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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
ध घटकूं भी नष्ट भया ऐसैं कहिये तौ सद्भावकै अर अभावकै संबंध कहा है ? जो कहै — तादात्म्य है सो तौ नांही वर्णै जातैं भाव अभावर्कै तौ भेद है । बहुरि कहै— जो तदुत्पत्ति कहिये कार्यकारणसंबंध है तौ सो भी नांही है जातैं अभावकै कार्यका आधारपणां वर्णै नांही ॥ बहुरि क - - मुद्गर घटका नाश घटतैं अभिन्न करे है तौ घट आदिही किया ठहरै' नाश अर घटमैं भेद नांही; ऐसें होतें घटतौ पहले है ही, तिस किया कहा ? ऐसैं घटतैं अभिन्न नाश कहने मैं करणां वृथा होय है । ऐसें नाशकै अन्यकी अपेक्षारहितपणां सिद्ध भया । सो परमाणुनिकै विनाशरूप स्वभावका नियमपणां साधै ही है । बहुरि अनित्य विशेषरूप परमाणु तिनिकैं तिस स्वभावका नियमपणां सिद्ध होतैं तिनितैं अन्य जे आत्मा आदिक विवादगोचर भये वस्तु तिनिकैं सत्त्व नामा आदि हेतुकरि साधतैं इस दृष्टांतकरि क्षणस्थितिस्वभावपणांकी सिद्धि होय ही है । सो ही कहिये है:1 - जो सत् है सो सर्व एकक्षणस्थितिस्वभावरूप हैं जैसैं घट है तैंसैं ही सत् रूप भये भाव हैं, ऐसैं तौ वहिर्व्याप्ति मुख कर अनुमान किया । अब अन्तर्व्याप्ति मुख कर अनुमान करे है -- अथवा सत्व है सो ही विपक्ष जो नित्य ता विषै वाधक प्रमाणका वलकरि दृष्टान्त विना ही समस्त वस्तुकै क्षणिकपणांका अनुमान करावै है । सो ही कहिये है; - सत्त्व है सो अर्थक्रिया करि 1 । व्याप्त है, बहुरि अर्थक्रिया है सो क्रमयौगपद्यकरि व्याप्त है, बहुरि क्रम अर यौगपद्य ये दोऊ हैं ते नित्य निवृत्तिरूप होते अपनीं व्याप्य अर्थक्रिया लार ले निवृत्तिरूप होय हैं, भावार्थ - नित्यमैं अर्थक्रिया न ब है, बहुरि सो अर्थक्रया है सो अपनां व्याप्य सत्त्वकूं लार ले है नित्यमैं सत्त्व नांही रहै है, ऐसें नित्यकै क्रमं यौगपद्य करि अर्थक्रियाका विरोध है, तातैं अर्थक्रिया विना सत्त्वका असंभव नांही, सो हीं