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हिन्दी प्रमेयरत्नमाला ।
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रसहित कहकर अब साधन है सो लक्षण कह्या ताकी अपेक्षा एक तौऊ अतिसंक्षेपकरि भेदरूप किये दोय प्रकार हैं, ऐसें कहैं हैं;स हेतुर्द्वधोपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ॥ ५२ ॥
याका अर्थ — सो हेतु दोय प्रकार है; उपलब्धि अनुपलब्धि ऐसे दो भेद । याका अर्थ सुगम है । जो पदार्थ विद्यमान भावरूप ग्रहणमैं आवै सो उपलब्धि कहिये, बहुरि जो पदार्थ ग्रहण मैं नांही आवै अभावरूप सो अनुपलब्धि कहिये ॥ ५२ ॥
आर्गै अन्यवादी कहै है—जो उपलब्धि है सो विधिहीका साधक है बहुरि अनुपलब्धि है सो प्रतिषेधहीका साधक है ऐसा नियम है; तहां आचार्य तिसके नियमकूं निषेध करता संता उपलब्धिकै अर अनुपलब्धिकै अविशेषकर विधिप्रतिषेधका साधकपणां है, ऐसे कहें हैं; उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ॥ ५३ ॥
याका अर्थ —— उपलब्धि है सो विधि अर प्रतिषेध दोऊनिकी साधक है, बहुरि अनुपलब्धि भी तैसैं ही दोऊनिकी साधक है । याका अर्थ पहले कह्या सो ही है ॥ ५३ ॥
आमैं अब उपलब्धिका भी संक्षेपकरि विरुद्ध अविरुद्ध भेदतैं दोय प्रकारपणां दिखावते संते अविरुद्ध उपलब्धिकै विधिसाध्य होतैं विस्तारतैं भेद कहैं हैं;
अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा व्याप्यकार्यकारणपूर्वीत्तरसहचरभेदात् ॥ ५४ ॥
याका अर्थ — अविरुद्धोपलब्धि कहिये साध्य विरुद्ध नांही ऐसी जो प्राप्ति सो विधि कहिये वस्तुका सद्भाव ताकूं साधै ऐसी छह प्रकार है । साध्यतैं व्याप्यस्वरूप, साध्यका कार्य, साध्यका कारण, साध्यत