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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
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___ इहां मीमांसकमती कहैं हैं;-जो प्रमाणपणांकी उत्पत्तिविष विज्ञानके कारण जे निर्दोष नेत्र आदिक तिनि” भिन्न अन्य कारणकी अपेक्षापणां है सो असिद्ध है-अन्यकारण नाहीं है तातै प्रमाणका प्रमाणपणां तिस प्रमाणही” होय है जाते तिस प्रमाणते अन्य वस्तुका ही अभाव है, अर जो कहोगे अन्यकारण नेत्रादिककै निर्मलपणां आदि गुण है ते है तो यह कहना वचनमात्र है-वस्तुभूत नाही, जातै विधिकी मुख्यताकरि अथवा कार्यकी मुख्यताकरि गुणनिकी प्रतीति नाहीं है प्रमाण सिवाय गुण न्यारे किछू भासते नांही प्रत्यक्ष कार तो किछू गुण प्रमाणते न्यारे दचि नाही जातै प्रत्यक्ष तौ इन्द्रियनिकार जाननां है सो इन्द्रियनिकी प्रवृत्ति अतीन्द्रियविषै होय नाही इन्द्रियनितें किछू न्यारे ही गुण दीखें नांही । बहुरि अनुमानकरि किछू गुणनिका लिंग दीखै नाही, ताकरि अनुमान कीजिये, इन्द्रियनिकरि लिंग ग्रहण होय तब अनुमान होय है अर लिंगका भी लिंग अनुमानकरि ग्रहण करनां कहिये तो अनवस्था आवै है तातै प्रमाणतै न्यारे गुण प्रमाणसिद्ध नाही । बहुरि प्रमाणकी अप्रमाणता तौं आपहीतैं होय है अर प्रमाणता परहीरौं होय ऐसा विपर्यय भी कह्या न जाय, जातै पक्षधर्म, सपक्षे सत्व, विपक्षाब्यावृत्ति इनि तीनरूप सहित जो लिंग तिसहीतैं केवल अनुमान प्रमाणकै प्रमाणपणां उपजता देखिये हैं। अन्वय व्यतिरेक करि ऐसे ही उत्पति दीखै है अन्य प्रकार तो नाही । बहुरि ऐसे ही प्रत्यक्षविर्षे भी लगावणां जो निर्दोष नेत्रादिकरि ही प्रमाणमणां उपजै है अन्यप्रकार नाही । तैसैं ही आगमवि भी लगावणां जो आप्तका कह्यापणां आगममैं गुण होते आगमका प्रमाणपणां तिस गुण” नाही है, तिस आगमवि गुणनितै दोषनिका अभाव है अर दोषानिके अभावतें संशय-विपर्ययस्वरूप जो अप्रमाण