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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
७१ शेष भया तौ उत्पत्तिकै अर अभावकै भेद कैसैं भया । अहार कहेगा उत्पत्तिकरि सहित वस्तुकै सत्व है तातें उत्पत्ति भी तैसा ना पाई है तौ ऐसा कहनां भी मूर्खपणांकरि ही है जानैं इहां उत्पत्तिका-सत्कार विवाद है तहां वस्तुका सत्व कहनां कबहू न बगैंगा । बहुरि यामैं इतरेतराश्रयदोष आवैगा, वस्तुविधैं उत्पत्तिका सत्त्व होते तिस ही काल भया सत्तासंबंधका निश्चय होय अर तिसका निश्चय होय तब ही तिस वस्तुके सत्त्वकरि उत्पत्तिका सत्त्वका निश्चय होय ऐसैं इतरेतराश्रय होय है । बहुरि इस दोषके दूर करनेकी इच्छाकरि उत्पत्तिकै अर सत्तासंबंधकै एकता मानिये तो सत्तासंबंध ही कार्यत्व भया तातै बुद्धिमानहेतुपणां तनु आदिकै होते आकाश आदिकरि हेतु अनैकान्तिक भया जातें आकाश आदिविर्षे सत्तासंबंध तौ है अर कार्यपणां नाही। नित्यवस्तुकै कार्यपणां होय नाही तातै बुद्धिमानहेतुकपणां भी नाही । ऐसैं सत्तासमवाय तौ कार्यत्व नाही तैसैं ही स्वकारणमंबंध भी कार्यत्व नाही, जो चर्चा सत्तासंबंधमैं है सो ही इहां भी लगावणीं । बहुरि कहै जो स्वकारणसमवाय अर सत्तासमवाय दोऊ संबंध कार्यत्व है तो सो भी युक्त नांही है, तिनि संबंधनिकै भी कदाचित् काल होतें तौ समवायकै अनित्यताका प्रसंग आवै जैसैं घट आदिककै अनित्यता है तैसैं, बहुरि सदाकाल कहै तौ सर्वकाल तिस कार्यपणांका उपलंभ कहिये प्राप्ति ताका प्रसंग आवै । बहुरि इहां कहै जो वस्तुनिके उत्पादक कारणनिकी निकटता न होय तब समवाय न होय याः सर्वकाल उपलंभका प्रसंग न आवै तौ तहां पूछिये है-वस्तुकी उत्पत्तिकै अर्थि तौ कारणनिका व्यापार है अर उत्पाद स्वकारणसत्तासमवायस्वरूप है सो यह सर्वकाल है ही, ऐसें तौ कारणका ग्रहण अनर्थक ही है। बहुरि कहै जो वस्तुकै कारणका ग्रहण उत्पत्तिकै अर्थि तौ