स्मरण नांही, कथनी नांही, वेदके संप्रदायीकी परिपाटी मैं काहूनैं कर्ता देख्या नांही, सुन्यां नांही, कह्या नांही, जैसैं आकाशका कर्त्ता काहूनें कह्या नांही तैसैं । बहुरि अर्थापत्ति प्रमाण है ताकरि वेदके कर्त्ताका अभाव निश्चय कीजिये है जातैं वेदकी प्रमाणता है लक्षण जाका ऐसा अनन्यथाभूत पदार्थका दर्शन कहिये सद्भाव देखिये है । जातें धर्म आदि अतींद्रिय पदार्थ है विषय जाका ऐसा जो वेद ताका अल्पज्ञ पुरुषनिकार करनें का असमर्थपणां है । अर अतींद्रिय पदार्थका देखनेवाला पुरुषका अभाव ही है तार्ते वेदका प्रमाणपणां अपौरुषेयपणांहीकूं साधै है । ऐसें मीमांसकनैं अपनां वेदकै अपौरुषेयपणांकूं दृढ़ किया पौरुषेय आगमकूं दूषण दिया । I अब आचार्य याका प्रत्युत्तरकी विधि करें हैं- प्रथम तौ जो कहा कि अक्षरनिकै व्यापीपणांविषै अर नित्यपणां विषै प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है सो यह तौ असत्य है, तिसविषै ज्ञान प्रमाण होय तो एकर्णका अनेक देशविषै सत्त्व होतैं खंड खंडरूप प्रतिपत्ति होय सो तौ नांही है । एकदेशमैं एकवर्ण अखंड ग्रहण होय है । दूसरे देश दूसरा तिस सारिखा अखंड न्यारा ग्रहण होय है, सो जो अक्षर सर्वदेश मैं व्यापक होय तौ एक ही देश मैं एकवर्णका समस्तपणांकरि ग्रहण कैसैं ब, नांही वर्णै । जो ऐसैं होय एक ही देश मैं अक्षर समस्तपणां करि ग्रहण होय तौ व्यापक न ठहरै, ऐसें भी व्यापकपणां मानिये तौ घट आदिककै भी व्यापकपणांका प्रसंग आवै । ऐसैं भी कह्या जाय जो घट सर्वगत है जातैं नेत्र आदिके निकटतैं अनेक देशविषै प्रतीति मैं आवै है । बहुरे जो कहै घटके उपजावनहारे माटी के पिंड I अनेक देखिये हैं तातैं अनेकपणां ही है । तथा बड़ा घट छोटा घट Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १३९. ऐसा देखिये है तो यह तौ अक्षरनिविर्षे भी समान है, तहां भी वर्ण वर्ण प्रति न्यारे न्यारे तालुवा आदिक कारणके समूह तथा तीव्र मंद आदि धर्म भेदका संभवका अविरोध है । बहुरि तालुवा आदिककै अक्षरनिका व्यंजकपणां आगैं इहां ही निषेध करसी, तातें यह कथन इहां ही रहौ । बहुरि कहै है—जो अक्षरनिकै व्यापीपणां होतें भी सर्वक्षेत्रमैं सर्वस्वरूपकरि प्रवृत्तिसहित हैं, तातैं तुम कहो सो दोष नाही । ताकू आचार्य कहै है;--ऐसे होते तो सर्वथा एकपणांका विरोध आवै है जारौं देशका भेदकरि एककाल सर्वस्वरूपकरि सर्वक्षेत्रमैं प्रतीतिमैं आवै ताकै एकपणां बर्षे नाही, यामैं प्रमाणविरोध है । ताका प्रयोग –गो शब्दका गकार आदि अक्षर हैं ते प्रत्येक अनेक ही हैं जातें एककाल भिन्न न्यारे न्यारे क्षेत्रनिवि सर्वस्वरूपकरि जैसो उच्चारण है तैसो ही समस्तपणांकरि प्रत्येक ग्रहण होय हैं, जैसैं घट आदि न्यारे न्यारे देखिये है तैसैं। बहुरि कहै कि सामान्य पदार्थ सर्व जायगां प्रतीतिमैं आवै है अर एक है ताकरि हेतुकै व्यभिचार आवैगा, तो इहां सो व्यभिचार नाही है, सदृश परिणामस्वरूप सामान्यकै भी अनेकपणां है । बहुरि चन्द्रमा सूर्य आदिकू एककाल अनेक क्षेत्रमैं तिष्ठते पुरुष पर्वत आदि अनेक प्रदेशनिमैं तिष्ठयापणांकरि अनेक न्यारा न्यारा देखें हैं अर चन्द्रमा सूर्य एक एक ही है तिनिकरि भी व्यभिचार नाही है जाते ते अतिदूरवर्ती हैं एकदेशमैं तिष्ठं हैं तौऊ भ्रांतिके वश” अनेक क्षेत्रमैं न्यारे न्यारे तिष्ठे दीखें हैं । सो जो भ्रान्तिरहित सत्यार्थ होय तातें भ्रांतिसूं दीखे तिनिकरि व्यभिचारकी कल्पना करनां युक्त नाही । बहुरि जलके पात्रवि. चन्द्रमा सूर्य आदिका प्रतिबिंब न्यारा न्यारा दीखै अर चन्द्रमा सूर्य एक एक ही हैं, अर ते प्रतिबिंब भ्रान्तिरूप भी नांही तिनिकरि भी व्यभिचार नाही है जातैं चंद्रमा सूर्य आदिका Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित प्रकाशकी समीपताकी अपेक्षाकरि जल तैसे ही चन्द्रमा सूर्य आदिके आकाररूप परिणाम जाय है यारौं न्यारा न्यारा प्रतिबिंब दीखें हैं ते अनेक हैं, तातैं अनेक प्रदेशविर्षे एक काल समस्तस्वरूपकरि ग्रहणमैं आवै ऐसा एक विषयका असंभाव्यमानपणांत तिसविर्षे प्रवर्त्तमान जो प्रत्यभिज्ञान सो प्रमाण नांही यह निश्चय भया । तैसें ही नित्यपणां भी प्रत्यभिज्ञानकरि नाही निश्चय होय है जाते नित्यपणां है सो एक वस्तुकै अनेकक्षणमैं व्यापीपणां है, सो ऐसा नित्यपणां तौ वीचिमैं-अन्तरालविर्षे सत्ताका ग्रहण विना निश्चय न कह्या जाय । बहुरि प्रत्यभिज्ञानहीका बलकरि अन्तरालविर्षे सत्ता न जानी जाय है-वीचिमैं सत्ताका संभव नाही सिद्ध होय है जातै प्रत्यभिज्ञानके सादृश्यतें भी संभवनेका अविरोध है। बहुरि घट आदिविौं भी ऐसा प्रसंग. नांही आवै है जाते ताकी उत्पत्तिविर्षे अन्य अन्य मांटीके पिंडस्वरूप कारणका असंभवपणांकरि अंतरालविर्षे सत्ताका साधनेंका समर्थपणां है, भावार्थ-पहले घटकू देख्या पी, तिसहीकू फेरि देख्या -तब एकत्वप्रत्यभिज्ञान भया जो यहु घट सो ही है, तहां कहै याके अन्तरालमैं सत्ता कैसैं सधी ? ताका समाधान किया है जो अन्य अन्य मांटीके पिंड घट उपजै ताकी जुदी सत्ता होय, इहां अन्य मांटीका पिंडतै उपजनां नाही तारौं तिसहीकी सत्ता सधी । अर शब्दविर्षे ऐसैं नाही-पहले शब्द सुन्यां ताका कारण अन्य ही था फेरि सुन्यां ताका कारण अन्य है । तातै अपूर्व कारणनिका व्यापार संभवने” अन्तरालविर्षे सत्ताका संभव नांही है । बहुरि जो और कह्यासंकेतकी अन्यथा अप्राप्ति है जो शब्द नित्य न होय तौ पदार्थविर्षे संकेत नाही बरौं । सो ऐसा कहनां भी पुरुषका स्वरूप विना जाण्यां कहै है जातें अनित्यविषै भी यह जोड़नां बण है । सो ही कहै है Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १४१ ग्रह्या है संकेत जाका ऐसा जो दंड ताका नाश होतें अब अगृहीतसंकेतदंड अन्य ही ग्रहणमैं आवै है । ऐसें होते तिस अगृहीतसंकेतदंडसे दंडी ऐसा कहनां न होय, तैसैं ही ग्रहण करी है व्याप्ति जाकी ऐसे धूमका नाश होते अन्य धूमके देखनेंतै विना व्याप्ति ग्रहण अग्निका ज्ञानका अभाव होय । सो दंडीका व्यपदेश तथा धूमतें अग्निका ज्ञान होय ही है, अर ते अनित्य हैं ता” अनित्यविर्षे संकेत होय ही है । बहुरि इहां कहै-जो दंडी इत्यादिविषै तौ सदृशपणांतें यह प्रतीति होय है तातें हमारी पक्षमैं दोष नाही, तौ इहां शब्दविर्षे भी सदृशप-. णातैं अर्थकी प्रतीति होतें कहा दोष है ? शब्दकू नित्य मानि खोटा अभिप्राय क्यों करना, ऐसैं माने अन्तरालविर्षे अदृष्ट सत्त्वकी भी कल्पना न होय । बहुरि जो और कह्या कि-शब्दके व्यंजक पवनकै न्यारा न्यारापणां है तातैं एक काल सुननां न होय है; सो भी कहनां विना सीखे कह्या है;-समान एक कर्णइन्द्रियकरि ग्रहणमैं आवै, अर समान ही जाका उदात्त अनुदात्तादि धर्म, अर समान ही क्षेत्रविर्षे तिष्ठते विषय विषयी कहिये कर्ण इंद्रिय अर शब्द, तिनिविर्षे न्यारे न्यारे पवनकरि न्यारे न्यारे ग्रहणका अयोग है एक ही काल ग्रहण चाहिये । सो ही कहै है;-श्रोत्र इन्द्रिय है. सो समान क्षेत्रवि तिष्ठता समान इन्द्रियकरि ग्रहणयोग्य समान ही जिनिका धर्म, ऐसे जे गकारादि शब्दनामा पदार्थ तिनिका. ग्रहणकै अर्थि न्यारा न्यारा संस्कार करनेवाला पवनकरि संस्कार करने योग्य नाही होय है, एक ही पवन संस्कारकतें गकारादि पदार्थका ग्राहक होय है जाते श्रोत्र है सो इन्द्रिय है, इन्द्रिय हैं ते ऐसे ही हैं, जैसैं नेत्र इन्द्रिय है सो अंजनादिकका संस्कार एकही करि अपना सर्व विषयकू ग्रहण करै है, तिसविर्षे न्यारे न्यारे अंजनादिकके संस्कार Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A + १४२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित ही है है । बहुरि शब्द हैं ते भी न्यारे न्यारे संस्कारक जे पवन तिनिकरि संस्कार करने योग्य नांही हैं जातैं समान इन्द्रियकरि ग्रहण करने योग्य समान धर्म स्वरूप समान क्षेत्र मैं तिष्ठे, ऐसे होतैं एककाल इंद्रियकरि संबंधरूप होय हैं जैसे घट आदि होय हैं । बहुरि कहै - जो उत्पत्तिपक्ष मैं भी यह दोष समान है सो ऐसैं नांही है जातैं मांटीके पिंड अर दीपक इनके दृष्टान्तकार कारक व्यंजक पक्षमैं विशेषकी सिद्धि है । विद्यमान घटका मांटीका पिंड तौ कारक है अर दीपक ताका व्यंजक है, परन्तु ऐसैं विशेष है- - जो एक घट करनेंकै अर्थि लिया एक मांटीका पिंड सो तौ एक ही घटकूं करै है अन्यकूं नांही करे है, अर दीपक एक घटके प्रकाशनेकै आर्थि जोया सो तिस घटकूं प्रकाशै अर अन्यकूं भी प्रकारौ । तेसैं शब्दका व्यंजक एक पवन सो I एककाल प्रकाशै तब सर्व शब्दका श्रवण एककाल ही चाहिये सो नांही है | यह दूषण है सो अभिव्यक्तिपक्षमैं आवै अर उत्पत्तिपक्षमैं तौ नांही आवै । तातैं बहुत कहनेकरि पूरी पड़ो— शब्दकै उत्पत्ति पक्ष ही माननां योग्य है । बहुरि और कला — जो प्रवाहके नित्यपणांकरि वेदकै अपौरुषेयपणां है, तहां दोय पक्ष पूछने ? शब्दमात्रकै अनादि नित्य*पणां है कि केई विशिष्टशब्दनिकै अनादि नित्यपणां है ? जो कहैगा शब्दमात्रक है तौ जे शब्द लौकिक हैं ते ही वेदके हैं, तातैं यह कहनां तौ अल्प ही भया जो वेद तौ अपौरुषेय है अर - लौकिक शब्द अपौरुषेय नाही ? सर्व ही शास्त्र निकै अपौरुषेयता आवेगी । बहुरि कहैगा - जो विशिष्ट अनुक्रमरूप चले आये हैं ते ही शब्द अनादि नित्यपणांकरि कहिये हैं, तौ इहां भी दोय पक्ष पूछनें - ते शब्द जिनिका अर्थ जाननें मैं आया ऐसे हैं कि जिनिका Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। अर्थ जाननेंमें न आया ऐसे हैं ? जो कहेगा—उत्तर पक्ष है अर्थ जाननेमैं न आया ऐसे हैं तौ तिनिकै अज्ञानस्वरूप अप्रमाणताका प्रसंग आवैगा । बहुरि कहैगा आद्यका पक्ष है जो अर्थ जाननेमैं आया ऐसे हैं तौ पूछिये तिनिका व्याख्यान करनेवाला अल्पज्ञ है कि सर्वज्ञ है ? जो कहैगा-अल्पज्ञ है तौ जिनि वेदवाक्यनिका संबंध कठिन है जाननेमैं न आवै तिनिका अर्थ अन्यथा भी होय जाय तब मिथ्यात्वस्वरूप अप्रमाणपणां होय । सो ही कही है, ताका श्लोकका अर्थ-मेरा यह अर्थ है अर यह नाही है ऐसा शब्द ही तो आप कहै नाही, पुरुष ही शब्दका अर्थ कल्पै हैं अर पुरुष हैं ते रागादि दोषनिकरि दूषित हैं । इहां विशेष ऐसा जो अल्पज्ञका कह्या अर्थमैं विशेष नाही, ताक् काहू. कह्या जो वेदका वचन है “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" ताका अर्थऐसा जो स्वर्गका इच्छुक पुरुष है सो अग्निहोत्रनैं होमै । तब काहू. कह्या-याका यह अर्थ नाही, याका अर्थ ऐसा है—जो अग्नि है ऐसा श्वानका नाम है ताका होत्र कहिये मांस सो 'जुहुयात्' कहिये खाय जो स्वर्गका इच्छुक होय सो तथा अग्नि ऐसा नाम ही श्वानका है ताका होत्र कहिये मांस सो खाय ऐसा भी अर्थ क्यों न होय । ये अर्थ अल्पज्ञके कहे कहिये तो ऐसे ही सर्व ही अर्थ अल्पज्ञके कहे हैं ते प्रमाण कैसैं होहिं । अथवा यामैं संशय उपजै जो याका कैसा अर्थ है तब अप्रमाणपणां आवै । बहुरि दूसरा पक्ष जो--वेद सर्वज्ञकरि जान्यां अर्थ रूप है सो ही अनादिपरंपरानै चल्या आवै है, तो धर्म जे १-तदुक्तम् अयमर्थो नायमर्थ इति शब्दा वदन्ति न । . कल्प्योऽयमर्थः पुरुषैस्ते च रागादिविप्लुताः॥१॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित यज्ञादिक तिनिविषै चोदना कहिये वेदवाक्य में प्रेरणा तिष्ठे है सो ही हमारे प्रमाण है, ऐसा कहना तौ बाध्या गया । बहुरि अतीन्द्रियार्थ प्रत्यक्ष करनें विषै समर्थ जो पुरुष सर्वज्ञ ताका सद्भाव होतैं तिसके वचनकै भी चोदनाकी ज्यों अर्थ निश्चय करावनेंवालापणांकरि प्रमाणपणांतैं यह वचन तौ वेदकै पुरुषका कियापणांका अभावकी सिद्धिका प्रतिबंधक होय, भावार्थ - सर्वज्ञ ठहऱ्या तब अर्थका निश्चय ताका वचनसूं होयहीगा अर वेदकूं अपौरुषेय माननां वृथा होयगा । बहुरि कहै - जो वेदका वक्ताकै अल्पज्ञपणां होतैं भी यथार्थ व्याख्यानकी परंपराकरि संप्रदायका संतानका विच्छेद नाही होनेंकरि वेद सत्यार्थ ही मानिये है ? ताकूं कहिये ऐसें नांही जातैं अल्पज्ञकै अतीन्द्रिय पदार्थनिविषै निःसन्देह व्याख्यानका अयोग है, जैसे अंधाकरि रौंच्या जो अंधा ताकरि अनिष्ट देशकूं छोडि वांछित देशका मार्गविषै प्राप्त करनां बगैं नांही । बहुरि किछू विशेष कहै है— जो अनादितैं व्याख्यानकी परं - परातैं चल्या आया कहै तौऊ वेदका अर्थकं संबंधकूं ग्रहणकरि पाछै भूलनेंतैं तथा वचनकी प्रवणता बिना औरसूं और अर्थ कहनेंतैं तथा खोटे अभिप्रायतें व्याख्यानका अन्यथा करनेंतैं निर्बाध तत्वका प्रकाशनका अयोगतैं अप्रमाणता ही होय । सो ही देखिये हैं; —— अबारके • पंडित भी ज्योतिषशास्त्रादिकविषै रहस्य यथार्थ जानते भी खोटे अभिप्रायतैं अन्यथा व्याख्यान करें हैं । बहुरि केई जानते भी वचनकी प्रवीणता विना नीकेँ कहें नांही जानैं ते अन्यथा उपदेश करें हैं । बहुरि केई वाच्यवाचकका संबंध भूलिकरि अयथार्थ कहैं हैं । जो ऐसैं न होय तौ वेदके वाक्यार्थविषै भावना विधि नियोगरूप अर्थका अन्यथापणांकरि विवाद कैसैं होय । भट्टके शिष्य तौ भावनांकूं वाक्यार्थ मानें हैं । वेदान्तीविधिकूं वाक्यार्थ मानैं हैं । प्रभाकरवाला नियोगकूं वा 1 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १४५ क्यार्थ मानैं है । बहुरि मनु याज्ञवल्क्य आदि ऋषिनिकै श्रुतिका अर्थकै अनुसार स्मृतिके निरूपणविर्षे अन्य अन्य प्रकारपणां कैसैं होय । तातें प्रवाहपरिपाटीवि भी वेदकै अयथार्थपणां ही है । यातैं यह ठहरी जो अतीतानागतकालविर्षे वेदका कर्ता नाही । काल शब्दवाच्यपणां हेतु. करि ऐसैं कह्या सो भी अपने मतका निर्मूल करनेका हेतुपणांकरि विपरीत साधनतें यहु हेतु हेत्वाभास ही है । सो ही कहिये है; इहां श्लोक है, ताका अर्थ अतीत अनागत काल हैं ते वेदके ज्ञाताकार रहित हैं जाते काल शब्दका अर्थ है जे कालशब्दकरि कहिये ते ऐसे ही हैं जैसैं अबार का काल । बहुरि विशेष कहैं हैं कि कालशब्दका अर्थ अतीत अनागत कालका ग्रहण होतें होय सो तिनिका ग्रहण प्रत्यक्ष” होय नाही जातें ते अतीत अनागत काल इन्द्रियगोचर नाही ! अर अनुमानौं तिनिका ग्रहण होतें भी साध्यकरि तिनिका सम्बन्ध निश्चय करनेंकू नाही समर्थ हूजिये है जातै प्रत्यक्षतँ ग्रहण किया साधनकही साध्यका संबंध मानिये है, सो है नांही । बहुरि मीमांसक कालनामा द्रव्य भी नाही मानें है। बहुरि कहै-जो अन्यवादी काल मानें है तिनिकी ही मानि ले. करि तिनिकू कह्या है काल वेदक करि रहित है, ऐसा मानो–इनिकै व्याप्यव्यापकभाव है, सो काल व्याप्यकुं मानों हो तौ वेदकर्ताकरि रहितपणां व्यापककू भी मानों ऐसा प्रसंगसाधन दोष नाही । ताकू कहिये-जो परमैं तौ इहां साध्य साधन कहिये वेदके कर्ताकरि रहितपणांकै अर कालकै व्याप्यव्यापकपणांका अभाव है । अबार भी (१) अतितानागतौ कालौ वेदार्थज्ञविवर्जितौ । कालशब्दभिधेयत्वादधुनातनकालवत् ॥ हि. प्र. १० Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित देशान्तरविर्षे वेदका कर्ता अष्टकदेव आदिका बौद्धमती आदिनिकै अंगीकार है । बौद्धमती वेदका कर्ता अष्टकदेवकू मानें है। वैशेषिकमती ब्रह्माकू मानें है । जैनी कालासुरकू मानें हैं। बहुरि जो आरभी कह्या-वेदका अध्ययन वेदका अध्ययन पूर्वकही है इत्यादिक, सो भी विपक्ष ने पुरुषके किये शास्त्र तिनिका अध्ययन ताविौं भी समान है । जैसैं भारतका अध्ययन है सो सर्वही गुरुके अध्ययनपूर्वक है जाते. तिसके अध्ययन पद करिही वाच्य अर्थ है जैसैं अबार अध्ययन कीजिये है ऐसैं समान जाननां । बहुरि और कह्या-जो वंदका कर्तीका संप्रदायमैं कथन नाहीं किसीकू यादि नाही जो फलाणे कर्ताका किया है ऐसा ही संप्रदाय चल्या आवै है ताका विच्छेद भी नाही हुवा । तहां कहिये-जो इस हेतुमैं जीर्णकूप आरामवन आदिकरि व्यभिचारके दूर करनेकू संप्रदायका न होनां ऐसा विशेषण किया तौऊ विशेष्य जो कर्त्ता यादि नांही ऐसा है सो विचार किये याका ही अयोग है तातैं यह हेतु नाही। यामैं तीन पक्ष पूछिये-कर्ताका यादिपणां वादीकै नांही है कि प्रतिवादी मैं नांही है कि सर्वही मैं नांही है ? जो वादिकै नांही है तौ यामैं दोय पक्ष पूछिये—कर्ताका स्मरणका अभाववादीकू का नांही दीख्या तातें है कि कर्त्ता के अभावही है, जो कहै क- दीख्या नाही तातें है तो पिटकत्रय बौद्धका ग्रंथ है; ज्ञानपिटक, वंदनपिटक, चैत्यपिटक, तिनिक भी अपौरुषेयपणां आया । बौद्धकै शिष्यनिभी तिनिका कर्ता देख्या (२) भारताध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकम् । तदध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथाः॥ इस श्लोकका अर्थ वचनिकामें लिखातो है परन्तु जैसे अन्यत्र “ ताका श्लो. कका अर्थ" ऐसा लिखकर वादमें लिखा है वैसे नहीं लिखा है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला १४७ in | अरबौद्ध कर्त्ता मानैं है तातैं अपौरुषेयपणां नांही तौ इसही हेतु वेदविषै अपौरुषेयपणां मति होहु । बहुरि जो कहै कर्त्ता के अभावतैं है तौ जे कर्त्ताका अभाव कर्त्ताके अस्मरण तैं मानैं तौ यामैं इतरेतराश्रय दूषण आवै है, कर्त्ताका अभाव तैं तौ तिसका अस्मरण सिद्ध होय अर तिसके अस्मरणतैं तिसका अभाव सिद्ध होय । बहुरि कहै — कि प्रमाणपणांकी अन्यथा अप्राप्ति तैं तिसका अभाव सिद्ध होय है जो कर्त्ता होय तौ प्रमाणपणां न होय ऐसें इतरेतराश्रय नांही आवै है। तौ ऐसैं नांही है जातैं अप्रामाणका कारण जो पुरुषविशेष ताहीका प्रामाण्यकरि निराकरण है, पुरुषमात्रकातौ निराकरण है नांही । बहुरि कहै जो अतीन्द्रिय पदार्थके देखने वालाका अभाव अन्य पुरुषविशेषकै प्रमांणपणांका कारणपणांकी अप्रप्ति है यातैं सर्वथा पुरुषका अभाव सिद्धही है । तौ ताकूं कहिये –— जो सर्वज्ञका अभाव काहे तैं है ? जो कहै प्रमाणपणांकी अन्यथा अप्राप्ति तैं सर्वज्ञका अभाव है तौ इतरेतराश्रयपणां है, बहुरि कहै कर्त्ता के अस्मरणतैं है तौ चक्रकनामा दूषण है । वेदविषै कर्त्ताके अस्मरणतैं तौ सर्वज्ञका अभाव सिद्ध होय, बहुरि सर्वज्ञका अभाव सिद्ध होय तब वेदक प्रमाणपणांकी अन्यथा अनुपपत्ति सिद्ध होय और जब प्रमाणापणांकी अन्यथा अनुपपत्ति सिद्ध होय तब कर्त्ताका अभाव सिद्ध होय तिसकूं सिद्ध होतैं कर्ताका अस्मरण सिद्ध होय ताके सिद्ध होते फेरि सर्वज्ञका अभाव सिद्ध होय, ऐसैं चक्रकका प्रसंग होय है । बहुरि है सर्वज्ञका अभाव अभावप्रमाणतैंसिद्ध होय है । तौ ताकूं कहिये- - जो सर्वज्ञका साधक अनुमान प्रमाणका प्रतिपादन पहले किया ही था तातैं अभावप्रमाणके उत्थानका अयोग है जातैं पांच प्रमाण भावरूप हैं तिनिका अभाव होय तब अभाव प्रमाणकी प्रवृत्ति होय, ऐसैं मीमांसकनैं कह्या 1 1 - Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितहै, ताका श्लोक है ताका अर्थः- "जिस वस्तुके स्वरूपवि पांच प्रमाण न उपजै तहां वस्तुका अभावका ज्ञान होनेंकै अर्थि अभावकै प्रमाणता है, ऐसे कया है" | तातै वादीक तौ वेदका कर्ताका अस्मरण नाही वर्षे है । बहुरि दूजा पक्ष जो प्रतिवादीकै है ऐसैं कहै । तौ ताकै भी नाही वर्षे है जाते प्रतिवादी कर्ता वेदका स्मरण करही है। बहुरि सर्वहीकै कहै तौ भी नाही वणै है जारौं वादीकै वेदका कर्ताका अस्मरण है तौऊ प्रतिवादीकै स्मरण है ॥ बहुरि मीमांसक कहैं हैजो प्रतिवादी वेदविर्षे अष्टकदेवकू आदि देकरि बहुत कर्ता स्मरैं हैं, यातें स्मरणकै विवादतै प्रमाणता नांही है, तातै सर्वक कर्ताका अस्मरणही सिद्ध होय है। ताकू कहिये-जो कर्ताका विशेषविही विवाद है कर्त्तासामान्यविषैतौ विवाद है नांही यातै सर्वकै कर्ताका अस्मरण असिद्ध है । बहुरि सर्व प्राणीनिके ज्ञानका विज्ञानकरि रहित जो अल्पज्ञ पुरुष सो सर्वकै कर्ताका अस्मरण कैसे जानें । तातै वेदविर्षे अपौरुषेयपणांका स्थापनेंका असमर्थपणां है । तातें आगमका लक्षण किया ताकै अव्यापकपणां नांही है । बहुरि असंभवीपणां दूषणभी नांही है पौरुषेयपणां साधनेंविर्षे प्रमाण बहुत हैं, सोही कहै हैं; वृहत्पंचनमस्कारनामा स्तोत्र पात्रकेसरीकृत है ताकी काव्यका अर्थ;जातें जन्ममरणसहित जे ऋषि तिनिके गोत्र आचरण आदि नाम . १-प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपेण जायते। वस्तुसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता ॥ इति २-सजन्ममरणर्षिगोत्रचरणादिनामश्रुते रनेकपदसंहतिप्रनियमसन्दर्शनात् । फलार्थिपुरुषप्रवृत्तिनिवृत्तिहेत्वात्मनां श्रुतेश्च मनुसूत्रवत्पुरुषकर्त्तकैव श्रुतिः ॥ इति Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १४९ वेदमैं कहे हैं, बहुरि अनेक पदनिका समूहरूप न्यारे न्यारे छंदरचना वेदमैं देखिये है, बहुरि फलके अर्थी जे पुरुष तिनिकी प्रवृत्ति निवृत्तिके कारण स्वरूप वेदमैं कहे हैं ते सुनिये हैं " स्वर्गका वांछक अग्निष्टोमकरि पूजै" इत्यादिक तो प्रवृत्तिके वाक्य, बहुरि "कांदा न खाइये, दारू न पीवै गऊकू पग” स्पर्शनां नाही," इत्यादि निवृत्तिके वचन वेदमैं हैं जैसैं मनु ऋषिके सूत्रमैं हैं तैसैं, तातै वेद है सो पुरुषका ही किया है। ऐसा भी वचन हमारे आचार्यनिका है। बहुरि अपौरुषेयपणां वेदकै होतें भी प्रमाणता नांही वर्षे है जाते प्रमाणपणांका कारण जे गुण तिनिका वेदवि अभाव है । बहुरि मीमांसक कहै है जो गुणनिकरि किया ही तौ प्रमाणपणां नाही, दोषका अभावकरि भी प्रमाणपणां है, सो दोषका आश्रय पुरुष है ताकै कर्त्तापणांका अभाव होते भी वेदकै प्रमाणपणां निश्चय कीजिये है, गुणके सद्भावहीरौं नाही है सो ही हमारै कही है, ताका श्लोकका अर्थ-शब्दकै विषै दोष उपजै है सो तौ वक्ताकै आधीन है ऐसा निश्चय है, बहुरि कहूं दोषका अभाव है सो गुणवान वक्तापणांकै आर्धान है, जातै वक्ताके गुणनिकरि दूर किये जे दोष ते फेरि शब्दमैं आवे नाही, बहुरि यह पक्ष समीचीन है जो वक्ताका अभावकरि तिस वक्ताकै आश्रय जे दोष ते शब्दमैं न होंहि । ताका समाधान आचार्य करें हैं जो यह कहनां भी अयुक्त है जातें हमारा अभिप्राय मीमांसकनैं जाण्यां नाही, जातें हमनें तौ वक्ताकै अभाव होतें वेदकै प्रमाणपणांका अभाव है ऐसैं कह्या (१) शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्ताधीन इति स्थितम् । तदभावः क्वचित्तावगुणवद्वक्तृकत्वतः ॥१॥ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रांत्यसंभवात् । यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः ॥२॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितनाही । हमनें तौ ऐसे कया है—जो वेदके व्याख्यान करनेवालेनिकै अतीन्द्रिय पदार्थनिका देखनां आदि गुणनिका अभाव होतें दोषनिका अभाव नाही, ताक् वेदविौं भी दोषनिका सद्भाव आवै, तब प्रमाणपणांका निश्चय नाही, ऐसैं कहैं हैं । तातैं अपौरुषेयपणां होतें भी वेदकै प्रमाणपणांका निश्चयका अयोग है । तातैं इस अपौरुषेयपणां रूप वेद करि हमारा आगमके लक्षणकै अव्यापीपणां अर असंभवीपणां नांही है। यातें बहुत कहनेकरि पूरी पड़ो ॥ ९४ ॥ ___ आरौं बौद्धमती कहै है जो शब्दकै अर अर्थक संबंधका अभाव है ता” शब्द अन्यका निषेधमात्र कहनेवाला है, नाम जाति गुण क्रिया आदि स्वरूप शब्दका अर्थ नाही है ताते शब्दकै आप्तप्रणीतपणां होतें भी यातें सत्य अर्थका ज्ञान कैसैं होय ? ऐसें तर्क होतें सूत्र कहैं हैं; सहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः ॥९५ ॥ ___ याका अर्थ—सहज कहिये स्वभावभूत योग्यता कहिये वस्तुस्वरूप विर्षे पुरुषका अभिप्रायका नियम "जैसैं पृथु वृघ्नोदर आकाररूप मांटीका रूप है सो घट है" ऐसैं संकेतके वश” 'हि' कहिये प्रकटपण ते पूर्वोक्त आप्तप्रणीत शब्द अर आदि शब्दतै अंगुली आदिकी समस्या हैं ते वस्तुकी प्रतिपत्ति कहिये ज्ञान ताकू कारण हैं ॥ ९५ ॥ आज याका उदाहरण कहैं हैं; यथा मेवादयः सन्ति ।। ९६ ॥ याका अर्थ-जैसैं मेरु आदिक हैं ते हैं । इहां बौधमती कहै है-जो जे ही शब्द तौ अर्थके होते देखे ते ही शब्द अर्थक अभाव Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । होतें भी देखिये हैं तौ अर्थके कहनहारे शब्द कैसैं ? ताकू आचार्य कहैं हैं-यह भी कहना अयुक्त है जाते जे अर्थके कहनहारे शब्द नांही है तिनि” अर्थके कहनहारे शब्द अन्य ही हैं, सो अन्यकै व्यभिचार होतें अन्यकै कहनां युक्त नाही, जाते यामैं अतिप्रसंग दूषण आवै है । जो ऐसैं न मानिये तो इन्द्रजालके घडेमैं धूम होतें भी अग्नि नाही ऐसे व्यभिचार होते पर्वत आदिके वि धूम होय ताकै भी व्यभिचारका प्रसंग ठहेरे । बहुरि जो कहै—यत्नः परीक्षा किया कार्य कारण• उलंघि वत्र्ते नाही, तो ऐसैं इहां भी समान जाननां, जो शब्द जिस अर्थमैं होय तिसकू ही कहै है नीक परीक्षा किया शब्द है सो अर्थकू नांही व्यभिचरै है। ऐसे होते अन्यका निषेधकै शब्दार्थपणांकी कल्पना है सो प्रयासमात्र ही है। बहुरि अन्यापोह कहिये अन्यका निषेध शब्दका अर्थ नाही ठहरे है जातें प्रतीतिविरोध है प्रतीतिमैं ऐसैं आवता नाही । जातैं गौ आदि शब्दके सुनने तैं यह अन्य नांही ऐसा सामान्य अभाव जो तुच्छाभाव सो तौ प्रतीतिमैं आवै है नाही' तिस गऊ शब्दतै सास्नादिमान पदार्थविर्षे प्रतीति देखिये है, गऊतै अन्यकी बुद्धि जातें होय ऐसा तहां अन्य शब्द ल्यावनां । बहुरि कहै—एक ही गऊ शब्दतै दोय अर्थकी प्रतीतिका संभावन है तातें अन्य शब्द ल्याव नेते प्रयोजन नाही । ताकू कहिये—जो ऐसे नाही, एक शब्दकै दोय विरुद्ध अर्थके कहनेका विरोध है असंभव है। बहुरि विशेष कहै है-जो गऊ शब्दकै गऊतै अन्यकी ब्यावृत्ति विषय होते पहले तौ गऊ नाही ऐसी प्रतीति आवै है, सो ऐसैं तो वनैं नाही लोककै तौ पहले ही गऊ अर्थकी प्रतीति होय है यातै अन्यापोह शब्द का अर्थ नाही । बहुरि विशेष कहै है-जो अपोह कहिये निषेध सो सामान्य है, तौ शब्दका अर्थपणांकी प्रतीतिमैं लिया हुवा पर्युदास प्रतिषेधरूप Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितहै कि प्रसज्य प्रतिषेधरूप है ? ऐसैं दोय पक्ष पूछिये । जहां विधिकी प्रधानता होय निषेध गौण होय तहां पर्युदासप्रतिषेध होय । इहां जाका निषेध करना होय ताके शब्दकै पूर्वं नकार ल्यावै, जैसे काहू. कह्या 'अब्राह्मणकू ल्याव ' तहां जानिये ब्राह्मणका तौ निषेध है अर अन्य वैश्यादिककी विधि है तिनिकू बुलावै है। बहुरि जहां विधिकी तौ अप्रधानता होय अर निषेधकी प्रधानता होय तहां प्रसज्य प्रतिषेध होय इहां क्रियाकी साथ नकार ल्यावै जैसे काहू. कह्या-'ब्राह्मणकुं न ल्याव ' तहां जानिये नाही ल्यावनेंकू कहै है, इहां अत्यंत निषेध जाननां । सो इहां अन्यापोह शब्दार्थविर्षे दोय पक्ष पूछि तहां कहै-पर्युदास प्रतिषेध है तौ गऊपणां ही नामान्तरकरि कह्या जातै अभावके अभावकै तौ अन्यभावका सद्भावपणां ही है, गऊ के अभावका अभाव कह्या तब गऊका ही अन्य नाम कह्या । बहुरि इहां पूछिये जो गऊ शब्दकै वाच्य अश्व आदिकी निवृत्ति है लक्षण जाका ऐसा अभाव कहा है । जो कहै अपनां स्वलक्षण जो क्षणिक निरन्वय तिसस्वरूप है, तो यह तौ वर्षे नाही जातें स्वलक्षण तौ सकल विकल्प अर वचन इनिके गोचरतें दूरवर्ती है । बहुरि कहै जो काबरापणां आदि व्यक्तिरूप है तो यह भी नांही है, जारौं बौद्ध शब्दकू सामान्यका वाचक कहै है सो काबरापणां आदि विशेषरूप व्यक्ति तिनिकू कहें शब्दकै सामान्यका वाचक कहनेका अभावका प्रसंग आवै है । तारौं समस्त जे गऊकी व्यक्ति तिनि विर्षे अन्वयकी प्रतीतिका उपजावनहारा अर तहां न्यारा न्यारा समस्तपणांकरि व्यक्तिनिवि वर्तमान ऐसा सामान्य ही गोशब्दका अर्थ है, ताहीका अपोह ऐसा नाम करतें तौ नाममात्र ही भेद होय है अर्थभेद तौ नाही । तातें आदिका पक्ष जो पर्युदासनिषेध सो तौ श्रेष्ट नांही । बहुरि दूसरा पक्ष जो प्रसज्यप्रतिषेध सो भी श्रेष्ठ नांही है जातें Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। गऊ आदि शब्दनिका प्रसज्यप्रतिषेध होय तब कोई बाह्य पदार्थ विषै प्रवृत्तिका प्रयोग होय, अर तुच्छाभाव मानिये तौ नैयायिकमतका प्रवेशका प्रसंग आवै । बहुरि विशेष कहैं हैं-जो गऊ आदिक जे सामान्य शब्द हैं, बहुरि जे शाबलेय कहिये काबरा आदिक विशेष शब्द हैं तिनिकै बौद्धके अभिप्रायकरि पर्यायशब्दपणां आवै अर्थका भेदका अभाव ठहरै जातें एक अपोह ही सर्व शब्दनिका अर्थ ठहरै, जैसैं वृक्षका दूसरा नाम पादप इत्यादि पर्याय शब्द हैं तिनिका अर्थ न्यारा नाही तैसैं ठहरै । बहुरि तुच्छा भाव कहिये सर्वथा अभाव ताकै विषै भेद युक्त नांही है । संसृष्टत्व, एकत्व, नानात्व भेद हैं ते तौ वस्तु ही विर्षे प्रतीत्तिमैं आवें हैं । बहुरि अभावविर्षे भेद मानिये तौ वस्तुपणांकी प्राप्ति आवै है जातै वस्तुपणांका लक्षण भेद स्वरूप है । बहुरि निषेध करने योग्य जे गऊ शब्दकैं अश्व आदिक ते ही भये संबंधी तिनिके भेदतै अभावमैं भेद कहै तो यह वर्णं नाही जातै प्रमेय अभिधेय आदिक जे विधिरूप शब्द हैं तिनिकी प्रवृत्तिका अभावका प्रसंग आवै । जातै प्रमेय आदि शब्दनिकै 'व्यवच्छेद्य' कहिये निषेध करने योग्य अप्रमेय आदि है सो ताके अतद्रूपकरि भी अप्रमेय आदिरूपपणां होते तिस अप्रमेय आदितै व्यवच्छेदका अयोग है, तातें तहां प्रमेय अभिधेय इत्यादि शब्द वाच्य अपोहविर्षे संबंधीके भेदतै भेद कैसैं होय । बहुरि विशेष कहै है-शावलेय काबरा आदि शब्दनिविर्षे अपोह कहिये निषेध सो एक ही नांही ठहरै है जातें व्यक्ति व्यक्ति वि. न्यारा न्यारा ही ठहरै है । बहुरि कहै-जो काबरा आदि शब्द अपोहका भेद नाही करैं हैं तौ ताकू कहिये--अश्व आदि शब्दभी भेद करनेवाले मति होहु जाकै अपने सामान्यमांही जे काबरा आदि गुण ते भेद करनेवाले नाही, ताकै अश्व आदि भेद करनेवाले कहनां तो अति Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित साहस है, जबरी है । वस्तुके भी संबंधीके भेदतें भेद न पाइये तक अवस्तुकै कैसे होय ? सो ही कहिये है, एक ही देवदत्त आदि नामा कोई पुरुष कडा कुंडल आदि पहेरे तब तिनि संबंधीनिकै भेदतें अनेकपणां होय नाही । बहुरि विषेश कहै है -संबंधीके भेदतै भेद भी कहूं होहु परंतु वस्तुभूत सामान्य माने विना अन्यापोह है आश्रय जाका ऐसा संबंधी है सो तुमार होने योग्य न होय है, सो ही कहिये है ---जो काबरा आदि विर्षे वस्तुभूत सारूप्य कहिये समानता ताका अभाव है तौ अश्व आदिका परिहार करि तहां ही तिनिका विशेषरूप यह गऊ है ऐसा नाम अरु ज्ञान कैसैं होय तारौं संबंधीका भेदकरि भेद चाहै है तौ सामान्य भी वस्तुभूत अंगीकार करनां योग्य है । बहुरि विशेष कहै है—जो अपोह शब्दार्थकी पक्ष विौं संकेत ही बणें नाहीं जारौं तिस अपोह के ग्रहणका उपायका असंभव है । तहां तिसका ग्रहण वि प्रत्यक्ष प्रमाण समर्थ नाही जातै प्रत्यक्षका तौ वस्तु विषय है, अन्यापोह तौ अवस्तु है । बहुरि अनुमान भी ताका ग्रहणका उपाय नांही जातें अनुमान तौ स्वभाव तथा कार्य वस्तुका लिंग होय तिस करि उपजै है, अपोह है सो तौ निरुपाख्य कहिये निःस्वभाव है तातें स्वभावलिंग नाही अर अर्थक्रियाकरि रहित है ता” कार्यलिंग नाही ॥ बहुरि विशेष कहै है—गऊ शब्दकै अगऊका अपोह कहनहारापणां होतें गऊ ऐसा शब्दका कहा अर्थ होय ? जातै विना जाण्यांकै विधि निशेधविषै अधिकार नाही है । जो कहै अगऊ की निवृत्ति गऊ शब्दका अर्थ है तौ इतरेतराश्रयनामा दोष आवैगा, अगऊका व्यवच्छेद तौ अगऊका निश्चय भयें होय बहुरि सो अगऊ गऊकी निवृत्तिस्वरूप है, बहुरि गऊ है सो अगऊका व्यवच्छेदरूप है ऐसैं इतरेतराश्रय दोष है । बहुरि अगऊ इस पदमैं भी गऊ ऐसा उत्तरपद है ताका अर्थ भी ऐसैं Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १५५. ही विचारनां, गऊकी व्यावृत्तितैं अगऊका निश्चय होय अगऊकी व्यावृतितैं गऊका निश्चय होय । बहुरि क है— जो अगऊ ऐसैं इहां गोशब्दका अर्थ विधिरूप और ही है, तौ अपोहही शब्दार्थ है ऐसा कहनां विगडेगा । तातैं कही जो युक्ति ताकरि विचाय हुवा अपोहका अयोग है ॥ तातैं अन्यापोह शब्दका अर्थ नांही है यह निश्चय भया जो सहज योग्यताके वशर्तें शब्दादिक हैं ते वस्तुकी प्रत्तिपत्तिके कारणा हैं ॥ ९६ ॥ इहां श्लोक: K स्मृतिरनुपहतेयं प्रत्यभिज्ञानवज्ञा प्रमितिनिरतचिन्ता लैंगिकं सङ्गतार्थम् । प्रवचनमनवद्यं निश्चितं देववाचा रचितमुचितवाग्भिस्तथ्यमेतेन गीतम् ॥ याका अर्थः—इस अधिकारविषै निर्वाध तौ स्मृतिप्रमाण कला, बहुरि आदर योग्य प्रत्यभिज्ञान प्रमाण कह्या, बहुरि प्रमिति कहिये प्रमाणका फलरूप ज्ञान तिसविषै लीन ऐसा चिंता कहिये तर्क प्रमाण कला,.. बहुरि यथार्थ है अर्थ जामैं ऐसा लैंगिक कहिये अनुमान प्रमाण कह्या, बहुरि निर्दोष प्रवचन कहिये आगम प्रमाण कह्या । ये पांच परोक्षप्रमाणके भेद अकलंकदेव आचार्यके वचनकरि निश्चय किया हुवा माणिक्यनंदिनैं उचितवचन करि रच्या हुवा मैं अनन्तवीर्य आचार्य यहु. यथार्थ गाया है ॥ १ ॥ छप्पय स्मृति वरनीं निरदोष तथा प्रतिभिज्ञा सांची, तर्क यथारथरूप बहुरि अनुमा शुभ वांची । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित आगम बाधारहित, देव अकलंक विचारा, ___ ताके वच अनुसार नंदिमाणिकनैं धारा ॥ तेही अनंतवीरज गणी भाषे भेद परोक्षके । देशभाषभाषी पढो गुणी सुबुद्धी नर जिसे ॥१॥ ऐसे परीक्षामुखप्रकरणकी लघुवृत्तिकी वचनिकाविर्षे परोक्षका प्रपंच तीसरा समुद्देश समाप्त भया ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-समुद्देश । -::K (४) आरौं प्रमाणकी स्वरूप संख्या विप्रतिपत्तिका निराकरण करि अब प्रमाणका विषयकी विप्रतिपत्तिका निराकरणकै अर्थि सूत्र कहै है;.. सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः॥१॥ याका अर्थ—सामान्य विशेष स्वरूप तिस प्रमाणका अर्थ है ताकू विषय कहिये । तहां 'तत्' शब्दकरि प्रमाण लेनां ताकै ग्रहण करने योग्य जो अर्थ सो विषय है ताका विशेषण सामान्य अर विशेष है आत्मा जाका, ऐसा है । सामान्य अर विशेषका स्वरूप आगैं कहसी। इनि दोऊनिका ग्रहण तथा आत्मशब्दका ग्रहण है सो केवल सामान्यहीकै तथा केवल विशेषहीकै तथा केवल दोऊ स्वतंत्रकै प्रमाणका विषयपणांका प्रतिषेधकै अर्थि है, न्यारे न्यारे ही केवल विषय नाही । तहां केई तौ सत्ता सामान्यहीकू प्रमाणका विषय मानें हैं तिनिमैं सत्तामात्र देह जो परम ब्रह्म ताकै तौ प्रमाणका विषयपणां का निराकरण पूर्व सर्वज्ञके विवादवि कियाहीथा । जातें सत्ता मात्रकै केवल सामान्यपणां है सो प्रमाणका विषय नाही । बहुरि तिस शिवाय अन्य विचारिये है, तहां सांख्यमत वाले तो प्रधानकू सामान्य कहैं हैं सो प्रमाणका विषय मानें हैं, ताका वचनका श्लोक है, ताका अर्थ ऐसा -जो सत्त्व रजः तम ये तीन जामै पाइये, बहुरि अविवेकी कहिये महत् १ त्रिगुणमविवेकि विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि। व्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान् ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित आदितै भेदरहित बाह्यविषयस्वरूप अभिन्न एक रूप ऐसा सामान्य, बहुरि अचेतन कहिये जड, बहुरि उत्पत्तिधर्मस्वरूप, बहुरि व्वक्त कहिये प्रकट दीखै, तैसैं तो प्रधान है; बहुरि तिसतै विपरीत कहिये उलटा विशेषणस्वरूप अर तैसा पुरुष है ऐसें सांख्य कहै है। ताकू दोय पक्ष पूछिये-जो ऐसा प्रधान केवल महत् आदि कार्यके निपजावनें प्रवत् है सो काहूकू अपेक्षा लेकरि प्रवत्र्ते है कि विना अपेक्षा ही प्रवृत्ति है ? जो कहै अपेक्षा लेकरि प्रवत्र्ते है तौ किसकी अपेक्षा ले है, सो निमित्त कहनां जाकी अपेक्षा ले प्रवत्र्ते । तहां कहै-जो पुरुषका प्रयोजन ही याके प्रवर्त्तनैमैं कारण है जातें ऐसा कह्या है, पुरुषार्थ हेतु करि प्रधान प्रवत्तै है । तहां पुरुषार्थ दोय प्रकार है; एक तौ शब्द आदि विषयका ग्रहण करना, दूजा गुण तो स्पर्श आदि अरु पुरुषतै अन्य जो प्रधान तिनितें पुरुषकै भेदका देखनां, ये दोय पुरुषार्थ कहे हैं । ताकू आचार्य पूछ है—कि यह सत्य है तैसैं प्रवर्त्तता भी प्रधान है सो पुरुषकृत किछू उपकार लेकरि प्रवत् है कि नाही लेकरि प्रवत्र्ते है ? जो कहैगा पुरुषकृत उपकार लेकरि प्रवत्र्ते है तौ तहां पूछे है--कि सो उपकार प्रधान भिन्न है कि अभिन्न है ? जो कहै—भिन्न है, तो यह उपकार प्रधानका है ऐसा नाम काहेरौं भया ? जो कहै—प्रधानकै अर उपकारकै संबंध है, तौ समवायादिक संबंध सांख्य मानै ही नाही तब संबंध काहेका ? बहुरि तादात्म्य कहै तौ भेद कैसैं कहिये, तादात्म्य तौ भेदका विरोधी है । बहुरि दूजा पक्ष कहै—जो उपकार प्रधानतें अभिन्न है तौ प्रधान ही तिस पुरुष करि किया ठहया । बहुरि कहैजो प्रधान पुरुष है उपकारकी अपेक्षा विना ही प्रवत्र्ते है तौ मुक्तात्मा प्रति भी प्रधान प्रवत्ते, यामैं विशेष नाही । या ही कथन करि निरपेक्षप्रवृत्ति पक्ष भी निराकरण किया, तहां भी हेतु कह्या सो ही जाननां । