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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
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आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ॥ ३२ ॥ याका अर्थ-अस्य कहिये या हेतुको नित्य आकाश जो है ताकै विर्षे निश्चय है यातॆ ॥ ३२॥
आरौं शंकितविपक्षवृत्तिकू उदाहरणरूप कहैं हैं;शंकितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् ॥ ३३ ॥ याका अर्थ-सर्वज्ञ नांही है जातें जाकै वक्तापणां है । इहां वक्तापणां हेतु शंकितविपक्षवृत्ति अनैकान्तिक है ॥ ३३ ॥ __ आण याकै भी विपक्षविर्षे शंकितविपक्षवृत्ति कैसैं है ? ऐसी आशंका करि कहैं हैं;
सर्वज्ञत्वेन वकृत्वाविरोधात् ।। ३४ ॥ याका अर्थ-जातै सर्वज्ञपणांकरि वक्तपणांक अविरोध है । इहां अविरोध यहु-जो ज्ञानका उत्कर्ष होते वचननिका अपकर्ष नाही देखिये है, बहुत ज्ञान होय तब वचन स्पष्ट नीसरै है यह निरूपण पहलैं किया है । तातें वक्तापणां हेतु है सो विपक्ष जो सर्वज्ञका सद्भाव है तहां शंकित है संदेहरूप है, वक्तापणां होतें सर्वज्ञपणां होय भी है नाही भी होय है । तातैं शंकितविपक्षवृत्ति अनैकान्तिक हेत्वाभास भया ३४.
आगें अकिंचित्कर हेत्वाभासका स्वरूप कहैं है;--- सिद्धे प्रत्यक्षादिवाधिते च साध्ये हेतुरकिंचित्करः ॥३५॥ ___याका अर्थ-जहां साध्य सिद्ध होय तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणकरि वाधित होय तहां हेतु अकिंचित्कर है ॥ ३५॥ आरौं इनिकू उदाहरणरूप कहैं हैं;सिद्धः श्रावणः शब्दः शब्दात्वत् ॥३६ ॥