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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
याका अर्थ-प्रमाण” प्रमाणका फल कथंचित् अभिन्न है कथंचित् भिन्न है ॥ २॥
आU कथंचित् अभेदके समर्थन अर्थि हेतु कहैं हैं;
यः प्रमिमति स एव निवत्ताज्ञानो जहात्यादत्ते उपेक्षते चेति प्रतीतेः ॥३॥ __याका अर्थ-जो आत्मा प्रमेयकू प्रमाणकरि यथार्थ जानैं है सो ही दूर भया है अज्ञान जाका ऐसा होय करि अनिष्टका त्याग करै है इष्टका ग्रहण करै है जो आपकै इष्ट अनिष्ट न जानैं तावि. मध्यस्थ होय है वीतराग होय है ऐसे प्रतीति है। इहां ऐसा अर्थ जाननांजिस ही आत्माकै प्रमाणकै आकार परिणाम होय है तिसहीकै फलरूपपणांकरि परिणाम होय है, ऐसैं एक प्रमाताकी अपेक्षाकरि प्रमाण फलकै अभेद है। बहुरि प्रमाण करणरूपपरिणाम है फल क्रियारूप है; ऐसैं करणक्रिया परिणामके भेदतें भेद है, ऐसे भेदकै सामर्थ्यसिद्धपणां है तातें भेदका समर्थन हेतु न्यारा न कह्या है ॥ ३ ॥ ऐसैं प्रमाणके फलका निरूपण किया । इहां श्लोक
पारम्पर्येण साक्षाच फलं द्वेधाऽभ्यधायि यत् ।
देवैर्भिन्नमभिन्नं च प्रमाणात्तदिहोदितम् ॥१॥ याका अर्थ-श्रीअकलंकदेव मुनिनैं प्रमाणका फल साक्षात् अर परंपराकरि दोय प्रकार कह्या सो प्रमाण” भिन्न अर अभिन्न कह्या है, सो ही या प्रकरणवि. माणिक्यनंदिआचार्यनैं कह्या है ॥ १॥