SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १९९ इहां अग्नि है सो उष्ण स्पर्श स्वरूप है सो अनुष्ण कहा तब स्पर्शन प्रत्यक्षकरि बाधित भया ॥ १६ ॥ आर्गै अनुमानवाधित हैं हैं अपरिणामी शब्दः कृतकत्वात् घटवत् ॥ १७ ॥ याका अर्थ — शब्द है सो अपरिणामी है जातें याकै कृतकपणां है, कन्या होय है, जैसैं घट कन्या होय है । इहां अपरिणामी पक्ष है सो नित्य पक्ष हैं, सो शब्द कृतकपणां हेतुतैं परिणामी सधै है, इस अनुमानकरि नित्य पक्ष वाधित है ॥ १७ ॥ -- आगैं आगमवाधित हैं हैं:प्रेत्याऽसुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वादधर्मवत् ॥ १८ ॥ याका अर्थः-धर्म है सो परलोकविषै दुःख देनेवाला है जातें यह पुरुषकै आश्रय है जैसैं अधर्म पुरुषकै आश्रय है तार्तें दुःख देनेवाला है । इहां पुरुष के आश्रयपणांत अधर्म धर्म अविशेषरूप है तौऊ आगमविषै धर्मकै परलोक मैं सुखका कारणपणां कला है, तातैं पक्ष आगमबाधित है ॥ १८॥ आगें लोकवाधित हैं हैं; - शुचि नरशिरःकपालं प्राण्यंगत्वाच्छंखशुक्तिवत् ॥ १९॥ याका अर्थ — मनुष्यका मस्तकका कपाल कहिये खोपरी सो पवित्र है जातै याकै प्राणीका अंगपणां है जैसैं शंख सीप पवित्र मानिये है तैसैं । इहां लोकविषै मनुष्यकी खोपरी प्राणीका अंग है तौऊ अपवित्र मानिये है, शंख सीप प्राणीके अंग हैं तिनिकूं पवित्र मानें है तैसैं खोपरीकूं पवित्र कहनां लोकत्राधित है ॥ १९ ॥ आगैं स्ववचनवाचित कहैं हैं; -
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy