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________________ १२४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथा ॥६६॥ याका अर्थ—साध्यतै विरुद्ध जे पदार्थ तिनिसंबंधी जे व्याप्य कार्य कारण पूर्वचर उत्तरचर सहचर तिनिकी उपलब्धि है सो प्रतिषेध साध्यविौं तथा कहिये पूर्वोक्त प्रकार ही छह भेद रूप है ॥६६॥ आगें तहां साध्यविरुद्धव्याप्य उपलब्धिकू कहैं हैं; नास्त्यत्र शीतस्पर्श औष्ण्यात् ॥ ६७ ॥ याका अर्थ-इस जायगां शीतस्पर्श नांही है जातें उष्णपणां है, इहां शीतस्पर्श साध्य है सो प्रतिषेधरूप है तातै विरूद्ध अग्नि है तिसतें व्याप्यस्वरूप उष्णपणां है सो शीतस्पर्शसे विरुद्ध व्याप्योपलब्धिहेतु है ॥ ६७ ॥ आणु विरुद्ध कार्यका उपलंभ कहैं हैं; नास्त्यत्र शीतस्पर्शी धूमात् ॥ ६८॥ याका अर्थ-इहां शीतस्पर्श नांही है जातें धूम है । इहां भी प्रतिषेधरूप साध्य शीतस्पर्श ता” विरुद्ध अग्नि है ताका कार्य धूम है सो हेतु है शीतस्पर्शका प्रतिषेधकू साधै है सो साध्यविरुद्धकार्योपलब्धि हेतु भया ॥६८॥ आणु विरुद्ध कारणकी उपलब्धि कहैं हैं;नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥६९॥ याका अर्थ-इस प्राणीविौं सुख नाही है जाते याके हृदयमैं शल्य है । इहां सुखका विरोधी जो दुःख ताका कारण जो हृदयशल्य सो हेतु है सो सुखके प्रतिषेधकू साधै है । सो प्रतिषेध साध्यवि विरुद्ध कारणोपलब्धि हेतु भया ॥ ६९ ॥ आणु विरुद्ध पूर्वचर हेतुकू कहैं हैं;
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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