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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
१६३ स्वभावभेदकरि वर्ते है तौ अवयवी बहुत ठहरैं है । बहुरि कहै-एकरूप करि व” है, तौ अवयनिकै एकरूपपणां ठहरै है । अथवा स्वभावभेदकरि तथा एकरूपकरि ऐसैं पूछनां मति होहु, ऐसैं ही कहनान्यारे न्यारे एक एक अवयवनि करि एक एक अवयवी समस्तपणांकरि वत्” तौ अवयवी बहुत ठहरें हैं । ऐसें होतें वृत्तिविकल्पतें बाधा आवै है ॥ अब अनुमानतें बाधा दिखावै है---जो देखने योग्य होता संता भी ग्रहणमैं न आवै सो नाही ही है, जैसैं आकाशका कमल; तैसैं अवयवनिविर्षे अवयवी ग्रहणमैं नाही आवै हैं । बहुरि जाका ग्रहण न होते जाकी बुद्धि का अभाव, सो तिसतै अन्य अर्थ नाही जैसे वृक्षका ग्रहण नाही तहां वन नाही ॥ पहले अनुमानतें तौ अवयवनिविर्षे अवयवी नांही ऐसा सिद्ध किया, इस अनुमानतें भिन्न अर्थ नाही ऐसा कह्या ॥ ऐसैं अवयवीका निषेध किया, संबंधका पूर्व निषेध किया ही था ॥ इनि दोऊ हेतुनितें रूप आदिके परमाणु हैं ते निरंश हैं परस्पर स्पर्शनेवाले नाही सर्वथा भिन्न भिन्न ही हैं; बहुरि ते एक क्षणमात्र स्थायी हैं नित्य नांही हैं जिनका क्षण क्षणमैं विनाश होय अन्य उपजें हैं जाते विनाश प्रति अन्यकी अपेक्षा नांही है ॥ याका प्रयोग ऐसा--जो जिस भाव प्रति अन्यकी अपेक्षा नाही करै है सो तिस स्वभाव वि. नियमरूप है जैसैं स्वकार्य पट आदिकी उत्पत्तिविर्षे अन्तमैं जो तंतु आदि सामग्री है सो अन्य कारण नाही चाहै है सो तिस स्वभावविर्षे नियत है ॥ बहुरि इहां कोई आशंका करै-जो घट आदिका नाश मुद्गरादिककार होय है यह अन्यकी अपेक्षा है ॥ तहां बौद्ध दोय पक्ष पूछे है जो घट आदिका नाश मुद्गरादिक करै है सो नाश घटते भिन्न करै है कि अभिन्न करै है ? जो भिन्न करै है तौ नाश घटते भिन्न रह्या तब घटकै स्थिति ही भई ॥ इहां कहै-जो विनाशके संबं