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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
२१७ संभवदन्यविचारणीयम् ॥७४॥ याका अर्थ-प्रमाणके स्वरूप” अन्यत् कहिये और संभवता होय सो विचारनां । संभवत् कहिये विद्यमान अन्यत् कहिये प्रमाणके रूप”
और जो नयका स्वरूप सो अन्य शास्त्रविर्षे प्रसिद्ध है सो विचारनां, इहां युक्तिकरि जाननां । तहां मूल नय तो दोय हैं; द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक भेदरौं । तहां द्रव्यार्थिक तीन प्रकार हैं; नैगम, संग्रह, व्यवहार भेदतें । बहुरि पर्यायार्थिक च्यार प्रकार है; ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत भेदतें । तहां परस्पर गौण प्रधानभूत जो भेदाभेद तिनिका है प्ररूपण जामैं सो तौ नैगम है “ नैकं गमो नैगमः" ऐसी निरुक्तितें, भावार्थ-यह नय एक ही धर्मविर्षे नाही वत्तॆ है, विधि निषेधरूप सर्वही धर्मनिमैं एककू मुख्यकरि अन्यकू गौणकरि संकल्पमैं ले वत्र्ते है । बहुरि सर्वथा भेदहीकू कहै सो नैगमाभास है । बहुरि प्रतिपक्षकी अपेक्षारहित सत्तामात्र सामान्यका ग्रहण करनहारा सो संग्रह है । सर्वथा सत्तामात्र कहै ऐसा ब्रह्मवाद सो संग्रहाभास है । बहुरि संग्रहकरि ग्रह्या ताका भेद करनहारा व्यवहार है । कल्पनामात्र कहै सो व्यवहाराभास है । शुद्धपर्यायग्राही प्रतिपक्षीकी अपेक्षा सहित होय सो ऋजुसूत्र है। क्षणिक एकान्त नय है सो ऋजुसूत्राभास है। बहुरि काल कारक लिंगनि आदिका भेदः शब्दकै कथंचित् अर्थभेद कहै सो शब्दनय है । अर्थभेद विना शब्दनिहीकै नानापणांका एकान्त कहै सो शब्दाभास है। बहुरि पर्यायके भेदतै अर्थकै नानापणां कहै सो समभिरूढ है । पर्यायका नानापणां विनाही इन्द्रादिक शब्दनिकै भेद कहै सो समभिरूढाभास है। बुहुरि क्रियाके आश्रयकरि भेदका प्ररूपण करै 'याही प्रकार है' ऐसा नियम कहै सो एवंभूत है। क्रियाकी अपेक्षारहित क्रियाके वाचक शब्दनिविर्षे कल्पनारूप व्यवहार कर सो एवंभूतनयाभास है।