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १५९ बहुरि विशेष कहैं हैं—जो प्रधान कोई प्रकारकरि सिद्ध होय तो कही बात सारी बणे सो प्रधानको तौ सिद्धी ही होय नाही, काहू प्रमाण करि निश्चय किया जाय नाही । इहां सांख्य कहै है—जो कार्य जगतमैं होय है तिनिकै एक अन्वय देखिये है तातें कोई एक कारण करि उपजबापणां माननां, बहुरि जे महत् अहंकारादिक कार्य है तिनिके भेदनिका परिणाम देखिये है । तातें इनि दोऊ हेतुनितें जैसैं घट घटी सरावा आदिकै एक माटीका अन्वय अर भेदपरिणाम देखिये है ताका कारण एक मृत्तिका दीखै है तैसैं महत् आदि कार्यनिकै एक अन्वय देखनेंतें बहुरि भेदनिका परिणाम देखनेंतें एकरूप कारण प्रधान मानिये है, ऐसैं प्रधानकी सिद्धि है। तहां आचार्य कहैं हैं—यह चर्चा तो सुन्दर नाही जातें सुख दुःख मोहरूपपणां करि घट आदिकै अन्वयका अभाव है, जडकै चेतनका अन्वय होय नाही सुखादिकका अन्वय तौ अन्तरंग तत्व ही कै पाइये है तातै सर्व ही कार्यनिकै तौ एक अन्वय बण्यां नाही । इहां सांख्य कहै—जो अन्तरङ्ग तत्वकै तौ सुख आदिका परिणाम नाही अर सुख दुःखादिकरूप परिणामता जो प्रधान ताके संसर्गतै आत्माकै भी ते प्रतिभासे है । तहां आचार्य कहैं है—यह भी बणें नाही, जो प्रतिभासमान वस्तु नाही ताकै भी संसर्गकी कल्पना कीजिये तो तत्वकी संख्याका नियमका निश्चय नाही होय, सो कही है, ताका श्लोकका अर्थः__ जो संसर्ग ही अविभाग कहिये अभेद मानिये जैसैं लोहके गोला कै अर अग्निकैं है तैसैं तो सर्व वस्तुकै भेद अभेदकी व्यवस्था कहिये नियम ताका उच्छेद होय जाय, ऐसैं तत्वकी संख्याका नियम ठहरै १ संसर्गादविभागश्चेदयोगोलकबह्निवत् । भेदाभेदव्यवस्थैवमुत्पन्ना सर्ववस्तुषु ॥१॥ इति । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित नांही । बहुरि जो परिणामनामा हेतु कह्या सो एक स्वभावरूप मांटीतें भये जे घट घटी सरावा आदि तिनिवि भी है, बहुरि अनेक स्वभावरूप जे पट कुटी मुकुट शकट, आदि तिनि विौं भी पाइये है, यातें हेतु अनैकान्तिक है; तातै प्रधान जो प्रकृति ताकी सिद्धि नांही है, सो ऐसैं प्रधानका ग्रहणके उपायका असंभव है । अथवा संभवै तौऊ तिस” कार्यकी उत्पत्तिका अयोग है । सांख्यनैं जो कह्या ताकी दोय आर्या है, 'तिनिका अर्थः-प्रकृतिौ तौ महान् होय है जो उत्पत्तिते लगाय नाश ताई स्थायी रहै ऐसी बुद्धिकुं महान् कहै है, बहुरि तिस महान्त अहंकार होय है, बहुरि तिस अहंकारतें षोडश गण होय है (ते श्रोत्र त्वचा चक्षु जिह्वा घ्राण ये तो पांच बुद्धि इन्द्रिय, अर पायु उपस्थ वचन पग हाथ ये पांच कर्म इन्द्रिय हैं, एक मन है, रूप रस गंध शब्द स्पर्श ये पांच तन्मात्रा हैं ऐसैं सोलह भये ) बहुरि तिस षोडशगणतैं पांच जे तन्मात्रा तिनि” पांच भूत उपसें हैं, ते कहिये हैं,—रूप” तौ अग्नि होय है, रस तैं जल होय है गंधर्तं भूमि होय है, शब्दतै नभ होय है, स्पर्शरौं पवन होय है; ऐसैं सृष्टिका क्रम है। तहां मूल प्रकृति तौ विकृति रहित है ( विकार रहित है ) अर याका कोई कारण भी नाही, बहुरि महत् आदि हैं ते प्रकृतिकी सात विकृति हैं अर सोलह गण है सो विकार है; ऐसैं विकार हैं ते सात अर सोलह तेईस हैं । बहुरि पुरुष है सो विकृति भी नांही अर प्रकृति भी नांही। ऐसैं पचीस तत्व १ यदुक्तं परेण-प्रकृतेर्महान् ततोऽहंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकारपंचभ्यः पंच भूतानि ॥१॥ वचनिकाकी प्रतिमें दो आयाओंका उल्लेख है परन्तु मुद्रित संस्कृत प्रतिमें उपरिलिखित सिर्फ एक यही आर्या है, दूसरी नहीं है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला | १६१ 1 कहे । तिनिका वर्णन वंध्या के पुत्रका सुरूपपणांका वर्णन सरीखा है याका विषय असत्यार्थ है, तातैं आदरनें योग्य नांही । प्रकृतितैं कार्यकी उत्पत्ति वर्णै नांही । आकाश तौ अमूर्त्तीक है अर पृथ्वी आदि मूर्तीक हैं तिनिकैं एक कारणतैं उपजनेका अयोग है । जो ऐसैं न मानिये तौ अचेतन जो पंचभूतका समूह तातैं चैतन्यकी सिद्धि होय, तब चार्वाकमतकी सिद्धिका प्रसंग आवै । तब सांख्यमतका बास भी न रहै । बहुरि सत् कार्यवाद सांख्य करे है ताका प्रतिषेध " प्रमेयकमलमार्त्तड ' ग्रंथविषै विस्तारकरि का है, सो इहां नांही कहिये है, या ग्रंथकै संक्षेपपरूपणां है यार्तै; ऐसैं जाननां । ऐसें विचार किये सामान्यमात्रही प्रमाणका विषय ब नांही इहां तांई सांख्यमतीसूं चरचा है । आगैं सांख्य आदि सामान्यहीकूं तत्त्व कहैं हैं तैसें बौद्धमती कहैं -जो विशेष ही तत्त्व है, वस्तुस्वरूप है, ये ही प्रमाणका विषय है जाते तिनिकै असमान आकारनिकरि सामान्य आकारनितैं समस्तपणां करि भिन्नस्वरूपपणां है, भावार्थ - विशेष हैं ते सामान्यतैं सर्वथा भिन्न ही हैं । नैयायिक सामान्यकूं सर्वथा एक मानैं है सो ऐसे एक सामान्यकैं अनेक विशेषनि विषै व्याप्ति करि वर्त्तनके संभवका अभाव है । एक सामान्य अनेक विशेषनिमैं कैसैं व्यापै । तिस सामान्यकै एक व्यक्ति विषै समस्तपणां करि तिष्ठनां पावै तिस ही काल अन्य व्यक्ति विषै पावनेंका अभावका प्रसंग आवै है । बहुरि जो कहिये - तिस ही काल अन्यव्यक्ति विषै भी पाइए है तौ सामान्य नाना ठहरै जातैं एक ही काल भिन्नदेशपणांकरि तिष्ठते जे व्यक्ति तिनिविषै समस्तपणाकरि जैसैं व्यक्ति न्यारे न्यारे हैं तैसैं सामान्य भी न्यारे न्यारे पावैं । बहुरि जो ऐसें होतें भी सामान्यकै नानापणां न होय तौ व्यक्ति भी न्यारे न्यारे मति होहु । तातें जो बुद्धि करि अभेद मानिये है सो ही सामान्य हि. प्र. ११ 1 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितहै वस्तुभूत नाही । सो हमारे कह्या है, ताका श्लोकका अर्थः-जो पदार्थ एक जायगां देखिये सो अन्य जायगां कहूं न देखिये है तातें बुद्धि विर्षे अभेदकल्पना सो ही सामान्य है, यानै भिन्न और कछू नाही है। बहुरि बौद्ध ही कहैं है:-ते विशेष परस्पर संबंधरहित ही हैं जातें तिनिकै संबंध विचारया हुवाका अयोग है। जो एकदेशकरि विशेषनिकै संबंध कहिये तो एक परमाणुकै छहौंही दिशातैं छह परमाणुका एककाल संयोग होतें परमाणुकै छह अंशपणांकी प्राप्ति होय, सो परमाणुकै छह अंश कहनां संभवै नांही । बहुरि सर्वस्वरूपकरि संबंध कहिये तौ पिंडकै अणुमात्रपणांका प्राप्ति आवै । बहुरि अवयवीका भी निषेध है । तारौं विशेषनिकै परस्पर संबंध नाही वर्षे है । बहुरि अवयवीका निषध ऐसे है-जो वृत्तिविकल्प कहिये अवयवीकी अवयवनिविर्षे वृत्तिका विचार ताकरि तथा अनुमानकरि बाधाही आवै है । सो ही कहिये है, बौद्ध नैयायिककू कहै है—अवयव हैं ते अवयवीविर्षे वत्र्ते हैं यह तौ तैं मानीही नाही है बहुरि अवयवी है सो अवयवनिविौं वत्” है ऐसैं मानी है; सो इहां दोय पक्ष पूछिये है-जो एकदेशकरि वर्ते है कि सर्वस्वरूप करि वत्र्ते है ? जो कहै एकदेशकरि वत्त है तौ अवयवीकै अवयवनि सिवाय अन्य अवयवका प्रसंग आवै, बहुरि तिनि विर्षे भी अन्य एकदेशकरि अवयवी वत्तै तब अनवस्था पावै । बहुरि कहै सर्व स्वरूपकरि अवयवी अवयवनि विषै वत्” है,-तौ पूछिये-एक एक अवयव प्रति स्वभावभेदकरि वर्ते है कि एकरूपकरि वत्र्ते है ? जो कहै (१) तदुक्तम् एकत्र दृष्टो भावो हि क्वचिन्नान्यत्र दृश्यते । तस्मान्न भिन्नमत्स्यन्यत्सामान्यं बुद्धयभेदतः॥१॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १६३ स्वभावभेदकरि वर्ते है तौ अवयवी बहुत ठहरैं है । बहुरि कहै-एकरूप करि व” है, तौ अवयनिकै एकरूपपणां ठहरै है । अथवा स्वभावभेदकरि तथा एकरूपकरि ऐसैं पूछनां मति होहु, ऐसैं ही कहनान्यारे न्यारे एक एक अवयवनि करि एक एक अवयवी समस्तपणांकरि वत्” तौ अवयवी बहुत ठहरें हैं । ऐसें होतें वृत्तिविकल्पतें बाधा आवै है ॥ अब अनुमानतें बाधा दिखावै है---जो देखने योग्य होता संता भी ग्रहणमैं न आवै सो नाही ही है, जैसैं आकाशका कमल; तैसैं अवयवनिविर्षे अवयवी ग्रहणमैं नाही आवै हैं । बहुरि जाका ग्रहण न होते जाकी बुद्धि का अभाव, सो तिसतै अन्य अर्थ नाही जैसे वृक्षका ग्रहण नाही तहां वन नाही ॥ पहले अनुमानतें तौ अवयवनिविर्षे अवयवी नांही ऐसा सिद्ध किया, इस अनुमानतें भिन्न अर्थ नाही ऐसा कह्या ॥ ऐसैं अवयवीका निषेध किया, संबंधका पूर्व निषेध किया ही था ॥ इनि दोऊ हेतुनितें रूप आदिके परमाणु हैं ते निरंश हैं परस्पर स्पर्शनेवाले नाही सर्वथा भिन्न भिन्न ही हैं; बहुरि ते एक क्षणमात्र स्थायी हैं नित्य नांही हैं जिनका क्षण क्षणमैं विनाश होय अन्य उपजें हैं जाते विनाश प्रति अन्यकी अपेक्षा नांही है ॥ याका प्रयोग ऐसा--जो जिस भाव प्रति अन्यकी अपेक्षा नाही करै है सो तिस स्वभाव वि. नियमरूप है जैसैं स्वकार्य पट आदिकी उत्पत्तिविर्षे अन्तमैं जो तंतु आदि सामग्री है सो अन्य कारण नाही चाहै है सो तिस स्वभावविर्षे नियत है ॥ बहुरि इहां कोई आशंका करै-जो घट आदिका नाश मुद्गरादिककार होय है यह अन्यकी अपेक्षा है ॥ तहां बौद्ध दोय पक्ष पूछे है जो घट आदिका नाश मुद्गरादिक करै है सो नाश घटते भिन्न करै है कि अभिन्न करै है ? जो भिन्न करै है तौ नाश घटते भिन्न रह्या तब घटकै स्थिति ही भई ॥ इहां कहै-जो विनाशके संबं Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित ध घटकूं भी नष्ट भया ऐसैं कहिये तौ सद्भावकै अर अभावकै संबंध कहा है ? जो कहै — तादात्म्य है सो तौ नांही वर्णै जातैं भाव अभावर्कै तौ भेद है । बहुरि कहै— जो तदुत्पत्ति कहिये कार्यकारणसंबंध है तौ सो भी नांही है जातैं अभावकै कार्यका आधारपणां वर्णै नांही ॥ बहुरि क - - मुद्गर घटका नाश घटतैं अभिन्न करे है तौ घट आदिही किया ठहरै' नाश अर घटमैं भेद नांही; ऐसें होतें घटतौ पहले है ही, तिस किया कहा ? ऐसैं घटतैं अभिन्न नाश कहने मैं करणां वृथा होय है । ऐसें नाशकै अन्यकी अपेक्षारहितपणां सिद्ध भया । सो परमाणुनिकै विनाशरूप स्वभावका नियमपणां साधै ही है । बहुरि अनित्य विशेषरूप परमाणु तिनिकैं तिस स्वभावका नियमपणां सिद्ध होतैं तिनितैं अन्य जे आत्मा आदिक विवादगोचर भये वस्तु तिनिकैं सत्त्व नामा आदि हेतुकरि साधतैं इस दृष्टांतकरि क्षणस्थितिस्वभावपणांकी सिद्धि होय ही है । सो ही कहिये है:1 - जो सत् है सो सर्व एकक्षणस्थितिस्वभावरूप हैं जैसैं घट है तैंसैं ही सत् रूप भये भाव हैं, ऐसैं तौ वहिर्व्याप्ति मुख कर अनुमान किया । अब अन्तर्व्याप्ति मुख कर अनुमान करे है -- अथवा सत्व है सो ही विपक्ष जो नित्य ता विषै वाधक प्रमाणका वलकरि दृष्टान्त विना ही समस्त वस्तुकै क्षणिकपणांका अनुमान करावै है । सो ही कहिये है; - सत्त्व है सो अर्थक्रिया करि 1 । व्याप्त है, बहुरि अर्थक्रिया है सो क्रमयौगपद्यकरि व्याप्त है, बहुरि क्रम अर यौगपद्य ये दोऊ हैं ते नित्य निवृत्तिरूप होते अपनीं व्याप्य अर्थक्रिया लार ले निवृत्तिरूप होय हैं, भावार्थ - नित्यमैं अर्थक्रिया न ब है, बहुरि सो अर्थक्रया है सो अपनां व्याप्य सत्त्वकूं लार ले है नित्यमैं सत्त्व नांही रहै है, ऐसें नित्यकै क्रमं यौगपद्य करि अर्थक्रियाका विरोध है, तातैं अर्थक्रिया विना सत्त्वका असंभव नांही, सो हीं Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १६५ विपक्ष जो नित्य ताविर्षे वाधकप्रमाण है । बहुरि नित्यकैं अनुक्रम करि तथा युगपत् अर्थक्रिया नांही संभवै है, नित्य जो एकही स्वभाव करि पूर्व अपर काल विषै होते दोय कार्य करै तौ कार्यका भेद करनेवाला नांही होय जातें नित्यकै एक स्वभावपणां है । जो नित्यकै एक स्वभावपणां होतें भी कार्यकै नानापणां है तौ अनित्य विर्षे कार्यके भेदतें कारणका भेदकी कल्पना निष्फल ही होय है । तैसा एक ही कोई कारण कल्पने योग्य होय है जाकरि एक स्वभावरूप एक ही करि समस्त चराचर वस्तु उपजै । बहुरि नैयायिक कहै-जो नित्य वस्तुकै स्वभावका नानापणां ही कार्यके भेदरौं मानिये है, तौ तहां पूछिये-जो ते स्वभाव तिस नित्य वस्तुकै सदा संभवते हैं तो कार्यका संकरपणां आवैगा जीव अजीव नर नारक एक काल उपजते ठहरेंगे ? बहुरि ते स्वभाव सदा नांही संभवते हैं तो तिनिकी अनुक्रमतें उत्पति होने विर्षे कारण कहा है, सो कह्या चाहिये ? तिस नित्यतैं ये हैं ऐसैं एक स्वभावतै उत्पत्ति होते तिनि स्वभावनिकै भेदके असंभवनेंतें सो ही कार्यनिकै युगपत् प्राप्ति संभवै । बहुरि कहै-जो नित्य कारणकै सहकारी कारण क्रम” होय तिस अपेक्षा करि ताके स्वभावनिका अनुक्रम करि सद्भाव है, तातैं तुम कह्या जो दोष; सो नाही । ताकू कहियेजो ऐसैं कहनां भी नीकै मिलै नांही, जो नित्य है अर समर्थ है ताकै परकी अपेक्षाका अयोग है। बहुरि सहकारी कारणकरि सामर्थ्य करणां मानिये तौं नित्यताकी हानि आवै, सहकारिनें नई सामर्थ्य उजाई तब नित्य कहां रह्या । बहुरि कहै-सहकारी कारण नित्यतै सामर्थ्य भिन्न ही उपजावै है यारौं नित्यताकी हानि नाही, तौ नित्य तौ अकिंचित्कर रह्या, कछू करनेवाला नाही, सहकारी करि उपजाई जो सामर्थ्य तिसहीकै कार्यकारणपणां ठहरया । बहुरि कहै नित्य अर Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितसामर्थ्यकै संबंध है तातै नित्यमैं भी कार्यकारीपणां कहिये तौ तहां दोय पक्ष पूठ्ठ हैं—संबंध एक स्वभाव है कि अनेक स्वभाव है ? जो कहैगा तिस सामर्थ्यकै संबंध है सो एक स्वभाव है तो एक स्वभाव संबंध होतें सामर्थ्यकै नानापणांका अभावतें कार्य विर्षे भेद न ठहरैगा। बहुरि कहैगा संबंधकै अनेक स्वभावपणां है तथा अक्रमवानपणां है तो ऐसे होते कार्यकी ज्यों तिस सामर्थ्यकै भी संकरपणां आवैगा, जड करनेकी अर चेतनकरनेकी सामर्थ्यकै संकरपणां आवैगा । ऐसें सर्व आवर्तन होयगा तब चक्रक दोषका प्रसंग आवैगा, तारौं नित्यकै अनुक्रमकरि कार्यका करणां नाही वर्षे है । बहुरि युगपत् एक काल भी नांही वणै है:-समस्त कार्यनिकी एककाल उत्पत्ति होतें दूसरे क्षण कार्यका न करनां आया तब अर्थक्रियाकारीपणां न रह्या तब अवस्तुपणांका प्रसंग आवै है । ऐसें नित्यकै क्रमयोगपद्यका अभाव सिद्ध ही है । ऐसें बौद्धमती अपनां मत दृढ किया, जो विशेष ही वस्तुस्वरूप हैं सामान्य वस्तु स्वरूप नाही, बहुरि ते विशेष परस्पर असंबद्ध ही हैं संबद्ध नाही, अवयवी नाही, बहुरि ते एक क्षणस्थायी ही हैं नित्य नाही। ऐसें तीन पक्ष कही तिनि तीनोंहीका निराकरणकै अर्थि अब आचार्य कहै है;-ऐसी कहनेवाला बौद्ध भी युक्तवादी नाही जाते सजतीय विजातीय न्यारे न्यारे अंशरहित जे विशेष तिनिका ग्राहक प्रमाणका अभाव है । प्रत्यक्ष प्रमाणकै तौ स्थूल स्थिर साधारण आकाररूप वस्तुका ग्राहकपणां है तातें अंशरहित वस्तुका ग्रहणका अयोग है, परस्पर संबंधरूप नाही ऐसे परमाणु नेत्र आदिकरि नाही प्रतिभासे हैं जो प्रत्यक्ष नेत्र आदिकरि दीखें तौ विवाद कैसैं रहै । इहां बौद्ध कहै है-जो पहले तो निरंश क्षणरूप परमाणु ही दीखें हैं पीछे विकल्पकी वासना तौ अन्तरङ्ग रूप ताके वलौं अर वाह्य अन्तराल न दीखै तातें Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १६७ अविद्यमान भी स्थूल आदि आकार विकल्पबुद्धि विर्षे प्रतिभासै है, सो ऐसा विकल्प तिस निर्विकल्प प्रत्यक्षके आकार करि मिल्या हूवा अपनां विकल्पव्यापारकू गौणकरि प्रत्यक्ष व्यापारकू मुख्यकरि प्रवत्र्त है तातें प्रत्यक्ष सारिखा दीखै है तहां आचार्य समाधान करें हैं--जो यह कहनां तौ बालक अज्ञानीका विलास है, जातै निर्विकल्पज्ञानका ही अनुभवन नांही है, निविकल्प सविकल्पका भेद पहले ग्रहण होय तब अन्य आकारके मिलनेकी अन्य आकारवि. कल्पना युक्त होय है, जैसैं पहले स्फटिकमणि अर जपाकुसुम न्यारे न्यारे देखे होंय पीछे स्फटिककै डंक लाग्या दीखै तब ऐसी कल्पना संभवै जो यह स्फटिक जपाकुसुमतें रंगित दीखै है, जो न देखे होय तो ऐसी कल्पना न होय । या ही कथनकरि निर्विकल्प सविकल्पकै युगपत् वृत्ति तथा क्रमवृत्तिमैं भी शीघ्र वृत्तितें एकपणांका निश्चय होय है ऐसा कहना भी निराकरण किया। ताकै भी घीज लेणेंतें प्रतीति आवै तिस समानपणां है। अथवा तिनि निर्विकल्प सविकल्पका एकपणांका निश्चय कौनसे ज्ञान करि करिये ? प्रथम तौ विकल्प ज्ञानकरि तौ निश्चय नाही होय जातें विकल्पज्ञान निर्विकल्पकी बातका जाननेवाला नाही । बहुरि अनुभव ज्ञानकरि निश्चय नाही होय जातें अनुभव विकल्पकै अगोचर है । बहुरि निर्विकल्प सविकल्प जाका विषय नाही ऐसा ज्ञान भी तिनिका एकत्वका निश्चय वि. समर्थ नाही, यामैं अतिप्रसंग दूषण है अन्यका विषय अन्यकरि ग्रहण होते अतिप्रसंग है। तातै प्रत्यक्षबुद्धिविर्षे तौ भिन्न असंबंधरूप परमाणु प्रतिभासै नांही । बहुरि अनुमानबुद्धिवि. भी नांही प्रतिभासे हैं जाते तिसौं अविनाभूत जो स्वभावलिंग अरु कार्यलिंग ताका अभाव है । अर स्थूल स्थिर साधारणका अनुपलंभतें विशेष ही तत्व हैं ऐसें कहै तौ अनुपलंभ लिंग है सो