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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
कह्या । बहुरि द्रव्य ही कहते तो घट भी द्रव्य है ताकरि व्यभिचार आवै ताके परिहारकै आर्थि नित्य विशेषण किया । बहुरि नित्य द्रव्य ही कहतें मनकरि अनेकान्त होय ताके परिहारकै अर्थि अणुपरिमाणानधिकरण कह्या, इहां भी आकाशका दृष्टान्त है । सो यह अनुमान भी समीचीन नाही है । जाते अणुपरिमाणानधिकरणपणां हेतुका विशेषण है तहां निषेध पर्युदास है कि प्रसज्य है ? जो कहैगा-पर्युदासहै तौ अणुपरिमाणका प्रतिषेध करिकैसा परिमाण है ? महापरिमाण है कि अवान्तरपरिमाण है कि परिमाणमात्र है ? जो कहै—महापरिमाण है तौ हेतु साध्य समान ही है जातें व्यापकपणां साध्य है महापरिमाण हेतु कह्या सो समान भया । बहुरि कहै—अवान्तर परिमाण है तो हेतु विरुद्ध है, अवान्तरपरिमाणाधिकरणपणां है सो अव्यापकपणांहीकू साधै है । बहुरि कहै-परिमाणमात्र है तौ तिसकू परिमाणसामान्य अंगीकार करनां, ऐसे होते अणुपरिमाणका प्रतिषेधकरि परिमाणसामान्याधिकरणपणां आत्माकै है ऐसैं कह्या ठहरै सो बणे नाही, यामैं विशेष अधिकरणरहितकी सिद्धिका प्रसंग आवै है; जातें आत्माकै वि. परिमाणसामान्य व्यवस्थित नाही । तो कहां है ? परिमाणकी व्याक्तनिविर्षे ही व्यवस्थित है, सामान्य होय सो तो अपने विशेषनिमैं ही रहै । बहुरि अवान्तरपरिमाण अर महापरिमाण इनि दोऊनिका आधारपणां करि आत्मा न पावै तब परिमाणमात्र अधिकरणपणां आत्मा विषै निश्चय किया जाय नाही । बहुरि आकाशका दृष्टान्त कहै-सो साधनरहित होय, आकाशकै तौ महापरिमाणाधिकरणपणांकरि परिमाणमात्राधिकरणपणांका अयोग है । बहुरि नित्यद्रव्पणां है सो सर्वथा असिद्ध है, सर्वथा नित्यकै क्रम योगपद्यकरि अर्थक्रियाका विरोध है । बहुरि कहैगा–दूसरी पक्ष प्रसज्य प्रतिषेध है, तौ प्रसज्य प्रतिषेध तौ तुच्छा