Book Title: Pramey Ratnamala Vachanika
Author(s): Jaychand Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 218
________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १९१ कहिये जाकू जानिये सो तौ ज्ञेय है, जैसैं घट है । तहां आचार्य कहैं हैं—यह कहनां मिले नाही, इहां धर्मी जो ज्ञान ताकै अन्य ज्ञानकरि वेद्यपणां होतें साध्यकै मध्य आय पडनेंतें धर्मीपणांका अयोग है जातें धर्मी तौ प्रसिद्ध ही होय है । बहुरि धर्मी ज्ञानकै स्वसंविदितपणां कहिये तो तिस ही करि हेतुकै अनेकान्तपणां है । बहुरि महेश्वरका ज्ञानकरि व्यभिचार आवै है जातें महेश्वरका ज्ञान अस्वसंविदित कहै तौ सर्वज्ञपणां न ठहरै, स्वसंविदित कहै तौ स्वमतकी हानि होय है । बहुरि व्याप्तिज्ञानकरि भी अनेकान्त कहिये व्यभिचार आवै है । बहुरि अस्वसंविदित ज्ञानतें अर्थकी प्रतिपत्तिका अयोग है जातें जो ज्ञापक कहिये जनावनेवाला अप्रत्यक्ष होय सो जनावनेयोग्यकू जनावै नांही । जो ऐसे होय ज्ञापक विना जाण्यां भी जणावै तौ शब्द कानतें सुण्यां विना अर्थकू जनावनेवाला ठहरै, लिंग धूमादिक नेत्रकरि देख्या विना अग्नि आदिकू जानवनेवाला ठहरै । इहां कहै—जो लगताही अन्य ज्ञान है ताकरि ग्रहण करिये है, तो ताकै भी विना ग्रह्याकै परका जनावनेवालापणां नांही तब ताके ग्रहणकू तिसतै अन्य ज्ञान कल्पने योग्य ठहरै तहां भी तिसतै अन्य कल्पना ऐसैं अनवस्था आवै । तातें अस्वसंविदित ज्ञान ऐसा नैयायिकका पक्ष श्रेष्ठ नाही । ___ इस ही कथनकरि मीमांसक कहै है-जो करण ज्ञानकै परोक्षपणांकरि स्वसंविदितपणां नांही है करणज्ञान परोक्ष ही है तारौं अस्वसंविदित ही है ताका भी निराकरण क्रिया जातैं ऐसे ज्ञानतें भी अर्थका प्रत्यक्षपणांका अयोग है। इहां मीमांसक कहै है-जो करण ज्ञान है सो कर्मपणांकरि प्रतीतिमैं न आवै है तातें याकै प्रत्यक्षपणां नांही है प्रत्यक्ष तौ कर्मज्ञान है, तौ ताकू कहिये-ऐसैं कहें फलज्ञानके भी प्रत्यक्षपणां न ठहरैगा । बहुरि कहै-फलपणांकरि प्रतिभास

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