________________
स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित
मात्र ज्ञान है सो निर्विकल्पक है-भेदरहित है जैसा बालक तथा मूक कहिये गूंगा बहरा आदिकै ज्ञान होय है तैसा होय है सो यह ही शुद्ध वस्तु” उपज्या है । भावार्थ-शुद्धसत्तामात्र अभेद ब्रह्मका स्वरूप है। बहुरि कोई कहै-विधिकी ज्यों परस्पर जुदायगीरूप निषेध भी प्रत्यक्षकरि प्रतीतिमैं आवै है तातें विधिनिषेधरूप द्वैतकी सिद्धि होय है सो ऐसैं नांही है जातै प्रत्यक्षका विषय निषेध नांही है, सो ही हमारै कही है; ताका श्लोकका अर्थ-पंडित पुरुष हैं ते प्रत्यक्षप्रमाणकू विधान करनेवाला कहैं है निषेध करनेवाला न कहै हैं तातै एकत्व जो अद्वैत ताके कहनेवाला आगम है सो तिस प्रत्यक्षकरि न बाधिये है । बहुरि अनुमानौं भी ब्रह्मका सद्भाव पाइये है, ताका प्रयोग;-ग्राम बाग आदि पदार्थ हैं ते प्रतिभासमात्रमैं सर्व प्रवेशकरि रहे हैं जातें प्रतिभासमानपणां सबकै पाइये है जो प्रतिभासै है सो सर्व प्रतिभासकै मध्य आय गया जैसैं प्रतिभासका स्वरूप, ऐसे ही सर्व विवादमैं आये पदार्थ प्रतिभासै हैं, ऐसें च्यार प्रयोगरूप अनुमानौं ब्रह्म सिद्ध होय है । बहुरि तिसके आगममैं भी वचन बहुत पाइये हैं 'जो हूवा अर जो होयगा बहुरि यह वर्तमान है सो सर्व एक पुरुष है, ऐसा वचन है । बहुरि श्लोक है, ताका अर्थ;— 'इदं सर्वे' कहिये यह जो प्रत्यक्ष सर्व दीखै है सो निश्चयतें ब्रह्म है इस जगतमैं नानारूप किछू वस्तुं नाही है अर
१ तथा चोक्तम्
आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेधृ विपश्चितः।
नैकत्वे वागमस्तेन प्रत्यक्षण प्रबाध्यते ॥१॥ २-सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन। आरामं तस्य पश्यन्ति नतं(तत्) पश्यति कश्चन ॥१॥