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७२ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितनांही अभिव्यक्तिकै आर्थ है, सो यह भी कहनां वार्तामात्र ही हैवस्तुके उत्पादकी अपेक्षाकरि अभिव्यक्ति कहनां बणे नाही, वस्तुकी अपेक्षा अभिव्यक्ति कहिये तो ताविर्षे कारणके आवनें पहले भी कार्यवस्तुका सद्भावका प्रसंग आवै है । बहुरि उत्पादकै अभिव्यक्ति भी असंभवरूप है जातें स्वकारणसत्तासंबंध है लक्षण जाका ऐसा जो उत्पाद ताकै वस्तुके कारणके व्यापार पहले सद्भाव होते वस्तुका सद्भावका प्रसंग आवै है जातै वस्तुके सत्त्वका सो ही लक्षण इहां है । सो पहले सत्-रूप होय ताकै ही कोई कारणकरि आच्छादित होय ताकी अभिव्यंजककरि अभिव्यक्ति होय, जैसैं घट आदि वस्तु अंधकारकरि आच्छादित होय तब दीपक आदि अभिव्यंजककरि ताकी व्यक्ति होय तैसैं इहां भी जाननां । तातें अभिव्यक्ति आर्थ कारणका ग्रहण करनां युक्त नाही । तातै स्वकारणसत्तासंबंध तौ कार्यत्व नाही है । __बहुरि अभूत्वा भावित्वनामा दूसरा पक्ष है सो भी कार्यत्व नाही है ताकै भी विचारका सहबापणां नांही है, परीक्षा किये अयुक्त ही है जाते अभूत्वा भावित्वपणां है सो पहले न होय करि आगामी होय ताकू कहिये है। सो भिन्नकालविर्षे जो दोय क्रिया ताका आधारभूत जो कर्ता ताकै सिद्धि होतें सिद्धि होय है जातें अतीतकालवाची जो ‘क्त्वा' प्रत्यय तदन्तपदकरि विशेषित जो वाक्यका अर्थपणां तिसरूप है, जैसैं 'भुक्त्वा व्रजति' इत्यादि वाक्यार्थ है । कोई पुरुष भोजन करि चलै है, तहां 'भुक्त्वा' ऐसा तो अंतीतकाल भया 'पीछे चलै है ' सो यह भावीकाल है सौ इहां दोऊ कालविर्षे क्रिया दोयका आधार पुरुष है सो इहां कार्यत्वविर्षे ‘भवन अभवन' कहिये होनां न होनां रूप जो दोय क्रिया ताका आधारभूत एक कर्तीका अनुभव नाही है जाते अभवनका आधारकै अविद्यमानपणांकरि अर भवनका आधारकै विद्यमानमणांकरि भाव