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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
आ फलाभासकूं प्रकाशता संता कहैं हैं; -
फलाभासः प्रमाणादभिन्नं भिन्नमेव वा ॥ ६६ ॥ याका अर्थ — प्रमाणतैं फल अभिन्न ही कहै अथवा भिन्न ही कहै सो फलाभास है || ६६ ॥
आगैं इनि दोऊ पक्ष मैं फलाभासता कैसैं ? ऐसी आशंका होतैं आद्य पक्ष जो प्रमाणतैं फल अभिन्न ही है ऐसी तार्के फलाभासताविषै हेतु कहैं हैं ;
अभेदे तद्व्यवहारानुपपत्तेः ॥ ६७ ॥
याका अर्थ — जो प्रमाणतैं फल अभेद ही कहिये तौ प्रमाण फलका व्यवहार वर्णै नांही, कै तौ प्रमाण ही ठहरै कै फल ही ठहरै जातैं दूसरा पदार्थ ही नांही ॥ ६७ ॥
आगैं कहै— संवृत्ति कहिये उपचार है नाम जाका ऐसी जो व्यावृत्ति कहिये जुदायगी अवस्तुरूपताकरि प्रमाणफलकी कल्पना होहु, ऐसें कहें उत्तर कहैं हैं;
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व्यावृत्त्याऽपि न तत्कल्पना फलान्तराद्वयावृत्याऽफलत्वप्रसंगात् ॥ ६८ ॥
याका अर्थ — जो व्यावृत्ति कहिये अवस्तुरूप जुदायगी ताकरि भी फलकी कल्पना नाही युक्त है जातैं अन्यफलतें व्यावृत्ति कहिये जुदायगी ताकरि अफलपणांका प्रसंग आवै है । इहां यह अर्थ है— जैसैं विजातीय फल जो अप्रमिति तिसत व्यावृत्ति कहिये जुदायगीकरि फलका व्यवहार है तैसैं अन्यप्रमितिरूप जो सजातीय फल तिसतें भी जुदायगी है, ऐसैं अफलपणां ही आया ॥ ६८ ॥
अब इहां ही अभेदपक्षविषै दृष्टान्त कहैं हैं;
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