________________
हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
१३१
शास्त्रवि प्रवीण होय, तिस प्रति प्रयोगका नियम कैसे हैं; ऐसी आशंका होतें सूत्र कहैं हैं,व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथानुपपत्यैव वा ॥८९॥ ___ याका अर्थ-न्यायशास्त्रकै विर्षे प्रवीण जो व्युत्पन्न ता प्रयोग कीजिये सो दोय ही प्रकार है-एक तौ तथोपपत्ति कहिये साध्य होते ही हेतुकी उपपत्ति है, दूसरा अन्यथोपपत्ति कहिये साध्यका अभाव होते हेतुकी अनुपपत्ति ही है, ऐसैं दोय प्रकार हैं; इनिमैं एकका प्रयोग करनां । इहां व्युत्पन्न प्रयोगका समास ऐसा-जो 'व्युत्पन्नका प्रयोग'ऐसैं षष्ठी तत्पुरुष, तथा व्युत्पन्नकै अर्थि ऐसैं चतुर्थीतत्पुरुष ॥ ८९ ॥ आशैं तिसही अनुमानका रूप कहैं हैं;
अग्निमानयं प्रदेशस्तथैव धूमवत्त्वोपपत्तधूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेवों ॥९॥ ___ याका अर्थ—यह प्रदेश अग्निमान है जाते तैसें होते ही धूमवानप'णांकी यामैं उपपत्ति है-धूमवानपणां बण है; अथवा धूमवानपणांकी अग्निमानपणां विना अनुपपत्ति है-धूमवानपणां नांही बर्षे है। ऐसे प्रयोग करनां ॥९०॥ ___ आगें पूछै है—जो साध्यसाधनते न्यारे ऐसे दृष्टान्त आदिककै व्याप्तिकी प्रतिपत्ति प्रति उपयोगीपणां है ये भी उपकारी है सो व्युत्पनकी अपेक्षा इनिका प्रयोग कैसे नाही, ऐसैं पू0 सूत्र कहैं हैं;-.
हेतुप्रयोगो हि यथा व्याप्तिग्रहणं विवधीयते सा च तावन्मात्रेण व्युत्पन्नैरवधार्यते ॥ ९१ ॥
याका अर्थ-व्युत्पन्न पुरुष हेतुका प्रयोग करें हैं ते जैसैं व्याप्ति ग्रहण होजाय तैसें करें हैं सो तिस व्याप्तिकू व्युत्पन्न पुरुष तिस हेतुके