________________
स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचितसामर्थ्यकै संबंध है तातै नित्यमैं भी कार्यकारीपणां कहिये तौ तहां दोय पक्ष पूठ्ठ हैं—संबंध एक स्वभाव है कि अनेक स्वभाव है ? जो कहैगा तिस सामर्थ्यकै संबंध है सो एक स्वभाव है तो एक स्वभाव संबंध होतें सामर्थ्यकै नानापणांका अभावतें कार्य विर्षे भेद न ठहरैगा। बहुरि कहैगा संबंधकै अनेक स्वभावपणां है तथा अक्रमवानपणां है तो ऐसे होते कार्यकी ज्यों तिस सामर्थ्यकै भी संकरपणां आवैगा, जड करनेकी अर चेतनकरनेकी सामर्थ्यकै संकरपणां आवैगा । ऐसें सर्व आवर्तन होयगा तब चक्रक दोषका प्रसंग आवैगा, तारौं नित्यकै अनुक्रमकरि कार्यका करणां नाही वर्षे है । बहुरि युगपत् एक काल भी नांही वणै है:-समस्त कार्यनिकी एककाल उत्पत्ति होतें दूसरे क्षण कार्यका न करनां आया तब अर्थक्रियाकारीपणां न रह्या तब अवस्तुपणांका प्रसंग आवै है । ऐसें नित्यकै क्रमयोगपद्यका अभाव सिद्ध ही है । ऐसें बौद्धमती अपनां मत दृढ किया, जो विशेष ही वस्तुस्वरूप हैं सामान्य वस्तु स्वरूप नाही, बहुरि ते विशेष परस्पर असंबद्ध ही हैं संबद्ध नाही, अवयवी नाही, बहुरि ते एक क्षणस्थायी ही हैं नित्य नाही।
ऐसें तीन पक्ष कही तिनि तीनोंहीका निराकरणकै अर्थि अब आचार्य कहै है;-ऐसी कहनेवाला बौद्ध भी युक्तवादी नाही जाते सजतीय विजातीय न्यारे न्यारे अंशरहित जे विशेष तिनिका ग्राहक प्रमाणका अभाव है । प्रत्यक्ष प्रमाणकै तौ स्थूल स्थिर साधारण आकाररूप वस्तुका ग्राहकपणां है तातें अंशरहित वस्तुका ग्रहणका अयोग है, परस्पर संबंधरूप नाही ऐसे परमाणु नेत्र आदिकरि नाही प्रतिभासे हैं जो प्रत्यक्ष नेत्र आदिकरि दीखें तौ विवाद कैसैं रहै । इहां बौद्ध कहै है-जो पहले तो निरंश क्षणरूप परमाणु ही दीखें हैं पीछे विकल्पकी वासना तौ अन्तरङ्ग रूप ताके वलौं अर वाह्य अन्तराल न दीखै तातें