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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
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जान्यां जो 'यह तिसका प्रतियोगी है' सो तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान है । आदिशब्दतें और भी पूर्वापरका जोड़रूप ज्ञान होय सो जाननां । इहां दर्शन-स्मरणकारणपणांतें सादृश्यादिक जाका विषय होय सो भी प्रत्यभिज्ञान ही कया है । बहुरि जिनिके मतमैं सादृश्यविषयकू उपमाननामा जुदा प्रमाण कह्या है तिनिके मतमैं वैलक्षण्यादिक जाका विषय ऐसा ज्ञान भी अन्य प्रमाण ठहरैगा, सो ही कह्या है, ताका श्लोकका अर्थ-प्रसिद्ध पदार्थके समान-धर्मपणांतें साध्यका साधनां सो उपमानप्रमाण मानिये तो तिसके असमानविलक्षणधर्म" साध्य साधनां सो प्रमाण कहा कहिये, किछू कह्या चाहिये । बहुरि जहां संज्ञा जो नामरूप पदार्थ ताका प्रतिपादन जो संज्ञा पहले सुनी थी तातें जोडरूप प्रतिपादन करिये सो प्रमाण न्यारा कहनां, ऐसैं उपमान... न्यारा प्रमाण मानें दोष आवै है । बहुरि यह यातें अल्प है, यह यातें बहुत है, यह यातँ दूर है, यह यातें निकट है, यह यातें ऊँचा है, यह यातें नीचा है, बहुरि इनके निषेध यह यातें अल्प नाही है इत्यादि, ऐसे प्रत्यक्ष देख्या पदार्थविर्षे परस्पर अपेक्षा” अन्यभावका निश्चय होय है सो ये अन्य प्रमाण ठहरै तब अपने इष्ट जो प्रमाणकी संख्या ताका विघटन होय है। तातै उपमान प्रमाण न्यारा माननां युक्त नाही ॥५॥
आरौं इनि प्रत्यभिज्ञानका भेदनिका अनुक्रमकरि उदाहरण दिखावता संता सूत्र कहैं हैं;१-तथा चोक्तम्
उपमानं प्रसिद्धार्थसाधर्म्यात्साध्यसाधनम् । तद्वैधात्प्रमाणं किं स्यात्संज्ञिप्रतिपादनम् ॥१॥ इदमल्पं महदूरमासनं प्रांशु नेति वा। व्यपेक्षातः समक्षेऽर्थे विकल्पः साधनान्तरम् ॥२॥