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प्रभेन्दु वचनोदारचंद्रिकाप्रसरे सति मादृशा क्व नु गण्यन्ते ज्योतिरिंगणसन्निभा ॥१॥ तथापि तद् वचो पूर्वरचना रुचिरं सताम्।
चेतोहरं भृतं यद्वन्नद्या नवघटे जलम् ॥२॥ इस कथनसे यह स्पष्ट सिद्ध है कि इस ग्रंथके पठन तथा मननरूप अवलंबनसे प्रमेय कमलमार्तड, तथा प्रमेय कुमुदचंद्रोदय सरीखे शास्त्रसमुद्र में प्रवेश कर समस्त न्याय विषयमें पारंगत हो सकता है । अर्थात् न्याय विषयमें प्रवेश करनेके लिये यह ग्रंथ मुखद्वारही सिर्फ नहीं है किंतु इसके पढ़नेसे जितनी विद्वत्ता तथा जानकारी होनी चाहिये उससे कई अंशमें अधिक यह ग्रंथ जानकारी तथा विद्वत्ताका विशेष साधन है। __ अन्यधर्म में कारिकावलीकी टीका एक मुक्तावली है और वह उस मतके विशेष शास्त्रोंमें प्रवेश करानेके लिये मुखद्वार माना जाता है । परंतु प्रमेय रत्नमालामें इससे भी अधिक यह विलक्षणता है कि यह स्वमत परमतसंबंधी समस्त विशेष शास्त्रोंमें प्रवेशमार्ग प्राप्त कराने के अलावा कुछ विशेष विद्वत्ता व दक्षताको भी हासिल करा सकती है। क्योंकि इसका मूल पाया जो परीक्षामुख है वह उस शैलीसे सूत्रित किया गया है कि जिसमें प्रायः सर्वही विषय परमत निराकरणके साथ स्वमतकी स्थापनास्वरूप हैं जैसे दृष्टान्त में 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् , इस सूत्रमें प्रमाणका लक्षण जो ज्ञान कहा है वह साथहीमें ऐसे विशेषणसे विशिष्ट है कि जिस विशेषणमें अन्य मतावलंबियोंद्वारा माने गये प्रमाणके लक्षण हैं उन सबका उसमें खंडन विशेष है इसी शैली पर इस समस्त ग्रंथकी रचना है । और उसका विशेष खुलासा स्वरूप यह प्रमेयरत्नमाला टीका है वह योग्य दक्षतापूर्वक विद्वत्ता तथा समस्त दर्शन प्रवेशिताका मुख्य कारण है। क्योंकि इस ग्रंथके विना उच्च कोटिके प्रमेयकमल मार्तण्डादि ग्रंथोंमें प्रवेश होना अति दुःस्सह है इसी हेतुसे दयाशील श्रीमदनंत वीर्याचार्यजीने शांतिषेण नामके किसी शिष्यके लिये वैजेयके पुत्र हीरपके आप्रहसे इसका निर्माण किया-इस विषयको ग्रंथमें स्वतः आपनेही प्रदर्शित किया है।
वैजेयप्रियपुत्रस्य हीरपस्योपरोधतः।
शान्तिषणार्थमारब्धा परीक्षामुखपंचिका । १ ऐसीही प्रख्याति कारिकावली मुक्तावलीके विषयमें भी है।