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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
यथा स एवायं देवदत्तः, गोसदृशो गवयः, गोविलक्षणो महिषः, इदमस्माद्दूर, वृक्षोऽयमित्यादि ॥६॥
याका अर्थ-जैसैं काहू पुरुषकू देखिकरि कहै ' यह पहले देख्या था सो ही पुरुष है' यह तौ एकत्वप्रत्यभिज्ञानका उदाहरण भया। बहुरि काहू. वनवि गवयनाम तिर्यच प्राणी देखिकरि जानी 'जो गऊ पहले देख्या था तिस सारिखा यह गवय है। यह सादृश्यप्रत्यभिज्ञानका उदाहरण है। बहुरि भैंसाकू देखिकरि यह जान्यां 'जो पहले गऊ देख्या था ता” विलक्षण यह भैंसा है' यह तद्विलक्षण प्रत्यभिज्ञानका उदाहरण है। बहुरि काहू वस्तुकू निकट देखिकरि अन्य काहूकू ऐसैं जान्यां 'जो यह यातें दूर है' यह तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञानका उदाहरण है । बहुरि काहू वृक्षकू देखिकरि वृक्षसामान्यकी संज्ञाकू यादि करि जानैं 'जो यह वृक्ष है। यह भी प्रत्यभिज्ञान है । बहुरि आदिशब्दकरि अन्यमी उदाहरण हैं-जैसे पहले सुन्यां था तथा देख्या था जो जलका अर दूधका भिन्न करनेवाला हंस होय है, बहुरि कहूं जल दूधकू भिन्न करता देखि जान्यां जो ‘यह हंस है। यह भी प्रत्यभिज्ञान भया । बहुरि पहली सुन्यां था जो छह पादका भ्रमर होय है, बहुरि छह पाद देखिकरि पहले सुण्यां ताकू यादिकरि जाण्यां जो — यह भ्रमर है। यह भी प्रत्यभिज्ञान भया । बहुरि पहले सुण्यां था जो सात पान जाकै एकलगमैं होय सो
१-पयोऽम्बुभेदी हंसः स्यात् षट्पादैर्धमरः स्मृतः।
सप्तपर्णैस्तु तत्वज्ञैर्विज्ञेयो विषमच्छदः ॥१॥ पंचवर्ण भवेद्रत्नं मेचकाख्यं पृथुस्तनी। युवतिश्चैकशंगोऽपि गण्डकः परिकीर्तितः ॥२॥ शरभोऽप्यष्टभिः पादैः सिंहश्चारुसटान्वितः॥३॥