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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला।
१६७ अविद्यमान भी स्थूल आदि आकार विकल्पबुद्धि विर्षे प्रतिभासै है, सो ऐसा विकल्प तिस निर्विकल्प प्रत्यक्षके आकार करि मिल्या हूवा अपनां विकल्पव्यापारकू गौणकरि प्रत्यक्ष व्यापारकू मुख्यकरि प्रवत्र्त है तातें प्रत्यक्ष सारिखा दीखै है तहां आचार्य समाधान करें हैं--जो यह कहनां तौ बालक अज्ञानीका विलास है, जातै निर्विकल्पज्ञानका ही अनुभवन नांही है, निविकल्प सविकल्पका भेद पहले ग्रहण होय तब अन्य आकारके मिलनेकी अन्य आकारवि. कल्पना युक्त होय है, जैसैं पहले स्फटिकमणि अर जपाकुसुम न्यारे न्यारे देखे होंय पीछे स्फटिककै डंक लाग्या दीखै तब ऐसी कल्पना संभवै जो यह स्फटिक जपाकुसुमतें रंगित दीखै है, जो न देखे होय तो ऐसी कल्पना न होय । या ही कथनकरि निर्विकल्प सविकल्पकै युगपत् वृत्ति तथा क्रमवृत्तिमैं भी शीघ्र वृत्तितें एकपणांका निश्चय होय है ऐसा कहना भी निराकरण किया। ताकै भी घीज लेणेंतें प्रतीति आवै तिस समानपणां है। अथवा तिनि निर्विकल्प सविकल्पका एकपणांका निश्चय कौनसे ज्ञान करि करिये ? प्रथम तौ विकल्प ज्ञानकरि तौ निश्चय नाही होय जातें विकल्पज्ञान निर्विकल्पकी बातका जाननेवाला नाही । बहुरि अनुभव ज्ञानकरि निश्चय नाही होय जातें अनुभव विकल्पकै अगोचर है । बहुरि निर्विकल्प सविकल्प जाका विषय नाही ऐसा ज्ञान भी तिनिका एकत्वका निश्चय वि. समर्थ नाही, यामैं अतिप्रसंग दूषण है अन्यका विषय अन्यकरि ग्रहण होते अतिप्रसंग है। तातै प्रत्यक्षबुद्धिविर्षे तौ भिन्न असंबंधरूप परमाणु प्रतिभासै नांही । बहुरि अनुमानबुद्धिवि. भी नांही प्रतिभासे हैं जाते तिसौं अविनाभूत जो स्वभावलिंग अरु कार्यलिंग ताका अभाव है । अर स्थूल स्थिर साधारणका अनुपलंभतें विशेष ही तत्व हैं ऐसें कहै तौ अनुपलंभ लिंग है सो असिद्ध ही है