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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
१८१ wwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm पर्यायव्यतिरेकभेदात् ॥७॥ याका अर्थ—सो विशेष दोय प्रकार है, पर्याय अर व्यतिरेक ऐसैं भेदते ॥ ७॥
आगें पहला विशेषका भेदकू कहैं हैं;एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत् ॥८॥ ___ याका अर्थ-एक द्रव्यवि क्रमभावी परिणाम हैं ते पर्याय हैं जैसैं आत्मावि हर्ष अर विषाद अनुक्रम” होय हैं ते पर्याय हैं । इहां आत्मद्रव्य अपनी देह प्रमाण मात्र ही है व्यापक नाही है, बहुरि बटकणिका मात्र छोटासा नाही है, बहुरि कायकै आकार परिणये जे पृथ्वी अप तेज वायु आकाश तावन्मात्र चार्वाकमती कहै है सो नाही है । तहां आत्माकू यौगमती व्यापक कहैं हैं, तिनिका तौ अनुमानका प्रयोग ऐसा है-आत्मा व्यापक है जाते द्रव्यपणांकू होते अमूर्तिकपणां है जैसैं आकाश व्यापक है। ताकू पूछिये—जो अमूर्तपणां है सो जो रूपादिक स्वरूप मूर्तीकपणां है ताका प्रतिषेधरूप अमूर्तपणां है तो मनकरि अनेकान्त है । यौगमती मनकू द्रव्य मानें हैं अर अमूर्तपणां ठहराया है तौहू व्यापक नाही, यह व्यभिचार आया । बहुरि कहै-असर्वगत द्रव्यका परिमाण मूर्तपणां है ताका निषेध अमूर्तपणां है तो पर जे हम तिनि प्रति साध्य समान हेतु है, आत्माकै व्यापकपणां साध्य है तैसा ही व्यापकपणां हेतु भया । बहुरि अन्य अनुमान कहैजो आत्मा व्यापक है जाते अणुपरिमाण अधिकरणकका अभाव होते नित्य द्रव्य है, इहां नित्य है ऐसा ही हेतु कहै तौ परमाणुविर्षे गुण भी नित्य है ताकरि व्यभिचार आवै ताके परिहारकै आर्थि नित्य द्रव्य