Book Title: Pramey Ratnamala Vachanika
Author(s): Jaychand Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 210
________________ हिन्दी प्रमेयरत्नमाला । १८३ भाव कहिये सर्वथा अभाव रूप है, ताका ग्रहणका उपायका असंभव है, ता” ताकै हेतुका विशेषणपणां ही नाही । बहुरि अगृहीतविशेषण हेतु है, सो कछू है नांही जातें ऐसा वचन है जो विशेष्यविर्षे बुद्धि है सो अगृहीतविशेषणस्वरूप नाही है, विशेषणकू ग्रहण किये विशेष्यकी बुद्धि होय है । बहुरि तुच्छाभावका ग्रहणका उपाय प्रत्यक्ष प्रमाण नाही है जातै प्रत्यक्षकै तुच्छाभावके संबंधका अभाव है । प्रत्यक्ष तौ इन्द्रियकै अर पदार्थकै सन्निकर्षौं उपजै सो नैयायिकमतविर्षे प्रसिद्ध है । अर विशेषण विशेष्यभाव संबंधकी कल्पना करै तौ अगृहीतकै विशेषपणां नांही है, ऐसे तो पूर्वै कह्या, सो ही इहां दूषण है तातें आत्मद्रव्य व्यापक नाही है ॥ बहुरि बटकणिका मात्र भी नांही है, सुन्दर स्त्रीका कुच जघनस्पर्शनके कालविषै रोम रोममैं आल्हाद आकार सुखका अनुभव होय है जो ऐसैं न होय तौ सर्वांग वि रोमांच आदि कार्यका उपजनेंका अयोग होय । बहुरि इहां कहै-जो अणमात्र आत्माकै भी शीघ्र वृत्ति” आलात चक्रकी ज्यों युगपत्का प्रतिभास होय है तोहू क्रमकरि सर्वांग सुख होय है तौ इहां अयुक्त है जातें तिस सुखका कारण अन्तःकरणका अन्य अन्य संबंधकी कल्पना होते वीचिमैं व्यवधान कहिये अन्तरका प्रसंग आवै है, सुखमैं विच्छेद वीचि वीचिमैं हूवा चाहिये। अर मनका संबन्ध विना ही सुख मानिये तो सुखकै मानसप्रत्यक्षपणांका अयोग है । बहुरि पृथ्वी आदि भूतचतुष्टयस्वरूपपणां भी आत्माकै नांही है जातें पृथ्वी आदि तौ अचेतन है सो अचेतन” चैतन्यकी उत्पत्तिका अयोग है । बहुरि पृथ्वी आदिके धारण प्रेरण द्रव उष्ण स्वभावरूप” चैतन्यकै अन्वयका अभाव है जातै पृथिवीका धारण स्वभाव है पवनका प्रेरण स्वभाव है जलका द्रव स्वभाव है अग्निका उष्ण स्वभाव है, इनि स्वभावनित चैतन्यका देखनां

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