असिद्ध ही है Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित जातें अन्वयरूप आकारका अर स्थूल आकारका प्रत्यक्ष देखनेमैं आवनां कह्या ही है । बहुरि बौद्धनैं कह्या जो परमाणुकै एक देशकरि अर सर्व स्वरूपकार संबंध नाही बर्णं है, सो याका परिहार यह ही-जो ऐसैं हम भी संबंध नाही मानें है, हम तो ऐसैं मानें हैं—जो लूखा चीकनाकै समान जातीयकै तथा विजातीयकै दोय अधिक गुण होय तौ कथंचित् स्कंधकै आकार परिणामै ताकै संबंध मानें हैं । बहुरि बौद्धनैं जो अवयवीका अवयवनिविर्षे वृत्तिविकल्प आदि दूषण कह्या, तहां अवयवीकी वृत्ति ही जो न वर्षे तौ अवयवी वत्तै ही नांही है ऐसैं कहनां था, एक देश आदि विकल्प न कहना था जातै एक देश आदि विकल्पकै तौ अन्य विकल्प विशेषतै अविनाभावीपणां है। सो ही कहिये है-अवयवी अवयवनिविषं एक देशकरि नाही व है, सर्वस्वरूपकार भी नाही वत्तै है ऐसैं कहतें ऐसा आया-जो अन्य प्रकारकरि व” है, अर ऐसैं न मानिये तो, नांही वत्” है—ऐसैं ही कहनां । ऐसैं विशेषका निषेधकै अवशेषका अंगीकाररूपपणां है । तातें कथंचित् तादात्म्यारूपकरि अवयवीकी अवयवनिविर्षे वृत्ति है ऐसा निश्चय कीजिये है, जहां जे कहे दोष तिनिका अवकाश नांही है । बहुरि विरोध आदि दोषका निषेध आगैं करसी यात इहां विस्तार नाही किया है । बहुरि जो वस्तुकै एकक्षणस्थायिपणां विर्षे हेतु कह्याजो जिस भाव प्रति इत्यादि, सो भी अहेतु है जातें हेतु असिद्ध आदि दोषकरि दूषित है । तहां प्रथम तौ नाशविर्षे अन्यकी अपेक्षा” रहित. पणां हेतु कह्या सो असिद्ध है जातें घटादिकका अभावकै मुद्गर आदिके व्यापारका अन्वय व्यतिरेकका अनुसारीपणांतॆ तिसके अभाव प्रति कारणपणां है, मुद्गराकी दिये घट फूटै न दे तौ न फूटै । इहां आशंका करै-जो मुद्गराकी देनां कपालकी उत्पत्तिकू कारण है, अभाव तौ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । निरपेक्ष ही है ? ताकू कहैं हैं—जो कपाल आदि पर्यायांतरका सद्भाव है सो ही घट आदिका अभाव है। बहुरि तुच्छाभाव कहिये सर्वथा अभाव, सो समस्तप्रमाणकै अगोचर है ताकी बात ही न करनी । बहुरि विशेष कहै है—अभाव है सो जो स्वाधीन होय तौ अन्यकी अपेक्षारहितपणां विशेषणयुक्त होय, सो बौद्धमतविर्षे सो अभाव स्वाधीन मान्यां नाही यातॆ हेतुका प्रयोगकाही अवतार नाही । बहुरि यह अन्यानपेक्षपणां हेतु है सो अनैकान्तिक है जानै शालिके बीजकै कोदूंका अंकुरका उपजनां प्रति अन्यकी अपेक्षारहितपणां है तौऊ तिस कोदूंके अंकुराके उपजनेंके स्वभाव प्रति नियमरूपपणां नांही है । बहुरि बाद्ध कहै—जो हेतुका विशेषण ऐसा किये दोष नाही, जो विनाश स्वभाव होते अन्यानपेक्ष है तौ तहां कहिये पदाथक सर्वथा विनाशस्वभावपणां ही असिद्ध है । पर्यायरूपकरि ही पदार्थनिकै उत्पाद विनाश मानिये है द्रव्यरूपकरि उत्पाद विनाश नांही है, जातैं ऐसा वचन है ताका श्लोकका अर्थः जो पदार्थ उपजै है अर विनशै है सो यर्यायनयका विषय है, बहुरि द्रव्यनयकरि आलिंगित वस्तु नित्य है न उपजै है न विनशै है । अन्वय कहिये पहिले पिछलेकै जोड तिसरहित जो विनाश सो निरन्वयविनाश तिसकू होते पहले क्षण” उत्तर क्षणकी उत्पत्ति नाही वर्षे है, जैसैं सूवा मोरकी कुहुक नाही होय तैसैं । ऐसे पदार्थनिका सर्वथा विनाशस्वभावपणां युक्त नांही जाते कथंचित् द्रव्यरूपकरि पूर्वरूप जानैं न (१) आर्या-समुदति विलयमृच्छति भावोनियमेन पर्ययनयस्य । नोदेति नो विनश्यति भावनया लिंगितो नित्यम् ॥१॥ इति वचनात् । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित छोड्या ऐसा भी वस्तुस्वरूपका संभव है । बहुरि द्रव्यके रूपका ग्रहण होनेंका असमर्थपणांतें द्रव्यका अभाव नाही है । तिस द्रव्यके ग्रहणका उपाय जो प्रत्यभिज्ञानप्रमाण ताका बहुलपणे पावनां है, तिस प्रमाणकै पहले प्रमाणपणां कह्याही है । बहुरि उत्तरकार्यकी उत्पत्तिकी अन्यथानुपपत्तितें भी द्रव्यकी सिद्धि होय है, द्रव्य न होय तो उत्तरकार्यकी उत्पत्ति न होय। बहुरि जो क्षणिक साधनेंविर्षे सत्त्वनाम अन्य हेतु कह्या सो भी विपक्ष जो नित्य ताविर्षे सत्त्व नाही तैसैं क्षणिकमैं भी नही है, तातें सत्व हेतु” भी क्षणिक साध्यकी सिद्धि नांही होय है । सो ही कहिये है—सत्त्व है सो अर्थक्रियातें व्याप्त है, बहुरि अर्थक्रिया है सो क्रमयोगपद्यकरि व्याप्त है, ते क्रम यौगपद्य दोऊ क्षणिकर्ते निवृत्तिरूप हुये संते अपनैं व्याप्य जो अर्थक्रिया निवृत्तिरूप होती अपने व्यापलें योग्य जो सत्त्व ताहि लेकरि निवृत्तिरूप होय है; ऐसैं नित्यकी ज्यों क्षणिककैं भी गधाके सींगवत् सत्त्व नांही है । ऐसैं क्षणिकविर्षे सत्त्वकी व्यवस्था नांही है । बहुरि क्षणिक वस्तुकै क्रम यौगपद्यकरि अर्थक्रियाका विरोध है सो असिद्ध नांही है जाते ताकै देशकरि किया अर कालकरि किया जो क्रम ताका असंभव है। जो अवस्थित एक होय ताहीकै अनेक देश अर कालकी कला तिनिविर्षे व्यापीपणां होय सो देशक्रम अर कालक्रम कहिये है। सो क्षणिकवि ऐसा देशक्रम अर कालक्रम नाही है जातें बौद्धमतमैं ऐसें कह्या भी है, ताका श्लोकका अर्थ-जो वस्तु जिस क्षेत्रमैं है सो तहां ही है बहुरि जिस कालमैं है सो जहां ही है या” पदार्थनिकै देशकाल विर्षे व्याप्ति नांही है; ऐसैं आप कह्या है । (१) यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैव सः। न देशकालयोर्व्याप्तिर्भावानामिह विद्यते ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। बहुरि पूर्व उत्तर क्षणनिकैं एक संतानकी अपेक्षा करि भी क्रम नाही संभवै है जातें जो संतानकू वस्तुभूत मानें तौ तिसकै भी क्षणिकपणां ठहरै तब तिसकी अपेक्षा क्रम नाही वर्षे है । अर अक्षणिकपणां होते भी वस्तुभूतपणां मानें तौ वस्तुभूतपणां करि तिस संतानही करि सत्त्व आदि हेतुकै अनैकान्तिकपणां आवै । बहुरि सन्तानकू अवस्तुभूत मानें तौ भी तिसकी अपेक्षा क्रमयुक्त नाही होय । बहुरि युगपत्पणां करि भी क्षणिक विषै अर्थक्रिया नांही संभव है । इहां दोय पक्ष--जो युगपत् एक स्वभाव करि नानाकार्य करणां मानिये तो तिसके कार्यकैं एकपणां ठहरै, बहुरि जो नानास्वभाव कल्पिये तो ते स्वभाव तिसक्षण करि व्यापे चाहिये । सो जो एक स्वभाव करि ते क्षणिक तिनि स्वभावनिमैं व्यापै तौ तिनि स्वभावनिकै एकरूप ठहरै, बहुरि जो नानास्वभाव करि व्या तौ अनवस्था दूषण आवै जातै फेरि एक स्वभाव अनेक स्वभावका प्रश्न चल्या जाय । बहुरि बौद्ध कहै है जो एक पूर्व क्षणकै एक उत्तर क्षणविर्षे उपादानभाव है सो ही अन्य जे रूप” रसादिक तिनिवि तिसक्षणकैं सहकारी भाव है यह ही स्वभाव भेद है; तौ ताकू आचार्य कहैं हैं:--नित्य एकरूप वस्तुकैं भी क्रमकरि नानाकार्य करनेवालेकै स्वभावका भेद अर कार्यका संकरपणां मति होहु, ऐसा दूषण तैं कह्या था सो मति होहु । इहां बौद्ध कहै जो अक्रम” क्रमवान् वस्तुकी उत्पत्ति नाही तारौं नित्यकै ऐसैं नाही, तो ताकू कहिये-तैसैं ही क्रमरहित जो क्षणिक सो एक है अनंश है ऐसे कारण” युगपत् अनेक कारणनिकरि साधने योग्य जे अनेक कार्य तिनिका विरोध है, तातै तामैं भी कार्यकारीपणां नांही है । बहुरि विशेष कहैं हैं, बौद्धकू पूछ है तेरे पक्ष विष कार्यकारीपणां सत्कै. मान है कि असत्कै मानें है ? जो सत्कै कार्यका कर्त्तापणां मानें है Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित ती सकलकालकी कला विर्षे व्यापीजे क्षण तिनिकै एकक्षणवर्तीपणांका प्रसंग आवेगा । बहुरि जो दूसरा पक्ष असत्कै कार्यकारीपणां मानेंगा तौ गधाकै सींग आदिकैं भी कार्यकारीपणां ठहरैगा जानैं गधाका सींग भी असत्रूप है, यामैं विशेष नाही । बहुरि सत्त्वका लक्षण अर्थक्रियाकारीपणां है सो असत्कै कार्यकारीपणां मान ताकै व्यभिचार आबैगा । तातें विशेष एकांत है सो कल्याणकारी श्रेष्ठ नांही । ऐसैं विशेष एकान्त माननेवाला जो बौद्धमत ताकी पक्षका निराकरण किया, यातें विशेष एकान्त वस्तुस्वरूप नाही तातै प्रमाणका विषय नाही है । इहां तांई बौद्धमतीतूं चर्चा है। ___ आगैं नैयायिकतूं चर्चा करें हैं;-अब कहैं हैं-जो सामान्य विशेष दोऊ परस्पर अपेक्षारहित हैं ऐसैं नैयायिकमती मानें हैं सो तिनिका मत भी युक्तिकरि युक्त नाही है, सो कहैं हैं जातै तिनिकै परस्पर भेद होतें दोऊमैं एकका भी स्थापन करनेका असमर्थपणां है । सो ही कहिये है;-विशेष कहिये व्यक्तितें तौ प्रथम द्रव्य गुण कर्म पदार्थ हैं । बहुरि सामान्य पर अपर भेद दोय प्रकार है । तहां परसामान्य तौ सत्तास्वरूप है तिसौं विशेषनिकै भेद होते विशेषनिकै असत्ताकी प्राप्ति आई, तैसें ही प्रयोग है-द्रव्य गुण कर्म हैं ते असत् रूप हैं—जारौं सत्तारौं अत्यंत भिन्न हैं जैसैं प्राक् अभावादिक अभाव हैं तैसैं । इहां सत्तातै अत्यंत भिन्नपणां हेतु है ताकै सामान्य विशेष समवाय पदार्थनिनै व्यभिचार नाहीं है जाते तिनि विर्षे स्वरूप सत्त्वकू अभिन्न नैयायिक मानें हैं। बहुरि नैयायिक कहै है-जोद्रव्यादि पदार्थनिकै प्रमाणकरि सिद्धपणां है तौ धर्मीका ग्राहक प्रमाण ताकरि तुमनें हेतु कह्या सो वाधित है, जिस प्रमाणकरि द्रव्य आदिक निश्चय कीजिये है तिसही प्रमाणकरि तिनिका सत्त्व निश्चय Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १७३ कीजिये है । इहां तुम कहोगे-द्रव्य आदिक प्रमाण सिद्ध नही है तौ तुमारे हेतुकै आश्रयकी असिद्धि आवैगी, ताका उत्तर आचार्य कहैं है-जो यह कहना अयुक्त है जानैं इहां हमनें प्रसंगसाधन किया है। परका इष्ट लेकरि परकै अनिष्ट बतावनां सो प्रसंगसाधन है, सो इहां प्राक् अभावादिविर्षे सत्त्वतै भेद है सो असत्त्वतें व्याप्त पाइये है सो व्याप्य है, ताक् तिस भेदका द्रव्यादिवि अंगीकार है सो व्यापक जो असत्त्व ताका अंगीकारतें अविनाभावी है, ऐसैं इहां प्रसंगसाधन है। तारौं नैयायिक. कह्या प्रमाणवाधित आदि दोष, सो नाही आवै है, पदार्थानकू नैयायिक जैसैं भेदाभेद मानै था तिसहीकी अपेक्षा लेकरि प्रसंगसाधन किया है । इसही कथनकरि द्रव्य आदिककै भी द्रव्यपणांत भेद होते अद्रव्यादिपणां विचरया जाननां । बुहुरि आचार्य नैयायिकळू पूछे है--कि द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष समवाय इनि छह पर्दाथनिकै परस्पर भेद होते न्यारे न्यारे अपनें स्वरूपकी व्यवस्था कैसे है ? जो कहैगा-द्रव्यका द्रव्य ऐसा नाम द्रव्यत्वका संबंधते हैं तौ द्रव्यत्वके संबंध पहले द्रव्यका स्वरूप कहा है, सो कह्या चाहिये जाकारि सहित द्रव्यत्वका संबंध होय ? जो कहै-द्रव्य ही स्वरूप है तौ तिसका द्रव्य ऐसा नाम तो द्रव्यत्वका संबंधरूप कारणतें होय है तातें द्रव्य ऐसा स्वरूपका अयोग है । बहुरि कहै-जो निजरूप तौ सत्त्व है तो ताका भी सत्त्व ऐसा नाम सत्ताके संबंधतें करनेते द्रव्यका निजरूप नांही बनेंगा । ऐसे ही गुण आदिविषै भी कहि लेनां । ऐसें होतें केवल सामान्य विशेष समवाय इनि तीन हीकै स्वरूप सत्त्व करि तसौ नाम बनैं है, तातै तिनि तीन ही पदार्थनिकी व्यवस्था ठहरै है । बहुरि इहां नैयायिक कहै है-नैयायिक वैशेषिकका अभिप्राय एक ही है तातें नैयायिक ही नाम लिख्या है, इहां सामान्य नाम यौगमत जाननां, अर द्रव्यादिक सप्त ही पदार्थ वैशेषिक कहै है। अब वह कहै है Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित स्याद्वादी जैनी जीव आदि पदार्थनिकै सामान्यविशेषस्वरूपपणां मानें हैं सो तिनि सामान्य विशेषका वस्तुतैं भेद अभेद हैं ते विरोध आदि आठ दोषके आवनेंतैं एक वस्तुविषै नांही संभव हैं, सो ही कहैं हैं— भेद अभेद दोऊ विधि प्रतिषेधस्वरूप हैं ते एक जो अभिन्न वस्तु ताविषै संभवें नांही, जैसें शीत उष्ण स्पर्श दोऊ एकविषै नांही संभवै तैसैं, ऐसैं तौ विरोध दूषण आया । बहुरि भेदका आधार अन्य अभेदका आधार अन्य, ऐसैं वैयधिकरण्य दूषण आया । बहुरि जिस स्वरूपकूं मुख्यकार भेद वर्तें है अर जिसकूं मुख्य कार अभेद वर्त्ते है ते दोऊ स्वरूप भिन्न हैं तथा अभिन्न हैं, बहुरि तहां भी भेदाभेदके कल्प तैं अनवस्था दूषण है । बहुरि जिस रूपकरि भेद है तिस ही रूप - करि भेद भी अभेद भी है ऐसें संकर दूषण है, बहुरि जिसकरि भेद है तिसकरि अभेद है जिसकरि अभेद है तिसकरि भेद है, ऐसे व्यतिकर दूषण है । बहुरि भेदाभेद स्वरूपपणां होतैं वस्तुका असाधारण आकारकरि निश्चय करनेंकूं असमर्थपणां है, तातें संशय दूषण है । तिस ही हेतु अप्रतिपत्ति दूषण है । तिस ही हेतुतैं अभाव दूषण है । ऐसें अनेकान्तात्मक वस्तु भी निश्चित नांही होय सकेँ हैं, ऐसें नैयायिक कहैं हैं । तहां आचार्य कहैं हैं : — ऐसैं कहनेवाले भी प्रतीतिस्वरूप कहनेवाले नांही जातैं प्रतीतिगोचर वस्तु होय तामैं विरोधका असंभव है। विरोध तौ जैसें दीखै नांही तैसें कहै तानें हैं, तहां जो देखनेमें आवैं तहां कहा विरोध ? भेदाभेदतैं एक वस्तु मैं दोऊ प्रगट दीखें हैं। इहां जो शीत उष्णस्पर्शका दृष्टांत कह्या सो धूपदहनका घट आदि एक अवयवकै शीत उष्ण स्वभावकी प्राप्तितैं विरोधका दृष्टान्त अयुक्त है, धूप दहनके घडे मैं शीत उष्ण दोऊ स्पर्श होय हैं। आदि शब्दकरि संध्याविषै प्रकाश तमका साथि अवस्थान होय है । एक वस्तुकै चल अचल रक्त अरक्त 1 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। आवरणसहित आवरणरहित इत्यादि विरुद्ध धर्मनिका युगपत् देखनां है ! तैसैं कहे जे भेदाभेद तिनिकै भी विरोध नही है । इस ही कथनकरि वैयाधिकरण्य भी निराकरण किया, तिनि भेदाभेदकै एक आधारपणांकरि प्रतीतिमैं समानाधिकरण है, इहां भी चल अचल आदि पहले दृष्टांत कहे ते जाननें । बहुरि जो अनवस्था नामा दूषण कह्या सो भी स्याद्वादमतकू नांही जाननेवालेकरि बताया है, स्याद्वादीनिका यह मत हैसामान्य विशेष स्वरूप वस्तुविर्षे सामान्य विशेष हैं ते ही भेद हैं जातें भेदशब्दकरि तिनिळू ही कहे हैं, बहुरि द्रव्यरूप करि अभेद है ऐसा कह्या है सो द्रव्यही अभेद है जाते वस्तुकै एकानेक स्वरूपपणां है, अथवा भेदनयका प्रधानपणांकरि वस्तुके धर्मनिकै अनंतपणां है तातें अनवस्था नाही है । सो ही कहिये है-जो सामान्य है बहुरि जे विशेष हैं तिनिकै अन्वयरूप आकारकरि अर व्यावृत्त कहिये न्यारा न्यारा आकारकरि भेद है, बहुरि तिनिकै अर्थक्रियाके भेदतै भेद हैं, बहुरि तिस अर्थक्रियाक शक्तिभेदतै भेद है, सो शक्ति भेद भी सहकारीके भेदतें है, ऐसैं अनंत धर्मनिका अंगीकार करने” अनवस्था काहेरौं होय ? सो ही कह्या है, ताका श्लोकका अर्थः-जो मूलनाशका करनहारा होय ताहि अनवस्था दूषण पंडित कहैं हैं, वस्तुकै अनंतपणां होते अथवा विचारनेकू असमर्थता होय तहां अनवस्था दूषण नाही, जो अनवस्था होय तो भी दूषण न कहिये । बहुरि जो संकर अर व्यतिकर ये दोऊ दूषण हैं ते भी मेचक ज्ञानके दृष्टान्तकरि बहुरि सामान्य विशेषके दृष्टान्त करि दूर किये । इहां संकर दूषणके निराकर (१) तथा चोक्तम्:-मूलक्षतिकरीमाहुरनवस्थां हि दूषणम् । वास्त्वानंत्येऽप्यशक्तौ च नानवस्था विचार्यते॥१॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित wwwmmmmmmmmmmmmmmmmm णकू दृष्टान्त मेचक ज्ञान अनेकवर्णाकार वस्तुके जाननेंकू कया है। बहुरि सामान्य विशेष ऐसे जो जो ही गऊपणां अपनी व्यक्तिनिकी अपेक्षा सामान्य, सो ही महिष आदिकी अपेक्षा विशेष, ऐसे दृष्टान्तकरि व्यतिकर दूषण नाही । इहां कहै---जो मेचकज्ञान विर्षे तौ जैसा वस्तुमैं अनेकवर्णाकार था तैसा प्रतिभासै है, तो ताकू कहिये इहां हमारै भी जैसी वस्तु है ताका तैसाही प्रतिभास होहु, ताका पक्षपातका अभाव है । बहुरि जैसा वस्तु है ताका तैसा निर्णय भया तहां संशय नाही युक्त है, संशय तो चलितज्ञानरूप है, अचल प्रतिभासवि. संशय बनैं नाही । बहुरि जो वस्तु प्राप्त भया सिद्ध भया ताकै विषै अप्रतिपत्ति कहनां यह तौ अतिधीठपणां है । बहुरि जाकी उपलब्धि होय तहां अनुपलंभ भी नांही सिद्ध है तारौं अभाव भी नांही । ऐसैं इनि दूषणनि” रहित प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणकरि अविरुद्ध अनेकांतात्मक वस्तुका कहनेवाला अनेकान्तमत है सो सिद्ध है। इस ही कथन करि अवयव अवयवीकै गुण गुणीकै कर्म कर्मवान्कै कथंचित् भेद है कथंचित् अभेद है सो कहे जानने । अब नैयायिक कहै है—जो समवायके वश” भिन्न पदार्थ विर्षे भी अभेदकी प्रतीति है जाकै ब्रह्मतुल्य ज्ञान न उपज्या ताकै, भावार्थ—जाकै अतीन्द्रिय ज्ञान नाही ताकै भिन्न पदार्थ विर्षे भी समवायतें अभेदका ज्ञान है। ताकू आचार्य कहैं हैं—जो ऐसैं नाही जातै समवाय भी पदार्थ भिन्न ही है ताके स्थापनेकी असमर्थता है । सो ही कहिये है—इहां दोय पक्ष हैं, समवायकी वृत्ति है सो अपना समवायी पदार्थनिविर्षे वृत्ति सहित है, कि वृत्तिरहित है ? जो कहै वृत्तिसहित है तौ तहां भी दोय पक्ष करैं हैं, जो यह वृत्ति आपही करि वृत्तिसहित है कि अन्यवृत्ति करि है ? जो कहैआपही करि है तो यह पक्ष तौ नाही वणें है, समवायविधैं अन्य Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १७७ समवायका अंगीकार नाही पांचही पदार्थक समवायीपणां है, ऐसा नैयायिकका वचन है। बहुरि अन्य वृत्तिकी कल्पना करें तो सो वृत्ति अपने संबंधीनिवि वर्ते है कि नाही ? ऐसैं कल्पना करेंतें अन्य वृत्तिकी परंपराकी प्राप्तितै अनवस्था आवै । इहां कहै अपनें संबंधीनिविर्षे अन्यवृत्तिकै अन्यवृत्तिका अंगीकार नाही तातें अनवस्था नाही आवै, तौ ताकू कहिये-समवायविर्षे भी अन्यवृत्ति मति होहु । अब फेरि नैयायिक कहै है जो समवाय है सो अपने आश्रयविर्षे वृत्तिरूप नाही मानिये है, तौ ताकू कहिये-छह पदार्थनिकै आश्रितपणां है ऐसा ग्रंथका विरोध आवैगा, नैयायिकका सूत्र है-जो नित्य द्रव्य विना छह पदार्थ अन्यके आश्रय हैं सो ऐसा सूत्र विरोध्या जाय । बहार नैयायिक कहै है-जो समवायि पदार्थनिके होते ही समवायकी प्रतीति है तातें समवायकै आश्रितपणां कल्पिये है, तौ ताकू कहिये--मूर्त्तद्रव्यनिकू होते ही दिशाद्रव्यका लिंग जो यहु यातें पूर्व दिशाकरि है इत्यादिक ज्ञान ताकै बहुरि कालका लिंग जो पर अपर आदि प्रतीति ताका सद्भावनै तिनि दोऊ द्रव्यानकै भी तिनि मूर्त द्रव्यानका आश्रितपणां ठहरैगा। तातैं सूत्रमैं कह्या जो नित्य द्रव्य विना अन्यकै आश्रितपणां है, ऐसा कहनां अयुक्त भया । बहुरि विशेष कहै है-जो समवायकै अनाश्रितपणां होतें संबधरूपपणां ही न वर्षे है, तैसे ही प्रयोग है-समवाय है सो संबंध नाही है जाते याकै अनाश्रितपणां है जैसैं दिशा आद द्रव्य अनाश्रित है तैसैं । इस प्रयोगविर्षे समवाय जो धर्मी सो कथंचित् तादात्म्यरूप है अर अनेक है ताकू हम मान्या है तातें धर्मीका ग्राहक जो प्रमाण ताकरि वाधा नांही है। बहुरि आश्रयासिद्ध दूषण न कहनां । बहुरि तिस समवायकै आश्रितपणां होतें भी यहु दूषणा कहिये है, समवाय हि. प्र. १२ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितहै सो एक नाही है जाते संबंधस्वरूपपणां होते याकै आश्रितपणां है जैसैं संयोग सबंध है । इहां सत्ताकरि हेतुकै अनेकान्त होय है तातें हेतुका संबंधस्वरूपपणां होतें ऐसा विशेषण किया है। अब नैयायिक फेरि कहै है-जो संयोग वि तौ दृढ संयोग शिथिल संयोग इत्यादि नानापणांकी प्रतीति है तातैं नानापणां है अर ऐसैं समवायविर्षे तौ नांही जातें समवाय तौ तिसतै विपरीत है, ताकू आचार्य कहैं हैं जो ऐसैं नाही जातें समवायविौं भी उत्पत्तिमानपणां विनश्वरपणांकी प्रतीतिरूप नानापणां सुलभ है। बहुरि कहै-संबंधी पदार्थके भेदतै समवायविर्षे नानापणां है तौ सयोगविौं भी तैसैं ही नानापणां समान है, एक ही विषै तौ प्रश्न युक्त नाही । तातैं नैयायिककरि कल्पित समवायकैं विचार कर अयोग्यपणां है, ताक् तिस समवायके वश” गुण गुणी आदि वि अभेदकी प्रतीति नांही वणै है । बहुरि नैयायिक कहै हैजो अवयव अवयवी आदिका भिन्न प्रतिभास है तातै तिनिकै भेदही है। ताकू आचार्य कहैं हैं--जो यहु नाही जातें भेदप्रतिभासकै अभेदतै विरोध नाही है, घटपट आदिकै भेद है तौऊ कथंचित् अभेद वगैं है । सर्वथा प्रतिभासकै भेदकी असिद्धि है जातें यहु सत् है इत्यादि अभेद प्रतिभासका भी सद्भाव है । तातें कथंचित् भेदाभेदात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक, बहुरि सामान्यविशेषात्मक तत्व है, सो जलकी तीर देखनेंवालेकै पक्षी देखनेमें आया तिस न्यायकरि नैयायिक अपना मत साधै था ताकै स्याद्वादमतमैं कह्या तत्त्व भी देखनेमैं आया, या बहुत कहनेकरि पूर्णता होहु ॥