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________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला। स्वरूप ही प्रमाण है अन्य तदाभास है । बहुरि संशयादि हैं ते प्रमाणाभास प्रसिद्ध ही हैं । तहां संशय है सो तौ दोय तरफका स्पर्शन करनेवाला है जैसैं खेतमैं रोप्या स्थाणुकौं देखि जाकै यह स्थाणु ही है ऐसा निश्चय नाही, सो विचारै यह स्थाणु है कि पुरुष है ! ताका निश्चय नाही होने तैं यहु प्रमाणाभास है। बहुरि अन्य वि. अन्यका विकल्प निश्चय सो विपर्यय है, जैसें सीपविर्षे रूपाका निश्चय । बहुरि विशेषका निश्चय नांही सो अनध्यवसाय है, जैसैं चालताकै तृण लागै तब जानैं किछू है, विशेष निश्चय नाही ॥२॥ आगैं कहै है इनि अस्वसंविदित आदिकै प्रमाणभासपणां कैसैं है; ताका सूत्र स्वविषयोपदर्शकत्वाभावात् ॥ ३ ॥ याका अर्थ-जारौं ये अस्वसंविदित आदिक हैं तिनिकै अपनां विषयका उपदर्शकत्व कहिये निश्चायकपणां ताका अभाव है तातें ये प्रगाणांभास है ॥ ३॥ पुरुषान्तरपूर्वार्थगच्छत्तृणस्पर्शस्थाणुपुरुषादि ज्ञानवत् ॥ ४॥ आरौं इनि विर्षे दृष्टांत अनुक्रम” कहैं हैं;याका अर्थ-अन्य पुरुषका ज्ञानकी ज्यों अस्वसंविदित ज्ञान अपना विषय विषै नांही प्रवर्ते है तातै प्रमाण नाही, पूर्वै ग्रह्या है अर्थ जानें ऐसा ज्ञानकी ज्यों गृहीतार्थ ज्ञान प्रमाण नाहीं, चालताकै तृणस्पर्शज्ञानकी ज्यों दर्शन प्रमाण नांही है, स्थाणु पुरुष ज्ञानकी ज्यों संशय प्रमाण नांही है, आदि शब्दतै विपर्ययादिक तथा ऐसे और भी..जाननें..ते सारे प्रमाणभास है॥ ४ ॥ हि. प्र. १३
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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