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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितइहां श्लोकःस्यात्कारलांछितमबाध्यमनन्तधर्म
सन्दोहवर्मितमशेषमपि प्रमेयम् । देवैः प्रमाणवलतो निरचायि तच
संक्षिप्तमेव मुनिभिर्विवृतं मयैतत् ॥१॥ याका अर्थ-श्री अकलंकदेव आचार्य. समस्त ही प्रमाणका विषय जो प्रमेय ताका निरूपण किया, कैसा है प्रमेय-स्यात्कार कहिये कथंचित् प्रकार ताकरि चिह्नित है याहीतैं अवाध्य कहिये निर्वाध है, बहुरि कैसा है-अनंत धर्मका जो समूह ताकरि सहित है, सो काहेरौं कह्या है—प्रमाणके वल” कह्या है तातै प्रमाणभूत है; सो ही मुनि जे माणिक्यनंदि आचार्य तिनिनैं संक्षेपकरि कह्या है, सो ही में अनंतवीर्य आचार्य विवरणरूप किया है ॥ १ ॥
सवैया। अकलंक देव मुनि रची जो प्रमेयधुनि,
स्यादवाद चिह्नतें अशेष निरबाध हैं । मानको सहाय पाय लखे जे अनंत धर्म,
मंडित अखंड पंडितांकै हू अगाध है ॥ रत्ननंदि ताहि जानि संक्षेप किया वखान,
ताका विसतारगं अनंतवीर्य साध है । देशमयी कथा रूप किया बुद्धि सारू मैंभी । पढौं सुनौ भव्यजीव मिथ्यामत वाध हैं ॥१॥ ऐसें परीक्षामुख प्रमाणप्रकरणी लुघुवृत्तिकी वचनिका विर्षे विषयका समुद्देशनामा चौथा
अधिकार पूर्ण भया ॥४॥