Book Title: Pramey Ratnamala Vachanika
Author(s): Jaychand Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 211
________________ १८४ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितजाननां स्वभावकै अन्वय नाही दीखे है । बहुरि तुरतके भये बालककैं स्तन आदिवि अभिलाषका प्रसंग आवै है, अभिलाष तौ प्रत्यभिज्ञान होतें होय है, प्रत्यभिज्ञान स्मरण होते होय है स्मरण अनुभव होतें होय है, ऐसैं पूर्वै अनुभव होनां सिद्ध होय है जातै वीचिकी दशा विर्षे तैसैं ही व्याप्ति है । बहुरि मरण भये पीछे व्यन्तरकुलविर्षे आप उपजैं ते आय कहैं जो मैं फलाणां हूं सो व्यंतर भयाहूं ऐसैं कहते देखिये है । बहुरि केईकनिकै पूर्व भवका स्मरण होय है । ऐसें चेतनकै अनादिपणां सिद्ध होय है, सो ही कह्या है ताका श्लोक है ताका अर्थ-तिसही दिनका उपज्या वालककै तिसही दिन स्तनकै लागणेंकी इच्छा होय है, बहुरि व्यन्तरका देखना, भवस्मरणका होना, पृथ्वी आदि भूत अचेतन” अन्वय नाही; ऐसैं च्यार हेतुनितें स्वभावहीकरि ज्ञाता द्रव्यस्वरूप नित्य सिद्ध होय है। बहुरि ऐसैं न कहनां-जो अपनां देहप्रमाण आत्मा है, ऐसे कहनेमैं भी प्रमाणका अभाव है या” सर्वत्र संशय है जातें देह प्रमाण साधनेंविर्षे अनुमान प्रमाणका सद्भाव है । सो ही कहै है—देवदत्तनामा पुरुषका आत्मा तिसके देह विषै ही है, बहुरि तहां सर्वत्र ही विद्यमान है जाते तिस देह विष ही बहुरि तहां सर्वत्र ही अपनां असाधारण गुणका आधारपणांकरि ग्रहण होय है। जो जहां ही बहुरि जहां सर्वत्र ही अपनां असाधारण गुणका आधारपणांकरि पाइये सो तहां ही बहुरि तहां सर्वत्र ही विद्यमान होय, जैसैं देवदत्तके घर विषै ही बहुरि तहां सर्वत्र ही पाइये ऐसा अपनां असाधा (१) तथा चोक्तम् तदहजस्तनहातो रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः। भूतानन्वयनात्सिद्धः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥१॥

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