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भूमिका।
ग्रंथपरिचय । श्रीमत्सकलतार्किकचक्रचूडामणिमाणिकनंदिजी आचार्यका परीक्षामुख ग्रंथ सूत्र रूपसे समुपलब्ध है। जो कि यह सूत्र ग्रंथ यथा नाम तथा गुणकी कहावतको चरि. तार्थ कर रहा है क्योंकि परीक्ष्य पदार्थों की परीक्षाका यह मुख्य कारण है । अथवा जिनके द्वारा हेयोपादेयारूप समस्त पदार्थोंकी परीक्षा होती है उन प्रमाण लक्षण फल वगैरःका स्वरूप दिखानेके लिये यह ग्रंथ दर्पणके समान है । इसी विषयको स्पष्ट करनेके लिये खुद ग्रंथकर्ता ही इस ग्रंथकी प्रशस्तिमें इस प्रकार लिखते हैं।
परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः
संविदे मादृशोबालः परीक्षादक्षवद्व्यधाम् ॥१॥ तथा यह ग्रंथ समस्त न्याय वचनका सारभुत अमृत हैं क्योंकि इसकी शानी ( मुकाविले) का सारभूत न्यायका सूत्र ग्रंथ ऐसा कोई भी अभी तक देखनेमें नहीं आया है । वास्तविक दृष्टिसे विचार किया जाय तो यह अन्य न्याय शास्त्रोंकी पूंजी है। क्योंकि इसकी उत्पत्ति श्री १००८ भगवान् जिनेन्द्रदेव तथा उनकी शिष्य परंपराके प्रशिष्य तार्किक सिद्धान्त प्रधान श्रीमत् अकलंकदेवजीके वचन रूप समद्रसे सुधा सदृश हुई है। इस विषयमें श्री अनंतवीर्यजी महाराज इस प्रकार लिखते हैं
अकलंकवचोम्भोधेरुदभ्रे येन धीमता ।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दने ॥२॥ इस ग्रंथके ऊपर श्रीप्रभाचंद्राचार्यजीकी बड़ी प्रमेय कमलमार्तड, और छोटी श्रीअनंतवीर्यजीकृत प्रमेयरत्नमाला टीका है । प्रभाचंद्राचार्यजी तथा उनके ग्रंथका अनंतवीर्यजीने बड़ेही महत्वसूचक शब्दोंसे स्तुतिरूप गान किया है और इस प्रमेय रत्नमालाकी रचना प्रमेय कमल मातडके आधारपर सारवचनों में हुई है इस विषयको दिखाते हुए ग्रंथकारने अपनेमें कृतज्ञता तथा लघुताके साथ अपने ग्रंथमें प्रमाणीकता सूचित की है जैसे कि