१॥ ___ आगै अब अनेकान्तात्मक वस्तुके समर्थनकै अर्थिही दोय हेतु कहैं अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात् पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च ॥२॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १७९ याका अर्थ — अनुवृत्त कहिये अन्वयरूप अर व्यावृत्त कहिये न्यारा यारा रूप इनिका जो प्रत्यय कहिये ज्ञान मैं प्रतीति ताकै गोचरपणांतैं, हुरि पूर्व परिणामका छोडनां उत्तर परिणामका ग्रहण करनां इनि दोऊनिकरि सहित स्थितिरूप सो है लक्षण जाका ऐसा जो परिणाम तिसकरि अर्थ क्रियाकी प्राप्ति है तातैं । तहां अनुवृत्त आकार तौ जैसैं अनेक गऊ विषै गऊ गऊ ऐसी प्रतीति, सो है । बहुरि व्यावृत आकार कहिये यह गऊ श्याम है यह काबरा है ऐसैं न्यारी न्यारी प्रतीति, सो है । तिनि दोऊ प्रतीतिनिकै गोचर कहिये विषय ताका भाव तातैं अनेकांतात्मक वस्तु है । इस हेतुकरि तौ तिर्यक् सामान्य अर व्यतिरेकलक्षण विशेष इनि दोऊ स्वरूप वस्तु साध्या । बहुरि पूर्व आकारका त्याग उत्तर आकारकी प्राप्ति अर इनि दोऊनिकरि सहित स्थिति सोही है लक्षण जाका ऐसा जो परिणाम तिसकरि अर्थ क्रियाकी उपपत्ति है, त्तातैं सामान्यविशेषात्मक वस्तु है । इस हेतुकरि ऊर्द्धता सामान्य अर पर्यायनामा विशेष इनि दोऊ रूप वस्तु समर्थ्या है ॥ २ ॥ आगैं पहले कह्या जो सामान्य ताका भेदकूं कहैं हैं; सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्द्धताभेदात् ॥ ३ ॥ याका अर्थ- - सामान्य दोय प्रकार है; तिर्यकू सामान्य, ऊर्द्धता सामान्य ऐसैं भेदतैं ॥ ३ ॥ आगैं पहला भेद जो तिर्थकू सामान्य ताकूं उदाहरणसहित कहै है: -- सदृशपरिणामस्तिर्यक् खंडमुंडादिषु गोत्ववत् ॥४॥ याका अर्थ —सदृश कहिये सामान्य जो परिणाम सो तिर्यक् सामान्य है जैसैं अनेक खांडी मूंडी गऊ हैं तिनिविषै गऊपणां है । तहां Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित जो गऊपणां आदिकू सर्वथा नित्य एक रूप मानिये तौ क्रम यौगपद्य करि अर्थ क्रियाका विरोध आवै अर सर्व व्यक्तिनिविर्षे न्यारा न्यारा समस्तपणे वृत्तिका अयोग आवै । तातें अनेक है अर सदृशपरिणाम स्वरूप ही है, ऐसा तिर्यक् सामान्य कह्या ॥ ४ ॥ ___ आगैं दूसरा भेद जो ऊर्द्धता सामान्य ताकू दृष्टान्तसहित दिखा ___ परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्खता मुदिव स्थासा. दिषु ॥५॥ __याका अर्थ—पर कहिये पूर्वकालभावी अपर कहिये उत्तरकालभावी विशेष पर्याय तिनिविर्षे व्यापनेवाला जो द्रव्य सो उद्धता सामान्य है जैसैं स्थास कोश कुसूल आदि मृत्तिकाकी अवस्था विर्षे मृत्तिका व्यापी है । इहां सामान्य शब्दकी अनुवृत्ति लेणीं । ताकरि यह अर्थ होय है जो यह उद्धता सामान्य है सो कहा है ? द्रव्य है, सो ही परापरविवर्त्तव्यापी ऐसा विशेषणरूप कीजिये है, पूर्व अपरकालवर्ती तीन काल विषै अन्वयरूप है ऐसा अर्थ है, जैसैं चित्रका ज्ञान एक है ता विर्षे एक कालभावी जे अनेक अपने विर्षे आये चित्रके नील आदि आकार तिनिकी व्याप्ति है तैसैं एककै भी क्रम” होय, ऐसा परिणाम तिनिविर्षे व्यापीपणां है । ऐसा अर्थ जाननां ॥ ५॥ आरौं विशेषकै भी दोय प्रकारपणां है, ऐसैं दिखावै है; विशेषश्च ॥६॥ याका अर्थ-विशेष है सो भी दोय प्रकार है । इहां द्वेधा शब्दका अधिकार करि संबंध करनां ॥ ६ ॥ सो ही कहैं हैं, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १८१ wwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm पर्यायव्यतिरेकभेदात् ॥७॥ याका अर्थ—सो विशेष दोय प्रकार है, पर्याय अर व्यतिरेक ऐसैं भेदते ॥ ७॥ आगें पहला विशेषका भेदकू कहैं हैं;एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत् ॥८॥ ___ याका अर्थ-एक द्रव्यवि क्रमभावी परिणाम हैं ते पर्याय हैं जैसैं आत्मावि हर्ष अर विषाद अनुक्रम” होय हैं ते पर्याय हैं । इहां आत्मद्रव्य अपनी देह प्रमाण मात्र ही है व्यापक नाही है, बहुरि बटकणिका मात्र छोटासा नाही है, बहुरि कायकै आकार परिणये जे पृथ्वी अप तेज वायु आकाश तावन्मात्र चार्वाकमती कहै है सो नाही है । तहां आत्माकू यौगमती व्यापक कहैं हैं, तिनिका तौ अनुमानका प्रयोग ऐसा है-आत्मा व्यापक है जाते द्रव्यपणांकू होते अमूर्तिकपणां है जैसैं आकाश व्यापक है। ताकू पूछिये—जो अमूर्तपणां है सो जो रूपादिक स्वरूप मूर्तीकपणां है ताका प्रतिषेधरूप अमूर्तपणां है तो मनकरि अनेकान्त है । यौगमती मनकू द्रव्य मानें हैं अर अमूर्तपणां ठहराया है तौहू व्यापक नाही, यह व्यभिचार आया । बहुरि कहै-असर्वगत द्रव्यका परिमाण मूर्तपणां है ताका निषेध अमूर्तपणां है तो पर जे हम तिनि प्रति साध्य समान हेतु है, आत्माकै व्यापकपणां साध्य है तैसा ही व्यापकपणां हेतु भया । बहुरि अन्य अनुमान कहैजो आत्मा व्यापक है जाते अणुपरिमाण अधिकरणकका अभाव होते नित्य द्रव्य है, इहां नित्य है ऐसा ही हेतु कहै तौ परमाणुविर्षे गुण भी नित्य है ताकरि व्यभिचार आवै ताके परिहारकै आर्थि नित्य द्रव्य Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित कह्या । बहुरि द्रव्य ही कहते तो घट भी द्रव्य है ताकरि व्यभिचार आवै ताके परिहारकै आर्थि नित्य विशेषण किया । बहुरि नित्य द्रव्य ही कहतें मनकरि अनेकान्त होय ताके परिहारकै अर्थि अणुपरिमाणानधिकरण कह्या, इहां भी आकाशका दृष्टान्त है । सो यह अनुमान भी समीचीन नाही है । जाते अणुपरिमाणानधिकरणपणां हेतुका विशेषण है तहां निषेध पर्युदास है कि प्रसज्य है ? जो कहैगा-पर्युदासहै तौ अणुपरिमाणका प्रतिषेध करिकैसा परिमाण है ? महापरिमाण है कि अवान्तरपरिमाण है कि परिमाणमात्र है ? जो कहै—महापरिमाण है तौ हेतु साध्य समान ही है जातें व्यापकपणां साध्य है महापरिमाण हेतु कह्या सो समान भया । बहुरि कहै—अवान्तर परिमाण है तो हेतु विरुद्ध है, अवान्तरपरिमाणाधिकरणपणां है सो अव्यापकपणांहीकू साधै है । बहुरि कहै-परिमाणमात्र है तौ तिसकू परिमाणसामान्य अंगीकार करनां, ऐसे होते अणुपरिमाणका प्रतिषेधकरि परिमाणसामान्याधिकरणपणां आत्माकै है ऐसैं कह्या ठहरै सो बणे नाही, यामैं विशेष अधिकरणरहितकी सिद्धिका प्रसंग आवै है; जातें आत्माकै वि. परिमाणसामान्य व्यवस्थित नाही । तो कहां है ? परिमाणकी व्याक्तनिविर्षे ही व्यवस्थित है, सामान्य होय सो तो अपने विशेषनिमैं ही रहै । बहुरि अवान्तरपरिमाण अर महापरिमाण इनि दोऊनिका आधारपणां करि आत्मा न पावै तब परिमाणमात्र अधिकरणपणां आत्मा विषै निश्चय किया जाय नाही । बहुरि आकाशका दृष्टान्त कहै-सो साधनरहित होय, आकाशकै तौ महापरिमाणाधिकरणपणांकरि परिमाणमात्राधिकरणपणांका अयोग है । बहुरि नित्यद्रव्पणां है सो सर्वथा असिद्ध है, सर्वथा नित्यकै क्रम योगपद्यकरि अर्थक्रियाका विरोध है । बहुरि कहैगा–दूसरी पक्ष प्रसज्य प्रतिषेध है, तौ प्रसज्य प्रतिषेध तौ तुच्छा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १८३ भाव कहिये सर्वथा अभाव रूप है, ताका ग्रहणका उपायका असंभव है, ता” ताकै हेतुका विशेषणपणां ही नाही । बहुरि अगृहीतविशेषण हेतु है, सो कछू है नांही जातें ऐसा वचन है जो विशेष्यविर्षे बुद्धि है सो अगृहीतविशेषणस्वरूप नाही है, विशेषणकू ग्रहण किये विशेष्यकी बुद्धि होय है । बहुरि तुच्छाभावका ग्रहणका उपाय प्रत्यक्ष प्रमाण नाही है जातै प्रत्यक्षकै तुच्छाभावके संबंधका अभाव है । प्रत्यक्ष तौ इन्द्रियकै अर पदार्थकै सन्निकर्षौं उपजै सो नैयायिकमतविर्षे प्रसिद्ध है । अर विशेषण विशेष्यभाव संबंधकी कल्पना करै तौ अगृहीतकै विशेषपणां नांही है, ऐसे तो पूर्वै कह्या, सो ही इहां दूषण है तातें आत्मद्रव्य व्यापक नाही है ॥ बहुरि बटकणिका मात्र भी नांही है, सुन्दर स्त्रीका कुच जघनस्पर्शनके कालविषै रोम रोममैं आल्हाद आकार सुखका अनुभव होय है जो ऐसैं न होय तौ सर्वांग वि रोमांच आदि कार्यका उपजनेंका अयोग होय । बहुरि इहां कहै-जो अणमात्र आत्माकै भी शीघ्र वृत्ति” आलात चक्रकी ज्यों युगपत्का प्रतिभास होय है तोहू क्रमकरि सर्वांग सुख होय है तौ इहां अयुक्त है जातें तिस सुखका कारण अन्तःकरणका अन्य अन्य संबंधकी कल्पना होते वीचिमैं व्यवधान कहिये अन्तरका प्रसंग आवै है, सुखमैं विच्छेद वीचि वीचिमैं हूवा चाहिये। अर मनका संबन्ध विना ही सुख मानिये तो सुखकै मानसप्रत्यक्षपणांका अयोग है । बहुरि पृथ्वी आदि भूतचतुष्टयस्वरूपपणां भी आत्माकै नांही है जातें पृथ्वी आदि तौ अचेतन है सो अचेतन” चैतन्यकी उत्पत्तिका अयोग है । बहुरि पृथ्वी आदिके धारण प्रेरण द्रव उष्ण स्वभावरूप” चैतन्यकै अन्वयका अभाव है जातै पृथिवीका धारण स्वभाव है पवनका प्रेरण स्वभाव है जलका द्रव स्वभाव है अग्निका उष्ण स्वभाव है, इनि स्वभावनित चैतन्यका देखनां Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितजाननां स्वभावकै अन्वय नाही दीखे है । बहुरि तुरतके भये बालककैं स्तन आदिवि अभिलाषका प्रसंग आवै है, अभिलाष तौ प्रत्यभिज्ञान होतें होय है, प्रत्यभिज्ञान स्मरण होते होय है स्मरण अनुभव होतें होय है, ऐसैं पूर्वै अनुभव होनां सिद्ध होय है जातै वीचिकी दशा विर्षे तैसैं ही व्याप्ति है । बहुरि मरण भये पीछे व्यन्तरकुलविर्षे आप उपजैं ते आय कहैं जो मैं फलाणां हूं सो व्यंतर भयाहूं ऐसैं कहते देखिये है । बहुरि केईकनिकै पूर्व भवका स्मरण होय है । ऐसें चेतनकै अनादिपणां सिद्ध होय है, सो ही कह्या है ताका श्लोक है ताका अर्थ-तिसही दिनका उपज्या वालककै तिसही दिन स्तनकै लागणेंकी इच्छा होय है, बहुरि व्यन्तरका देखना, भवस्मरणका होना, पृथ्वी आदि भूत अचेतन” अन्वय नाही; ऐसैं च्यार हेतुनितें स्वभावहीकरि ज्ञाता द्रव्यस्वरूप नित्य सिद्ध होय है। बहुरि ऐसैं न कहनां-जो अपनां देहप्रमाण आत्मा है, ऐसे कहनेमैं भी प्रमाणका अभाव है या” सर्वत्र संशय है जातें देह प्रमाण साधनेंविर्षे अनुमान प्रमाणका सद्भाव है । सो ही कहै है—देवदत्तनामा पुरुषका आत्मा तिसके देह विषै ही है, बहुरि तहां सर्वत्र ही विद्यमान है जाते तिस देह विष ही बहुरि तहां सर्वत्र ही अपनां असाधारण गुणका आधारपणांकरि ग्रहण होय है। जो जहां ही बहुरि जहां सर्वत्र ही अपनां असाधारण गुणका आधारपणांकरि पाइये सो तहां ही बहुरि तहां सर्वत्र ही विद्यमान होय, जैसैं देवदत्तके घर विषै ही बहुरि तहां सर्वत्र ही पाइये ऐसा अपनां असाधा (१) तथा चोक्तम् तदहजस्तनहातो रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः। भूतानन्वयनात्सिद्धः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥१॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १८५ रण भासुर प्रकाशपणां आदि गुण जाकै ऐसा दीपक है तैसैं ही देवदत्त पुरुषका देह विषै ही अर देह विर्षे सर्वत्र ही आत्मा है, आत्माके असाधारण गुण ज्ञान दर्शन सुख वीर्य हैं ते सर्वांगविषै तिस देह विर्षे ही पाइय हैं । इहां देह विर्षे ही आत्मा है ऐसा कहनें तें तौ व्यापकका निषेध भया, अर देह विषै सर्वत्र है ऐसैं कहनें बटकणिका मात्रका निषेध भया । इहां श्लोक है ताका अर्थ—सुख है सो तौ आल्हादनके आकार है, विज्ञान है सो मेय कहिये जानने योग्य वस्तुका जानना है, शक्ति है सो क्रिया करि अनुमानमैं आवै है जैसे तरुण पुरुषकै स्त्रीका समागमविर्षे होय है, आनंद अर जाननां अरु सामर्थ्य ये तीनूं तहां ताकै प्रकट देखिये हैं ऐसा वचन है। तातैं आत्मा अपनी देहकै प्रमाण ही निश्चित भया ॥ ८ ॥ ___ आ विशेषका दूसरा भेदकू कहै है; अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् ॥९॥ ___ याका अर्थ-अन्य अन्य पदार्थ विर्षे पाइये ऐसा विसदृश परिणाम है सो व्यतिरेकनामा विशेष है, जैसैं गऊ भैसि आदि न्यारे न्यारे विलक्षण परिणाम स्वरूप हैं तैसैं । जातें विसदृशपणां है सो प्रतियोगीके ग्रहण होते ही होय है जैसैं गऊतै भैसि विसदृश है । इहां गऊ प्रतियोगी है ताका ग्रहण है। बहुरि या विसदृशपणांकै परकी अपेक्षा स्वरूप होते वस्तुपणां नांही है, अवस्तुविषै तो आपेक्षिकपणांका अयोग है जातें अपेक्षाकै वस्तुनिष्ठपणां ही है अवस्तुबिर्षे अपेक्षा नाही होय है ॥ ९॥ ऐसैं प्रमाणके विषयका निरूपण किया । (१) सुखमाल्हादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् । शक्तिः क्रियानुमेया स्याङ्नः कान्ता समागमे ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितइहां श्लोकःस्यात्कारलांछितमबाध्यमनन्तधर्म सन्दोहवर्मितमशेषमपि प्रमेयम् । देवैः प्रमाणवलतो निरचायि तच संक्षिप्तमेव मुनिभिर्विवृतं मयैतत् ॥१॥ याका अर्थ-श्री अकलंकदेव आचार्य. समस्त ही प्रमाणका विषय जो प्रमेय ताका निरूपण किया, कैसा है प्रमेय-स्यात्कार कहिये कथंचित् प्रकार ताकरि चिह्नित है याहीतैं अवाध्य कहिये निर्वाध है, बहुरि कैसा है-अनंत धर्मका जो समूह ताकरि सहित है, सो काहेरौं कह्या है—प्रमाणके वल” कह्या है तातै प्रमाणभूत है; सो ही मुनि जे माणिक्यनंदि आचार्य तिनिनैं संक्षेपकरि कह्या है, सो ही में अनंतवीर्य आचार्य विवरणरूप किया है ॥ १ ॥ सवैया। अकलंक देव मुनि रची जो प्रमेयधुनि, स्यादवाद चिह्नतें अशेष निरबाध हैं । मानको सहाय पाय लखे जे अनंत धर्म, मंडित अखंड पंडितांकै हू अगाध है ॥ रत्ननंदि ताहि जानि संक्षेप किया वखान, ताका विसतारगं अनंतवीर्य साध है । देशमयी कथा रूप किया बुद्धि सारू मैंभी । पढौं सुनौ भव्यजीव मिथ्यामत वाध हैं ॥१॥ ऐसें परीक्षामुख प्रमाणप्रकरणी लुघुवृत्तिकी वचनिका विर्षे विषयका समुद्देशनामा चौथा अधिकार पूर्ण भया ॥४॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पंचम समुद्देश। [५] आगैं प्रमाणके फलकी विप्रतिपत्तिका निराकारणकै आर्थ सूत्र कहैं हैं; अज्ञाननिवृत्तिहानोपादानोपेक्षाश्च फलम् ॥१॥ याका अर्थ-अज्ञानकी तो निवृत्ति कहिये अभाव होना बहुरि हान कहिये त्याग अर उपादान कहिथे ग्रहण अर उपेक्षा कहिये उदासीनता वीतरागता एते प्रमाणके फल हैं ॥ तहां फल दोय प्रकार है साक्षात् कहिये लगता ही, अर पारंपर्य कहिये परंपरा करि । तहां साक्षात् तौ अज्ञानका नाश होनां फल है जाते वस्तुका यथार्थ ज्ञान होय तिस ही काल अज्ञानका नाश होय है, करणरूप ज्ञान सो तौ प्रमाण है अर क्रियारूप जाननां सो फल है सो ही अज्ञानकी निवृत्ति है । बहुरि परंपराकरि ग्रहण त्याग अर वीतरागता ये फल हैं जातें प्रमेय वस्तुका निश्चय भये पीछे होय है । सो यहु दोय प्रकारका ही फल प्रमाणतें भिन्न ही है ऐमैं तौ नैयायिक मानें हैं । बहुरि प्रमाणतें अभिन्न ही है ऐसैं बौद्धमती मानें हैं ॥ १ ॥ तिनि दोऊनिका मत निराकरण करि अपनां मत स्थापना सूत्र कहैं हैं; प्रमाणादभिन्नं भिन्नं च ॥ २॥. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित याका अर्थ-प्रमाण” प्रमाणका फल कथंचित् अभिन्न है कथंचित् भिन्न है ॥ २॥ आU कथंचित् अभेदके समर्थन अर्थि हेतु कहैं हैं; यः प्रमिमति स एव निवत्ताज्ञानो जहात्यादत्ते उपेक्षते चेति प्रतीतेः ॥३॥ __याका अर्थ-जो आत्मा प्रमेयकू प्रमाणकरि यथार्थ जानैं है सो ही दूर भया है अज्ञान जाका ऐसा होय करि अनिष्टका त्याग करै है इष्टका ग्रहण करै है जो आपकै इष्ट अनिष्ट न जानैं तावि. मध्यस्थ होय है वीतराग होय है ऐसे प्रतीति है। इहां ऐसा अर्थ जाननांजिस ही आत्माकै प्रमाणकै आकार परिणाम होय है तिसहीकै फलरूपपणांकरि परिणाम होय है, ऐसैं एक प्रमाताकी अपेक्षाकरि प्रमाण फलकै अभेद है। बहुरि प्रमाण करणरूपपरिणाम है फल क्रियारूप है; ऐसैं करणक्रिया परिणामके भेदतें भेद है, ऐसे भेदकै सामर्थ्यसिद्धपणां है तातें भेदका समर्थन हेतु न्यारा न कह्या है ॥ ३ ॥ ऐसैं प्रमाणके फलका निरूपण किया । इहां श्लोक पारम्पर्येण साक्षाच फलं द्वेधाऽभ्यधायि यत् । देवैर्भिन्नमभिन्नं च प्रमाणात्तदिहोदितम् ॥१॥ याका अर्थ-श्रीअकलंकदेव मुनिनैं प्रमाणका फल साक्षात् अर परंपराकरि दोय प्रकार कह्या सो प्रमाण” भिन्न अर अभिन्न कह्या है, सो ही या प्रकरणवि. माणिक्यनंदिआचार्यनैं कह्या है ॥ १॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १८९ दोहा। परंपरा साक्षात करि भिन्न अभिन्न विचारि । देव कह्यो फल मानको सो ही या मधि धारि ॥१॥ ऐसें परीक्षामुख प्रमाण प्रकरणकी लघुवृत्तिकी वचनिकावि फलका समुद्देश नामा पांचमां अधिकार संपूर्ण भया। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ षष्ठ समुद्देश । (६) आगैं अब कह्या जो प्रमाणका स्वरूप आदि चतुष्टय तिनिका आभास कहिये कहै जैसैं नाही अर तिनि सारिखे दीखै तिनिकू कहै है ततोऽन्यत्तदाभासम् ॥१॥ याका अर्थ-ततः कहिये कह्या जो प्रमाणका स्वरूपादिक तातें अन्यत् कहिये विपरीत सो तदाभास कहिये ताका आभास है । इहां कह्या जो प्रमाणका स्वरूप संख्या विषय फल ये च्यार भेद तिनितें अन्यत् विपरीत सो तदाभास हैं ॥१॥ आगें क्रममैं प्राप्त भया जो स्वरूपाभास ताकू दिखावें हैं अस्वसंविदितगृहीतार्थदर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः ॥२॥ याका अर्थ—अस्वसंविदित कहिये आपकरि आपकू न जानें, गृहीतार्थ कहिये ग्रह्याकू ग्रहण करै, दर्शन कहिये सामान्याकारमात्रका ग्राही, संशय कहिये संदेहरूप, आदि शब्दतै विपर्यय अनध्यवसाय ये सर्व प्रमाणाभास हैं। इहां अस्वसंविदित गृहीतार्थ दर्शन संशयादि इनिका द्वन्द्वसमास करनां । बहुरि आदि शब्दकरि विपर्यय अनध्यवसायका ग्रहण करनां । तहां ज्ञान अस्वसंविदित है जातें अन्य ज्ञानकरि प्रत्यक्ष होय है ऐसैं नैयायिक मती कहै है, ताका प्रयोग, सो ही कहैं हैंज्ञान है सो आपतै न्यारा जो ज्ञान ताकरि जानने योग्य है जाते वेद्य Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १९१ कहिये जाकू जानिये सो तौ ज्ञेय है, जैसैं घट है । तहां आचार्य कहैं हैं—यह कहनां मिले नाही, इहां धर्मी जो ज्ञान ताकै अन्य ज्ञानकरि वेद्यपणां होतें साध्यकै मध्य आय पडनेंतें धर्मीपणांका अयोग है जातें धर्मी तौ प्रसिद्ध ही होय है । बहुरि धर्मी ज्ञानकै स्वसंविदितपणां कहिये तो तिस ही करि हेतुकै अनेकान्तपणां है । बहुरि महेश्वरका ज्ञानकरि व्यभिचार आवै है जातें महेश्वरका ज्ञान अस्वसंविदित कहै तौ सर्वज्ञपणां न ठहरै, स्वसंविदित कहै तौ स्वमतकी हानि होय है । बहुरि व्याप्तिज्ञानकरि भी अनेकान्त कहिये व्यभिचार आवै है । बहुरि अस्वसंविदित ज्ञानतें अर्थकी प्रतिपत्तिका अयोग है जातें जो ज्ञापक कहिये जनावनेवाला अप्रत्यक्ष होय सो जनावनेयोग्यकू जनावै नांही । जो ऐसे होय ज्ञापक विना जाण्यां भी जणावै तौ शब्द कानतें सुण्यां विना अर्थकू जनावनेवाला ठहरै, लिंग धूमादिक नेत्रकरि देख्या विना अग्नि आदिकू जानवनेवाला ठहरै । इहां कहै—जो लगताही अन्य ज्ञान है ताकरि ग्रहण करिये है, तो ताकै भी विना ग्रह्याकै परका जनावनेवालापणां नांही तब ताके ग्रहणकू तिसतै अन्य ज्ञान कल्पने योग्य ठहरै तहां भी तिसतै अन्य कल्पना ऐसैं अनवस्था आवै । तातें अस्वसंविदित ज्ञान ऐसा नैयायिकका पक्ष श्रेष्ठ नाही । ___ इस ही कथनकरि मीमांसक कहै है-जो करण ज्ञानकै परोक्षपणांकरि स्वसंविदितपणां नांही है करणज्ञान परोक्ष ही है तारौं अस्वसंविदित ही है ताका भी निराकरण क्रिया जातैं ऐसे ज्ञानतें भी अर्थका प्रत्यक्षपणांका अयोग है। इहां मीमांसक कहै है-जो करण ज्ञान है सो कर्मपणांकरि प्रतीतिमैं न आवै है तातें याकै प्रत्यक्षपणां नांही है प्रत्यक्ष तौ कर्मज्ञान है, तौ ताकू कहिये-ऐसैं कहें फलज्ञानके भी प्रत्यक्षपणां न ठहरैगा । बहुरि कहै-फलपणांकरि प्रतिभास Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित 1 नेंतै प्रत्यक्षपणां है तौ करण ज्ञानकै भी करणपणांकरि प्रतिभासनेंतें प्रत्यक्षपणां होहु | तातैं अर्थ जाननेंकी अन्यथा अप्राप्तितैं जैसैं करण ज्ञान कल्पिये है तैसैं अर्थका प्रत्यक्षपणांकी अन्यथा अप्राप्तितैं ज्ञानकै प्रत्यक्षपणां भी होहु | बहुरि कहै — जो नेत्र आदि करणकै अप्रत्यक्षपणां होतैं भी रूपका प्रगटपणां होय है, तिसौं व्यभिचार आ है । तहां कहिये—जो भिन्न है कर्त्ता जातें ऐसा करणक ही यहु व्यभि - चार है, अभिन्नकर्तृककरण होर्ते संतैं तौ कर्त्ताका प्रत्यक्षपणां होतैं तिस कर्त्तातैं अभिन्न जो करण ताकै कथंचित् प्रत्यक्षपणांकार अप्रत्यक्ष एकान्तका विरोध है, जैसैं प्रकाश स्वरूपकै अप्रत्यक्षपणां होतैं प्रदीपकै प्रत्यक्षपणां होतैं विरोध है तैसें ॥ बहुरि गृहीतग्राही जो धारावाही ज्ञान सो गृहीतार्थ प्रमाणाभास है । बहुरि बौद्धकरि मान्यां जो निर्विकल्पस्वरूप प्रत्यक्ष प्रमाण सो दर्शन है, सो अपने विषयका उपदर्शकपणां याकै नांही है तातैं अप्रमाण है । जातैं तिस विषयभूत पदार्थतैं उपज्या जो व्यवसाय कहिये निश्चय ताहीकै अपना विषयका उपदर्शकपणां है । बहुरि बौद्ध कहै है— जो व्यवसायकै प्रत्यक्षपणां नांही प्रत्यक्षके आकार करि अनुरक्तपणां ही है तातैं प्रत्यक्षकै तौ प्रमाणपणां है अर व्यवसाय है सो तौ गृहीतग्राही है यातैं अप्रमाण है । तहां आचार्य कहैं हैं — यह सुभाषित नांही, दर्शन है सो विकल्परहित है ताका उपलंभ नांही तातैं ताका सद्भावका अयोग है । बहुरि सद्भाव मानिये तौ जैसे नील आदि विषै उपदर्शक है तैसें क्षणक्षयादिविषै भी ताका उपदर्शकपणां ठहरे है । बहुरि कहै— जो क्षणक्षयादि विषैक्षणिकर्ते विपरीत अक्षणिकका संशयादिरूप समारोप होय यातें ताका उपदर्शक नांही, तौ ताकूं कहिये – यह सिद्ध भई नील आदि विषै समारोप जो संशयादिक ताका विरोधी जो ग्रहण सो है लक्षण जाका ऐसा निश्चय होय है तिस Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। स्वरूप ही प्रमाण है अन्य तदाभास है । बहुरि संशयादि हैं ते प्रमाणाभास प्रसिद्ध ही हैं । तहां संशय है सो तौ दोय तरफका स्पर्शन करनेवाला है जैसैं खेतमैं रोप्या स्थाणुकौं देखि जाकै यह स्थाणु ही है ऐसा निश्चय नाही, सो विचारै यह स्थाणु है कि पुरुष है ! ताका निश्चय नाही होने तैं यहु प्रमाणाभास है। बहुरि अन्य वि. अन्यका विकल्प निश्चय सो विपर्यय है, जैसें सीपविर्षे रूपाका निश्चय । बहुरि विशेषका निश्चय नांही सो अनध्यवसाय है, जैसैं चालताकै तृण लागै तब जानैं किछू है, विशेष निश्चय नाही ॥२॥ आगैं कहै है इनि अस्वसंविदित आदिकै प्रमाणभासपणां कैसैं है; ताका सूत्र स्वविषयोपदर्शकत्वाभावात् ॥ ३ ॥ याका अर्थ-जारौं ये अस्वसंविदित आदिक हैं तिनिकै अपनां विषयका उपदर्शकत्व कहिये निश्चायकपणां ताका अभाव है तातें ये प्रगाणांभास है ॥ ३॥ पुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छत्तृणस्पर्शस्थाणुपुरुषादि ज्ञानवत् ॥ ४॥ आरौं इनि विर्षे दृष्टांत अनुक्रम” कहैं हैं;याका अर्थ-अन्य पुरुषका ज्ञानकी ज्यों अस्वसंविदित ज्ञान अपना विषय विषै नांही प्रवर्ते है तातै प्रमाण नाही, पूर्वै ग्रह्या है अर्थ जानें ऐसा ज्ञानकी ज्यों गृहीतार्थ ज्ञान प्रमाण नाहीं, चालताकै तृणस्पर्शज्ञानकी ज्यों दर्शन प्रमाण नांही है, स्थाणु पुरुष ज्ञानकी ज्यों संशय प्रमाण नांही है, आदि शब्दतै विपर्ययादिक तथा ऐसे और भी..जाननें..ते सारे प्रमाणभास है॥ ४ ॥ हि. प्र. १३ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित आगैं जो संनिकर्षकू प्रमाण कहै है तिस प्रति दृष्टान्त कहैं हैं__चक्षुरसयोद्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च ॥५॥ याका अर्थ-नेत्रकै अर रसकै द्रव्यवि. संयुक्त समवाय स्वरूप सन्निकर्ष है सो जैसैं प्रमाण नांही तैसैं और भी सनिकर्ष प्रमाण नाही । इहां यहु अर्थ है-जैसैं नेत्र अर रसकें द्रव्यविर्षे संयुक्त समवाय है तौऊ प्रमाण नाही तथा चक्षु रूपकैं संयुक्त समवाय है सो भी प्रमाण नाही है तातें यह भी प्रमाणाभासही है, यहु अतिव्याप्ति कही सो उपलक्षणरूप है, ऐसे ही अन्य इन्द्रियके सन्निकर्ष अप्रमाण जाननें । इहां नेत्रकरि रूपकैं संयोग भया अर रूपकैं अर रसकै एक द्रव्य विर्षे समवाय है सो रसकरि भी समवाय भया सो संयुक्त समवायनामा सनिकर्ष तौ भया अरु नेत्रकै रसका ज्ञान न भया तातै प्रमाण न भया तब अतिव्याप्ति दूषण भया । बहुरि अव्याप्ति दूषण है जारौं नेत्र इंद्रिय विना अन्य इन्द्रियनिकैं संनिकर्ष है अर नेत्र प्रमाण है तहां संनिकर्ष व्यापै नांही तातैं अव्याप्ति है । बहुरि संनिकर्षकू प्रत्यक्ष प्रमाण कहैं हैं तिनिकै नेत्रकै विर्षे संनिकर्षका अभाव है नेत्र पदार्थ भिडै नांही तातें नेत्रप्रत्यक्षमैं संनिकर्षलक्षण संभवै नांही तब असंभवी दूषण भी है। इहां नैयायिक कहै है-जो नेत्र प्राप्त अर्थका जाननेवाला है जाते वीचिमैं अन्य पदार्थ आडा आवै तब जाने नांही है जैसैं दीपककै भीति आदि आडी आय जाय तिस अर्थकू प्रकाशै नांही तैसैं, भावार्थ-नेत्र भी पदार्थतें जुडिकर ही जाणे है तातें संनिकर्षकी सिद्धि है । ताकू आचार्य कहै है:-यह भी साधनां समीचीन नांही जातें नेत्रकै काच भोडल आदि आडा आय जाय तोऊ नेत्र ताकरि व्यवहित पदार्थकू प्रकाशै है तातैं हेतु असिद्ध है । बहुरि वृक्षकी शाखा अर चन्द्रमाकू एक काल नेत्र देखै है सो नाही ठहरै यह प्रसंग आवै है । बहुरि Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। १९५ कहै-इहां क्रमसूं देखे है तहां पुरुषकै युगपत् देखनेका अभिमान है, सो ऐसे भी न कहनां जाते कालका अंतर नाही दीखै है एकही काल है। वहुरि विशेष कहैं हैं—जो क्रमका ज्ञान तौ प्राप्ति भयें ही नेत्रकै जाननेका निश्चय भये होय है, क्रम प्राप्ति वि अन्य प्रमाण तौ नाही है । इहां कहै-जो नेत्र इन्द्रियकैं तैजसपणां है इस हेतुकरि प्राप्त अर्थका प्रकाशपणां है यह अन्य प्रमाण है, तौ ताकू कहिये—यह नांही है, तैजसपणांकी सिद्धि नांही होय है । इहां नैयायिक तैजसपणां साधनेंकू प्रयोग करै है—नेत्र है सो तैजस है जानैं रूपादिक गुण है तिनिमैं सूं रूपका ही यह प्रकाशक है जैसैं दीपक है । आचार्य कहै है-यह भी प्रयोग विना विचारयां किया है जानैं इहां प्रदीपका दृष्टान्त कह्या सो तौ तैजस है अर मणि तथा अंजन आदिक पार्थिव हैं पृथिवीतैं उपजै हैं तेऊ रूपकू प्रकाशैं हैं । बहुरि नेत्रकू तेजोद्रव्यके रूप प्रकाशनेंतें तैजस कहिये तो पृथिवी आदिके रूपका प्रकाशक है, तातें याकै पृथिवी आदि करि रच्यापणांका प्रसंग आवै है, भावार्थ-नेत्र भी पार्थिव ठहरै है । तातै सनिकर्षकै अव्याकपणा है । तातै प्रमाणपणां नाही । बहुरि करण ज्ञानकरि याकै व्यवधान है, सन्निकर्ष भये पीछे इन्द्रिय ज्ञान पदार्थकू जाणें है सन्निकर्षही जानैं नांही । ऐसे करण ज्ञानकरि व्यवधान भया सन्निकर्षकरि ही तौ अर्थका संवेदन नाही भया तातें सन्निकर्ष प्रमाणाभासही है ॥५॥ __ आरौं प्रमाण सामान्याभास कहि करि अब प्रमाणविशेषका आभासे कहैं हैं, तहां प्रत्यक्षभास कहैं हैं; अवैशये प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्मादमदर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् ॥६॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित - याका अर्थ-अविशदपणां होते प्रत्यक्ष मानैं सो प्रत्यक्षाभास है जैसैं बौद्धमतीकै अकस्मात् निश्चय भये विनाही धूम देखने” अग्निका विज्ञान बौद्ध निर्विकल्प प्रत्यक्ष मानें है जैसैं धूमकी परीक्षा निश्चय विना अग्निका अनुमान करै । सो विना निश्चय तदाभास है तैसैं प्रत्यक्षाभासही है प्रमाण नाही ॥६॥ आज परोक्षाभासकू कहैं हैं;वैशद्येऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत् ॥७॥ ___याका अर्थ-जहां वैशद्य होय तहां भी परोक्षमानैं सो परोक्षाभास है जैसैं मीमांसक करणज्ञान विशद है तोऊ ताकू परोक्ष मानें है तैसैं । यहु पहले विस्तारकरि कह्या ही है ॥७॥ __ आगें परोक्षके भेदाभासकू कहते संते क्रममैं आया जो स्मरणा भास ताकू कहैं हैं;__ अतस्मिँस्तदिति ज्ञानं स्मरणाभासं जिनदत्ते स देवदत्तो यथा ॥८॥ __याका अर्थ-जो अनुभवविर्षे आया नांही ताका स्मरणा सो स्मरणाभास है जैसैं जिनदत्त पुरुषकू पूर्वै देख्या था अर यादि देवदत्तकू किया ' जो सो देवदत्त ' एसैं ॥ ८॥ आगैं प्रत्यभिज्ञानाभासकू कहैं हैं; सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशं यमलकवादित्यादि प्रत्यभिज्ञानाभासम् ॥९॥ याका अर्थ-सदृश विर्षे तौ सो ही यहु है अर तिस ही वि यहु तिस सारिखा है जैसैं दोयका जुगल विर्षे एक देखै इत्यादि प्रत्य Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । भिज्ञानाभास है ॥ इहां प्रत्यभिज्ञान दोय प्रकारकाकू लेय प्रत्यभिज्ञानाभास भी दोय प्रकार कह्या; एकत्वनिबंधन, सादृश्यनिबंधन । तहां एकत्वविषै तौ सादृश्यका ज्ञान, अर सादृश्यविर्षे एकत्वका ज्ञान, सो प्रत्यभिज्ञानाभास है ॥ ९॥ आगें तर्काभासकू कहैं हैं; असंबद्धे तज्ज्ञानं तर्काभासं यांवाँस्तत्पुत्रः सः' श्याम इति यथा ॥ १० ॥ याका अर्थ-असंबद्ध कहिये अविनाभावरहित वि अविनाभावका ज्ञान सो तर्काभास है, जैसैं काहूकै अन्य कोई पुत्र श्याम देखि कहै—याके जे ते पुत्र हैं तथा होयगे ते सर्व श्याम हैं; ऐसे व्याप्ति कहना तर्काभास है ॥ १० ॥ आगैं अनुमानभास कहैं हैं;- । __ इदमनुमानाभासम् ॥ ११ ॥ याका अर्थ-इदं कहिये आगैं कहैं हैं सो अनुमानाभास है ॥११॥ आशैं तिस अनुमानाभासवि. तिसके अवयवाभास दिखावनेंकरि समुदायरूप अनुमानाभासकू दिखावनेंकी इच्छाकरि पहले पहला अवयवाभास कहैं हैं; तत्रानिष्टादिः पक्षाभासः ॥ १२ ॥ (१) मुद्रित संस्कृत प्रतिमें “यावाँस्तत्पुत्रः स श्याम इति यथा" यह पाठ सूत्र में नहीं दिया है किन्तु टीकामें दिया है और परीक्षामुख सूत्र जो अलग पुस्तककी आदिमें प्रकाशित है वहां सूत्रमेंही ऐसा पाठ दिया है। लेकिन यह पाठ सूत्र में ही होना चाहिये। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित___ याका अर्थ-तिनि अवयवनिवि अनिष्ट आदि शब्दकरि वाधित प्रसिद्ध ये पक्षाभास हैं । इष्ट अबाधित असिद्ध लक्षण साध्य पूर्वै कह्या था सो ही पक्ष कह्या था ॥ १२ ॥ आशैं तिनि” विपरीत तदाभास है, ऐसे करें हैं;अनिष्टो मीमांसकस्यानित्यः शब्दः ॥ १३ ॥ याका अर्थ-अनिष्ट पक्षाभास तौ मीमांसककै शब्द अनित्य है। मीमांसक शब्दकू नित्य मानें है सो अनित्य कहै तौ ताकै अनिष्ट है॥१३॥ आरौं असिद्ध विपरीत सिद्ध पक्षाभास कहैं हैं; सिद्धः श्रावणः शब्दः ॥ १४ ॥ याका अर्थ-शब्द है सो श्रावण है, ऐसैं पक्ष कहै तौ सिद्ध पक्षाभास है जातै शब्द तौ सुननेमैं आवै है सो श्रावण है ही फेरि साधै तौ सिद्ध पक्षाभास है ॥ १४ ॥ आU अवाधित” विपरीत वाधित पक्षाभासकू कहते संते सो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणकरि वाधित है ऐसें दिखावते संते सूत्र में हैं;बाधितः प्रत्यक्षानुमानागमलोकस्ववचनैः ॥ १५ ॥ याका अर्थ--वाधित पक्ष है सो प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, लोक, स्ववचन, इनि करि है तातैं बाधित पक्षाभास पंच प्रकार जाननां ॥१५॥ आरौं इनिका अनुक्रमकरि उदाहरण कहैं हैं:तत्र प्रत्यक्षबाधितो यथा, अनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वाजलवत् ॥१६॥ याका अर्थ-तिनि विर्षे प्रत्यक्ष वाधित-जैसैं अग्नि है सो अनुष्ण कहिये शीतल है जाते याकै द्रव्यपणां है जैसैं जल शीतल है तैसैं । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १९९ इहां अग्नि है सो उष्ण स्पर्श स्वरूप है सो अनुष्ण कहा तब स्पर्शन प्रत्यक्षकरि बाधित भया ॥ १६ ॥ आर्गै अनुमानवाधित हैं हैं अपरिणामी शब्दः कृतकत्वात् घटवत् ॥ १७ ॥ याका अर्थ — शब्द है सो अपरिणामी है जातें याकै कृतकपणां है, कन्या होय है, जैसैं घट कन्या होय है । इहां अपरिणामी पक्ष है सो नित्य पक्ष हैं, सो शब्द कृतकपणां हेतुतैं परिणामी सधै है, इस अनुमानकरि नित्य पक्ष वाधित है ॥ १७ ॥ -- आगैं आगमवाधित हैं हैं:प्रेत्याऽसुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वादधर्मवत् ॥ १८ ॥ याका अर्थः-धर्म है सो परलोकविषै दुःख देनेवाला है जातें यह पुरुषकै आश्रय है जैसैं अधर्म पुरुषकै आश्रय है तार्तें दुःख देनेवाला है । इहां पुरुष के आश्रयपणांत अधर्म धर्म अविशेषरूप है तौऊ आगमविषै धर्मकै परलोक मैं सुखका कारणपणां कला है, तातैं पक्ष आगमबाधित है ॥ १८॥ आगें लोकवाधित हैं हैं; - शुचि नरशिरःकपालं प्राण्यंगत्वाच्छंखशुक्तिवत् ॥ १९॥ याका अर्थ — मनुष्यका मस्तकका कपाल कहिये खोपरी सो पवित्र है जातै याकै प्राणीका अंगपणां है जैसैं शंख सीप पवित्र मानिये है तैसैं । इहां लोकविषै मनुष्यकी खोपरी प्राणीका अंग है तौऊ अपवित्र मानिये है, शंख सीप प्राणीके अंग हैं तिनिकूं पवित्र मानें है तैसैं खोपरीकूं पवित्र कहनां लोकत्राधित है ॥ १९ ॥ आगैं स्ववचनवाचित कहैं हैं; - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित माता मे बंध्या पुरुषसंयोगेऽप्यगर्भत्वात प्रसिद्धवंध्यावत् ॥ २० ॥ __याका अर्थ—मेरी माता वांझ है जाते पुरुषका संयोग होतें भी ताकै गर्भवतीपणां नांही है जैसे अन्य प्रसिद्ध वंध्या है तैसैं । इहां मेरी माता कहनेत वैध्या कहना अपनां यचनहीत बाधित भया, जो वंध्या है तो आप पुत्र कैसैं भया ॥ २० ॥ आU क्रममैं आये जे हेत्वाभास तिनिकू कहैं हैं; हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानकान्तिकाकिंचि. त्कराः ॥२१॥ याका अर्थ—हेत्वाभास च्यारि हैं; असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, अकिंचित्कर ऐसें ॥ २१ ॥ आरौं इनिका यथानुक्रमकरि उदाहरणसहित लक्षण हैं हैं;असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः ॥ २२ ॥ याका अर्थ--असत् है सत्ता अर निश्चय जाका सो असिद्ध हेवाभास है ॥ सत्ता अर निश्चय जो है सो “ सत्तानिश्चयौ ” कहिये, नही है सत्ता अर निश्चय जाको सो असत्सत्तानिश्चय कहिये ॥ २२ ॥ आगें पहला भेदकू कहैं हैं; अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दः चाक्षुषत्वात् ॥ २३॥ याका अर्थ-नाही विद्यमान है सत्ता जाकी सो असत सत्ताक नामा असिद्ध हेत्वाभास है जा” शब्द है सो परिणामी है जातें चाक्षुष है । इहां शब्द तौ श्रावण है अर चाक्षुष हेतु सूं साधै सो शब्दविर्षे चाक्षुषपणांकी सत्ता नाही ॥ २३ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । आगे कहैं हैं कि इस हेतु असिद्धपणां कैसैं भया ? ; स्वरूपेणैवासिद्धत्वात् ॥ २४ ॥ याका अर्थ —यह स्वरूपकरि ही असिद्ध है चाक्षुषपणां शब्दका २०१ स्वरूप नांही ॥ २४॥ आगैं प्रसिद्धका दूसरा भेदकूं कहैं हैं; - अविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुद्धिं प्रत्यग्निरत्र धूमात् ॥ २५ ॥ याका अर्थ — प्रविद्यमान है निश्चय जाका सो असत् निश्चय हैत्वाभास है जैसैं मुग्धबुद्धि जो भोलाजीव तिस प्रति कहैं इहां अग्नि है जातें धूम है ॥ २५ ॥ आगैं यार्कै असिद्धता कैसैं ? ऐसें पूछे कहैं हैं; तस्य वाष्पादिभावेन भृतसंघाते संदेहात् ॥ २६ ॥ -- याका अर्थ - तिस धूम नामा हेतुकैं वाफ आदिपणांकरि पृथिवी आदि भूतसंघातविषै संदेह असत् निश्चय है । मुग्धर्के विद्यमान धूमविषै भी विना समस्यां संदेह उपजै जो यह वाफ है कि धूम है ? ॥२६॥ आ अमुग्धबुद्धि प्रति और असिद्धका भेद कहैं हैं ;सांख्यं प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥ २७ ॥ याका अर्थ—सांख्य मती प्रति कहै— जो शब्द परिणामी जातैं कृत है ॥ २७ ॥ याका असिद्धपणांविषै कारण कहैं हैं; तेनाज्ञातत्वात् ॥ २८ ॥ याका अर्थ - तिस सांख्यकरि नांही, जानबापणांतें जातें सांख्यके मत मैं आविर्भाव तिरोभाव ही प्रसिद्ध है उत्पत्ति आदि प्रसिद्ध नांही Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितहै । ता” शब्द कृतक है ऐसा सांख्यमती नाही जाणे है ताते याकै भी असिद्धपणां है ॥ २८॥ __ आ विरुद्ध हेत्वाभासकू दिखावता संता सूत्र कहैं हैं;विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धोऽपरिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥ २९॥ याका अर्थ-विपरीत कहिये विपक्ष विर्षे है अविनाभावका निश्चय जाका ऐसा विरुद्ध हेत्वाभास है जैसैं अपरिणामी शब्द है, इहां कृतकपणां हेतु है सो अपरिणामका विरोधी जो परिणाम ताकरि व्याप्त है तातै विरुद्ध है ॥ २९॥ आगैं अनैकान्तिक हत्वाभासळू कहैं हैं; विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः ॥ ३० ॥ याका अर्थ-विपक्षविर्षे भी अविरुद्ध है वृत्ति जाकी सो अनैकान्तिक हेत्वाभास है । इहां 'अपि ' शब्द ऐसैं जानिये जो केवल पक्ष सपक्षविर्षे ही याकी वृत्ति नाही है, विपक्षविौं भी है । सो यह हेत्वाभास दोय प्रकार है; निश्चित विपक्षवृत्ति, शंकितविपक्षवृत्ति ॥३०॥ __ तहां आदि भेदकू दिखावता संता सूत्र कहैं हैं;निश्चितवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वाद् घटवत् ॥ ३१ ॥ याका अर्थ-जाते नित्य जो आकाश ताकै विर्यै भी याका निश्चय है, भावार्थ-इहां प्रमेयपणां हेतु है सो पक्ष जो शब्द तावि. अनित्यपणां साध्य है ताविर्षे भी है अर याका सपक्ष घट ताविर्षे भी है अर विपक्ष जो नित्य आकाश ताविर्षे भी निश्चयकरि पाइये है, तातें निश्चितविपक्षवृत्ति हेत्वाभास भया ॥ ३१ ॥ __आगैं याकी विपक्षकै विर्षे निश्चितवृत्ति कैसे है ऐसी आशंका होता सूत्र कहैं हैं;-- Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। २०३ आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ॥ ३२ ॥ याका अर्थ-अस्य कहिये या हेतुको नित्य आकाश जो है ताकै विर्षे निश्चय है यातॆ ॥ ३२॥ आरौं शंकितविपक्षवृत्तिकू उदाहरणरूप कहैं हैं;शंकितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् ॥ ३३ ॥ याका अर्थ-सर्वज्ञ नांही है जातें जाकै वक्तापणां है । इहां वक्तापणां हेतु शंकितविपक्षवृत्ति अनैकान्तिक है ॥ ३३ ॥ __ आण याकै भी विपक्षविर्षे शंकितविपक्षवृत्ति कैसैं है ? ऐसी आशंका करि कहैं हैं; सर्वज्ञत्वेन वकृत्वाविरोधात् ।। ३४ ॥ याका अर्थ-जातै सर्वज्ञपणांकरि वक्तपणांक अविरोध है । इहां अविरोध यहु-जो ज्ञानका उत्कर्ष होते वचननिका अपकर्ष नाही देखिये है, बहुत ज्ञान होय तब वचन स्पष्ट नीसरै है यह निरूपण पहलैं किया है । तातें वक्तापणां हेतु है सो विपक्ष जो सर्वज्ञका सद्भाव है तहां शंकित है संदेहरूप है, वक्तापणां होतें सर्वज्ञपणां होय भी है नाही भी होय है । तातैं शंकितविपक्षवृत्ति अनैकान्तिक हेत्वाभास भया ३४. आगें अकिंचित्कर हेत्वाभासका स्वरूप कहैं है;--- सिद्धे प्रत्यक्षादिवाधिते च साध्ये हेतुरकिंचित्करः ॥३५॥ ___याका अर्थ-जहां साध्य सिद्ध होय तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणकरि वाधित होय तहां हेतु अकिंचित्कर है ॥ ३५॥ आरौं इनिकू उदाहरणरूप कहैं हैं;सिद्धः श्रावणः शब्दः शब्दात्वत् ॥३६ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित याका अर्थ — जैसे शब्द है सो श्रावण है श्रवण इन्द्रियका गोचर हैा श्रावण कहिये है जातैं याकै शब्दपणां है । इहां शब्दपणां हेतु है सो श्रावणपणां साध्य है सो तौ पहले ही सिद्ध है हेतु तौ किछु साध्या नांही तातैं अकिंचित्कर है ॥ ३६ ॥ आगैं याकैं अकिंचित्करपणां कैसैं है सो कहिये है; किंचिदकरणात् || ३७ ॥ याका अर्थ — इस हेतुनैं किछू किया नांही तातैं अकिंचित्कर है सो हेत्वाभास है || ३७॥ आगैं दूसरा भेद प्रत्यक्षादिवाधित जाका साध्य होय ताकूं पहला भेदका दृष्टान्तरूप करने का द्वारही करि उदाहरणरूप करें हैं;यथाऽनुष्णोऽग्निर्द्रव्यत्वादित्यादौ किंचित्कर्तुमशक्यत्वात् ॥ ३८ ॥ याका अर्थ — जैसैं अग्नि है सो अनुष्ण है जातैं याकै द्रव्यपणां है । इहां अग्नि उष्ण है, अर अनुष्ण कह्या सो साध्य स्पर्शनप्रत्यक्षकरि बाधित है तैं इस द्रव्यपणां हेतुकै अकिंचित्करपणां है जातें इहां किछू किया नांही, जैसैं इहां किछू किया नांही तैसें ही पूर्व सूत्रमैं जाननां ॥ ३८ ॥ 11 बहु यह अकिंचित्करपणां दोष हेतुका लक्षण के विचारका अवसर विषै हीं अर वादकाल विषै नांही है ऐसें प्रकट करते संते कहैं हैं ;लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ॥ ३९ ॥ याका अर्थ—यहु अकिंचित्करपणां हेतुका दोष है सो लक्षण कहिये शास्त्रविषै ही है, बाद विषै व्युत्पन्नका प्रयोग है सो पक्षके Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । २०५. दोषही कर दूषित है हेतुका दोष प्रधान नांही । व्युत्पन्न ऐसा पक्षका प्रयोग ही न करै अर करै तौ तहां पक्षाभास कहनां, जो सिद्ध साध्य कहै तौ सिद्ध पक्षाभास कहनां, बाधित साध्य कहै तौ बाधित पक्षाभास कहनां । अकिंचित्कर हेत्वाभासका कहनां शास्त्रमैं ही प्रधान है, वाद मैं नांही ॥ ३९ ॥ आर्गै दृष्टान्त है सो अन्वय व्यतिरेकके भेदतैं दोय प्रकार का है तातैं आभास भी दोय प्रकार ही है, तहां अन्वयदृष्टान्ताभासकूं कहैं हैं; — दृष्टान्ताभासा अन्वयेऽसिद्धसाध्यसाधनो भयाः ||४०|| याका अर्थ —— दृष्टान्ताभास है ते अन्वयविषै तौ तीन है; असिद्ध साध्य, असिद्धसाधन, असिद्धसाध्यसावन ऐसें । अर इनिका अर्थ ऐसा — असिद्ध है साध्य जा विषै सो असिद्ध साध्य अन्वयदृष्टांन्ता भास कहिये, इत्यादि जाननां ॥ ४० ॥ आगैं इनि तीननिके उदाहरण एक ही अनुमानके प्रयोग विषै दिखावैं हैं; अपौरुषेयः शब्दोऽमूर्तत्वादिन्द्रिय सुखपरमाणुघटवत् ॥ ४१ ॥ याका अर्थ-शब्द है सो अपौरुषेय है पुरुषका किया नांही जातैं अमूतक है, इहां तीन दृष्टांत हैं ते आभास हैं; इन्द्रिय सुखकी ज्यों, परमाणु की ज्यों, घटकी ज्यों । तहां इन्द्रियसुखकी ज्यों, यह तौ असिद्धसाध्य है, इहां इंद्रियसुख पौरुषेय दृष्टांत है अर अपौरुषेयपणां साध्य है सो इंद्रियसुखमैं असिद्ध है तातें असिद्ध साध्य भया । परमाणुकी ज्यों, यह असिद्धसाधन है—इहां साधन अमूर्त्तीकपणां है, सो परमाणु तौ मूर्तीक - Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित है, परमाणुदृष्टान्तमैं अमूर्तपणां साधन असिद्ध है तातें असिद्धसाधन भया । बहुरि घटकी ज्यों, यह असिद्धसाध्यसाधन है, घट पौरुषेय भी है अर मूर्तीक भी है अर इहां साध्य अपौरुषेय है साधन अमूर्तीकपणां है तातें दोऊ घटमैं असिद्ध भये ॥ ४१ ॥ ___ आगें हैं हैं साध्यतैं व्याप्त साधन दिखावनां ऐसैं अन्वय दृष्टा. न्तका अवसरमैं कह्या था सो जहां इस” विपरीत उलटा कहै सो भी दृष्टान्ताभास है;-- विपरीतान्वयश्च यदपौरुषेयं तदमूर्तम् ॥ ४२ ॥ याका अर्थ-जहां अन्वय विपरीत कहै जैसैं जो अपौरुषेय है सो अमूर्तीक है । इहां जो अमूर्तीक है सो अपौरुषेय है ऐसैं अन्वय कहना था सो उलटा कह्या तातें यह भी दृष्टान्ताभास है ॥ ४२ ॥ आगैं याकै दृष्टान्ताभासता कैसैं है सो कहैं हैं; विद्युदादिनातिप्रसङ्गात् ॥ ४३ ॥ याका अर्थ-विद्युत् कहिये बीजली आदिकरि अतिप्रसंगरौं दृष्टान्ताभास है जाते उलटा अन्वय कहे वीजलीकै भी अमूर्तपणांकी प्राप्ति आवै है, वीजली अपौरुषेय तौ है परन्तु मूर्तीक है ॥ ४३ ॥ आरौं व्यतिरेक उदाहरणाभासकू कहैं हैं; व्यतिरेके सिद्धतव्यतिरेकाः परमाण्विन्द्रियसुखा. काशवतू ॥४४॥ ___याका अर्थ- पहले प्रयोगमैं ही लगाइये है-शब्द है सो अपौरुषेय है जाते याकै अमूर्तीकपणां है जो अपौरुषेय नांही सो अमूर्तीक नाही; जैसैं परमाणु है; इद्रियसुख है, आकाश है । ये व्यतिरेक दृष्टान्ताभास हैं, इनिविर्षे साध्य साधन उभय तीननिका व्यतिरेक असिद्ध है । तहां Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। २०७ परमाणु तौ अपौरुषेय है तातें यह तौ असिद्धसाध्य व्यतिरेक भया जातै इहां व्यतिरेक ऐसे है जो अपौरुषेय न होय सो अमूर्तीक नाही जैसैं परमाणु, सो परमाणुकै अपौरुषेयपणां साध्य व्यतिरेक न भया । बहुरि इन्द्रियसुख है सो असिद्धसाधन व्यतिरेक है जातें यह अमूर्तीक है, सो अमूर्तीकपणां साधन” व्यतिरेक नाही भया । बहुरि आकाश है सो असिद्धसाध्यसाधन व्यतिरेक है जातें यह अमूर्तीक भी है अर अपौरुषेय भी है साध्य साधन दोऊतै व्यतिरेक नांही भया । ऐसें तीन व्यतिरेकदृष्टान्ताभास कहे ॥४४॥ ___ आगें साध्यका अभाव होतें साधनका अभाव है ऐसे व्यतिरेक उदाहरणके अवसरमैं कह्या था ताविर्षे तिसतै विपरीत कहै सो भी दृष्टान्ताभास है, यह दिखावें हैं; विपरीतव्यतिरेकश्च यन्नामूर्त तन्नापौरुषेयम् ॥४५॥ . याका अर्थ---जो अमूर्तीक नाही सो अयौरुषेय नाही ऐसे कहनां सो विपरीतव्यतिरेक है । इहां जो अपौरुषेय नाही सो अमूर्तीक नाही ऐसैं कहनांथा सो उलटा कह्या तातै विपरीतव्यतिरेक दृष्टान्ताभास ही है ॥ ऐसें दृष्टान्ताभास कहे ॥ ४५ ॥ ___आरौं बालव्युत्पत्तिकै अर्थि उदाहरण उपनय निगमन ये तीन अवयव कहे थे सो अब वाल अल्पज्ञानीकू तिनि” घाटि कहै तौ प्रयोगाभास कहिये, ऐसे करें हैं;बालप्रयोगाभासः पंचावयवेषु कियद्धीनता ॥ ४६॥ ___ याका अर्थ-अनुमानके पांच अवयव अल्पज्ञकू कहनें, तिनिमैं घाटि कहै सो बालप्रयोगाभास है ॥ ४६॥ आगैं याका उदाहरण कहैं हैं; Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ___ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित अग्निमानयं प्रदेशो धूमवत्त्वाधदित्थं तदित्थं यथा महानसः ॥४७॥ याका अर्थ—यह प्रदेश अग्निसहित है जाते याकै धूम सहितपणां है, जो ऐसे होय (धूमसहित होय ) सो अग्निसहित होय जैसैं महानस कहिये रसोई घर । इहां तीन ही अवयव कहे तातै बालप्रयोगाभास है ॥ ४७ ॥ आगै च्यार अवयवका प्रयोग होतें प्रयोगाभास कहें हैं; धूमवाँश्वायम् ॥ ४८ ॥ याका अर्थ-धूमवान् यह है । इहां तीन अवयव तो पहले सूत्रके लेणे अर एक यह कहै ऐसैं च्यार अवयव कहै सो भी बालप्रयोगाभास है ॥ ४८ ॥ ___ आगें अवयवनिक् विपर्ययकरि क्रमहीन कहै तौऊ प्रयोगाभास कहिये, ऐसैं कहैं है; तस्मादग्निमान् धूमवाँश्चायम् ॥ ४९ ॥ __याका अर्थ-तातें अग्निमान् है बहुरि यह धूमवान् है । इहां निगमनकू पहलैं कह्या उपनयकू पी? कह्या तातै क्रमभंग भया, तातें प्रयोगभास है ॥४९॥ आगैं यह प्रयोगाभास कैसैं ? ताका हेतु कहैं हैं, स्पष्टतया प्रकृतप्रतिपत्तेरयोगात् ॥५०॥ याका अर्थ-जाते क्रमहीन अनुमानका अयोग करै तहां स्पष्टपणांकरि प्रकृत अर्थकी प्रतिपत्तिका अयोग है । शिष्यकै स्पष्ट ज्ञान होय नाही ताप्रयोगाभास है ॥ ५० ॥ आगैं अब आगमाभासकू कहैं हैं; Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। २०९ रागद्वेषमोहाक्रान्तपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम् ५१ याका अर्थ-रागद्वेष मोहकरि सहित जो पुरुष ताका वचनकरि जो ज्ञान होय सो आगमाभास है ॥५१॥ आगैं याका उदाहरण कहैं हैं; यथा नद्यास्तीरे मोदकराशयः संति धावध्वं माणवकाः ॥५२॥ याका अर्थ-जैसैं, नदीके तीर लाडूनिकी राशि है सो हे वालक हो ! दौडो ल्यो । इहां कोई पुरुषकू वालकनिकार व्याकुल करि राख्या था तब तिनिकू अपनां लार छुडावनेंकू बहकाबनेंके वाक्य कहता भया कि-नदीकै तीर लाडूनिके ढेर हैं सो हे वालक हौ ! तुम तहां जाय ल्यो, ऐसैं कहि तिनिकू नदीकै तीर चलाये । ऐसें अपणां प्रयोजन साधनेकू. कछू कहै सो आप्तका वचन नांही तातें आगमाभास है ॥५२॥ ____ आगैं इस उदाहरणमात्रकरि संतुष्ट न होते अन्य उदाहरण कहैं ___ अंगुल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते इति च ॥५३ ॥ याका अर्थ-बहुरि यह उदाहरण जाननां-जो अंगुलीका अग्रभागविर्षे हस्तीनिका समूहका सैंकडा तिष्ठै है। इहां सांख्यमती अपने आगमकी वासनामैं लीन है चित्त जाका सो प्रत्यक्ष अनुमानकरि विरुद्ध सर्वही सर्व जायगां विद्यमान है ( सर्व सर्वत्र विद्यते ) ऐसैं मानता संता ऐसे वचन कहै है तातें यह अनाप्तके वचनपणांतें आगमाभास है ।। ५३ ॥ ___ आरौं इनि दोऊ वचननिकैं आगमाभासपणां कैसे है ताका हेतु कहैं हैं; हि. प्र. १४ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित विसंवादात् ॥ ५४॥ याका अर्थ-जातें ऐसे वचनके अर्थवि विसंवाद है । ता” अविसंवादरूप जो प्रमाणका लक्षण ताके अभावतें ऐसे वचन आगमाभास हैं ॥ ५४ ॥ ___ आसंख्याभासकू कहैं हैं;प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि संख्याभासम् ॥ ५५ ॥ याका अर्थ-जो एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है इत्यादि कहै सो संख्याभास है । प्रमाण प्रत्यक्ष परोक्षके भेदकरि दोय कहे तहां तिसतै विपरीतपणांकरि कहै-एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही है तथा प्रत्यक्ष अरु अनुमान ऐसैं दोय हैं इत्यादि नियम करै सो संख्याभास है ॥ ५५ ॥ ___ आरौं प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है ऐसैं कहनां कैसैं संख्याभास है ऐसे पूछे सूत्र कहैं हैं; लोकायतिकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य परवुद्ध्यादेश्चासिद्धेरतद्विषयत्वात् ॥ ५६ ॥ ___ याका अर्थ-एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण माननेवाला जो लोकायतिक कहिये चार्वाकमती ताकै परलोक आदिका निषेधकी अर परकी बुद्धि आदिकी अनुमान आदि प्रमाण विना प्रत्यक्षहीतै असिद्धि है जातें ये परलोक आदिका निषेध परबुद्धि आदि प्रत्यक्षका विषय नाही ॥ याका विस्तार पहले संख्याका निरूपणविर्षे कीया ही है सो इहां नाहीं कहिये है ॥ ५६ ॥ आगैं और वादीनिकी प्रमाणकी संख्याका नियम भी बिगडै है ऐसैं चार्वाकमतके दृष्टान्तके द्वारकरि तिनिके मतविर्षे भी संख्याभास है, ऐसें दिखाऐं हैं;-- Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । २११ __ सौगतसांख्ययोगप्राभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानु. मानागमोपमानार्थापत्यभावैरेकैकाधिकैयाप्तिवत् ५७ याका अर्थ---जैसैं बौद्ध, सांख्य, नैयायिक, प्राभाकर, जैमिनीय कहिये मीमांसक इनिमैं; बौद्धकै प्रत्यक्ष अनुमान” दोय, सांख्यकै प्रत्यक्ष अनुमान आगम ये तीन, योगकै प्रत्यक्ष अनुमान आगम उपमान ये च्यार, प्राभाकरकै प्रत्यक्ष अनुमान आगम उपमान अर्थापत्ति ये पांच, बहुरि जैमिनीयकै अभावसहित ये ही छह, ऐसा संख्याका नियम है सो इनिका व्याप्ति विषय नाही यातै व्याप्तिका ग्रहण करनेवाला तर्क प्रमाण वधै तब संख्या विगडै तैसैं चार्वाककी भी संख्या परकी बुद्धि आदि प्रत्यक्ष विषय नाही ताकू ग्रहण करनहारा अनुमान आदि वधै तब ताकी संख्या विगडै है । भावार्थजैसैं सौगतादिक प्रत्यक्ष अनुमान आदि एक एक वधता प्रमाणकरि व्याप्तिकू तर्क विना ग्रहण न करि सकै है तैसैं चार्वाक भी प्रत्यक्ष करि परवुद्धि आदिकू ग्रहण न करि सकै, ऐसा अर्थ है ॥ ५७ ॥ आगें चार्वाक आदि कहै—जो परबुद्धयादिकी प्रतिपत्ति प्रत्यक्षकरि मति होहु अन्यतै होसी, ऐसी आशंकाकरि कहैं हैं; अनुमानादेरतद्विषयत्वे प्रमाणान्तरत्वम् ॥ ५८ ॥ याका अर्थ-अनुमान आदिकार परबुद्धिका ग्रहण मानिये है तौ अन्य प्रमाणपणां आया। इहां तत् शब्द करि परबुद्धयादिकपणां है यार्ते अनुमानादिककै परबुद्धयादिक विषयपणां होतें प्रत्यक्ष एक प्रमाण है ऐसा बादकी हानि होय है ॥ ५८ ॥ आगैं इहां उदाहरण कहैं है; तर्कस्येव व्याप्तिगोचरत्वे प्रमाणान्तरत्वं, अप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात् ॥ ५९॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित याका अर्थ-जैसें तर्ककै व्याप्तिविषयपणां होते अन्य प्रमाणपणां है बौद्धादिककै अन्य प्रमाण आवै है तैसैं ही परबुद्धयादि अनुमानका विषय मानिये तब अन्य प्रमाणपणां आवै है, अर जो कहै तर्क अप्रमाण है तौ अप्रमाणकै व्याप्तिका व्यवस्थापकपणां नांही है । इहां ऐसा विशेष--जो एक प्रत्यक्ष ही प्रमाणका वादी चार्वाक है ताकरि बहुरि प्रत्यक्ष आदिमें एक एक अधिक प्रमाणका वादी बौद्धादिक है तिनिकरि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष इन्द्रियप्रत्यक्ष ऐसै तौ प्रत्यक्षके भेद अर प्रत्यक्ष अनुमान आदि भेदप्रतिभासका भेदकरि ही प्रमाणका भेद वक्तव्य है अन्य किछू गति नांही है । सो प्रतिभासका भेद चार्वाक प्रति तो प्रत्यक्ष अनुमानविर्षे है अर बौद्धादिकमै व्याप्तिज्ञान जो तर्क अर प्रत्यक्षादिप्रमाण इनिविर्षे है, तातै सर्वहीकी प्रमाणसंख्या विगड़े है ॥ ५९॥ सो ही दिखाऐं हैं; प्रतिभासभेदस्य च भेदकत्वात् ॥६॥ याका अर्थ-जाते प्रतिभास भेदकै ही प्रमाणका भेदकपणां है तारौं सर्वकी संख्या विगड़े है। चार्वाककै तौ अनुमान विगाडै है जातें प्रत्यक्षतै अनुमानका प्रतिभास जुदा है। अर बौद्धादिककै तर्क विगा है जातै प्रत्यक्ष अनुमानादिकतै तर्कका प्रतिभास जुदा है ॥६०॥ ___ आगें अब विषयाभासकू दिखावनेंकू कहें हैं;विषयाभासः सामान्यं विशेषो दयं वा स्वतंत्रम्॥६१ ___ याका अर्थ-प्रमाणका विषय सामान्यही एक कहै अथवा विशेषही एक कहै अथवा दोऊही स्वाधीन कहै तौ विषयाभास है ॥६१॥ आगें पूछे है कि इनिकै विषयाभासपणां कैसैं है तहां कहैं हैं; तथाऽप्रतिभासनात्कार्याकरणाच ॥६२॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। २१३ __ याका अर्थ-जातें जैसैं सामान्यमात्र विशेषमात्र दोऊ मात्र कह्या तैसैं प्रतिभासै नांही है बहुरि यह कार्य कारणहारा नाही है ॥ ६२ ॥ __ आगैं इहां आचार्य अन्यवादीकू पूछ हैं-जो सामान्य आदि एकान्तस्वरूप कार्यकू करै सो आप समर्थ होय करै है कि असमर्थ होय करै है ? तहां समर्थ पक्षमैं दूषण कहैं हैं; समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ॥ ६३ ॥ याका अर्थ-जो कहै सामान्य आदि समर्थ होय कार्य करै है तो कार्यकी सर्वकाल उत्पत्ति चाहिये जाते अन्यकी अपेक्षारहितपणां है ६३ बहुरि कहै सहकारीकी सापेक्षतें कार्य करै है यातें सर्वकाल उत्पत्ति नाहीं है तौ तहां कहैं हैं;परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदभावात् ॥६४॥ याका अर्थ-जो परकी अपेक्षा करै तौ ताकै परिणामीपणां आवै पहलै न किया सहकारी आया तब किया तब सामर्थ्य नवीन आया तारौं परिणामी भया अर जो ऐसे न मानिये तो कार्य होनेका अभाव है। भावार्थ-सहकारिरहित अवस्थावि तौ कार्य न करै अर सहकारीका संबंध भये कार्य करै तब पहला आकार छोड्या उत्तर आकार ग्रह्या दोऊमैं आप स्थित रह्या, ऐसे परिणामकी प्राप्ति होते परिणामीपणां आया, बहुरि ऐसे न मानिये तो जैसैं पहले अभाव अवस्थाविर्षे कार्य करनेका अभाव है तैसैं ही उत्तर अवस्थावि अभाव है ॥६॥ आरौं दूसरा पक्षमैं दोष कहैं हैं; स्वयमसमर्थस्याकारकत्वात्पूर्ववत् ॥६५॥ __याका अर्थ-आप असमर्थ होय तौ कार्य करनेवाला नाही है जैसैं पहले सहकारी विना कार्य करणहारा न था तैसैं अब भी नाही॥६५॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित आ फलाभासकूं प्रकाशता संता कहैं हैं; - फलाभासः प्रमाणादभिन्नं भिन्नमेव वा ॥ ६६ ॥ याका अर्थ — प्रमाणतैं फल अभिन्न ही कहै अथवा भिन्न ही कहै सो फलाभास है || ६६ ॥ आगैं इनि दोऊ पक्ष मैं फलाभासता कैसैं ? ऐसी आशंका होतैं आद्य पक्ष जो प्रमाणतैं फल अभिन्न ही है ऐसी तार्के फलाभासताविषै हेतु कहैं हैं ; अभेदे तद्व्यवहारानुपपत्तेः ॥ ६७ ॥ याका अर्थ — जो प्रमाणतैं फल अभेद ही कहिये तौ प्रमाण फलका व्यवहार वर्णै नांही, कै तौ प्रमाण ही ठहरै कै फल ही ठहरै जातैं दूसरा पदार्थ ही नांही ॥ ६७ ॥ आगैं कहै— संवृत्ति कहिये उपचार है नाम जाका ऐसी जो व्यावृत्ति कहिये जुदायगी अवस्तुरूपताकरि प्रमाणफलकी कल्पना होहु, ऐसें कहें उत्तर कहैं हैं; ------ व्यावृत्त्याऽपि न तत्कल्पना फलान्तराद्वयावृत्याऽफलत्वप्रसंगात् ॥ ६८ ॥ याका अर्थ — जो व्यावृत्ति कहिये अवस्तुरूप जुदायगी ताकरि भी फलकी कल्पना नाही युक्त है जातैं अन्यफलतें व्यावृत्ति कहिये जुदायगी ताकरि अफलपणांका प्रसंग आवै है । इहां यह अर्थ है— जैसैं विजातीय फल जो अप्रमिति तिसत व्यावृत्ति कहिये जुदायगीकरि फलका व्यवहार है तैसैं अन्यप्रमितिरूप जो सजातीय फल तिसतें भी जुदायगी है, ऐसैं अफलपणां ही आया ॥ ६८ ॥ अब इहां ही अभेदपक्षविषै दृष्टान्त कहैं हैं; ----- Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। २१५ प्रमाणान्तराद्वयावृत्येवाप्रमाणत्वस्य ॥ ६९॥ याका अर्थ---जैसे अन्य प्रमाण करि व्यावृत्ति कहिये जुदायगी करि अन्य प्रमाणकै अप्रमाणपणांका प्रसंग आवै है तैसैं ही फलक जाननां । इहां भी पहले फलमैं प्रक्रिया कही सो ही जोड़ि लेणीं। भावार्थ-जैसे प्रमाण ऐसैं कहे अप्रमाणकी व्यावृत्ति है तौ अन्य प्रमाणते व्यावृत्त प्रमाण है सो भी अप्रमाण ठहरै तब ऐसे कहै ताके मनमैं प्रमाण न ठहरै तैसैं ही विजातीय फलौं व्यावृत्त फल प्रमिति है सो ही सजातीय फल जो अन्य प्रमिति तिसरौं भी व्यावृत्त है ऐसैं अफल ही ठहरै ॥ ६९॥ ___ आगैं अभेद पक्षकू निराकरण करि आचार्य इस कथनकू संकोचैं तस्माद्वास्तवो भेदः ॥ ७० ॥ याका अर्थ-तातें भेद है सो वस्तुभूत है, प्रमाण फलकै एकान्त करि अभेद ही नांही है ॥ ७० ॥ आरौं भेद पक्ष• दूषता संताकहैं हैं;भेदे त्वात्मान्तरवत्तदनुपपत्तेः ॥ ७१ ॥ याका अर्थ-प्रमाणकै अर फलकै सर्वथा भेद ही होते अन्य आत्माकी ज्यों यह याका फल है ऐसैं कहनां न बनै ॥ ७१ ॥ आगें वादी कहै-जो जिस आत्मविर्षे प्रमाण समवायरूप है तिस ही वि फल भी है ऐसैं समवाय संबंध करि प्रमाण फलकी व्यवस्था है ता अन्य आत्मा विर्षे ताका प्रसंग नाही, सो ऐसैं कहनां समीचीन नांही ऐसे करें हैं; (१) मुद्रित संस्कृतटीका प्रतिमें 'प्रमाणान्तरात्' इसके स्थानमें 'प्रमाणात्' इतनाही पाठ है (२) मुद्रित संस्कृतटीका प्रतिमें " तस्माद्वास्तवोऽभेदः" ऐसा पाठ है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित समवायेतिप्रसङ्ग ॥ ७२ ॥ याका अर्थ—समवाय संबंध होतें अतिप्रसंग आवै है। भावार्थसमवाय तौ नित्य है अर एक है व्यापक है सर्व आत्माकै समवाय तौ समान धर्म है ता” यह इसहीका समवाय है ऐसा प्रतिनियम नाही तारौं अतिप्रसंग आवै है ॥ ७२ ॥ आगैं स्वपरपक्षका साधन दूषणकी व्यवस्था दिखाएँ हैं; प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भावितौ परिहृतापरिहतदोषौ वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च ॥७३॥ याका अर्थ-वादीनैं प्रमाण अर प्रमाणाभास स्थापे तिनिकू प्रतिवादी दूषणसहित किये अर फेरि वादी ताका दोषका परिहार किया तथा परिहार न किया तौ ते दोऊ वादीकै साधन अर साधनाभास हैं अर प्रतिवादीकै दूषण अर भूषण दोऊ हैं । इहां ऐसा अर्थ है-वादी प्रमाण स्थाप्या प्रतिवादी ताकू दूषण दिया फेरि वादी तिस दोषका परिहार किया तौ सोही वादीकै साधन है अर प्रतिवादीकै दूषण है । बहुरि जो वादी प्रमाणाभास कह्या अर प्रतिवादी ताकू प्रमाणाभास दिखाया फेरि वादी ताकू स्थाप्या नांही प्रतिवादीका वचनका परिहार न किया तौ तिस वादीकै सो साधनाभास है अर प्रतिवादीकै सो ही भूषण है ॥ ७३ ॥ . आगैं कह्या प्रकारकरि समस्त विप्रतिपत्तिका निराकरणद्वार करि पूर्वै प्रमाणतत्व कहनेंकी प्रतिज्ञा करी थी ताकी परीक्षा करि अब नय. आदिका स्वरूप अन्य शास्त्र प्रसिद्ध है सो तहांतें विचारनां, ऐसैं दिखावता संता सूत्र कहैं हैं; Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । २१७ संभवदन्यविचारणीयम् ॥७४॥ याका अर्थ-प्रमाणके स्वरूप” अन्यत् कहिये और संभवता होय सो विचारनां । संभवत् कहिये विद्यमान अन्यत् कहिये प्रमाणके रूप” और जो नयका स्वरूप सो अन्य शास्त्रविर्षे प्रसिद्ध है सो विचारनां, इहां युक्तिकरि जाननां । तहां मूल नय तो दोय हैं; द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक भेदरौं । तहां द्रव्यार्थिक तीन प्रकार हैं; नैगम, संग्रह, व्यवहार भेदतें । बहुरि पर्यायार्थिक च्यार प्रकार है; ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत भेदतें । तहां परस्पर गौण प्रधानभूत जो भेदाभेद तिनिका है प्ररूपण जामैं सो तौ नैगम है “ नैकं गमो नैगमः" ऐसी निरुक्तितें, भावार्थ-यह नय एक ही धर्मविर्षे नाही वत्तॆ है, विधि निषेधरूप सर्वही धर्मनिमैं एककू मुख्यकरि अन्यकू गौणकरि संकल्पमैं ले वत्र्ते है । बहुरि सर्वथा भेदहीकू कहै सो नैगमाभास है । बहुरि प्रतिपक्षकी अपेक्षारहित सत्तामात्र सामान्यका ग्रहण करनहारा सो संग्रह है । सर्वथा सत्तामात्र कहै ऐसा ब्रह्मवाद सो संग्रहाभास है । बहुरि संग्रहकरि ग्रह्या ताका भेद करनहारा व्यवहार है । कल्पनामात्र कहै सो व्यवहाराभास है । शुद्धपर्यायग्राही प्रतिपक्षीकी अपेक्षा सहित होय सो ऋजुसूत्र है। क्षणिक एकान्त नय है सो ऋजुसूत्राभास है। बहुरि काल कारक लिंगनि आदिका भेदः शब्दकै कथंचित् अर्थभेद कहै सो शब्दनय है । अर्थभेद विना शब्दनिहीकै नानापणांका एकान्त कहै सो शब्दाभास है। बहुरि पर्यायके भेदतै अर्थकै नानापणां कहै सो समभिरूढ है । पर्यायका नानापणां विनाही इन्द्रादिक शब्दनिकै भेद कहै सो समभिरूढाभास है। बुहुरि क्रियाके आश्रयकरि भेदका प्ररूपण करै 'याही प्रकार है' ऐसा नियम कहै सो एवंभूत है। क्रियाकी अपेक्षारहित क्रियाके वाचक शब्दनिविर्षे कल्पनारूप व्यवहार कर सो एवंभूतनयाभास है। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित ऐसैं नय तदाभासका लक्षण संक्षेपकरि कह्या । विस्तारकरि नयचक्र ग्रंथतैं तथा तत्वार्थसूत्रकी टीका जाननां । अथवा ' संभवत् ' कहिये विद्यमान संभवता अन्य वादका लक्षण अर पत्रका लक्षण अन्य शास्त्रमैं कह्या है सो इहां जाननां, तैसैं कद्या है - -" समर्थवचनं वादः " याका अर्थ — जहां वादी प्रतिवादी अथवा आचार्य शिष्यकैं पक्ष प्रतिपक्षका ग्रहणतैं समर्थ वचनकी प्रवृत्ति होय सो वाद कहिये, जो हेतु दृष्टान्त आदि र निर्वाध वचन होय सो समर्थवचन कहिये । बहुरि पत्रका लक्षण कया है, ताका श्लोकका अर्थ — जो प्रसिद्ध जे पांच अनुमानके अवयव ते जामैं पाइये बहुरि अपना इष्ट अर्थका साधक होय बहुरि निर्दोष गूढ जे पद ते जामैं वाहुल्यपणें होय ऐसा वाक्य होय सो निर्दोष पत्र कहिये ॥ ७४ ॥ ---- आमैं अब आचार्य प्रारंभ किया ताका निर्वाह अर अपना उद्धतपणांका परिहार दिखावता संता कहैं हैं:श्लोक - परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः । संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवद्व्यधाम् ॥ याका अर्थ — मैं मंदबुद्धी परीक्षामुख नाम प्रकरण किया है, कैसा है यह — हेय उपादेय तत्वका दिखावनेकूं आरसा सारिखा है, कौनकी ज्यौं किया है— जैसे परीक्षाविषै चतुर होय करै तैसें किया है, बहुरि कौन आर्थे किया है— मो सारिखे मन्दबुद्धीनिकै ज्ञानकै आर्थ किया है । इहां वाल ऐसा पद कह्या तहां तौ उद्धतताका परिहारका वचन है। बहुरि शास्त्रका प्रारंभ करि निर्वाह करनेंतैं तत्वज्ञपणां निश्चय होय ही ( १ ) पत्रलक्षणम् - प्रसिद्धावयवं वाक्यं स्वेष्टस्यार्थस्य साधकम् । साधुगूढपदप्रायं पत्रमाहुरनाकुलम् ॥ १ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । २१९. है । बहुरि आरसाकी उपमा है सो जैसैं आपका अलंकार आदिकरि मंडित सुन्दरपणां अथवा विरूपपणां अरसामैं दीखै तैसैं यामैं हेय उपादेय तत्व साधन दूषण द्वार करि दीखें हैं । बहुरि परीक्षादक्षकी ज्यों कह्या सो जैसैं परीक्षावान् अपना प्रारंभ्या शास्त्रकू निर्वाहै तैसैं मैं भी निर्वाह किया है । ऐसा अर्थ है ॥ ___ आगैं टीकाकारकृत श्लोक है:अकलंकशशाधैर्यत्प्रकटीकृतमखिलमाननिभनिकरम्। तत्संक्षिप्तं सूरिभिरुरुमतिभिर्व्यक्तमेतेन ॥१॥ __ याका अर्थ-जो अकलंक आचार्य रूप चंद्रमाकरि प्रमाण अर प्रमाणभासका समूह समस्त प्रगट किया सो माणिकनांदि आचार्य. संक्षेपकरि कह्या, कैसे हैं आचार्य--बड़ी है बुद्धि जिनकी, बहुरि सो. ही मैं अनंतवीर्य आचार्य व्यक्त ( प्रगट ) किया है ॥ १॥ ऐसें परीक्षामुखनाम प्रमाणप्रकरणकी लघुवृत्ति की वचनिकाविर्षे प्रमाणआदिका आभासका समुदेशनामा छठा परिच्छेद समाप्त भया॥ आरौं टीकाकार इस टीकाकी उत्पत्तिके समाचार कहैं हैं;श्लोक-श्रीमान् वैजेयनामाऽभूदग्रणीर्गुणशालिनाम् । बदरीपालवंशालिव्योमद्यमणिरूर्जितः ॥१॥ याका अर्थ-श्रीमान् कहिये लक्ष्मीवान् वैजेयनामा गुणनिकरि शोभायमाननिविर्षे मुख्य होता भया, कैसा है—बदरीपालका वंशकी जो आलि कहिये पंक्ति परिपाटी सोही भया आकाश ताविौं सूर्यसमान महान् होता भया ॥१॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित बहुरि श्लोकःतदीयपत्नी भुवि विश्रुताऽऽसीत् नाणांबनामा गुणशीलधीयो । यां रेवतीति प्रथिताम्बिकेति प्रभावतीति प्रवदन्ति सन्तः ॥२॥ याका अर्थ-तिस वैजेयकी स्त्री पृथिवीविर्षे प्रसिद्ध नाणांब ऐसा है नाम जाका ऐसी होती भई, सो कैसी है—गुणनि करि शोभायमान बुद्धि अर लक्ष्मी जाकै पाइये, बहुरि जाकू रेवती ऐसा भी नाम प्रगट कहैं हैं तथा अंविका ऐसा भी नाम कहैं हैं तथा सत्पुरुष प्रभावती ऐसा भी नाम कहैं हैं ॥२॥ बहुरि श्लोक; तस्यामभूद्विश्वजनीनवृत्ति दर्दानाम्बुवाहो भुवि हीरपारव्यः । स्वगोत्रविस्तारनभोंऽशुमाली सम्यक्त्वरत्नाभरणार्चिताङ्गः ॥३॥ याका अर्थ-तिस वैजेयकी नाणांबनामा स्त्रीवि हीरपनामा पुत्र होता भया, समस्त लोककू हितकारी है वृत्ति जाकी, बहुरि दान देनेकू पृथ्वीविर्षे मेघसारिखा है बहुरि अपनां गोत्रका विस्तार सो ही भया आकाश ताविर्षे सूर्यसमान है, बहुरि सम्यक्त्वरूप रत्नका आभरणकरि शोभित है अंग जाका ऐसा होता भया ॥ ३ ॥ बहुरि श्लोक;तस्योपरोधवशतो विशदोरुकीर्ते माणिक्यनंदिकृतशास्त्रमगाधबोधम् । (१) मुद्रित संस्कृत टीका प्रतिमें 'गुणशील सीमा' ऐसा पाठ है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। २२१ स्पष्टीकृतं कतिपयैर्वचनैरुदारै बोलप्रबोधकरमेतदनन्तवीर्यैः ॥ ४॥ याका अर्थ-तिस हीरपके आग्रहके वशतैं मैं सत्य आचार्य अनंतवीर्य माणिक्यनंदिकृत अगाधबोधरूप जो शास्त्र ताहि केई विस्तार रूप वचननि करि यह स्पृष्ट किया है, कैसा किया है-वाल : जे मंदबुद्धी तिनिकै प्रकृष्ट ज्ञानका करन हारा है, बहुरि हीरप कैसा हैनिर्मल है बड़ी कीर्ति जाकी ॥ ४ ॥ ऐसें परीक्षामुख प्रकरणकी लघुवृत्ति प्रमेयरत्नमाला है दूसरा नाम जाका सो समाप्त भई ॥ छप्पय। कमो प्रमाण स्वरूप, बहुरि संख्याविधि नीकी, फुनि तसु विषय विचार, सार फल विधि हू लीकी । तदाभास विस्तार कियो, परमत निषेध कर सुनि भवि लखै यथा स्वरूप, निज परमत जिम वर ॥ मुनिराज बड़ो उपकार यह, कियो परीक्षामुखकथन । तसु देश वचनिका शुभ बनी, सुगम पढन सुनना मथन ।। आगें या वचनिका होनेके समाचार लिखिये है (दोहा) ग्रंथ परीक्षामुखतनी, बनीं वचनिका येह । समाचार ताके कहूं, सुनों भव्य जुतनेह ॥१॥ (चौपई ) देश दुढाहर जयपुर जहां, सुवस वसैं नहिं दुःखी तहां । नृप जगतेश नीतिवलवान, ताकै बड़े बड़े परधान ॥ २ ॥ १ मनन. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितप्रजा सुखी तिनिकै परताप, काहूक न वृथा संताप । अपने अपने मत सब चलैं, जैनधर्महू अधिको भलैं॥३॥ तामैं तेरहपंथ सुपंथ, शैली बडी गुनी गुनग्रंथ । तामैं मैं जयचन्द्र सुनाम, वैश्य छावडा कहै सुगाम ॥४॥ मैं तो आतम द्रव्य विशुद्ध, जाति नाम कुल सबै विरुद्ध । तौऊ कर्मतणे संयोग, है विभाव परिणतिको भोग ॥५॥ अशुभ मंदते शुभ अनुराग, धर्मबुद्धि जागी धनि भाग । तव विचार यह भयो सुसार, जैन ग्रंथ पढ़ि करि निरधारि॥६॥ पढ़ते सुनतै भयो सुबोध, न्याय ग्रंथको भी कछु शोध । स्याद्वाद जिनमतमैं न्याय, ताकी रीति लखी कछु पाय ॥७॥ तर्फे विचारी इस कलिकाल, जैनन्याय बुध विरले भाल । प्रकरण देश वचनिकारूप, लघु सो होय करूं जु अनूप ॥८॥ तब यह लख्यौ न्यायको द्वार, कियो वचनिकारूप उदार । भव्य पढ़ौ मन लाय अशेष, न्याय देशमें करो प्रवेश ॥ ९॥ निज परमतको जानों भेद, मिटै विपर्यय बुधिको भेद । स्वपरतत्त्वकौं जानि विचार, तजो विभाव रहो अविकार॥१०॥ रत्नत्रय मारग लगि ताम, पहुचो मुक्तिपुरी सुखधाम । यह उपदेश जिनश्वरदेव, भाँष्यो ग्रहो करो तिनि सेव ॥११॥ पंडितजनसूं यह अरदासि, करूं परोक्ष मान मद नासि । हीनाधिक जो यामैं होय, मूल ग्रंथ लखि सोधो सोय ॥१२॥ (दोहा) बालबुद्धि लखि संतजन, हसै न कोप कराय । इहै रीति पंडित गहै, धर्मबुद्धि इम भाय ॥ १३ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । (छप्पय ) नमूं पंच गुरुचरन सदा मंगलके दाता, वंदूं जिनवरवानि सुनें पावै सुख साता । वीतरागता धर्म नमूं जो कर्मनाशकर, २२३ चैत्यधाम अरु चैत्य नमूं सम्यकप्रकाशपर | ए नव वंदन योग्य हैं जिनमारग मैं नित्य ही, मैं ग्रंथ अंतमंगल निमित करी वंदना सत्य ही १४ ( दोहा ) अष्टादश शत साठि त्रय, विक्रम संवत माहिं । सुकल असाढ सुचाथि बुध, पूरण करी सुचाहि ॥ १५ ॥ लिखी है जयचंदने, सोधी सुत नंदलाल -बुध लखि भूलि जु शुद्धकरि, वांचौ सिखवौ बाल ॥ १६ ॥ इति श्री परीक्षामुख जैन न्यायप्रकरण की लघुवृत्ति प्रमेयरत्नमालाकी श्री जयचंदजीछावड़ाकृत देशभाषामय वचनिका सम्पूर्ण । 販 Page #251 --------------------------------------------------------------------------  Page #252 -------------------------------------------------------------------------- _