Book Title: Pramey Ratnamala Vachanika
Author(s): Jaychand Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 221
________________ १९४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित आगैं जो संनिकर्षकू प्रमाण कहै है तिस प्रति दृष्टान्त कहैं हैं__चक्षुरसयोद्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च ॥५॥ याका अर्थ-नेत्रकै अर रसकै द्रव्यवि. संयुक्त समवाय स्वरूप सन्निकर्ष है सो जैसैं प्रमाण नांही तैसैं और भी सनिकर्ष प्रमाण नाही । इहां यहु अर्थ है-जैसैं नेत्र अर रसकें द्रव्यविर्षे संयुक्त समवाय है तौऊ प्रमाण नाही तथा चक्षु रूपकैं संयुक्त समवाय है सो भी प्रमाण नाही है तातें यह भी प्रमाणाभासही है, यहु अतिव्याप्ति कही सो उपलक्षणरूप है, ऐसे ही अन्य इन्द्रियके सन्निकर्ष अप्रमाण जाननें । इहां नेत्रकरि रूपकैं संयोग भया अर रूपकैं अर रसकै एक द्रव्य विर्षे समवाय है सो रसकरि भी समवाय भया सो संयुक्त समवायनामा सनिकर्ष तौ भया अरु नेत्रकै रसका ज्ञान न भया तातै प्रमाण न भया तब अतिव्याप्ति दूषण भया । बहुरि अव्याप्ति दूषण है जारौं नेत्र इंद्रिय विना अन्य इन्द्रियनिकैं संनिकर्ष है अर नेत्र प्रमाण है तहां संनिकर्ष व्यापै नांही तातैं अव्याप्ति है । बहुरि संनिकर्षकू प्रत्यक्ष प्रमाण कहैं हैं तिनिकै नेत्रकै विर्षे संनिकर्षका अभाव है नेत्र पदार्थ भिडै नांही तातें नेत्रप्रत्यक्षमैं संनिकर्षलक्षण संभवै नांही तब असंभवी दूषण भी है। इहां नैयायिक कहै है-जो नेत्र प्राप्त अर्थका जाननेवाला है जाते वीचिमैं अन्य पदार्थ आडा आवै तब जाने नांही है जैसैं दीपककै भीति आदि आडी आय जाय तिस अर्थकू प्रकाशै नांही तैसैं, भावार्थ-नेत्र भी पदार्थतें जुडिकर ही जाणे है तातें संनिकर्षकी सिद्धि है । ताकू आचार्य कहै है:-यह भी साधनां समीचीन नांही जातें नेत्रकै काच भोडल आदि आडा आय जाय तोऊ नेत्र ताकरि व्यवहित पदार्थकू प्रकाशै है तातैं हेतु असिद्ध है । बहुरि वृक्षकी शाखा अर चन्द्रमाकू एक काल नेत्र देखै है सो नाही ठहरै यह प्रसंग आवै है । बहुरि

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