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स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
छोड्या ऐसा भी वस्तुस्वरूपका संभव है । बहुरि द्रव्यके रूपका ग्रहण होनेंका असमर्थपणांतें द्रव्यका अभाव नाही है । तिस द्रव्यके ग्रहणका उपाय जो प्रत्यभिज्ञानप्रमाण ताका बहुलपणे पावनां है, तिस प्रमाणकै पहले प्रमाणपणां कह्याही है । बहुरि उत्तरकार्यकी उत्पत्तिकी अन्यथानुपपत्तितें भी द्रव्यकी सिद्धि होय है, द्रव्य न होय तो उत्तरकार्यकी उत्पत्ति न होय। बहुरि जो क्षणिक साधनेंविर्षे सत्त्वनाम अन्य हेतु कह्या सो भी विपक्ष जो नित्य ताविर्षे सत्त्व नाही तैसैं क्षणिकमैं भी नही है, तातें सत्व हेतु” भी क्षणिक साध्यकी सिद्धि नांही होय है । सो ही कहिये है—सत्त्व है सो अर्थक्रियातें व्याप्त है, बहुरि अर्थक्रिया है सो क्रमयोगपद्यकरि व्याप्त है, ते क्रम यौगपद्य दोऊ क्षणिकर्ते निवृत्तिरूप हुये संते अपनैं व्याप्य जो अर्थक्रिया निवृत्तिरूप होती अपने व्यापलें योग्य जो सत्त्व ताहि लेकरि निवृत्तिरूप होय है; ऐसैं नित्यकी ज्यों क्षणिककैं भी गधाके सींगवत् सत्त्व नांही है । ऐसैं क्षणिकविर्षे सत्त्वकी व्यवस्था नांही है । बहुरि क्षणिक वस्तुकै क्रम यौगपद्यकरि अर्थक्रियाका विरोध है सो असिद्ध नांही है जाते ताकै देशकरि किया अर कालकरि किया जो क्रम ताका असंभव है। जो अवस्थित एक होय ताहीकै अनेक देश अर कालकी कला तिनिविर्षे व्यापीपणां होय सो देशक्रम अर कालक्रम कहिये है। सो क्षणिकवि ऐसा देशक्रम अर कालक्रम नाही है जातें बौद्धमतमैं ऐसें कह्या भी है, ताका श्लोकका अर्थ-जो वस्तु जिस क्षेत्रमैं है सो तहां ही है बहुरि जिस कालमैं है सो जहां ही है या” पदार्थनिकै देशकाल विर्षे व्याप्ति नांही है; ऐसैं आप कह्या है ।
(१) यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैव सः।
न देशकालयोर्व्याप्तिर्भावानामिह विद्यते ॥