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१७८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितहै सो एक नाही है जाते संबंधस्वरूपपणां होते याकै आश्रितपणां है जैसैं संयोग सबंध है । इहां सत्ताकरि हेतुकै अनेकान्त होय है तातें हेतुका संबंधस्वरूपपणां होतें ऐसा विशेषण किया है। अब नैयायिक फेरि कहै है-जो संयोग वि तौ दृढ संयोग शिथिल संयोग इत्यादि नानापणांकी प्रतीति है तातैं नानापणां है अर ऐसैं समवायविर्षे तौ नांही जातें समवाय तौ तिसतै विपरीत है, ताकू आचार्य कहैं हैं जो ऐसैं नाही जातें समवायविौं भी उत्पत्तिमानपणां विनश्वरपणांकी प्रतीतिरूप नानापणां सुलभ है। बहुरि कहै-संबंधी पदार्थके भेदतै समवायविर्षे नानापणां है तौ सयोगविौं भी तैसैं ही नानापणां समान है, एक ही विषै तौ प्रश्न युक्त नाही । तातैं नैयायिककरि कल्पित समवायकैं विचार कर अयोग्यपणां है, ताक् तिस समवायके वश” गुण गुणी आदि वि अभेदकी प्रतीति नांही वणै है । बहुरि नैयायिक कहै हैजो अवयव अवयवी आदिका भिन्न प्रतिभास है तातै तिनिकै भेदही है। ताकू आचार्य कहैं हैं--जो यहु नाही जातें भेदप्रतिभासकै अभेदतै विरोध नाही है, घटपट आदिकै भेद है तौऊ कथंचित् अभेद वगैं है । सर्वथा प्रतिभासकै भेदकी असिद्धि है जातें यहु सत् है इत्यादि अभेद प्रतिभासका भी सद्भाव है । तातें कथंचित् भेदाभेदात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक, बहुरि सामान्यविशेषात्मक तत्व है, सो जलकी तीर देखनेंवालेकै पक्षी देखनेमें आया तिस न्यायकरि नैयायिक अपना मत साधै था ताकै स्याद्वादमतमैं कह्या तत्त्व भी देखनेमैं आया, या बहुत कहनेकरि पूर्णता होहु ॥१॥ ___ आगै अब अनेकान्तात्मक वस्तुके समर्थनकै अर्थिही दोय हेतु कहैं
अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात् पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च ॥२॥