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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
आवरणसहित आवरणरहित इत्यादि विरुद्ध धर्मनिका युगपत् देखनां है ! तैसैं कहे जे भेदाभेद तिनिकै भी विरोध नही है । इस ही कथनकरि वैयाधिकरण्य भी निराकरण किया, तिनि भेदाभेदकै एक आधारपणांकरि प्रतीतिमैं समानाधिकरण है, इहां भी चल अचल आदि पहले दृष्टांत कहे ते जाननें । बहुरि जो अनवस्था नामा दूषण कह्या सो भी स्याद्वादमतकू नांही जाननेवालेकरि बताया है, स्याद्वादीनिका यह मत हैसामान्य विशेष स्वरूप वस्तुविर्षे सामान्य विशेष हैं ते ही भेद हैं जातें भेदशब्दकरि तिनिळू ही कहे हैं, बहुरि द्रव्यरूप करि अभेद है ऐसा कह्या है सो द्रव्यही अभेद है जाते वस्तुकै एकानेक स्वरूपपणां है, अथवा भेदनयका प्रधानपणांकरि वस्तुके धर्मनिकै अनंतपणां है तातें अनवस्था नाही है । सो ही कहिये है-जो सामान्य है बहुरि जे विशेष हैं तिनिकै अन्वयरूप आकारकरि अर व्यावृत्त कहिये न्यारा न्यारा आकारकरि भेद है, बहुरि तिनिकै अर्थक्रियाके भेदतै भेद हैं, बहुरि तिस अर्थक्रियाक शक्तिभेदतै भेद है, सो शक्ति भेद भी सहकारीके भेदतें है, ऐसैं अनंत धर्मनिका अंगीकार करने” अनवस्था काहेरौं होय ? सो ही कह्या है, ताका श्लोकका अर्थः-जो मूलनाशका करनहारा होय ताहि अनवस्था दूषण पंडित कहैं हैं, वस्तुकै अनंतपणां होते अथवा विचारनेकू असमर्थता होय तहां अनवस्था दूषण नाही, जो अनवस्था होय तो भी दूषण न कहिये । बहुरि जो संकर अर व्यतिकर ये दोऊ दूषण हैं ते भी मेचक ज्ञानके दृष्टान्तकरि बहुरि सामान्य विशेषके दृष्टान्त करि दूर किये । इहां संकर दूषणके निराकर
(१) तथा चोक्तम्:-मूलक्षतिकरीमाहुरनवस्थां हि दूषणम् ।
वास्त्वानंत्येऽप्यशक्तौ च नानवस्था विचार्यते॥१॥