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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितबहुरि प्रलय तौ प्राणीनिके अदृष्ट जो पाप ताके वश” होय है तो ऐसें तौ स्वाधीनपणांकी हानि होय है, कृपाविषं तत्पर होय ताकै पीड़ाका करनां अर अदृष्ट-पाप ताकी अपेक्षाका अयोग है। बहुरि क्रीड़ाके वशतें करनां कहै तौ क्रीड़ा अर्थि प्रवृति करनेमें प्रभुपणां नाही जैसैं बालक क्रीड़ा करनेंकू उपाय गीन्दड़ी आदि बनावै तैसें ठहरै यामैं कहा बड़ाई, बहुरि क्रीड़ाका उपाय बनाया जो जगत अर याकरि साध्य जो सुख ताकी एक काल उत्पत्ति भई चाहिये, जातें समर्थ कारणके होते कार्यका अवश्य होना होय, जो समर्थ कारण न होय तौ अनुक्रमतें भी तिसतै कार्य न होय, जैसैं दीपक है सो काजलका पाड़नां तेल शोषणां बातीका बालनां प्रकाश करना एककाल करै है यह सामर्थ्य है, अर ऐसैं न होय तौ अनुक्रमकरि भी ये कार्य न होय । बहुरि कहै-ब्रह्म स्वभावहीतैं जगतकू रचै है जैसे अग्नि स्वभावहीरौं बालै है पवन स्वभावही चले है ता यह कहनां भी अज्ञानका वचन है, पहले कहे जे दोष ते मिटैं नाही, सर्व दोष आ4 हैं, सो ही दिखावै है ताका प्रयोग-समस्त अनुक्रमतें उपजता जो विवर्त्तका समूह सो एककाल उपजै जारौं जिस - सहकारी कारणकी अपेक्षा कीजिये सो एककाल उपजै जातें जिस सहकारी कारणकी अपेक्षा कीजिये सो भी ब्रह्महीकरि साधने योग्य है ताका एककाल संभव है। भावार्थ-सर्व ही ब्रह्मके कार्य मानिये हैं, तहां ब्रह्म तौ समर्थकारण है ही बहुरि सहकारी चाहै तो सो भी तिसहीका किया होय तब सर्वजगत एककाल उपज्या चाहिये, बहुरि अग्नि पवनका उदाहरण दिया ताकै भी विषमपणां है, कोई कालविर्षे स्वहेतु जो काष्ठादिक ताकरि उपज्या अग्निके दहन करनेकी शक्ति स्वरूपपणांकी प्राप्ति मर्याद रूप है जिस देशकालमैं भया तेता ही है, अर ब्रह्मविषै तौ नित्यपणां सर्वव्यापकपणां