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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
ऐसैं नय तदाभासका लक्षण संक्षेपकरि कह्या । विस्तारकरि नयचक्र ग्रंथतैं तथा तत्वार्थसूत्रकी टीका जाननां । अथवा ' संभवत् ' कहिये विद्यमान संभवता अन्य वादका लक्षण अर पत्रका लक्षण अन्य शास्त्रमैं कह्या है सो इहां जाननां, तैसैं कद्या है - -" समर्थवचनं वादः " याका अर्थ — जहां वादी प्रतिवादी अथवा आचार्य शिष्यकैं पक्ष प्रतिपक्षका ग्रहणतैं समर्थ वचनकी प्रवृत्ति होय सो वाद कहिये, जो हेतु दृष्टान्त आदि र निर्वाध वचन होय सो समर्थवचन कहिये । बहुरि पत्रका लक्षण कया है, ताका श्लोकका अर्थ — जो प्रसिद्ध जे पांच अनुमानके अवयव ते जामैं पाइये बहुरि अपना इष्ट अर्थका साधक होय बहुरि निर्दोष गूढ जे पद ते जामैं वाहुल्यपणें होय ऐसा वाक्य होय सो निर्दोष पत्र कहिये ॥ ७४ ॥
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आमैं अब आचार्य प्रारंभ किया ताका निर्वाह अर अपना उद्धतपणांका परिहार दिखावता संता कहैं हैं:श्लोक - परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः ।
संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवद्व्यधाम् ॥ याका अर्थ — मैं मंदबुद्धी परीक्षामुख नाम प्रकरण किया है, कैसा है यह — हेय उपादेय तत्वका दिखावनेकूं आरसा सारिखा है, कौनकी ज्यौं किया है— जैसे परीक्षाविषै चतुर होय करै तैसें किया है, बहुरि कौन आर्थे किया है— मो सारिखे मन्दबुद्धीनिकै ज्ञानकै आर्थ किया है । इहां वाल ऐसा पद कह्या तहां तौ उद्धतताका परिहारका वचन है। बहुरि शास्त्रका प्रारंभ करि निर्वाह करनेंतैं तत्वज्ञपणां निश्चय होय ही ( १ ) पत्रलक्षणम् -
प्रसिद्धावयवं वाक्यं स्वेष्टस्यार्थस्य साधकम् । साधुगूढपदप्रायं पत्रमाहुरनाकुलम् ॥ १ ॥