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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
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समवायका अंगीकार नाही पांचही पदार्थक समवायीपणां है, ऐसा नैयायिकका वचन है। बहुरि अन्य वृत्तिकी कल्पना करें तो सो वृत्ति अपने संबंधीनिवि वर्ते है कि नाही ? ऐसैं कल्पना करेंतें अन्य वृत्तिकी परंपराकी प्राप्तितै अनवस्था आवै । इहां कहै अपनें संबंधीनिविर्षे अन्यवृत्तिकै अन्यवृत्तिका अंगीकार नाही तातें अनवस्था नाही आवै, तौ ताकू कहिये-समवायविर्षे भी अन्यवृत्ति मति होहु । अब फेरि नैयायिक कहै है जो समवाय है सो अपने आश्रयविर्षे वृत्तिरूप नाही मानिये है, तौ ताकू कहिये-छह पदार्थनिकै आश्रितपणां है ऐसा ग्रंथका विरोध आवैगा, नैयायिकका सूत्र है-जो नित्य द्रव्य विना छह पदार्थ अन्यके आश्रय हैं सो ऐसा सूत्र विरोध्या जाय । बहार नैयायिक कहै है-जो समवायि पदार्थनिके होते ही समवायकी प्रतीति है तातें समवायकै आश्रितपणां कल्पिये है, तौ ताकू कहिये--मूर्त्तद्रव्यनिकू होते ही दिशाद्रव्यका लिंग जो यहु यातें पूर्व दिशाकरि है इत्यादिक ज्ञान ताकै बहुरि कालका लिंग जो पर अपर आदि प्रतीति ताका सद्भावनै तिनि दोऊ द्रव्यानकै
भी तिनि मूर्त द्रव्यानका आश्रितपणां ठहरैगा। तातैं सूत्रमैं कह्या जो नित्य द्रव्य विना अन्यकै आश्रितपणां है, ऐसा कहनां अयुक्त भया । बहुरि विशेष कहै है-जो समवायकै अनाश्रितपणां होतें संबधरूपपणां ही न वर्षे है, तैसे ही प्रयोग है-समवाय है सो संबंध नाही है जाते याकै अनाश्रितपणां है जैसैं दिशा आद द्रव्य अनाश्रित है तैसैं । इस प्रयोगविर्षे समवाय जो धर्मी सो कथंचित् तादात्म्यरूप है अर अनेक है ताकू हम मान्या है तातें धर्मीका ग्राहक जो प्रमाण ताकरि वाधा नांही है। बहुरि आश्रयासिद्ध दूषण न कहनां । बहुरि तिस समवायकै आश्रितपणां होतें भी यहु दूषणा कहिये है, समवाय
हि. प्र. १२